Saturday, 11 October 2014

SOCIALIST PARTY’S NATIONWIDE FAST IN SUPPORT OF IROM SHARMILA ON 12 OCT. (Dr. LOHIA’S DEATH ANNIVERSARY)



Delhi Program  
Venue : Jantar Mantar
Date : 12 October 2014
Time : 9 am – 6pm

Demanding release of Irom Chanu Shrmila and repeal of AFSPA, the Socialist Party has decided to observe fast in all states on 12 October 2014. A memorandum will be given to the President seeking his intervention in this long-pending contentious issue. 
                                   Irom Sharmila is fighting against Armed Forces Special Powers Act (Assam and Manipur) 1958 (AFSPA), amended in 1972, which provides the armed forces down to the rank of a non-commissioned officer, the power to shoot and kill, to enter and search and arrest without warrant, any person against reasonable suspicion that he/she has committed or is about to commit a cognizable offence.
14 years ago on 2nd November 2000, the security forces gunned down 10 innocent citizens at a bus stop in Imphal. The dead included an 80 year old woman and a bravery award winner child. Shaken by the incident Irom Sharmila, after 3 days, started her indefinite fast against the AFSPA that shields the security forces even after such indiscriminate firings on innocent people.
She was released by the court in August this year saying that there is no case for attempted suicide against her. After the release from prison, Irom Sharmila said, “we should all look for a solution to the issue so that we can all live together, eat, drink and sleep together. I am no martyr. I am a normal person. I also want to have a meal.” She has been following the non-violent path of Gandhi and keeps a statue of legendary Meerabai by the side of her bed in the hospital ward. Despite this, the police arrested her again after three days of her acquittal.
Driven by love and compassion, Irom Sharmila is not aligned with any organization or ideology. She is not using any violence. She is not even shouting any slogan nor is she holding up any banner. She has decided to subject herself to torture for the sake of others. She doesn’t want to hurt anybody, not even the state that she is fighting against. She only wants to help her fellow brothers and sisters of northeast so that they stop facing police and military excesses. The protest of Sharmila represents the most ideal form of peaceful struggle for a democratic demand. Her life is in danger considering her already fragile health due to the forced feeding for 14 years.
The AFSPA in northeast has been synonym for extra judicial killings, extra judicial deprivation of liberty to people by illegal imposition of curfew, long periods of detention at army posts and camps and use of churches and schools as detention or interrogation centers. Stories of rape and molestation of women are common. Who can forget the stunning sight of about three dozen naked women protesting on the street outside the then Assam Rifles headquarters at Kangla Fort in Imphal carrying placards saying ‘Indian Army rape us,’ outraged by the rape, torture and murder of 32 year old unmarried Thangjam Manorama?
There can be no denying that violence breeds more violence. Presence of armed forces in emergency or special situation is understandable, but its continuous presence has alienated people to significant extent. The number of insurgent groups has increased during the application of AFSPA in Manipur. Hence AFSPA must be repealed. The state, which complains about violent struggles, is not even comfortable with the most peaceful of all protests.
Sharmila’s sacrifice must not go waste. Her victory is essential for the strengthening of democracy in India and for the respect for human rights around the world. Her victory will determine whether the voice of common citizen will be heard or the state will trample over people’s rights with anti-people laws and policies.
The Socialist Party demands that the Government of India must not let down Sharmila’s confidence in democracy and immediately take positive steps towards resolving the imbroglio in Manipur and in other northeast states. All it requires is some political will to act.
Kindly send reporter/team of your newspaper/magazine/channel to cover the program.

Dr. Prem Singh
General Secretary/spokesperson
Mob. : 9873276726

सोशलिस्ट पार्टी का इरोम शर्मिला के समर्थन में 12 अक्तूबर (डॉ. लोहिया की पुण्यतिथि) को सभी राज्यों में अनशन



दिल्‍ली कार्यक्रम

तारीख: 12 अक्तूबर 2014
स्थान: जंतर मंतर
समय: सुबह 9 बजे से शाम 6 बजे तक


इरोम शार्मिला की रिहाई और अफ्सपा हटाने की मांग को लेकर सोशलिस्ट पार्टी ने 12 अक्तूबर 2014 को सभी राज्यों में अनषन करने का फैसला किया है। इस लंबे समय से लटके विवादास्पद मामले में हस्तक्षेप करने की प्रार्थना के साथ राष्ट्रपति को ज्ञापन दिया जाएगा।
इरोम चानु शर्मिला सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (असम और मणिपुर) 1958 (अफ्सपा) के खिलाफ लगातार संघर्ष कर रही हैं। यह कानून गैर कमीशंड रैंक के अधिकारियों तक को यह अधिकार देता है कि वह किसी भी व्यक्ति को संज्ञेय अपराध में शामिल होने या शामिल होने का इरादा रखने के शक में गोली मारने, घर में बिना वारंट घुसने, तलाशी लेने और गिरफ्तार करने का अधिकार देता है।
14 साल पहले 2 नवंबर 2000 में इंफाल के एक बस स्टैंड पर सुरक्षा बल के जवानों ने गोलियां चलाकर 10 निर्दोष नागरिकों को मौत के घाट उतार दिया था। मृतकों में एक 80 वर्षीय वृद्धा और  वीरता पुरस्कार जीतने वाला एक बच्चा भी शामिल था। इस घटना ने इरोम शर्मिला को झकझोर कर रख दिया। जिस अफ्सपा की आड़ में सुरक्षा बलों ने अंधाधुंध गोलियां चलाकर निर्दोषों को मार डाला था, उसके खिलाफ घटना के तीसरे दिन शर्मिला अनिश्चितकालीन उपवास पर बैठ गईं। तब से अब तक 14 साल बीत चुके हैं और सरकार उन्हें आत्महत्या का प्रयास करने के जुर्म में अस्पताल में कैद किया हुआ है।
इस साल अगस्त महीने में अदालत ने शर्मिला को यह कहते हुए बरी कर दिया कि उनके खिलाफ आत्महत्या के प्रयास जैसा कोई मामला नहीं बनता। कैद से रिहा होते ही इरोम शर्मिला ने कहा, मामले के हल के लिए हम सब प्रयास करें, ताकि हम सब साथ रह सकें, साथ खा-पी और सो सकें। मैं कोई शहीद नहीं हूं। मैं सामान्य जन हूं। मैं भी भोजन करना चाहती हूं।"  अस्पताल वार्ड में रहते हुए इरोम शर्मिला ने गांधी जी के अहिंसा सिद्धांत के पालन की मिसाल कायम की है। वे हमेशा अपने सिराहने महान भक्त कवयित्री मीरांबाई की मूर्ति रखती  हैं। लेकिन रिहाई के तीन दिन बाद पुलिस ने उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया।
प्रेम और करुणा भाव से संचालित इरोम शर्मिला का संबंध किसी भी संगठन अथवा विचारधारा विशेष से नहीं रहा है। न ही कभी, किसी रूप में, किसी भी तरह की हिंसा से उनका कोई नाता रहा है। न उन्होंने कभी किसी तरह की नारेबाजी की, न ही हाथ में कोई बैनर उठाया। उन्होंने दूसरों के हित के लिए आत्मपीड़ा का रास्ता अपनाया है। उनकी मंशा दूसरों को नुकसान पहुंचाने की कभी नहीं रही। यहां तक कि जिस राज्य के वे विरोध में उपवास पर हैं, उसका भी बुरा नहीं चाहतीं। उनकी मंशा पूर्वोत्तर राज्यों के अपने भाई-बहनों की सहायता भर करना है, ताकि उन पर पुलिस और सेना की ज्यादतियां बंद हों। शर्मिला का विरोध प्रदर्शन जनतांत्रिक मांग के दायरे में शांतिपूर्ण तरीके से किए गए संघर्ष का उत्कृष्ट नमूना है। 14 सालों तक नाक के रास्ते जबरन भोजन देने के कारण उनका स्वास्थ्य गिर कर चिंताजनक स्थिति में पहुंच गया है।
पूर्वोत्तर में अफ्सपा एक्सट्रा जुडिशियल किलिंग्सऔर नागरिक स्वतंत्रता के हनन का पर्याय बन चुका है।  अफ्सपा के चलते वहां अवैध कफ्र्यू लागू रहता है, सेना की पोस्टों और कैंपों पर नागरिकों को लंबे समय कैद करके रखा जाता है और गिरिजाघरों व स्कूलों को पुलिस हिरासत व पूछताछ के केंद्र के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। बलात्कार और महिलाओं से बदसलूकी की घटनाएं वहां आम हैं। 32 वर्षीय अविवाहित थांगजम मनोरमा की बलात्कार के बाद की गई नृशंस हत्या के विरोध की घटना को भला कोई कैसे भुला सकता है! इंफाल के कांगला फोर्ट स्थित असम राइफल्स मुख्यालय के सामने करीब तीन दर्जन मणिपुरी औरतें निर्वस्त्र होकर हाथों में इंडियन आर्मी हमारा बलात्कार करोका प्ले कार्ड लेकर सड़कों पर उतर आई थीं।
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि हिंसा से और अधिक हिंसा उपजती है। आपातकाल या किसी विशेष परिस्थिति में सशस्त्र बल की तैनाती समझ में आती है, किंतु लंबे समय तक संगीनों के साये में रहने से लोगों में पराएपन और अलगाव का भाव गहराता जाता है। मणिपुर में अलगावादी संगठनों की संख्या में दिनोंदिन हो रही बढ़ोत्तरी अफ्सपा के दमन का ही नतीजा है। इसलिए वहां से अफ्सपा का हटाया जाना निहायत जरूरी है। राज्य सत्ता हिंसक संघर्ष की आलोचना करती है। लेकिन वह अभी तक के सर्वाधिक शांतिपूर्ण प्रतिरोध को भी बरदाश्‍त करने को तैयार नहीं है।
शर्मिला की कुर्बानी किसी भी कीमत में बेकार नहीं जानी चाहिए। उसकी जीत भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था की मजबूती के लिए तो अनिवार्य है ही, समूचे विश्व में मानव अधिकारों की रक्षा के लिए भी यह जरूरी है। उसकी जीत से यह तय होगा कि आम नागरिकों की आवाज बुलंद होगी या फिर राज्य जनविरोधी कानूनों और राजनीति से नागरिक अधिकारों को कुचलता रहेगा।
सोशलिस्ट पार्टी (इंडिया) की यह मांग है कि भारत सरकार लोकतंत्र के प्रति शर्मिला के विश्वास को टूटने न दे और मणिपुर तथा उत्तर पूर्वी राज्यों में हालात सुधारने की दिशा में तत्काल कारगर कदम उठाए। इसके लिए बस राजनीतिक इच्छा शक्ति की जरूरत है।
कार्यक्रम कवर करने के लिए अपने अखबार/पत्रिका/चैनल का रिपोर्टर/टीम भेजने का कष्‍ट करेंा
डॉ प्रेम सिंह
महासिचव/प्रवक्‍ता
मोबाबाइल : 9873276726

Socialist Party's Nationwide Fast in Support of IROM SHARMILA




Saturday, 4 October 2014

SOCIALIST PARTY (INDIA)’S NATIONWIDE FAST IN SUPPORT OF IROM SHARMILA






12 OCTOBER, 2014

APPEAL  
                                            Irom Chanu Sharmila is fighting against Armed Forces Special Powers Act (Assam and Manipur) 1958 (AFSPA), amended in 1972, which provides the armed forces down to the rank of a non-commissioned officer, the power to shoot and kill, to enter and search and arrest without warrant, any person against reasonable suspicion that he/she has committed or is about to commit a cognizable offence.
14 years ago on 2nd November 2000, the security forces gunned down 10 innocent citizens at a bus stop in Imphal. The dead included an 80 year old woman and a bravery award winner child. Shaken by the incident Irom Sharmila, after 3 days, started her indefinite fast against the AFSPA that shields the security forces even after such indiscriminate firings on innocent people.
She was released by the court in August this year saying that there is no case for attempted suicide against her. After the release from prison, Irom Sharmila said, “we should all look for a solution to the issue so that we can all live together, eat, drink and sleep together. I am no martyr. I am a normal person. I also want to have a meal.” She has been following the non-violent path of Gandhi and keeps a statue of legendary Meerabai by the side of her bed in the hospital ward. Despite this, the police arrested her again after three days of her acquittal.
Driven by love and compassion, Irom Sharmila is not aligned with any organization or ideology. She is not using any violence. She is not even shouting any slogan nor is she holding up any banner. She has decided to subject herself to torture for the sake of others. She doesn’t want to hurt anybody, not even the state that she is fighting against. She only wants to help her fellow brothers and sisters of northeast so that they stop facing police and military excesses. The protest of Sharmila represents the most ideal form of peaceful struggle for a democratic demand. Her life is in danger considering her already fragile health due to the forced feeding for 14 years.
The AFSPA in northeast has been synonym for extra judicial killings, extra judicial deprivation of liberty to people by illegal imposition of curfew, long periods of detention at army posts and camps and use of churches and schools as detention or interrogation centers. Stories of rape and molestation of women are common. Who can forget the stunning sight of about three dozen naked women protesting on the street outside the then Assam Rifles headquarters at Kangla Fort in Imphal carrying placards saying ‘Indian Army rape us,’ outraged by the rape, torture and murder of 32 year old unmarried Thangjam Manorama?
There can be no denying that violence breeds more violence. Presence of armed forces in emergency or special situation is understandable, but its continuous presence has alienated people to significant extent. The number of insurgent groups has increased during the application of AFSPA in Manipur. Hence AFSPA must be repealed. The state, which complains about violent struggles, is not even comfortable with the most peaceful of all protests.
Sharmila’s sacrifice must not go waste. Her victory is essential for the strengthening of democracy in India and for the respect for human rights around the world. Her victory will determine whether the voice of common citizen will be heard or the state will trample over people’s rights with anti-people laws and policies. The Socialist Party demands that the Government of India must not let down Sharmila’s confidence in democracy and immediately take positive steps towards resolving the imbroglio in Manipur and in other northeast states. All it requires is some political will to act.
  


Thursday, 2 October 2014

1857 की क्रांति पर महाकाव्‍यात्‍मक उपन्‍यास लिखा जाना अभी बाकी – प्रेम सिंह


 रपट
प्रोफेसर जयदेव स्मृति व्याख्यान


1857 की क्रांति उन्‍नीसवीं सदी की दुनिया की सबसे बडी घटना थीा इंग्‍लैंड में उस पर सन 1900 तक करीब 50 और बीसवीं सदी में करीब 40 उपन्‍यास या फिक्‍शनल अकाउंट लिखे गए हैंा इस घअना पर आधारित पहला लघु उपन्‍यास वहां 1857 में ही प्रकाशित हो गया थाा भारत की आजादी के बाद भी पांच उपन्‍यास लिखे जा चुके हैंा हिल्‍डा ग्रेग ने 1897 में लिखे गए अपने शोध आलेख में कहा है कि ‘इस सदी की समस्‍त महान घअनाओं, जैसा कि वे फिक्‍शन में प्रतिबिंबित होती हैं, भारतीय बगावत - म्‍युटिनी - ने लोगों की कल्‍पना पर सबसे ज्‍यादा प्रभाव छोडा हैा’ उन्‍होंने यह भी लिखा है कि ‘बगावत का उपन्‍यास अभी लिखा जाना बाकी हैा’ हिंदी में इस महान घटना पर पहला उपन्‍यास 73 साल बाद 1930 में ऋषभ चरण जैन का ‘गदर’ लिखा गया जिसे अंग्रेज सरकार ने तुरंत जब्‍त कर लियाा आलोचकों और साहित्यकारों ने इस उपन्‍यास को नज़र अंदाज कर दिया । तबसे अब तक नौ और उपन्‍यास - ‘झांसी की रानी लक्ष्‍मीबाई’ 1946, ‘बेकसी का मजार’ 1956, ‘सोना और खून’ 1960, ‘क्रांति के कंगन’ 1966, ‘पाही घर’ 1991, ‘रमैनी’ 1998, ‘वीरांगना झलकारीबाई’ 2003, ‘मैं अपनी झांसी नहीं दूंगा’ 2004, ‘महिमामयी’ 2005 – समेत कुल 10 उपन्‍यास लिखे गए हैंा लगभग एक सदी की दूरी के चलते इनमें से किसी भी उपन्‍यास में 1857 की क्रांति का सही चरित्र और मौलिक उत्‍साह पूरी तरह चित्रित नहीं हो पाया हैा इस घटना पर भारत में सचमुच अभी महाकाव्‍यात्‍मक उपन्‍यास लिखा जाना बाकी हैा ये विचार डॉ प्रेम सिंह ने 28 सितंबर को दिल्‍ली में आयोजित 14वां प्रोफेसर जयदेव स्मृति व्याख्यान देते हुए व्‍यक्‍त किएा वे '1857 की क्रांति और हिन्दी उपन्यास' विषय पर बोल रहे थेा
1857 की क्रांति का वक्त भारत में नवजागरण का वक्‍त भी हैा लेकिन नवजागरणकालीन भारतीय चिंतकों ने अपने को 1857 से अलग रखा एक यह भी वजह थी कि लोगों के लाखों की संख्‍या में भागीदारी और शहादत के बाद भी विद्रोह असफल रहा । विद्रोह और नवजागरण की धाराओं में परस्‍पर संवाद और सहयोग होता तो एक नई चेतना का जन्‍म हो सकता थाा लेकिन उपनिवेशवादी संरचना में पैदा होने वाले भारत के नवोदित मध्‍यवर्ग को 1857 की क्रांति में कोई सार नज़र नहीं आयाा उल्‍टे वे महारनी विक्‍टोरिया की प्रशस्‍ती के गीत गाते रहेा
डॉ; सिंह ने कहा कि अलबत्‍ता लोकसाहित्‍य में 1857 का बखूबी चित्रण होता हैा यह अपने में प्रमाण है कि इस विद्रोह का चरित्र सामंती नहीं थाा सामंतों को ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन समाप्त होने पर फायदा ही हुआ । डॉ प्रेम सिंह ने कहा कि 1857 की क्रांति के प्रति लेखकों की उपेक्षा के दो कारण नजर आते हैंा पहला, राजकोप का भय और दूसरा, भारत के नवोदित मध्‍यवर्ग का पूंजीवादी सभ्‍यता के प्रति समर्पणा  नवउदारवाद का जो कब्‍जा 1991 के बाद से देखने को मिल रहा है उसकी शुरुआत 1857 की विफलता से ही हो गई थी। क्योंकि पहले स्वाधीनता संग्राम के दौरान से देशज चेतना और विचार को खारिज करने का काम मध्‍यवर्ग ने करना शुरू कर दिया था ।
अध्यक्षीय संबोधन में भीम सिंह दहिया ने 1857 से पहले की कुछ अंग्रेजी कविताओं का जिक्र किया जिनमें स्वाधीनता की सुगबुगाहट मिलती हैा उन्‍होंने कहा कि साहित्‍य को इतिहास की नहीं, साहित्‍य की कसौटी पर परखा जाना चाहिएा   
कार्यक्रम का आयोजन प्रोफेसर जयदेव मेमोरियल लेक्चर फोरम और साहित्य वार्ता ने कियाा कार्यक्रम की अध्यक्षता अंग्रेजी साहित्य के जाने-माने विद्वान डॉ भीम सिंह दहिया ने की । संचालन अंग्रेजी साहित्‍य की प्राध्‍यापिका अनुपमा जयदेव और धन्‍यवाद ज्ञापन इंद्रदेव ने कियाा


यानी 1857 की क्रांति  कोई प्रतिक्रिया के बाद पनपी घटना नहीं थी । बल्कि गुलामी की बेड़ियों से आज़ाद होने का एक सामूहिक प्रयास था । जिसमें किसानों, महिलाओं, दलितों और आम हिन्दुस्तानियों ने  भाग लिया था । कार्यक्रम में बुद्धिजीवियों और छात्रों की अच्छी खासी तादाद मौजूद रही ।

प्रस्‍तुति
राजेश कुमार मिश्रा

JUSTICE RAJINDAR SACHAR Statement

JUSTICE RAJINDAR SACHAR FORMER PRESIDENT OF PEOPLE UNION FOR CIVIL LIBERTIES HAS ISSUED THE FOLLOWING STATEMENT.


There are three Holidays in the country which are not religious oriented – 15th August – Independence Day & 26th January – Republic day.
And then most important 2nd October,(Gandhi Birthday) – this day reminds one in concentrated form the sacrifices and the morality in politics in the fight for independence of the country. Any tinkering with grandeur and sobriety of 2nd October is sacrilege. But this is what Modi Government is doing by emphasizing the day as a day of cleanliness. What cheek –That Gandhi believed in cleanliness is no reason for the mischievous act to lessen the sobriety of Gandhi’s birthday. The programmes associated with the birthday must not be diluted by this so called fad of cleanliness day. Cleanliness has to be actually maintained and not by unnecessarily calling to duty all the government servants and make them go through the hypocrisy of arranged photo opportunity item.
I would therefore strongly demand that government should observe Gandhiji’s birthday in the same sober, respectful manner as before. And as government servants and Ministers have been called let them repeat what was Gandhijis main philosophy which he expressed in 1921 and again repeated in 1947, thus; “I would say that Hindus and Muslims are the two eyes of mother India just as the trouble in one eye affects the other too, similarly the whole of India suffer when either Hindu or Muslim suffer.” This sober reiteration would alone symbolize the real significance of Gandhiji’s philosophy – a proper tribute to his memory.

Rajindar Sachar

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