Friday, 11 December 2015

WTO के खिलाफ़

अक्तुबर 2015 में यूजीसी (विश्वविद्धालय अनुदान आयोग) ने तय किया कि केंद्रीय विश्वविद्धालयों में दी जानेवाली 'युजीसी नौन-नेट स्कौलरशिप' बंद कर दी जाएगी | छात्र सन्गठनों ने तुरंत समझ लिया कि यह फैसला समान अवसर देने व सामाजिक न्याय के सम्वैधानिक एजेंडे को खत्म करने के WTO-GATS के मकसद की वजह से लिया गया है | यह शुरुआत होगी छात्र को बाजार से कर्ज लेकर पढने के लिए मजबूर करने की| इसी समझ के तहत 'औक्युपाई यूजीसी' का आंदोलन उक्त स्कौलरशिप के बरकरार रखने, उसमें बढोत्तरी करने और राज्य सरकार के विश्वविद्धालयों तक विस्तारित करने की माँग को लेकर आज भी चल रहा है व देश भर में जडे पकड़ रहा है| और सरकार द्वारा इसे कुचलने का हर संभव कोशिश चल रहा है|
सोशलिस्ट युवजन सभा मानती है कि उच्च शिक्षा के बाजारिकरण की नींव सन 1999 में भारत सरकार ने यूनेस्को को पेश अपने पर्चे में डाल दी थी | इस पर्चे में तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री ने दावा किया था कि उच्च शिक्षा सार्वजनिक हित के लिए नहीं है, वरन यह महज  व्यक्तिगत हित का '(बिकाऊ) माल' है| इसलिए इसकी किमत छात्रों को व्यक्तिगत तौरपर ही चुकानी चाहिए, न कि सरकार को | आगे, सन 2000 में प्रधानमंत्री की 'आर्थिक मामलों की परिसद' को पेश अम्बानी-बिड़ला रपट ने कहा कि सरकार को उच्च शिक्षा को पैसा देना बंद करके इसे पूरी तरह बाज़ार के हवाले कर देना चाहिए और बाज़ार तय करेगा कि क्या पढाया जाए, कैसे पढाया जाए यानी ज्ञान पर बाज़ार का पूरा कब्जा हो जाएगा | इस क्रम को आगे बढाते हुए भारत सरकार ने अगस्त 2005 में विश्व व्यापार संगठन के पटल पर उच्च शिक्षा का अपना 'संसोधित प्रस्ताव' रख दिया यानी उच्च शिक्षा के दरवाजे बाज़ार के लिए खोलने की पेशकश कर दी | अभी तक यह पेशकश 'प्रतिबद्धता' नहीं बनी थी, क्योंकि पिछले दस वर्षो में व्यापार-वर्ताओं में सभी सदस्य देशों के बीच सहमति नहीं बन पायी है, खासकर खेती व खाद्य पदार्थो को दी जानेवाली सब्सिडी को कम करने के सवाल पर | आगे ताकतवर पुंजिवादीं मुल्कों  की योजना यह है कि इन व्यापार-वार्ताओं को जुलाई 2015 के बाद तेजी से आगे बढाया जाए और इसी वर्ष 15 से 18 दिसंबर 2015 को नैरोबी, केन्या में होने वाले दसवें मंत्री-स्तरीय सम्मेलन में हर हाल में पुरा करवाया जाए | स्पष्ट रूप से इस सम्मेलन का उद्देश्य विश्व व्यापार संगठन के दायरे का विस्तार करना है| यदि भारत सरकार ने सम्मेलन के पहले ही उच्च शिक्षा के 'संशोधित प्रस्ताव' को वापस नहीं लिया तो अपने आप ही उच्च शिक्षा हमेशा के लिए प्रतिबद्धता बन जाएगी जिसके देश के लिए दुर्गामी दुष्प्रभाव होंगे |
सोशलिस्ट युवजन सभा अखिल भारत प्रतिरोधक मोर्चा द्वारा 07-14 दिसंबर 2015 तक चलने वाले इस आंदोलन हिस्सा है और इस आंदोलन को आगे जारी रखेगी |
नीरज सिंह
सोशलिस्ट युवजन सभा

शिक्षा के बजारिकरण और निजिकरण के खिलाफ़



 

भारत सरकार ने 15 से 18 दिसम्बर 2015 को नैरोबी(केन्या) में होने वाले विश्व व्यापार संगठन (WTO) के दसवें मंत्री-स्तरीय सम्मेलन में WTO के सभी 161 देशों की शिक्षा का धंधा करने वाली कम्पनियों को हमारे देश में कौलेज, विश्वविद्धालय एवं अन्य तकनिकी व पेशेवर(प्रोफेशनल) संस्थाओं का कारोबार खडा करने की खुली छूट देने की तैयारी कर ली है | सोशलिस्ट युवजन सभा मानती है की ऐसा होते ही जनता का शिक्षा का अधिकार, जिसे सुनिश्चित करना सरकार की लोकतान्त्रिक जिम्मेदारी है, पूरी तरह खत्म हो जायेगा | WTO-GATS ('जनरल एग्रीमेंट ओंन ट्रेड इन सर्विसेज़' यानी 'सेवा क्षेत्र में व्यापार के लिए आम समझौता') की शर्तो के तहत बेलगाम निजिकरण एवं बजारिकरण से शिक्षा न केवल गरिबों और पहले से जाति,धर्म, लिंग व विकलांगता के कारण वंचित तबकों के हाथ से निकल जाएगी, बल्कि जो इसका खर्चा उठा सकते हैं उन्हें भी केवल ना मात्र की शिक्षा ही मिलेगी | ऐसा इसलिए होगा क्योंकि बेतहाशा बाजारिकरण के चलते शिक्षा अपने मूल उद्देश्य से भटक जाएगी और साथ ही पाठ्यक्रम, विषयवस्तु व शिक्षणपद्धति में भी भारी गिरावट होगी| शिक्षा इतनी महँगी हो जाएगी कि मध्यम वर्ग के लिए भी इसका बोझ ढोना मुश्किल हो जाएगा | WTO के मातहत शिक्षा में लोकतांत्रिक व सामाजिक न्याय के एजेंडे को दरकिनार कर दिया जाएगा और इसके अन्तर्गत अब तक किए गए प्रावधानो को जैसे कि आरक्षण, होस्टल, स्कलरशिप, फ़ीस में छूट या मुफ़्त शिक्षा आदि- के लिए भी कोई जगह नहीं बचेगी|
सोशलिस्ट युवजन सभा मानती है की WTO-GATS कानूनी रूप से शिक्षा को बिकाऊ माल और स्टुडेंट्स को खरिदार में बदल देता है | आज 9 दिसम्बर 2015 को सोशलिस्ट युवजन सभा ने अखिल भारत प्रतिरोधक मोर्चा के साथ जन्तर मन्तर दिल्ली में उच्च शिक्षा को WTO के हवाले किए जाने के खिलाफ़ आयोजित कार्यक्रम का हिस्सा रहा | कार्यक्रम में सोशलिस्ट पार्टी के वरिषठ सदस्य और अखिल भारत प्रतिरोधक मोर्चा, स्वागत समिति के अध्यक्ष जस्टिस रजिन्दर सच्चर  ने कहा कि सोशलिस्ट पार्टी शिक्षा के बजारिकरण और निजिकरण के खिलाफ़ लगातार संघर्ष कर रही हैं और इसके खिलाफ़ हो रहे सभी लडाईयों का समर्थन करती है | शिक्षा को WTO के हाथ सौपना देश के छात्रों के भविषय के साथ खिलावाड़ है| 
सोशलिस्ट युवजन सभा के डा. हिरनय हिम्कर ने भी संबोधित किया

“Justice V.R. Krishna Iyer First Human Right Award 2015”

Dated : 09/12/2015

“Justice V.R. Krishna Iyer First Human Right Award 2015”


Mr. Justice Rajindar Sachar (Retd.). Former President Peoples Union for Civil Liberties was presented a Cheque of Rs. 1 Lakh (Rs. 1,00,000/-) for his work for Human Right by Justice Sukumaran of Kerala High Court at a function by Forum for Democracy and Communal Amity (F.D.C.A.) held at Kochi (Kerala) on 4th December, 2015

Mr. Justice Rajindar Sachar while speaking on the occasion recalled his warm association and emphasized the deep commitment of Justice Krishna Iyer to the human Rights and commitment to the cause of Minorities.

Justice Rajindar Sachar announced that in the same spirit he is donating this amount equally (Rs. 50,000/- each) between the two organizations with whom he has had long association.
A.               Socialist party (India)
B.                Peoples Union for Civil Liberties, Delhi.    

संविधान पर चर्चा तथ्‍य–तर्क सम्‍मत हो

संविधान पर चर्चा तथ्‍य–तर्क सम्‍मत हो

प्रेम सिंह

     संविधान दिवस 26 नवंबर को संविधान के प्रति प्रतिबद्धता विषय पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण की हिंदी के कथाकार उदय प्रकाश ने भूरी-भूरी प्रशंसा की है। उदय प्रकाश ने मोदी के साथ वाजपेयी को भी याद किया है,जिनकी जुमलेबाजी की प्रवृत्ति पर संविधान और संसदीय प्रणाली व प्रक्रियाओं के गहरे जानकार मधु लिमये ने एक बार कटाक्ष किया था। भाषा का जादूगर’ कहे जाने वाले इस साहित्‍यकार ने अपनी प्रशंसात्‍मक टिप्‍पणी में भाषा का विवेक नहीं रखा है। लेखकों-कलाकारों को राजनीतिक विषयों पर गंभीरता पूर्वक विचार करके ही अपना मंतव्‍य देना चाहिए। ऐसा किए बगैर की गईं फुटकर टिप्पणियां उनके दरजे को कम करती हैं। साहित्य भाषा की अर्थवत्‍ता कायम रखने और समृद्ध करते जाने का स्थायी माध्‍यम होता है। मौजूदा शासक वर्ग ने भाषा को स्‍तरहीन और कपटपूर्ण बनाने में कोई कसर नहीं रखी है। ऐसे में लेखकों की इस तरह की टिप्पणियों से भाषा का संकट और गहराता है। दृष्‍टा का दर्जा पाने वाले रचनाकार जब इस तरह की अंधी अभिव्यक्तियां करते हैं तो इस समय देश में परिव्‍याप्‍त विमूढ़ता का विराट रूप ज्‍यादा सघन व सर्वव्यापी बनता है।
     यह व्याख्यायित करने की जरूरत नहीं है कि संविधान पर चर्चा विषय-निष्‍ठ एवं तथ्य-तर्क सम्‍मत (रैशनल) ही हो सकती है। विषय संविधान है और तथ्‍य यह है कि डुंकेल प्रस्तावों से लेकर भारत-अमेरिका परमाणु करार (जिसका एक शब्द भी भारत में नहीं लिखा गया) और रक्षा से लेकर शिक्षा तक को कारापेरेट क्षेत्र को सौंपने के नवउदारवादी फैसलों से शासक वर्ग ने संविधान की मूल संकल्पना का हनन कर डाला है। संविधान पर कोई भी गंभीर चर्चा इस तथ्‍य को नजरअंदाज करके नहीं हो सकती। बल्कि उसे अगर सार्थक होना है तो शुरू ही यहां से होना होगा। संविधान के प्रति प्रतिबद्धता का पहला तकाजा बनता है कि उसकी मूल संकल्‍पना की पुनर्बहाली के अविलंब व पुख्‍ता उपाय किए जाएं। अथवा कम से कम इतना संकल्‍प लिया जाए कि आगे संविधान को और ज्‍यादा क्षतिग्रस्‍त नहीं किया जाएगा। मसलन, समाज के लिए सबसे अहम शिक्षा जैसे विषय को कारपोरेट क्षेत्र के लिए कदापि नहीं खोलने का निर्णय लिया जा सकता है। खुद नरेंद्र मोदी अपने भाषण में कम से कम भारत अमेरिका-परमाणु करार और खुदरा में विदेशी निवेश के फैसलों, जिनका भाजपा ने कड़ा विरोध किया था, को निरस्त करने की अपनी सरकार की घोषणा करते तो संविधान के प्रति प्रतिबद्धता का कुछ अर्थ होता। लेकिन उनके देशकाल से विच्छिन्‍न भाषण में संविधान के प्रति कोई सरोकार था ही नहीं।
     उदय प्रकाश ने ऐसे भाषण की प्रशंसा की है। जाहिर है, उदय प्रकाश की तथ्‍य व तर्क से रहित भाषा नरेंद्र मोदी की तथ्‍य व तर्क से रहित भाषा से जा मिलती है। यह स्थिति भाषा के गहरे संकट को दर्शाती है। उदय प्रकाश ने अपनी टिप्पणी के अंत में नरेंद्र मोदी के भाषण के निहितार्थ का अंदेसा भी जताया है। उन्‍होंने कहा है नरेंद्र मोदी के सारगर्भित व प्रभावशाली भाषण के पीछे उनकी कारपोरेट हित के कुछ कानून पारित कराने की मंशा हो सकती है। क्‍या देश के साहित्‍यकार को पता नहीं है कि मनमोहन सिंह के बाद मोदी का चुनाव कारपोरेट प्रतिष्‍ठान ने इसीलिए किया है, और मनमोहन सिंह से लेकर मोदी तक ऐसे संविधान विरोधी कानूनों-अध्‍यादेशों की लंबी सूची है। उनके इस अंदेसे से मोदी की ही मजबूती होती है। लोगों में संदेश जाता है कि इसके पूर्व नवउदारवादी दौर के बाकी कानून कारपोरेट हित में नहीं बनाए हैं।    
     यहां संक्षेप में पांच बातों का उल्‍लेख मुनासिब होगा। पहली, पिछले दिनों कई लेखकों-आलोचकों की यह स्थिति देखने को मिली है। गुजरात के विकास के लिए नरेंद्र मोदी की प्रशंसा करने वाले अण्‍णा हजारे और हजारे का इस्‍तेमाल करने वाले अरविंद केजरीवाल को गांधी बताने वालों में कई लेखक-आलोचक भी शामिल हैं। यानी साहित्‍यकारों की ओर से भी भाषा का अवमूल्‍यन हो रहा है। वे भी नवसाम्राज्‍यवादी गुलामी लाने के गुनाहगारों में शामिल हो रहे हैं। दूसरी,अनेकों बार उधेड़ी जा चुकी बखियाओं को फिर-फिर उधेड़ने का उद्यम अपने भाषण में करने वाले मोदी-विरोधी वक्‍ताओं ने भी संविधान की मूल संकल्‍पना के हनन पर चिंता जाहिर नहीं की। यानी संविधान पर लादा गया नवसाम्राज्यवादी जुआ उन्‍हें स्‍वीकार्य है। हमने पहले भी यह कई बार कहा है कि संविधान में निहित समाजवाद के मूल्‍य को त्‍याग कर अलग से धर्मनिरपेक्षता के मूल्‍य को नहीं बचाया जा सकता। तीसरी, संविधान दिवस का आयोजन डा. अंबेडकर की 125वीं जयंती के अंतर्गत किया गया। चर्चा संविधान के बारे में कम, डा. अंबेडकर पर कब्जे की कवायद ज्यादा थी। संविधान की मूल संकल्‍पना को नष्‍ट करके जिस डा. अंबेडकर को पाया जाएगा, वह एक खोखला नाम अथवा मूर्ति भर होगी। पांचवी, संविधान लागू होने की पचासवीं वर्षगांठ पर संसद में बहस हुई थी। भावनाओं का तेज ज्वार था। आशा थी कि सांसद भावनाओं के ज्वार से बाहर आकर पिछले एक दशक में हुई संविधान की क्षति की मरम्मत करेंगे और आगे क्षतिग्रस्त नहीं होने देंगे। ऐसा नहीं हुआ। उसके पंद्रह साल यह बहस सामने आई है!      


Thursday, 5 November 2015

असहिष्‍णुता के विरुद्ध प्रतिरोध में एक स्‍वर यह भी

असहिष्‍णुता के विरुद्ध प्रतिरोध में एक स्‍वर यह भी

नीरज कुमार


देश में बढती असहिष्‍णुता के खिलाफ कुछ लेखकोंबुदि़्धजीवियों के प्रतिरोध को लेकर बहस खड़ी हो गई है। लेखकों बुदि़्धजीवियों के समर्थकों के अपने और उनके प्रतिरोध का विरोध करने वालों के अपने तर्क हैं। लेखकोंबुदि़्धजीवियों के प्रतिरोध के तरीके का विरोध करने वाले लेखकबुदि़धजीवी भी हैं और उनके अपने तर्क हैं। इस मामले में चुप रहने वाले लेखकबुदि़धजीवी भी काफी हैं। उनके भी अपने तर्क होंगे। सोशल मीडिया में अनेक लोग अपनाअपना तर्क रख कर बहस कर रहे हैं। सरकार का कोई तर्क नहीं है। क्‍योंकि नरेंद्र मोदी ही सरकार हैं जो तरहतरह की तर्कहीन बातें करके चुनाव जीत चुके हैं। उन्‍हें अरुण शौरी जैसे आरएसएस के बुदि्धजीवियों की जरूरत ही नहीं पड़ी। सेकुलर बुदि्धजीवियों का हमला होने पर भी उन्‍हें याद नहीं किया गया तो उन्‍होंने लेखकोंबुदि़्धजीवियों का पक्ष लेते हुए तर्क दिया है कि असहिष्‍णुता से विदेशी निवेश पर नकारात्‍मक असर पड़ेगा।
      मेरे जैसे सामान्‍य राजनीतिक कार्यकर्ता को यह सब अजीबसा लग रहा है। मुझे इसमें गंभीरता नहीं लगती। केवल तात्‍कालिक प्रतिक्रिया लगती है। मुझे लगता है इससे नरेंद्र मोदी यानी नवउदारवादी और सांप्रदायिक ताकतों का गठजो ही मजबूत होगा। मेरी सीमा हो सकती है। मेरा राजनीतिक प्रशिक्षण किशन पटनायक, सच्चिदानंद सिन्‍हा,सुनील और प्रेम सिंह के विचारों से हुआ है। उनके साथ काम करने का भी मौका मिला है। मैं इनके लेखन के द्वारा ही भारत के समाजवादी चिंतकों के साहित्‍य तक पहुंचा हूं। कुछ विचार साहित्‍य और रचनात्मक साहित्‍य के अध्‍ययन की भी कोशिश करता हूं। यह सत्‍ता की राजनीति में एक छोटीसी धारा है। लेकिन मैं नवउदारवाद और सांप्रदायिकता के गठजो की सबसे सशक्‍त वैकल्पिक धारा मानता हूं। ऐसा मानने वाले बहुतसे युवक युवतियां देश में हैं। वे शोर नहीं मचाते। चुपचाप अपना काम करते हैं। मुख्‍यधारा का मीडिया उस काम का नोटिस नहीं लेता। अपने को क्रांतिकारी कहने वाले संगठन भी उस धारा से बच कर चलते हैं। क्‍योंकि उसमें अभी या बाद में नाम या लाभ मिलने की संभावना नहीं है।
      किशन पटनायक ने अस्‍सी के दशक से ही देश के बुदि्धजीवियों को बारबार आगाह किया था कि वे नई आर्थिक नीतियों यानी नवउदारवाद का विरोध करें। वह देश के संसाधनों और गरीबों के लूट की व्‍यवस्‍था है। लेकिन बुदि्धजीवियों ने उनकी बात पर कान नहीं दिया। किशनजी नेगुलाम दिमाग का छेद जैसा कान खोलने वाल लेख भी लिखा,लेकिन बुदि्धजीवियों को सरकारी संस्‍थानों के पदों और पुरस्‍कारों का लालच पकड़े रहा। वाजपेयी सरकार के दौरान भी वे पदों और पुरस्‍कारों से पीछे नहीं हटे। नवसाम्राज्‍यवादी और सांप्रदायिक ताकतों का गठजो मजबूत होता गया। यदि मनमोहन सिंह के वित्‍तमंत्री या उसके बाद प्रधानमंत्री बनने के समय बुदि्धजीवियों के इस्‍तीफे हो जाते तो नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री नहीं बन पाते। वह भी छो‍ि‍ड़ये, बुदि्धजीवी अगर नवउदारवाद को बचाने के लिए इकठठी हुई इंडिया अगेंस्‍ट करप्‍शन की टीम और आंदोलन के साथ नहीं जुटते तो भी मोदी का आना आसान नहीं होता। उस टीम में आरएसएस ही नहीं, सारे कारपोरेट घराने शामिल थे। मोदी को अकेले आरएसएस ने नहीं, कारपोरेट घरानों ने यहां तक पहुंचाया है।
      आप कह सकते हैं कि मेरा तर्क डॉ प्रेम सिंह के विचारों से लिया गया है। यह सही है। डॉ प्रेम सिंह के विचारों को संघी और कांग्रेसी अनदेखा करते हैं तो बात समझी जा सकती है। लेकिन सेकुलर और प्रगतिशील बुदि्धजीवी भी उन्‍हें दबाने की कोशिश करते हैं तो यह एक गंभीर सवाल है। 2013 की शुरुआत में आई उनकी पुस्तिका संविधान पर भारी सांप्रदायिकता’, जिसे जस्टिस सच्‍चर ने सबके पढ़ने के लिए एक जरूरी पुस्तिका बताया है, नरेंद्र मोदी और आरएसएस से अलग उनकी अपनी पीआर टीम के मंसूबों की स्‍पष्‍ट सूचना दे देती है। वह पुस्तिका जस्टिस सच्‍चर के कहने पर उर्दू और अंग्रेजी में भी छापी गई। लेकिन किसी बुदि्धजीवी ने आज तक उसका जिक्र नहीं किया है। अन्‍ना हजारे के नाम से चलाए गए भ्रष्‍टाचार विरोधी आंदोलन, आम आदमी पार्टी के बनने और दिल्‍ली का चुनाव जीतने की घटना का हर पहलू से विवेचन करने वाली पुस्‍तक भ्रष्‍टाचार विरोध विभ्रम और यथार्थ(वाणी प्रकाशन) को छपे एक साल हो गया है। इस पुस्‍तक को भी पूरी तरह अनदेखा कर दिया गया है। मेरी जानकारी में उसकी एक भी समीक्षा किसी पत्रपत्रिका में नहीं आई है। उल्‍टालेखकोंबुदि़धजीवियों के प्रतिरोध की मुहिम में सक्रियजनसत्‍ता के पूर्व संपादक ओम थानवी ने टीवी चर्चाओं में एनजीओ सरगना, आरक्षण विरोधीघोषित रूप से पूंजीवाद समर्थक, ‘केंद्र में प्रधानमंत्री मोदी और दिल्‍ली में मुख्‍यमंत्री केजरीवाल का नारा लगाने वाले अरविंद केजरीवाल के पक्ष में डॉ प्रेम सिंह पर कटाक्ष किए। कौन नहीं जानता कि इस पूरे घटाटोप में अकेले डॉ प्रेम सिंह सही साबित हुए हैं।   
      डॉ प्रेम सिंह ने एक जगह यह लिखा है कि सेकुलर और प्रगतिशील लोगों ने उनकी वाजेपयी की राजनीतिक विचारधारा और शैली का विश्‍लेषण करने वाली पुस्तिकामिलिए योग्‍य प्रधानमंत्री से (2004) तथा 2002 की गुजरात त्रासदी का विश्‍लेषण करने वाली पुस्तिका गुजरात के सबक(2004) की कुछ चर्चा और तारीफ की। लेकिन वे मिलिए हुकुम के गुलाम से’ (2009) पुस्तिका को पूरी तरह अनदेखा कर देते हैं। उसमें प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को सोनिया गांधी का गुलाम नहीं, दोनों को अमेरिका का गुलाम दिखाया गया है। मैं यहां जोना चाहता हूं कि केंद्र सरकार द्वारा जेएनयू को नष्‍ट करने के इरादों का पूरा विरोध करना चाहिए। लेकिन दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय का पूर्व छात्र होने के नाते में यह भी कहना चाहता हूं कि कपिल सिब्‍बल जैसे कांग्रेसी काफी पहले दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय को लगभग नष्‍ट कर चुके हैं। बड़ेड़ेलोगों ने प्रधानमंत्री और राष्‍ट्रपति को पत्र लिखे, मुलाकातें कीं,लेकिन दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय तबाह कर दिया गया। दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय ही क्‍योंइन सभी बुदि्धजीवियों के रहते हुए देश की पूरी शिक्षा व्‍यवस्‍था घटिया और मुनाफे का व्‍यापार बना दी गई है।
      हकीकत की बात यह है कि डॉ प्रेम सिंह का लेखनबुदि़धजीवियों को आइना दिखाता है कि नरेंद्र मोदी को यहां तक लाने में अकेले कारपोरेट घरानों की नहीं, इन बुदि्धजीवियों की भी बड़ी भूमिका है। ढ़ती हुई असहिष्‍णुता के विरोध में लेखकोंबुदि़धजीवियों का प्रतिरोध होना ही चाहिए। बात इतनी है कि वह तात्‍कालिक प्रतिक्रिया बन कर न रह जाए जैसा कि अभी चलने वाली बहस से लग रहा है।
      यहां बहस को गंभीर परिप्रेक्ष्‍य में रखने के लिए डॉ प्रेम सिंह का एक छोटा लेख दिया जा रहा है। इसके बाद उनके कुछ और लेख सोशल मीडिया पर दिए जाएंगे।   

ताकि सनद रहेकारपोरेट के पक्ष में राजनीतिक एका

प्रेम सिंह

      दो फरवरी की शाम को आकाशवाणी से प्रसारित मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय राजनीतिक दलों का चुनाव प्रसारण सुना। कांग्रेससीपीआईसीपीएम और राष्ट्रवादी कांग्रेस के प्रसारणों में दिल्ली षहर में सांप्रदायिक माहौल बिगाड़ने की कोशिशों का प्रमुखता से जिक्र और सांप्रदायिक ताकतों को चुनाव में परास्त करने की अपील की गई थी। भाजपा और आम आदमी पार्टी (आपके प्रसारण में बाकी जो भी कहा गया होशहर में होने वाली सांप्रदायिक घटनाओं पर एक शब्द भी नहीं था। आप’ का प्रसारण मनीष सिसोदिया ने हिंदू हित’ का पूरा ध्यान रखते हुए पढ़ा और सरकार बनाने की दावेदारी ठोकी। किसी धर्मनिरपेक्षतावादी ने इस नाजिक्री (ओमिशनपर सवाल नहीं उठाया है। बल्कि चुनावपूर्व सर्वेक्षणों में आप’ की जीत की प्रबल संभावना को देखकर अपना पूरा वजन आप’ के पक्ष में डाल दिया है। उन्होंने अरविंद केजरीवाल को हिंदुओं की भावनाओं का खयाल रखने की पूरी आजादी दी हुई है। वे जानते हैंचुनाव अकेले मुसलमानों के वोटों से नहीं जीता जा सकता।   
      हमने चुनाव प्रसारण का यह प्रसंग धर्मनिरपेक्षता-सांप्रदायिकता के सवाल पर चर्चा करने के लिए नहीं लिया है। बल्कि धर्मनिरपेक्षता को बचाने की आड़ में होने वाली एक बड़ी राजनीतिक तब्दीली पर संक्षेप में विचार करने के लिए यह प्रसंग उठाया है। मार्क्‍सवादियोंसमाजवादियोंसामाजिक न्यायवादियों,गांधीवादियों और नागरिक समाज के बहुत-से लोगों की अरविंद केजरीवाल की जीत के पक्ष में एकजुटता भारत और दुनिया के कारपोरेट प्रतिष्ठान की बड़ी उपलब्धि है।
      मनमोहन सिंह के बाद कांग्रेस कारपोरेट प्रतिष्ठान के खास काम की नहीं रह गई है। कांग्रेस राहुल गांधी से चिपकी है और कारपोरेट उन पर मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी जैसा भरोसा नहीं कर सकता। दलितों और आदिवसियों को आर्थिक मुद्दों पर कांग्रेस के साथ जोड़ने के राहुल गांधी के प्रयास कारपेारेट प्रतिष्ठान के रजिस्टर में दर्ज हैं। कारपोरेट प्रतिष्ठान वंचितों के हित की दिखावे की अथवा टोकन राजनीति भी बरदाश्‍त करने को तैयार नहीं है। अलबत्ताउनका सांप्रदायीकरण करने की राजनीति उसे माफिक आती है।
      कारपोरेट प्रतिष्ठान को अब सोनिया गांधी पर भी भरोसा नहीं हैजो सलाहकारों के दबाव’ में गरीबों के लिए थोड़ी-बहुत राहत की व्यवस्था करवा देती हैं। उसे जैसे मनमोहन सिंह के साथ और उनके बाद मोदी चाहिए थेमोदी के साथ और उनके बाद केजरीवाल चाहिए। कारपोरेट पूंजीवाद की कोख से पैदा एक ऐसा शख्स जो देश की मेहनतकश जनता की आंखों में धूल झोंक कर सफलतापूर्वक कारपोरेट प्रतिष्ठान का हित साधन करे। कारपोरेट प्रतिष्ठान को अब अपने बचाव के लिए सेफ्टी वाल्व’ नहींे चाहिए। प्रगतिशील व धर्मनिरपेक्ष खेमा उसके पक्ष में एकजुट हो गया है।
      कारपोरेट प्रतिष्ठान यह जानता है कि कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्षतावादियों को प्रश्रय देकर उनका समर्थन पाया है। इस तरह फलाफूला धर्मनिरपेक्षतावादी खेमा मोदी की जीत से एकाएक समाप्त नहीं हो जा सकता। उन्हें कांग्रेस के अलग किसी और के साथ जोड़ना होगा। वे मजबूती से केजरीवाल के साथ जुट गए हैं। कल तक जो सोनिया के सेकुलर सिपाही थेअब निस्संकोच केजरीवाल के सेकुलर सिपाही हैं। कहने की जरूरत नहीं कि धर्मनिरपेक्षतावादियों का केजरीवाल को बिना शर्त समर्थन दिल्ली विधानसभा के इस चुनाव में ही नहीं है। वे शुरू से केजरीवाल के समर्थन में हैं। हालांकि उन्हें मार्क्‍सवादी/समाजवादी/गांधीवादी आदि बताने या बनाने की बात अब वे नहीं करते। उन्हें इसी में तसल्ली है कि केजरीवाल क्रोनी पूंजीवाद के खिलाफ है।
      यह निश्चित नहीं कहा जा सकता कि दिल्ली विधानसभा चुनाव में आप’ की जीत से सांप्रदायिक भाजपा पर कितनी रोक लगेगी और धर्मनिरपेक्ष पार्टियों को दूसरे राज्यों के चुनावों में कितना फायदा होगा। लेकिन इतना निश्चित है कि राजनीतिक विमर्श से समाजवादी विचारधारा और ज्यादा हाशिए पर चली जाएगी। विचारधारा विहीनता का तमाशा और तेजी से जोर पकड़ेगा। चुनाव और तेजी से गरीबों के साथ छल-कपट का पर्याय बनेंगे।      

      अभी तो संभावना नजर नहीं आतीलेकिन अगर आगे की किसी पीढ़ी ने नवसाम्राज्यवादी गुलामी की तह में जाकर पता लगाने की कोशिश कीतो उसे पता चलेगा कि अकेले नवउदारवादी इसके लिए जिम्मेदार नहीं थे। देश की मुख्यधारा राजनीतिक में एका बना थाजिसके तहत नवसाम्राज्यवादी गुलामी आयद हुई। भारत के बुद्धिजीवियोंजो सभी प्रगतिशील व धर्मनिरपेक्ष खेमे से आते हैंके गुलाम दिमाग के छेद’ की ओर ध्यान दिलाने वाले किशन पटनायक ने कहा हैमनुष्य के लिए गुलामी की अवस्था सहज स्वीकार्य नहीं होती। हम यह दिल्ली विधानसभा चुनाव की पूर्व संध्या पर नहीं कह रहे हैं। लंबे समय से हमारा कहना है कि इस दौर में भारत की सबसे बड़ी अकलियत की बड़ी भूमिका है। हालांकि मुस्लिम नेतृत्व ने हमारी बात पर गौर नहीं किया है। हमारा अभी भी मानना है कि नवसाम्राज्यवाद के खिलाफ अगर कोई सच्चा संघर्ष होगातो वह अल्पसंख्यक समाज की मजबूती और भागीदारी से होगा। आशा  करनी चाहिए ऐसा जरूर और जल्दी होगा।  

Monday, 17 August 2015

OPEN LETTER TO SHRI SHANTI BHUSHAN

OPEN LETTER TO SHRI SHANTI BHUSHAN
 
Respected Shanti Bhushan ji,
                                                We've known you as an honest and upright citizen who has faught against corruption all his life. Moreover, you've always helped the people's movements by taking up their cases without charging any fees. You've also been an important public figure of the nation in the capacity of Law Minister during Janata Party government or as member of the drafing committee for Jan Lokpal Bill.
                       We wish to bring to your notice a peculiar situation which has arisen in Lucknow. We know that you've been a lawyer for the Founder Manager Jagdish Gandhi of City Montessori School in Lucknow for over three decades and realise that as a lawyer your ethical commitment is to defend your client.
                       The Basic Shiksha Adhikari of Lucknow has ordered admission of 31 children, including 23 SC and 8 Muslims, 6 of whom belong to OBC category, to CMS under Section 12 of the Right to Education Act, 2009. However, Shri Jagdish Gandhi and his daughter Geeta Gandhi Kingdon, President of CMS, have refused to admit these children from disadvantaged groups and weaker sections to the Indira Nagar branch of their school. Jagdish Gandhi went to the High Court claiming that they don't have physical space in their school and questioned why the BSA ordered admission to their school when there were other government and private schools closer to the homes of the children. On High Court's order BSA visited the school and found that there is enough space in the school and the court has taken a view that even if other schools are there the parents have a right to seek admission to a school of their choice according to the law. The court ordered the BSA to find out how many children lived in the neighbourhood of the school, as required by the law. Upon measuring the distances from their homes it turned out that 14 out of 31 children lived within a km of the school, which is the definition of neighbourhood as prescribed by U.P. government rules. The HC ordered admission of these 14 children to CMS on 6th August, 2015. Socialist Party (India) is involved with this struggle to get children admitted to school under RTE.
                       Your appearance for a truant school in the HC (first on hearing on 30 July and then on first hearing of appeal against the court order directing CMS to admit 14 children within a week on 12 August, 2015) not only emboldens a person bent upon violating a national law and who holds court order in contempt but also weakens our fight for social justice. The RTE Act, for the first time in this country since economic policies of privatization, liberalization and globalization have been implemented is an attempt to bridge the ever widening gap between the children of rich and poor and gives a chance to government to regulate the private schools to ensure compliance of various laws and norms. The outlaw school's founder manager and president and a weak government have colluded to deny children from socio-economic weaker background their legal right and an opportunity to transform their lives by receiving education available to only the elite in the country. Your appearance in HC is unfortunately strengthening the forces which have made quality education for underprivileged children a distant dream in this country and are preventing the implementation of long standing demand of common school system.
                       We cannot request a person of your stature not to help your client but can only make an appeal to you to think of the larger cause of universalization of primary education which is at stake and then take a decision based on your conscience.
 
Sandeep Pandey, Socialist Party (India), ashaashram@yahoo.com

Another Naga accord: Now let’s make it work



Another Naga accord: Now let’s make it work
Rajindar Sachar

 The recent accord that was signed between the Centre and the largest faction of the National Socialist Council of Nagaland NSCN (IM) is welcome. The group has given up its demand for a sovereign state outside India.




  Prime Minister Narendra Modi with the NSCN leaders at the signing ceremony of historic peace accord, in New Delhi. PTI
 
A pact has been signed between Government of India and Naga faction of NSCN (I.M.). The details will be officially released in due course of time. It is a good sign, if as reported by the government that (I.M.), which is admittedly the largest Naga group, has given up its demand for a sovereign State outside India, as was originally the demand of A.Z. Phizo. 

It is also a good sign that T. Muivah has agreed not to insist on including the areas inhabited by Nagas in the other states of Manipur, Assam, Arunchal Pradesh in the state of Nagaland. This demand which required cutting off areas from those states was a non-starter. No government could afford to settle on terms which would provoke counter movements in other North-East states. Of course, it will require the Central Government to honestly abide by the spirit of Article 371A of the Constitution.

Right since 1947, the Naga question has been the unsolved knot leading to almost a war-like situation between the Nagas and the Indian government. Some respite came when the then Prime Minister I. K. Gujral, made the following announcement on July 25, 1997: “In recent talks with the Isac Muivah group of the National Socialist Council of Nagaland (NSCN), it has been mutually agreed to ceasefire with effect from 1 August, 1997 and initiate discussions at the political levels.” Of course, a serious drawback was that ceasefire did not extend to other North-Eastern states that had a considerable Naga population, even when subsequent governments were so advised by some of us. So the situation continued to remain unsettled and fluid. 

I have had a fair deal of inkling of the open hostility and anger of Nagas towards India. As President of the People’s Union for Civil Liberties, I had occasion to meetn some of the top leaders of the Naga movement, including T Muivah and Isak Chisi Swu. 

It was in 2000 that I was invited by Asia forum for a conference and also watched the proceedings in a Court at Bangkok (Thailand) where T. Muivah was being prosecuted for travelling on a fake passport. The delicate situation was because NSCN believed that the information about the movements of Muivah had been given by the Indian government — that later denied it.

I also attended the court proceeding and was able to chat with Muivah, courtesy the security guards. Later in the evening, some of us were invited  by Isac Swu and his team, who were all underground, for dinner. We were taken from our hotel in a car with dark curtains on both sides, obviously so that we could not see the route from the hotel. We understood their delicate concern, because the place was in Bangkok itself. At the meeting we suggested to Isac Swu and his colleagues that in the meanwhile talks need not be stalled and Muivah (who was in prison) could nominate a team to continue the dialogue in his absence. We even then felt that Muivah and others were genuinely in favour of a peaceful settlement, especially when Rh Raising, member, NSCN Steering Committee, openly told us that “Nagas are totally committed to solving the problem through peaceful means. They want to solve any problem through mutual discussion, understanding, respect and consent”. We told them plainly that no government in India can be a party to allow Nagaland to secede from India. Of course, a degree of autonomy can be worked out mutually within the broad parameters of the Constitution. It is thereafter that talks between Nagas and the Government of India, represented by its Home Secretary. K. Padmanabhaiah, started.   

Even when both Muivah and Swu came to Delhi and a meeting was held by some of us, along with V. P.  Singh, at the latter's residence. V.P Singh had ceased to be the  prime minister. They reiterated their desire for settlement with more autonomy, in a dignified manner. It is a pity that it has taken such a long time for the accord. One may now be hesitatingly optimistic, especially when Muivah has openly welcomed it by describing it as: “Better understanding has been arrived ……based on the unique history and position of Nagas”.  It is also a sign of practical wisdom that the Indian government has agreed to facilitate the visit of the Muivah group to travel to Myanmar to consult and bring on board the Khaplang group. One has still to be cautious because the Prime Minister has isolated the Congress chief ministers of Assam, Manipur and Arunchal Pradesh details with them because they too have a similar issue about Nagas. It’s a relief that the Centre has now told those states that the deal will not affect their territories and also assured them that the details will be discussed with them before a final accord is signed. 

If it is any satisfaction, even Raj Nath the Home Minister, was excluded from the initial talks (when all the previous negotiations were held by the Home Ministry). It would seem that the Prime Minister realising the gravity of the Naga problem, was keen to find an equitable settlement when he said in his speech : “We will not only try to heal wounds and resolve problems, but also be your partner as you restore your pride and prestige and that the only path to peace and understanding can come about when we deal with each other in a spirit of equality and respect, trust and confidence; when we seek to understand concerns and try to address aspirations.” 

Would not the Prime Minister like to express the same sentiments and approach with respect to minorities in our country, especially to Muslims, the largest minority of 14 crore? This course is not only Raj Dharam but a practical and realistic approach that any top leader would adopt. 

The writer is a former Chief Justice of the Delhi High Court.

Wednesday, 29 July 2015

A danger to democracy Corporate funding of elections should be banned

A danger to democracy

Corporate funding of elections should be banned

Rajindar Sachar





In a democracy holding regular and free elections to the state legislatures and Parliament is the minimum condition. But more important is to devise laws and policies so that representatives are elected in a transparent manner uninfluenced by undesirable elements, especially money power of the corporate sector. 
These observations are not unnecessarily panicky or woolly. They arise from the reality of the present situation as reflected in the last parliamentary election. No doubt, the BJP represents the majority on its own in the Lok Sabha. But with only 31% of the votes it cannot claim that it thereby represents the majority in the country. Thus the present system of "first past the post" may technically result in a majority in Parliament; in reality it may be a minority view in the country. This danger was flagged as far back as 1789 by French philosopher Mirabeau. That is why we have the "list system of voting" in many parts of world, including Germany, and it fairly represents the voter's preferences proportionately in legislatures. It is heartening to note that the Socialist Party (India) in a memorandum to the Lok Sabha Speaker has recommended a change to the list system under which, depending on the proportion of votes obtained, each party gets proportionate seats, thus reflecting correctly the sentiments in the country.  

Another gravely urgent reform needed is with respect to the part played by big money in elections - an undesirable consequence. As it is, available information indicates that 90% of political funding in 2013-2014 came from big corporates in the country. Under the present law a big loophole is there: only contributions above Rs 20,000 are required to be shown by the parties in their returns. This is a sure invitation to black money and is a big help to the Congress and the BJP. Though Rs 991 crore was donated to political parties, they disclosed the names of 10% donors only, taking cover under the law that requires naming only those who pay above Rs. 20,000. Obviously black money plays an important part in election funding of the major political parties.

That election funding by the corporate sector muddles the election process cannot be denied. As far back as 1960 MC Chagla, Chief Justice of the Bombay High Court, warned that "It is a danger which may grow apace and which may ultimately overwhelm and even throttle democracy in this country." Similarly, the Calcutta High Court has warned: "It will mark the advent and entry of the voice of the big business in politics and in the political life of the country". Regrettably, Parliament ignored the warning and rather added in 1960 Section 293A to the Companies Act, 1956, permitting the corporate sector to contribute to political parties 5% of their average profits. The danger signs were visible immediately and the Santhanan Committee Report, 1962, recommended a total ban on all corporate donations to political parties. But it went unheeded.
However, in 1969, pressed by Socialist leader Madhu Limaye, MP, the Congress government was forced to admit that corporate contributions had a tendency to corrupt political life, and therefore passed a law banning corporate contributions. To review the Companies Act  and the Monopolies Act, the Government of India in 1978 constituted a high-powered expert committee headed by a high court judge. Amongst its members were some of the top lawyers, industrialists, trade union leaders and accountants. It unanimously recommended that the ban on donations by companies to political parties should continue: "The Report was apprehensive that if corporate donations were permitted, the danger to democracy can be well visualised". Notwithstanding the warning, Section 293A was amended in 1985 and the Boards of Directors were authorised to make contributions to political parties. Rather the law has been made easier now. Section 182 of the Companies Act 2013 authorises only the Board of Directors (without the approval of the general body) to make political contributions of up to 7.5% of its average net profits during the three immediately preceding financial years. 

In the USA up to 2010 the Supreme Court had banned corporate expenditure on candidates' elections (Austin case). But then in "Citizen United" the U.S. Supreme Court (2014) differed with the earlier view by a narrow margin (5-4) verdict. It held that corporations have the same political speech rights as individuals under the First Amendment (similar to Article 19(1) (a) of our Constitution) and thus struck down a Federal law and also a law in 24 States banning the corporate sector from funding elections.

This decision has been widely criticised in the USA. The critics have favoured the earlier judgment in the Austin case which had had justified the ban on corporate funding by saying "that large aggregations of wealth, accumulated with the help of the corporate firm, may have corrosive or distorting effects, thus justifying a ban on corporate independent expenditures". Predictably the decision in the Citizen United case has led to strong criticism in US. Critics have commented that "the court's decision was a foolish misstep which threatens the fabric of our nation. The ruling will bring a future in which the government is no longer of the people, for the people, and by the people, but rather "of the people, by the corporations, [and] for the corporations"(emphasis added). Thus the danger of a government working as the executive committee of big corporates in our country is already intrudingly manifest.     

There is, however, no possibility in India of a ban on corporate funding being held illegal on the ground adopted by the US courts that the corporations' right to speech is curtailed. This is because our Supreme Court in a series of decisions from 1963 has categorically held that Article 19 applies only to citizens and not to corporations (as they are not citizens) and therefore the corporate sector cannot invoke Article 19 of the Constitution. Will the Opposition show its concern by moving for such a ban? Or will they also, like the BJP, want to keep intact their links with corporates?  

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