आप’ से नहीं बचेगी धर्मनिरपेक्षता
केजरीवाल को ‘छोटे गांधी’ कहने वाली किरण बेदी ने उस समय कहा था कि ‘आप’ और भाजपा की विचारधारा एक है। यानी ‘भारत की बेटी’ पहले से ही ‘भाजपा की बेटी’ रही है।
इस लेख के लिए हम पर कई सेकुलर साथियों का कोप और तेज होगा। हम यह नहीं लिखते यदि पिछले करीब एक महीने में कई साथियों ने फोन पर और ईमेल भेज कर हमसे दिल्ली के विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी (आप) का समर्थन करने को नहीं कहा होता। उनमें कई वरिष्ठ साथी ऐसे हैं जिनका हम सम्मान करते हैं। ‘आप’ के समर्थन का आग्रह करने वाले ज्यादातर साथी अरविंद केजरीवाल में मोदी की काट देखने वाले हैं। लेकिन यह आग्रह करने वाले कतिपय साथी ऐसे भी हैं, और वे काफी आक्रामक हैं, जो केजरीवाल की मजबूती में मोदी की मजबूती देखते हैं। वे समझते हैं उनकी इस समझ को कोई समझ नहीं रहा है। वे केजरीवाल को मजबूत करना चाहते हैं, ताकि ‘भ्रष्ट’ कांग्रेस और ‘जातिवादी’ क्षत्रप आगे कभी मोदी के आगे सिर न उठा पाएं। उनकी नजर में मोदी दमदार नेता हैं, जिन्होंने विकास और प्रषासन को पटरी पर ला दिया है। केजरीवाल के ऐसे समर्थकों से हमारा कोई सवाल नहीं है। लेकिन केजरीवाल के समर्थक उन साथियों से जरूर सवाल है जो एक बार फिर केजरीवाल में मोदी की काट देख रहे हैं और दूसरों को भी वह ‘सच्चाई’ दिखाने पर आमादा हैं। ऐसे साथियों का प्रबल आग्रह है कि धर्मनिरपेक्षता को बचाना है तो होगा, जो ‘आप’ ही कर सकती है। उनका तर्क है कि दिल्ली में भाजपा को हराना सारे तर्क छोड़ कर ‘आप’ का समर्थन करना है।
सांप्रदायिक ताकतों ने पूर्ण बहुमत से ‘दिल्ली’ जीत ली है। यह उनकी अभी तक की पराकाष्ठा है। ‘दिल्ली’ के भीतर दिल्ली राज्य, जिसे पूर्ण राज्य का दर्जा भी नहीं है, के चुनाव में ‘आप’ की जीत से पराकाष्ठा पर पहुंची सांप्रदायिक ताकतों का पराभव शुरू हो जाएगा – साथियों की यह मान्यता हैरान करने वाली है। दरपेश सांप्रदायिक फासीवाद के प्रति साथी भले ही वे गंभीर चिंता जताते हों, संकट की प्रकृति पर उनकी पकड़ मजबूत नहीं कही जा सकती।
हम मानते हैं कि यह धर्मनिरपेक्षता पर अभी तक का सबसे बड़ा संकट है, जिसका भारतीय सभ्यता पर दूरगामी प्रभाव पड़ना है। इसलिए संकट का तात्कालिक समाधान भी ऐसा सोचना होगा, जिससे दूरगामी समाधान निकल सके। हमने ‘आप’ का समर्थन करने वाले साथियों से कहा कि सात वामपंथी पार्टियों ने दिल्ली के नागरिकों और षहर के लिए सभी जरूरी मुद्दों पर एक कार्यक्रम बनाया है और उनमें पांच पार्टियों के 14 उम्मीदवार चुनाव लड़ रहे हैं। उन्होंने इसे एक निरर्थक कार्रवाई मानते हुए कार्यक्रम या उम्मीदवारों में अपनी कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। हमने उनसे कहा कि दिल्ली के सभी धर्मनिरपेक्ष साथी धर्मनिरपेक्ष पार्टियों के उम्मीदवारों के समर्थन में बाहर निकलें। धर्मनिरपेक्ष उम्मीदवारों को ज्यादा से ज्यादा समर्थन और वोट मिलने से न केवल उनका आगे काम करने का हौसला बढ़ेगा, इस पूरे चुनाव अभियान में नवउदारवादी-सांप्रदायिक गठजोड़ के संकीर्ण दायरे में घूमने वाली बहस में समाजवादी-धर्मनिरपेक्ष विचारधारा को कुछ जगह मिलेगी। लेकिन वे धर्मनिरपेक्षता की लड़ाई, जो हारी जा चुकी है, की हार का डर दिखा कर जीत का भ्रम पालना चाहते हैं। इससे उनके कुछ करने के जज्बे की भले तसल्ली होती हो, धर्मनिरपेक्षता के मोर्चे पर और ज्यादा नुकसान ही होते जाना है।
नवउदारवादी व्यवस्था आगे बढ़ेगी तो सांप्रदायिकता भी आगे बढ़ेगी। उपनिवेशवादी दौर से हम यह सच्चाई जानते हैं और विभाजन की त्रासदी के रूप में उसका गहरा दंश झेल चुके हैं। नवउदारवाद, सांप्रदायिकता और सामाजिक न्याय-विरोध के घोल से तैयार भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन सबसे पहले और सबसे ज्यादा आरएसएस को फला है। चर्चा को आगे बढ़ाने से पहले कुछ पूर्व उल्लिखित तथ्यों को संक्षेप में रखना मुनासिब होगा।
जिस मौजूदा सांप्रदायिक फासीवाद को लेकर साथी इस कदर चिंतित हैं वह अकेले आरएसएस की कामयाबी नहीं है। उसमें इंडिया अगेंस्ट करप्शन, भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन और ‘आप’ का मास्टर स्ट्रोक लगा है। यह स्पष्ट हो चुका है कि अण्णा हजारे से पहले केजरीवाल ने रामदेव को साधा था, जो उन्हीं की तरह शासक जमात में ऊंची हैसियत बनाने के लिए बेताब घूमते थे। न केवल अण्णा हजारे ने जंतर-मंतर से पहली प्रशंसा मोदी की, रामदेव ने मोदी को हरिद्वार अपने आश्रम में बुला कर हिंदुओं का नेता घोषित किया। अण्णा हजारे इस्तेमाल के बाद अप्रासंगिक हो गए और रामदेव व केजरीवाल सत्ता के गलियारे में पहुंच गए। दिल्ली विधानसभा चुनाव में सफलता के बाद ‘आप’ के धर्मनिरपेक्षतावादी सदस्य प्रशांत भूषण ने कहा था कि ‘आप’ को सरकार बनाने के लिए कांग्रेस से नहीं, भाजपा से मुद्दा आधारित समर्थन लेना चाहिए। उनके पिता ‘आप’ के वरिष्ठ नेता शांति भूषण लंबे समय से लालकृष्ण अडवाणी के राजनैतिक साथी हैं। केजरीवाल को ‘छोटे गांधी’ कहने वाली किरण बेदी ने उस समय कहा था कि ‘आप’ और भाजपा की विचारधारा एक है। यानी ‘भारत की बेटी’ पहले से ही ‘भाजपा की बेटी’ रही है। यह अकारण नहीं है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रामदेव और केजरीवाल दोनों के प्रिय हैं। दोनों नरेंद्र मोदी, उनके द्वारा गुजरात में तैयार की गई हिंदुत्व की प्रयोगशाला, फरवरी 2002 में मुसलमानों के राज्य-प्रायोजित नरसंहार और उसे छिपाने के लिए किए गए षड़यंत्रों पर कुछ नहीं बोलते। न ही बाबरी मस्जिद ध्वंस के संविधान और सभ्यता विरोधी कृत्य के खिलाफ उनकी आवाज सुनाई देती है। यह तथ्य भी देखें कि 1984 में स्वर्गीय श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुई हजारों निर्दोष सिख नागरिकों की हत्या पर केजरीवाल सत्ता के गलियारे में पहुंचने के बाद से काफी राजनीति करते हैं। लेकिन घटना के वक्त और उसके बाद उन्होंने पीड़ितों के पक्ष में आवाज नहीं उठाई। 2006 में आई जस्टिस सच्चर कमेटी की रपट और सिफारिशों को लेकर ‘आप’ भाजपा के साथ खड़ी रही है।
केजरीवाल ‘बदनाम’ कांग्रेस से पीछा छुड़ाने के लिए मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देकर बनारस चुनाव लड़ने जा पहुंचे ताकि नरेंद्र मोदी की जीत सुनिश्चित की जा सके और उसके बदले में भाजपा में शामिल होकर या बाहर से समर्थन लेकर पक्के मुख्यमंत्री बन सकें। तब किसी को पता नहीं था कि भाजपा को पूर्ण बहुमत मिल जाएगा। सारे कयास 160 से लेकर 180 सीटों तक लगाए जा रहे थे। आम चुनाव और उसके बाद कुछ राज्यों में मिली चुनावी सफलता के चलते भाजपा ने जोड़-तोड़ की सरकार बनाने के बजाय अंततः चुनाव में जाने का फैसला किया। केजरीवाल का गणित गड़बड़ा गया और मोदी ने उन्हें घास नहीं डाली। फिर भी केजरीवाल ने पटरी बैठाने के लिए ‘केंद्र में पीएम मोदी, दिल्ली में सीएम केजरीवाल’ का नारा फेंका जो चल नहीं पाया। मोदी अगर बनारस से हारते तो उनकी जीत का वजन आधा रह जाता।
लालकृष्ण अडवाणी कई बार कह चुके हैं कि देश में कांग्रेस और भाजपा दो पार्टियां होनी चाहिए। मनमोहन सिंह ने भी उनकी यह बात दोहराई है। नरेंद्र मोदी का सोचना अलग है। वे कांग्रेसमुक्त भारत का संकल्प लेकर चल रहे हैं। आम चुनाव में कांग्रेस को अभी तक का सबसे बड़ा धक्का देने के बाद दिल्ली की चुनावी रैली में उन्होंने कांग्रेस का जिक्र ही नहीं किया। उन्होंने मुकाबले में ‘आप’ को संबोधित किया। संदेश साफ है कि कांग्रेस के परंपरागत मतदाता भाजपा को वोट नहीं दे सकते तो ‘आप’ को वोट दे दें। दिल्ली में ‘आप’ की लड़ाई भी कांग्रेस के साथ है। दिल्ली के पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ ‘आप’ और भाजपा का वोट साझा था। इस बार वैसी स्थिति नहीं है।जिन्होंने केजरीवाल को दिल्ली का सीएम बनाया था, उन्होंने केंद्र में मोदी को पीएम बना दिया है। जाहिर है, अब उनका मोदी की मरजी का सीएम बनाने का प्रयास रहेगा। इसीलिए ‘आप’ के कई नेता-कार्यकर्ता भाजपा में शामिल हो गए हैं। दोनों के बीच यह आवाजाही आगे भी जारी रहेगी।
यहां एक और तथ्य पर गौर किया जा सकता है। राजनीति में पार्टियों और नेतृत्व की नीतियों के आधार पर आलोचना और विरोध होना चाहिए। केजरीवाल ने कांग्रेस और उसके नेतृत्व की नवउदारवादी नीतियों की आलोचना और विरोध न करके, उन्हें बदनाम करने का जबरदस्त अभियान चलाया। बदनाम करने की ‘कला’ में आरएसएस को महारत हासिल है। कांग्रेस की बदनामी के माहौल में आरएसएस का काम आसान हो गया और ‘आप’ को सत्ता की राजनीति (पावर पोलिटिक्स) में आसानी से प्रवेश मिल गया। आशय यह कि भाजपा और ‘आप’ का एक साथ उत्थान सम्मिलित उद्यम की देन है।
‘आप’ ने पिछले दिनों हुए कुछ राज्यों के विधानसभा चुनावों में हिस्सा न लेकर दिल्ली पर फोकस करने का निर्णय लिया। ‘आप’ के नेताओं की विषेषज्ञता धन और स्ट्रेटजी बनाने में है। इन दो के सहारे उसने दिल्ली में अपने पक्ष में माहौल बनाया है और चुनाव में भाजपा के मुकाबले में आ गई।धर्मनिरपेक्षता के जो दावेदार ‘आप’ पर दांव लगा रहे हैं, उन्हें देखना चाहिए कि दिल्ली में ‘आप’ की जीत होने पर अन्य राज्यों में भी यह रणनीति दोहराई जाएगी। तब साथी भाजपा को हराने के लिए ‘आप’ को जिताने का आग्रह करेंगे। इस प्रक्रिया में नवउदारवाद का विरोध करने वाली पार्टियों, भले ही उनकी धर्मनिरपेक्ष साख कितनी ही हो, को चुनाव के मैदान से बाहर रहना होगा। इस तरह धर्मनिरपेक्षता किनारे होती जाएगी और नवउदारवादी-सांप्रदायिक ताकतों का गठजोड़ नए रूप में ज्यादा मजबूत होता जाएगा। तब भाजपा और ‘आप’ के नेता अडवाणी और मनमोहन सिंह की तरह कह सकते हैं कि देश में ये दो पार्टियां ही होनी चाहिए। नवउदारवाद की अंधी छलांगों से अगर देश का नक्षा आमूल-चूल बदलेगा तो राजनीति का नशा भी आज जैसा नहीं रहेगा। ‘आप’ के समर्थन का आग्रह करने वाले धर्मनिरपेक्ष साथियों को इस पर गंभीरता से विचार कर लेना चाहिए। कुछ धर्मनिरपेक्ष नेताओं ने यह सोच कर ‘आप’ को समर्थन दिया है कि दिल्ली में ‘आप’ के हाथों भाजपा की हार होने से उनके राज्यों में उनकी पार्टियों की जीत की संभावना मजबूत हो जाएगी। उन्हें भी अपने फैसले के दूरगामी परिणाम पर विचार करना चाहिए।
दरअसल, धर्मनिरपेक्षता जैसे संविधान सम्मत मूलभूत मूल्य को लेकर फुटकर व्यवहार नहीं चल सकता। वह मुकम्मल व सर्वस्वीकृत बना रहे, इसके लिए नई राजनीति की जमीन तैयार करते रहना होगा। ऐसी राजनीति का कोई भविष्य नहीं है, ऐसा कहने वाले साथियों को इतना ध्यान जरूर देना चाहिए कि उसी राजनीति से धर्मनिरपेक्षता का भविष्य बना रह सकता है।
धर्मनिरपेक्षता की कसौटी केवल यह नहीं हो सकती कि भाजपा के खिलाफ मुसलमानों के वोट कौन ले जाता है? न ही यह कि फलां व्यक्ति विचार से सांप्रदायिक नहीं है। नरेंद्र मोदी का चुनाव प्रचार करने वाली मायावती, कल्याण सिंह के साथ मिल कर सरकार बनाने वाले मुलायम सिंह यादव, भाजपा के साथ लंबे समय तक गठबंधन चलाने वाले जद (यू) के नेतागण, भाजपा के साथ समय-समय पर सरकार चलाने वाले नवीन पटनायक, चंद्रबाबू नायडू, करुणा निधि, ओमप्रकाश चौटाला, ममता बनर्जी, जयललिता आदि नेताओं को वैचारिक रूप से धर्मनिरपेक्ष ही कहा जाएगा। लेकिन हम उनकी आलोचना करते हैं कि वे सत्ता के लिए सांप्रदायिक राजनीति करते हैं। राजनीतिक आचरण धर्मनिरपेक्षता की कसौटी होता है। भारत में सांप्रदायिकता के बरक्स धर्मनिरपेक्षता के संघर्ष की लंबी परंपरा है। उस संघर्ष में गांधी की हत्या भी हो जाती है। लेकिन मजेदारी देखिए केजरीवाल सांप्रदायिक तत्वों के साथ जितनी और जैसी सांठ-गांठ करें, धर्मनिरपेक्षतावादी उन्हें कुछ नहीं कहते। उल्टा उन्हें धर्मनिरपेक्षता का रक्षक बताते हैं।
अब जबकि यह साफ हो चुका हे कि ‘आप’ वास्तव में राजनीतिक पार्टी न होकर, चुनाव जीतने के लिए जुटे निपट सत्ता-स्वार्थी लोगों का गिरोह है, कई बार अपनी पार्टियों की कीमत पर साथी केजरीवाल का बचाव करने को तैयार नजर आते हैं। इसे केजरीवाल की बड़ी कामयाबी कहा जाएगा कि धर्मनिरपेक्षतावादी उनके सौ खून माफ करने को हमेशा तैयार हैं। जबकि वे हमारे जैसे सामान्य कार्यकर्ता को कलम, जबान या आचरण की जरा-सी चूक पर तंदूरी मुर्गे की तरह मार कर लटका देंगे!
‘आप’ का समर्थन करने का दबाव बनाने वाले साथियों की पृष्ठभूमि विचारधारात्मक प्रतिबद्धता की रही है। जबकि ‘आप’ खुले बाजार की खुली पार्टी है। विचारधारात्मक और संगठनात्मक बंधन उस पर आयद नहीं होते। राजनीतिशास्त्र के एक विद्वान ने ‘आप’ को विचारधारा की कसौटी पर कसने वाले ‘विचारधारात्मक योद्धाओं’ (आइडियोलोजिकल वारियर्स) की अपने एक लेख में कड़ी खबर ली थी। और भी कई विद्वान ‘आप’ के सहयात्री बने हुए हैं। विचारधाराविहीन राजनीति का यह ‘आदर्श प्रयोग’ उन्हें सांप्रदायिकता समेत सभी समस्याओं के लिए रामबाण नजर आता है। हैरत की बात है कि वे यह देखने-सुनने को कतई तैयार नहीं हैं कि मौजूदा प्रधानमंत्री और केंद्र सरकार को पूर्ण बहुमत से कायम करने में इस ‘आदर्श प्रयोग’ ने निर्णायक भूमिका निभाई है। राजनीतिशास्त्र व अर्थशास्त्र के विद्वान भी राजनीतिक मानस से रहित हो सकते हैं! दरअसल, अपने को विचारधारा-मुक्त कहने वाले आज की प्रचलित विचारधारा कारपोरेट पूंजीवाद के समर्थक होते हैं। जब से ‘आप’ बनी है यह विवाद होता रहता है कि कौन किसका मोहरा है। भाजपा की सीएम उम्मीदवार बनने पर किरण बेदी को मोदी का मोहरा बताया गया है। हकीकत में ये सब नवसाम्राज्यवाद के मोहरे हैं।
इस ‘आदर्श प्रयोग’ ने करीब दो दशक के वैकल्पिक राजनीति की अवधारणा और संघर्ष को दो-तीन साल में ही बुरी तरह क्षतिग्रस्त कर दिया है। हो सकता है धर्मनिरपेक्षतावादी साथी इसे कोई बड़ा नुकसान नहीं मानते हों, यह मान कर कि इसकी भरपाई कर ली जाएगी। लेकिन उनकी धर्मनिरपेक्षता की चिंता भी सच्ची नजर नहीं आती। यह सही है कि सेकुलर कह जाने वाली पार्टियों ओर नेताओं ने धर्मनिरपेक्षता के मूल्य को छलनी कर दिया है। वे इस कदर अपनी साख गंवा चुके हैं कि मोदी/शाह देश-विदेश में सरेआम उनकी खिल्ली उड़ाते हैं। केजरीवाल नवउदारवाद का पक्ष ले या सांप्रदायिकता का – उसे धर्मनिरपेक्षतावादियों का अभय प्राप्त है। नवउदारवाद और सांप्रदायिकता के गठजोड़ की राजनीति में जगह बनाने के लिए वह किसी भी हद तक जा सकता है। उसे पता है उसे कोई कुछ नहीं कहेगा। अलबत्ता, सांप्रदायिक ताकतों को रोकने के नाम पर केजरीवाल के समर्थन का आग्रह करने वाले एक दिन अपनी साख गंवा बैठ सकते हैं।
प्रेम सिंह
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डॉ. प्रेम सिंह भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला के पूर्व फेलो, दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के शिक्षक और सोशलिस्ट पार्टी (इंडिया) के महासचिव हैं।वह हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं