Thursday, 28 June 2018

विश्वविद्यालय में खोज कार्य



डॉ. राममनोहर लोहिया
           
विश्वविद्यालय के मुख्य आकर्षणों में एक यह विश्वास भी होता है वह ज्ञान और शक्ति का भण्डार होने के अतिरिक्त ऐसी सोद्देश्य जिज्ञासा का केंद्र भी है जो ज्ञान और शक्ति बढाने की ओर ले जाती है | युवा दिमाग इस जिज्ञासा की उपस्थिति से उतना ही आकर्षित होता है जितना खेल-कूद, जवान और स्वस्थ शरीरों की उपस्थिति से | दिमाग और शरीर की इस रसमयता (रोमांस) से, ज्ञान के नए क्षेत्रों के उपयोग और सामान्य स्वास्थय में सुधार से, राष्ट्र को लाभ पहुंचता है | भारतीय विश्वविद्यालयों को दोनों ही दिशाओं में तीव्र गति से प्रयत्न करने होंगे, क्योंकि उन्हें लगभग नए सिरे से काम करना है |
            यहाँ मैं केवल दिमाग की रसमयता की ही बात करूँगा | इस रसमयता को जगाने का करीब-करीब पक्का कारगर उपाय एक यह है कि विश्वविद्यालय के अध्यापक वास्तव में विद्वान हों, जो अपने विषय के सारे उपलब्ध ज्ञान से परिचित हो और अपनी विशिष्ट बुद्धि और ज्ञान से विषय की मोटी-मोटी बातों को प्रकाश में ला सकें | अध्यापक अभी जितनी किताबें और पत्र-पत्रिकाएं पढ़ते हैं, उससे कहीं ज्यादा उन्हें पढना होगा | पढ़ी हुई सामग्री और जीवन पर ज्यादा चिंतन और मनन करना होगा | लेकिन अगर, विश्वव्यापी नहीं तो कम से कम राष्ट्रिय वक्त रखने वाले महत्वपूर्ण खोज-कार्य न हों, खोज की योजनाएं और उनमें लगन से काम करने वाले लोग न हों, तो यह सब बेमजा ही रह जाता है | सबसे अधिक संभव रसमयता तो खोज में और दिमाग की व्यवस्थित जिज्ञासा में है, जो सौंदर्य-शक्ति या ज्ञान के क्षत्रों को उजागर करती है | 
            जितना आकर्षण प्राकृतिक विज्ञानों के खोज-कार्य में है, उतना अधिक आकर्षण और किसी में नहीं होता | इतने तात्कालिक महत्व की और कोई चीज भी तो नहीं है | ऐसा मालूम होता है कि गणित, रसायन, भौतिक-शास्त्र और भूगर्भ-विज्ञान जैसे विषयों में खोज निश्चित रूप से रहस्योद्घाटन करती है | मैं खोज की इन योजनाओं और उनमें लगे हुए वैज्ञानिकों के बारे में कुछ चर्चा करने योग्य तो नहीं हूँ, लेकिन इतना तो कह ही सकता हूँ कि उनके बिना आधुनिक काल का विश्वविद्यालय निष्प्राण प्रतीत होगा | सामाजिक विज्ञानों की निस्बतन कम रसमयता ही इस समय मेरा विषय है | एक अर्थ में, यह कम रसमयता अधिक महत्व की है, क्योंकि इसकी प्रतिध्वनियाँ जन-चेतन की गहराइयों तक जाती हैं और यह आंशिक रूप में वह आधार प्रदान करती हैं, जिस पर प्राकृतिक विज्ञान निर्मित होते हैं |
            सामाजिक विषयों में खोज का वर्गीकरण मुख्य रूप से वर्त्तमान औत अतीत, आधुनिक और प्राचीन में करना चाहिए | फिर आधुनिक का वर्गीकरण मुख्य रूप से वर्णन-विश्लेषण और सिद्धांत-विश्लेषण में होना चाहिए | इतिहास, भूगोल, साहित्य, अर्थशास्त्र और पुराकथाओं जैसे विभिन्न विषयों की सीमा-रेखाओं को मिटाने की न जरुरत है और न ऐसा करना ही चाहिए, लेकिन खोज के उद्देश्य के लिए उन सभी का एक केंद्र में समन्वय करने की जरुरत है, जिसके तीन अंग हों, आधुनिक-वर्णन, आधुनिक-सिद्धांत और प्राचीन |
            अभी तक भारतीय विश्वविद्यालयों में कला-विषयों की खोज ज्यादातर आधुनिक-वर्णन-परक रही है | वहां भी, उसने अपने को संकुचित दायरों और अस्थायी अवधियों में सीमित रखा है | इसका यह अर्थ नहीं कि दामों में उतार-चढाओ या किसी जिले में मजदूरों के रहन-सहन या वर्त्तमान शताब्दी के तीसरे या चौथे दशक में रेलवे वित्त जैसे विषयों पर खोज अनावश्यक है | ऐसी खोज जारी रहनी चाहिए | किन्तु अगर विश्वविद्यालय दिमाग की रसमयता का सच्चा केंद्र बनना चाहें तो विस्तृत क्षेत्रों और व्यापक अवधियों को लेना होगा | 
            मैं एक उदाहरण दूँ | हिन्दुस्तान में जमीन का उपयोग एक ऐसा विषय है | एक ओर तो इसी प्रकार की पंद्रह एक-सी संकुचित किन्तु ज्यादा गहराई में जाने वाली खोजें हो सकती हैं | दूसरी ओर चार या पांच अधिक व्यापक विषय हो सकते हैं | जैसे एशिया या यूरोप में जमीन का उपयोग | विषय को कानून, मिलकियत, पैदावार के साधन, दाम और अन्य ऐसे ही विभिन्न पहलुओं में बांटा जा सकता है और हरेक पर खोज-निबंध प्रस्तुत किया जा सकता है | इसी प्रकार, उदाहरण के लिए, हिन्दुस्तान के विभिन्न साहित्यों में नारी के स्थान पर या अहिंसा और विश्व एकता जैसी नई उभरती हुई परिघटना पर भी खोज की जा सकती है |
            नई उभरती हुई या परिपक्व होने के बाद समाप्त होने वाली परिघटनाओं का विषय व्यापक और अद्भुत है और उसमें बहुत-सी संभावनाएं हैं | रंगीन चमड़ी वाले लोगों की स्वतंत्रता से ऐसे बहुतेरे विषय सामने आए हैं | स्वतंत्रता दिलाने वाली कौमिंतांग, वफ्द और कांग्रेस जैसी संस्थाओं में कुछ एकरूपता मिलती है, और कुछ विभिन्नताएं भी | उनके अध्ययन से न सिर्फ ऐसी ख़ुशी होगी, जो सभी रहस्योद्घाटन में होती है, बल्कि ज्ञान भी मिलेगा |
            हिन्दुस्तान की वर्ण-व्यवस्था अपने रहस्यों का पता तो शायद किसी खोजी को कभी न लगाने दे, लेकिन व्यापार और उद्योग के मौजूदा पेशों में उसका विस्तार, खोज का एक ऐसा क्षेत्र है जिससे लाभ हो सकता है | उदाहरण के लिए, मल्लाह, मछुए, भिश्ती और घरेलु नौकर एक ही व्यापक वर्ण के सदस्य हैं और आर्थिक स्थिति व पेशों के अलावा उनके मौजूदा रीति-रिवाज, रहन-सहन और विचारों की खोज में बहुत सामग्री तो मिलेगी ही, कुछ नई बातें भी मालूम होंगी |
            वर्ण-विश्लेषण को सिद्धांत-विश्लेषण का मार्ग तैयार करना चाहिए, जिसका इस समय भारतीय विश्वविद्यालयों में लगभग पूरा अभाव है | सैद्धांतिक विश्लेषणात्मक खोज के बिना केवल वर्णनात्मक खोज का मूल्य लाजमी तौर से नष्ट हो जाता है और वह प्रतिष्ठा व आमदनी की दृष्टि से घटिया डॉक्टर उपाधिधारियों का नीरस प्रवचन रह जाती है | विशेषतः गैर-यूरोपीय देशों में सैद्धांतिक-विश्लेषणात्मक खोज गहरी होनी चाहिए, क्योंकि इस समय सारी दुनिया में यूरोप में गढ़े हुए वैद्य दिमाग के सैद्धांतिक औजार इस्तेमाल होते हैं | इन औजारों को बारीकी से जांचना चाहिए | विश्वविख्याति वैधता के उनके झूठे दावों की असलियत को सामने लाना होगा और मौलिक विश्लेषण के द्वारा विचार के बेहतर औजारों का निर्माण करना होगा | 'डॉक्टर' की उपाधि के उम्मीदवार से शायद यह आशा करना उचित न होगा कि वह इन औजारों का निर्माण करे क्योंकि आमतौर पर वह युवा होता है, उसमें विस्तृत ज्ञान नहीं होता और न ही असाधारण प्रतिभा | किन्तु उससे यह आशा करना तो उचित ही है कि वह इन औजारों की बारीकी से जांच करे और उनकी उपयोगिता के साथ-साथ उनकी कमियों को भी सामने लाए | ऐसी खोज से संभव है कि विश्वविद्यालय के अन्दर और बाहर भी ऐसे बी=विचार के औजारों की सृष्टि के अनुकूल वातावरण बन सके जिनकी वैधता सार्वभौमिक हो |
            मनुष्य के मौजूदा विचार ऐसी धारणाओं से भरे पड़े हैं जिनकी वैधता केवल आंशिक है | उनमें से कुछ ये हैं : 1. प्रगति, 2. समृद्धि, 3. पूंजीवाद, 4. सामंतवाद, 5. समाजवाद या साम्यवाद | इनमें से हरेक का किताब में, बातचीत में निरंतर इस्तेमाल होता रहता है | प्रचलित विचारों पर यूरोप ऐसा हावी है कि गैरयूरोपीय विश्वविद्यालय के लोगों को इन धारणाओं की गहराई से जांच करने की बात नहीं सुझती | कोल्हू के बैलों की तरह वे बंधें हुए दायरे में यूरोप के औजार लेकर खोज का काम करते जाते हैं और कभी यह नहीं सोचते कि ये औजार नाकाफी हैं और इन्हें फिर से गढ़ने की जरुरत है |
            पूंजीवाद, समाजवाद या साम्यवाद जैसी कल्पनाएँ वास्तव में विचार-श्रेणियां हैं, जो कुछ आर्थिक और सामाजिक व्यवस्थाओं की पहचान कराती हैं | साथ ही साथ, और इससे भी अधिक, ये ऐसी अनुपम ऐतिहासिक परिघटनाएं हैं, जिनका पुनर्जन्म समान परिस्थितियों में ही हो सकता है | साम्यवाद केवल निजी संपति का खात्मा नहीं है | यह काम कहां हो सका है ? चेकोस्लोवाकिया जैसे बड़े पैमाने की पैदावार वाले देश में या वियतनाम के गतिहीन खेती के ढाँचे में ? रूस में जहां आबादी का घनत्व कम है, या चीन में जहाँ आबादी घनी है ? बहुत घनी आबादी वाले हिन्दुस्तान जैसे देशों को छोड़ ही दें | आबादी का घनत्व और मशीनों का प्रकार और परिमाण, ये पहलू ऐसे निर्णायक महत्व के हैं कि इनकी मात्रा कम-ज्यादा होने पर साम्यवाद का चरित्र बिल्कुल ही भिन्न हो जाएगा | इसीलिए पूंजीवाद और साम्यवाद की प्रचलित धारणाओं की समीक्षा करना जरुरी है | बहुत संभव है कि उनका परस्पर विनाशकारी प्रतीत होने वाला युद्ध निकट से जांच करने पर वास्तव में एक ही सभ्यता के दो अंगों की आपसी प्रतिद्वंदिता प्रमाणित हो | तब इतिहास और अर्थशास्त्र को पूंजीवाद और साम्यवाद के यूरोपीय प्रसंग में नहीं समझा जाएगा जो अधिक सार्वभौमिक है |
            इसी प्रकार प्रगति और समृद्धि की धारणाओं की बहुत व्यवस्थित और वैज्ञानिक जांच करने की जरुरत है | यह अंधविश्वास फैलने दिया गया है कि विज्ञान के द्वारा निरंतर प्रगति और समृद्धि बढती रही है या उसके लाभ निकट भविष्य में मिलने ही वाले हैं | अगर भाप या बिजली या पेट्रोल के संबंध में की गई भविष्यवाणी पूरी नहीं हुई, तो मनुष्य के लिए यह मान लेने का कोई कारण नहीं है कि अणुशक्ति के बारे में की जा रही ऐसी ही भविष्यवानियाँ पूरी हो जायेंगी | दो हजार वर्ष पहले या कुछ सदियां पहले भी हिंदुस्तान और रंगीन चमड़ी वाले अधिकांश इलाकों में प्रति व्यक्ति जितना भोजन उपलब्ध था, आज निश्चय ही उससे कम है | लेकिन हिन्दुस्तान और अन्य स्थानों के उच्च-माध्यम वर्ग के रहन-सहन में प्रगति हो रही है, और यही लोग किताबें लिखते हैं | विश्वविद्यालय में जो लोग सत्य के खोजी हैं उन्हें इन धारणाओं की बड़ी मेहनत से और बड़ी पैनी दृष्टि से जांच करनी होगी |                                                                                                                          एडम स्मिथ में यह प्रतिभा थी कि उसने अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और श्रम के भौगोलिक विभाजन के बीच समानता स्थापित कर दी | यह मूलतः इंग्लिस्तानी विचार था लेकिन सौ वर्ष से अधिक समय तक सारी दुनिया के दिमाग पर छाया रहा | फिर जे. एम. कीन्स में यह प्रतिभा थी कि 'उसने  'सबको रोजगार मिले' के सिद्धांत को इस विचार में जोड़ा | यह भी मूलतः एक इंग्लिस्तानी विचार था, लेकिन सारी अंग्रेजी बोलने वाली दुनिया पर इस समय यह विचार छाया हुआ है | हिन्दुस्तान में विश्वविद्यालय के लोगों को कम से कम इतनी योग्यता प्राप्त करने की कोशिश तो करनी ही चाहिए कि अन्दर से और बाहर से भी, इन सभी धारणाओं की जांच कर सकें और सारी दुनिया में अपेक्षतया समान उत्पादन-शक्ति के सार्वभौमिक सिद्धांत को खोजने की चेष्टा करें |
            वर्ण-विश्लेषण और सिद्धांत-विश्लेषण के साथ-साथ प्राचीन के भी गहरे अध्ययन की जरुरत है | किसी भी समय दुनिया अपने अतीत का ही फल होती है | हिन्दुस्तान तो मुख्य रूप से अपने अतीत का ही फल है | किसी अन्य देश का वर्त्तमान जीवन अपने अतीत के सिद्धांतों, स्मृतियों और पुराकथाओं से उतना ओत-प्रोत नहीं है, जितना हिन्दुस्तान का | समकालीन बातों से ज्यादा, लोग अतीत की इन बातों को लेकर हँसते-रोते और झगड़ पड़ते हैं, फिर भी कोई सही अध्ययन नहीं होता |
            इतिहास-पूर्व काल में भी दक्षिणमार्गी था | राम उस पर सचमुच चले या यह केवल किंवदंती है ? इसका और प्राचीन भारतीय इतिहास में उसके उत्तराधिकारी का अध्ययन किया जाना चाहिए | इसी प्रकार कृष्ण के पूर्व-पश्चिम मार्ग का अध्ययन भी किया जाना चाहिए | प्राचीन इतिहास-भूगोल, पुराकथाएँ और साहित्य की खोज के नतीजों को एकत्रित करना होगा, ताकि इन विषयों के रहस्य का उद्घाटन हो सके | इसी प्रकार गंगा, नर्मदा या कावेरी की अतीत और वर्त्तमान में प्रचलित कथाओं में बड़ी सामग्री मिलेगी | तुलसीदास की सीता की तरह वाल्मीकि की भी एक सीता थी,और लोकगीतों की सीता का कहना ही क्या |इन सारे युगों की सीता की जीवनी की खोज करना लाभदायक होगा |
            इनमें से कुछ पुराकथाओं के प्रतिक और ख्याल आज भी नित्यप्रति इस्तेमाल होते हैं और ज्ञान की कमी के कारण उनसे बहुतेरे झंझट होने के अलावा अपव्यय भी होता हैं | हिन्दुस्तान की वर्णमालाएं इसका एक उदाहरण हैं | ये सब नागरी वर्णमाला के हेरफेर हैं | उड़िया वर्णमाला, जो पहली बार देखने में नागरी लिपि से असाधारण रूप से भिन्न प्रतीत होती है, वास्तव में उसी सिद्धांत का एक प्रसार-मात्र है जिसकी वजह से बंगला वर्णमाला नागरी से भिन्न हो गई है | उसमें सीधी रेखाओं के स्थान पर वक्र और गोल रेखाओं का अधिकाधिक इस्तेमाल होता है | तमिल वर्णमाला में अक्षरों कि संख्या कम है, लेकिन उनकी ध्वनियाँ नागरी की जैसी ही हैं | अगर इसके इतिहास का अध्ययन करने पर उसमें भी वही बात पाई जाए तो मुझे कोई आश्चर्य नहीं होगा | इसी तरह हिन्दुस्तान की भाषाओं के विस्तृत अंगों और उनकी व्यापक अभिव्यंजना-शक्ति का भी अध्ययन करने की जरुरत है | प्राचीन कला के सारे क्षेत्र में इतनी गुंजाइश है कि डाक्टरेट की हजारों उपाधियाँ प्राप्त की जा सकती हैं |
            जो विश्वविद्यालय वर्णन-विश्लेषण, सिद्धांत-विश्लेषण और प्राचीन विषयों में खोज का सुगठित कार्यक्रम चलाएगा, वह हिन्दुस्तान के लोगों की भलाई का काम करेगा | हिन्दुस्तान का दिमाग, अपने विकास की पूर्ति के लिए ऐसा विश्वविद्यालय खोज निकालेगा | मुझे यह कहने की जरुरत नहीं है कि ऐसी खोज का माध्यम कभी अंग्रेजी नहीं हो सकती | अवश्य ही ऐसी खोज की भाषा हिंदी या हिन्दुस्तान  की कोई अन्य भाषा होगी | पहले मैं सोचता था कि स्नातकीय शिक्षा के ऊपर हिन्दुस्तान के सभी विश्वविद्यालयों में हिंदी में काम होना चाहिए | अपनी इस राय में आंशिक संशोधन करना मेरे लिए जरुरी है | भाषा का वह साधिकार प्रयोग, जिसके बिना प्राचीन विषयों में खोज का कोई अर्थ नहीं होता, और वर्णनात्मक और सैद्धांतिक विषयों में भी कम ही होता है, केवल मातृभाषा के द्वारा ही संभव है | मुझे आशा है है कि कोई दिन ऐसा आएगा जब हिन्दुस्तान के सभी लोगों के लिए हिंदी मातृभाषा के समान होगी | लेकिन तब तक के लिए हिन्दुस्तान के सभी भाषाओं को स्नातकीय शिक्षा के बाद खोज-कार्य के माध्यम के रूप में स्वीकार करना होगा | अन्यथा आजकल खोज करने वाले आमतौर पर अपने माध्यम से अच्छी तरह परिचित न होने के कारण जो मोटी-मोटी नीरस और तत्वहीन किताबें लिखते हैं, उनका सिलसिला जारी रहेगा |  
                                                        

Tuesday, 26 June 2018

दिल्ली विश्वविद्यालय : नए अकादमिक सत्र में फीस वृद्धि का फैसला छात्र विरोधी


प्रेस विज्ञप्ति


दिल्ली विश्वविद्यालय में इस साल दाखिला लेने वाले छात्र-छात्राओं को पहले के मुकाबले दो से तीन गुना ज्यादा फीस भरनी पड़ रही है. कालेजों ने मनमाने तरीके से दाखिले की फीस का अलग-अलग पैमाना रखा हुआ है. इस मामले में छात्रों और अभिभावकों की कहीं सुनवाई नहीं है. कालेजों का रवैया है कि दाखिला लेना है तो जीतनी फीस मांगी गई है, भरो वरना अपना रास्ता नापो! सोशलिस्ट युवजन सभा (एसवाईएस) विश्वविद्यालय एवं कॉलेज प्रशासन के फीस-वृद्धि के इस अनुचित फैसले और रवैये का कड़ा विरोध करती है. एसवाईएस की नज़र में फीस-वृद्धि का यह फैसला छात्र-समुदाय के हितों के खिलाफ है. विशेष तौर पर सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े छात्रों के हितों पर यह भारी कुठारघात है. अनाप-शनाप फीस-वृद्धि के चलते पहले से ही कई तरह की बाधाओं से घिरी देश की लड़कियों, विशेष तौर पर गाँव-कस्बों की लड़कियों, के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा पाना और दुर्लभ हो गया है.

            फीस-वृद्धि की खुली अनुमति देने वाले कुलपति को तो मानव संसाधन मंत्री का हुक्म बजाना है. देश के राष्ट्रपति, जो दिल्ली विश्वविद्यालय के विजिटर भी हैं, और प्रधानमंत्री ने फीस-वृद्धि के निर्णय पर आंखें बंद की हुई हैं. क्योंकि उनका मकसद नवउदारवादी नीतियों के तहत देश के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों को नष्ट करके उनकी जगह विदेशी विश्वविद्यालयों व देशी कॉर्पोरेट विश्वविद्यालयों के लिए शिक्षा का बाजार उपलब्ध कराना है. लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि छात्र हितों की रक्षा का सर्वोच्च मंच दिल्ली विश्विद्यालय छात्र संघ (डूसू) फीस-वृद्धि जैसे गंभीर मसले पर चुप है.

            सोशलिस्ट युवजन सभा मांग करती है कि विश्वविद्यालय/कॉलेज फीस-वृद्धि का फैसला वापस लें  और जिन छात्राओं/छात्रों ने इस सत्र में दाखिला ले लिया है उनके पैसे वापस किये जाएं.

नीरज कुमार
अध्यक्ष
सोशलिस्ट युवजन सभा

Monday, 25 June 2018

Lok Sabha Elections 2019: A Perspective for Opposition Unity



Prem Singh

I
                                                                                     
        
  Before discussing the complex subject of opposition unity, it would be appropriate to look at some obvious facts. Firstly, there exists no opposition to the neo-liberal policies that has prevailed for the past three decades in the country - none at the level of mainstream political parties, none at the level of intellectuals and 'thinking' class. Therefore, the process of selling the country's resources, labor and public sector enterprises/establishments to corporate houses and multinationals will continue in the same way unabated. There appears  no possibility of a change in the condition of farmers, unorganized/organized sector workers, artisans, small entrepreneurs and the  unemployed. The gap of economic disparity will keep rising at the same or higher speed. Consequently, social tensions, alienation, suicides, crimes, superstitions, falsehood, obscurantism and deceit will continue to be rooted in society. Secondly, despite the current government's defeat in the 2019 Lok Sabha elections, there will be no eradication of communal fanaticism. A point that needs to be noted in great seriousness is that the character of the current communal fanaticism is deeply and irrevocably related to the neo-liberal system. Opposition parties and secular intellectuals may cry themselves hoarse about the need to save secularism but they always brush this truth under the carpet. They are not even ready to understand that secularism and socialism are inter-related and secularism cannot be saved by abandoning socialism which is a fundamental value ​​embedded in the Constitution. Rather it can be predicted that communal fanaticism will increase and its havoc will be unleashed faster over the society if this fact is ignored. Thirdly, the devaluation of the Constitution and the constitutional institutions will not cease because the fundamental spirit of the Constitution and the institutions based on it was not meant to 'develop' a neo-liberal India. The popular adage 'Shining India' and sometimes 'New India' given by the neo-liberal rulers under the umbrella of corporate colonialism or neo-imperialism is against this fundamental spirit of the Constitution. Fourthly, politics that has been fed upon a blend of negative tendencies such as individualism, family-rule, communalism, casteism, regionalism, money power and muscle power will continue to flourish in the country if the dinosaur of neo-liberalism is allowed to swallow the world. Fifth, politics will continue to retain its character as a game of money power in the circumstances because political parties/politicians will  get to collect huge amounts in the name of legal and illegal funding, in the process of the sale of the country's resources, and in the process of the disinvestment of public enterprises.

II

          The hopeful and the forward-looking should not perceive this as a statement of pessimism; it is reality, a stark and plain reality. In the light of this reality, the unity of opposition parties for the 2019 Lok Sabha elections should mean 'electoral' unity but with a respect for democratic and constitutional values. This unity should be forged before the elections and should be done with a realistic approach, i.e. aiming at the electoral victory but without forgetting the essence of democratic values. The Modi-Shah partnership has transformed the democratic process into a hunger to win elections. Democratic proprieties do not matter to them. In the Modi-Shah partnership, the Lok Sabha elections of 2019 will be such an un-ethical fierce battle that democracy will have to run around seeking some refuge! The opposition should not fall a victim to the hunting-instinct of Modi-Shah in the election race.

          It is true that elections are the most important aspect of democracy. But at the same time it is also true that elections are held only if there is democracy. If democracy continues, there will always be some possibility for a politics that would fight  against the menace of neo-liberal-communal nexus. Dr. Lohia said that the task of politics is to fight evil. But in the present times India's leaders and intellectuals do not seem to believe in that. Under the dictates of neo-liberal/neo-imperial wave, the current politics in India has become an evil process in itself, one that is unconcerned about the repercussions. Politics should not be allowed to turn into a permanent carrier of evil. For this it is necessary that there should be possibilities for governments to change in the elections. Therefore, the electoral unity of the opposition parties, which could change the present government and the power equation, will play an important role in the direction of making democracy more meaningful.

          In the NDA along with the BJP, over 35 other parties, big and small, are included. Less than a year remains now for the Lok Sabha elections. Until the elections come, the possibility of breakdown in this coalition seems unlikely. The dissatisfaction shown by some of the parties like Lokjan Shakti Party, Apna Dal, Rashtriy Lok Samata Party is not about the government's policies or the failures. It is a ploy to bargain for the larger number of seats in 2019 Lok Sabha elections. The Modi-Shah team understands this intention very well.

               In the recent past a strategy of  ad-hoc alliances of the opposition parties was able to defeat the BJP in some parliamentary and assembly seats. But this ad-hoc coalition strategy will not be effective in the 2019 Lok Sabha elections. The national level elections should be fought with a national level strategy. For this, a coalition at the national level based on national understanding, is a necessity. The contentious issue in this regard is whether the alliance of the remaining parties other than the NDA will be formed with or without the Congress? At both levels, that of ideas and efforts, plans are going on through the initiatives taken by leaders and the intellectuals. It is worth mentioning here that the Congress and the BJP both are in favor of two-party parliamentary democracy. Former prime minister Manmohan Singh and senior BJP leader LK Advani, during the UPA regime, have advocated for a two-party system in the country suggesting that the rest of the parties should merge with the BJP or the Congress. Further, the BJP has been in favour of the presidential system in India on the pattern of the US. In fact, that would make the most suitable condition for corporate politics to flourish if India has a two-party contest like America.
            In such a situation, if the coalition is formed without the Congress, then the Constitutional system of multi-party parliamentary democracy will get validity and strength. The Constitution recommends the federal structure of the Indian state. But since Independence, centralistic tendencies have been getting encouragement and have reached the peak under the present government. The federal structure of the state is inseparable from the concept of decentralization of power, resources and governance. If a pre-election coalition is formed without the BJP and the Congress there will be some defense for the federal structure and the idea of decentralization. Whenever prime minister Narendra Modi speaks about a 'Congress-free' India, he considers the Congress as the main opposition party. It means that he intends to eliminate the non-Congress, non-BJP concept of the third force in Indian politics. Such a situation suits the Congress as well. The voter would elect the Congress with a majority of its own in 2024, if not in 2019. Then, there would not be any hindrance at all for Rahul Gandhi becoming the prime minister.

            The Congress has not come out on the roads to support the demands of farmers, laborers and unemployed agitating all over the country against the government policies during the last four years. The largest minority of the country has been passing through a deep crisis under the present regime, but the Congress has not held protest in its support even once. The main reason for such  behaviour of the Congress is its power-enjoying character. But there is also a strategy involved. And it is a serious one. The Congress probably wants that the Muslims, scared by the RSS/BJP and its affiliates, will blindly vote only for the Congress in future. After the politicization of dalits and backward communities, the Congress might see Muslims as a lump sum vote bank. It is pertinent to note here that after abandoning the Congress, the majority of the Muslim votes go to the parties called as the third force of Indian politics.

            Modi's falsehoods cannot always fool people. Nor can the 'Chanakya-Neeti' of Amit Shah win the elections and form the governments at any cost for ever in the future. Modi has made the government a tool in the hands of the corporate houses to make indiscriminate profits. It has become a government which benefits the richest person first. Farmers-workers-artisans-entrepreneurs-unemployed, devastated by this oppressive government, will vote tomorrow, if not today, against the BJP. The money of the corporate houses and the bought-media would not be able to save its power. The Congress seems to be waiting for this very time. If the concept of the third force in the politics is eliminated at the national level, then the Congress will get that anti-incumbency vote. And after the rule of the Congress for five or even ten years, there will be the BJP turn. If a government of the third force is formed at the center with the Congress, it will not allow that government to complete its term. In the case of mid-term elections, again there will be a contest between the BJP and the Congress.

            The formation of a front separate from the Congress does not mean that the Congress is opposed as a political party. The Congress is a capable party in its own. It has the party organization at the national level. In the last Lok Sabha elections, even after a bitter defeat, it had the second place in the Parliament. It is second in getting corporate funding after the BJP. In the states where Congress has a strong hold, it would contest elections with full force. In case the opposition without Congress does not get a full majority in the 2019 Lok Sabha elections, the Congress can support the third force government from outside. However, in such a situation, some constituent parties of the NDA can also join that government.

                                                             III

            The coalition of the third force can be named as the National Front for Social Justice. All the parties, including the Communist parties, can join this front. This will include those who do not want to contest the next Lok Sabha elections in conjunction with the BJP and the Congress. The process of formation of the National Front should be started without delay. In order to move forward in this direction, it will be appropriate to form a co-ordination committee with a convener. Sharad Yadav could be a name for the post of convener of co-ordination committee. There should be four or five spokespersons of the proposed front who would constantly explain the nature, policies and progress of the National Front directly or through media. A committee should be formed to prepare the election campaign strategy and election material.

            The question of the role of small ideological parties in the National Front is also important. The mode of their co-operation should be drawn up. It would be better to keep off the parties and individuals who advocate politics/governance without ideology (including the ideology of the Constitution) from the National Front. They are a direct product of corporate capitalism, hence direct supporter of the neo-liberal ideology. Civil society organizations and individuals, who work with a political understanding should be linked to the National Front. These could be organizations and individuals associated with industries, mines, agriculture, education, services, commerce, trade, literature, arts, studies, sports and so on. Non-Resident Indians, who are politically conscious and concerned about the deteriorating conditions of the country, could also be linked to the National Front. These efforts should be made with utmost seriousness so that an atmosphere of broad consensus and faith could be created in favour of the National Front all over the country. With such an approach the prospects of playing an important role in the future politics of India by the National Front would be enhanced.

            The possibility of the victory of the National Front would increase if the common minimum program would be prepared with the promise that the new government will review the neo-liberal economic policies in favor of farmers, workers, small-scale traders/entrepreneurs, students and unemployed. The BJP and the Congress cannot make this promise. Apart from this, the leadership of the National Front, due to its social base, would not be able to implement the policies propagated by the World Bank, the International Monetary Fund, the World Trade Organization, the World Economic Forum etc. as promptly as the Congress and the BJP do. As a result there will be a reduction in the loot of corporate houses and multinationals at least to some extent. Furthermore, with the victory of National Front, there could be once again a possibility of making the economic policies according the Directive Principles of the Constitution.

            The decision of choosing the main leader of the National Front, who would also be the prime ministerial candidate, is a very complex task. But in order to put a strong and serious fight in the 2019 Lok Sabha elections, there is no choice before the  opposition leaders but to make this decision honestly and wisely. I wrote an article titled 'The Relevance of Third Front' before the 2014 Lok Sabha elections which was published in several magazines and portals in Hindi and English. In the article, I argued in support of a pre-election coalition unity of political parties other than the Congress and the BJP. I also suggested the name of senior CPI leader AB Bardhan as the leader of the proposed third front. However, the main opposition leaders, who were urging for a post-election coalition, did not concede to my proposal.

            The names of Mamta Banerjee and Mayawati are in discussion for the leadership of opposition's alliance to be formed for the 2019 Lok Sabha elections. Mamta Banerjee comes from an ordinary background. She had found the basis of a ruling and resource-rich political party while was in the Congress. But after leaving the Congress, she worked hard in the process of forming and strengthening the Trinmool Congress (TMC). She has achieved her political status through a long struggle. As a result, she is the Chief Minister of West Bengal for the second consecutive term. Her government in the state is not dependent on any other party. The recent Panchayat election results in West Bengal show that she has a strong hold on the voters. The Bahujan Samaj Party (BSP) chief  Mayawati comes from the dalit community. In today's politics, she is the only self-made leader. The BSP has status of a national party. The party has its units and supporters in most of the states. In the 2009 Lok Sabha elections, her name was proposed for the prime ministerial candidate of the third front. Mayawati is opposed to capitalism at least verbally. Given her social base and verbal opposition to capitalism, her government's political economy can be somewhat different from the prevailing neo-liberal economy. She is not currently an MLA or MP. Therefore, it is possible for her to give full time to the preparations of the National Front and for the elections.

            The above mentioned two names are considered here because, apart from them, currently no other leader is in the serious discussion. Senior DMK leader M Karunanidhi is 95 years old. The age of Mulayam Singh is 78 years, but his health is not so good that he can be the prime ministerial candidate of the National Front. Of course, he can play a significant role as an advisor. If he takes the campaign outside Uttar Pradesh, then it will be a big achievement for the National Front. Nitish Kumar's name used to go very well earlier, but he has gone along with the BJP after breaking the grand alliance in Bihar. Even if he  returns, he will not be able to restore his goodwill. Chandrababu Naidu recently came out of the NDA. There is no surety that he will not return to the NDA fold again. Naveen Patnaik is the Chief Minister of Orissa for the fourth consecutive term. In 2009, he left the BJP-led NDA and formed an alliance with the Left parties. He is not a vocal leader and does not go much out of Orissa. He is not involved in the political hustle-bustle related to the 2019 Lok Sabha elections. He was not even present in the swearing-in program of the Janata Dal (S) government formed with the support of the Congress in Karnataka recently. So far, he is non-committal. Efforts should be made to bring him into the fold of the National Front.

          Last but not least, the person that is agreed upon as the leader of the National Front will have to raise the level of her/his thinking. There is no substitute to sublimation in the times of deep crisis.

IV

            SP Shukla, former Secretary of Commerce and Finance, is a person who has been critical to the New Economic Policies from the very beginning. He seriously contemplated upon the anti-people consequences of the same and also put a sound ideological resistance to them in the initial round. Recently I had a discussion with him in Pune on the question of opposition unity in view of the 2019 Lok Sabha elections. I shared my views and perception with him. He agreed to the idea and said if the next elections are fought under the leadership of Mamta or Mayawati, it will be a step forward - an entry of the gender aspect in the stream of the subaltern politics which started in 1989 with the implementation of the Mandal Commission report.

          The intellectuals and activists of the country, who are worried about the basic values ​​of the Constitution - socialism, secularism and democracy - and the erosion of constitutional institutions, should play a positive role in the formation and acceptance of the National Front. In India, leaders have often inspired intellectuals and artists. Now it is a turn of the intellectuals, artists and conscious representatives of the civil society to extend their guidance and co-operation to the leaders in the times of crisis. 

The author teaches Hindi at Delhi University and is president of Socialist Party (India)

Wednesday, 20 June 2018

जम्मू-कश्मीर में समर्थन वापसी : भाजपा/आरएसएस के अवसरवादी और गैर-जिम्मेदार रवैये की एक और मिसाल

20 जून 2018
प्रेस रिलीज़

डॉ. अभिजीत वैद्य
राष्ट्रीय प्रवक्ता 
सोशलिस्ट पार्टी का मानना है कि भाजपा द्वारा जम्मू-कश्मीर में महबूबा मुफ़्ती सरकार, जिसका वह पिछले साढ़े तीन साल से हिस्सा थी, से समर्थन वापसी का अचानक फैसला भाजपा/आरएसएस के अवसरवादी और गैर-जिम्मेदार चरित्र की एक और मिसाल है. खुद भाजपा और आरएसएस के सूत्रों से यह साफ़ हो गया है कि भाजपा ने यह फैसला 2019 के लोकसभा चुनाव में फायदा उठाने की नीयत से किया है. यह फैसला बताता है कि भाजपा/आरएसएस का राष्ट्रवाद एक खोखला नारा है. भाजपा/आरएसएस सत्ता हथियाने औरबिना जिम्मेदारी सत्ता का उपभोग करने के लिए राष्ट्र के नाम का इस्तेमाल करते हैं. दरअसल, इस फैसले से भाजपा/आरएसएस ने राष्ट्रीय हित और राष्ट्रीय सुरक्षा को बुरी तरह खतरे में डाल दिया है.  
     
भाजपा के इस अवसरवादी और गैर-जिम्मेदारना फैसले से जम्मू-कश्मीर में हालात और बिगड़ सकते हैं. ऐसा होने से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि पर असर पड़ेगा. लिहाज़ा, वहां लोकतांत्रिक रूप से चुनी चुनी हुई सरकार का होना निहायत ज़रूरी है. ताकि लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और चेतना के प्रति सजगता बनी रहे.
भाजपा के समर्थन वापसी के बाद किसी अन्य गठबंधन सरकार की संभावना फिलहाल नज़र नहीं आ रही है. पहले का अनुभव बताता है कि जम्मू-कश्मीर में राज्यपाल शासन लम्बे समय तक कारगर नहीं हो सकता.
     
सोशलिस्ट पार्टी की मांग है कि जम्मू-कश्मीर में जल्द से जल्द विधानसभा चुनाव कराये जाएं. सोशलिस्ट पार्टी की पीडीपी, नेशनल कांफ्रेंस, कांग्रेस समेत अन्य छोटे दलों से अपील है कि वे जोर देकर जल्द से जल्द चुनाव कराने की मांग उठायें.

  

Withdrawal of support in Jammu and Kashmir : Another example of opportunistic and irresponsible attitude of BJP/RSS

20 June 2018
Press release

Dr. Abhijit Vaidya, National spokesperson
          
The Socialist Party believes that a sudden decision by the BJP to withdraw support to the Mehbooba Mufti government in Jammu and Kashmir, of which it was a part for the last three and a half years, is another example of opportunistic and irresponsible character of the BJP/RSS. It has become clear from the BJP and RSS sources itself that the BJP has decided to take this decision to take advantage in the 2019 Lok Sabha elections. This decision proves that the nationalism of BJP/RSS is a hollow slogan. The BJP/RSS uses the name of the nation to grab power and then consume power without accountability. In fact, by this decision the BJP/RSS has jeopardized the national interest and national security.    
This opportunistic and irresponsible decision of the BJP can further worsen the situation in Jammu  and Kashmir. Consequently, the situation can affect India's image internationally. Therefore, it is very important to have an elected government in Jammu and Kashmir in order to keep democratic processes and spirit alive.

After the withdrawal of the support by the BJP, the possibility of any other coalition government is not currently visible. Earlier experience shows that the governor's rule in Jammu and Kashmir cannot be effective for a long time.

The Socialist Party demands that assembly elections in Jammu and Kashmir be held as soon as possible. The Socialist Party appeals to PDP, National Conference, Congress and other small parties to raise demand for an early elections strongly.
Dr. Abhijit Vaidya
National spokesperson

Sunday, 17 June 2018

Prof. Keshav Rao Jadhav : A man of Courage, Conviction and Commitment


Prem Singh


Prof. Keshav Rao Jadhav, a prominent socialist thinker and leader passes away on 16th June 2018 at a hospital in Hyderabad at the age of 86. Prof. Jadhav was running ill for a long time. His funeral took place the same day in Hyderabad in the presence of several leaders and activists associated with the Telangana movement and the socialist movement. His last rites were performed by her elder daughter according to Arya Samaj method. Senior socialist leader Jaipal Reddy, former Supreme Court lawyer Sudershan Reddy, revolutionary poet Varvar Rao, senior Congress leader K. Jana Reddy, Telangana Jan Samiti president Prof. M. Kodandaram, along with other leaders, writers, journalists and artists, were present at the time of the funeral.  

A teacher by profession, Prof. Jadhav served as a professor of English in Osmania University till his retirement. Prof. Jadhav was a man of dreams and ideas who  joined the socialist movement in his student days. He was deeply inspired by the philosophy of Dr. Ram Manohar Lohia. He was elected to the post of president of Socialist Yuvjan Sabha (SYS), the youth wing of the Socialist Party. He became close associate of Dr. Lohia in the course of time and worked with him in 'Mankind' and 'Jan'. He published 'Lohia in his words' - a collection of quotations from the writings of Dr. Lohia - in the form of booklets. Comrade Ravela Somayya is planning to compile these booklets into a book. Prof. Jadhav brought out a  magazine namely 'New Mankind', on the pattern of 'Mankind', which he kept publishing for 4-5 years. He also published another magazine namely 'Olympus' almost for a decade. He kept himself engaged in holding and attending discussions/dialogues/workshops/seminars through various forums on issues/topics of social significance. He formed Lohia Vichar Manch with Kishan Patnayak. He, thus, enriched the legacy of socialist philosophy and movement.          

He played a major role in the movement of the separate Telangana state from late sixties to early seventies. He was arrested 17 times during the first phase of the movement and was jailed for two years. He led the Telangana Jan Samiti in order to achieve the goal. This was perhaps the reason that the Chief Minister of Telangana Mr. K. Chandrasekhar Rao condoled his demise.

Prof. Jadhav had been a constant fighter for the rights of the marginalized sections. Simultaneously, he  was a champion of civil liberties. He led the People's Union for Civil Liberties (PUCL) in Andhra Pradesh and later in Telangana. Prof. Jadhav, a true democrat, was against violent methods to be used either by the state or by the ultra left groups called Maoists. He, however, was always in favour of a dialogue with the Maoists. He also constantly fought against the communal forces and worked for peace, harmony  and relief during spells of communal riots the city of Hyderabad. Prof. Jadhav was jailed under MISA during the Emergency.  

Prof. Jadhav took active part in the political activities of Janata Party and then Lok Dal. At last he became disillusioned from the mainstream politics and got associated with Samajwadi Jan Parishad (SJP), formed in 1995 by Kishan Patnayak and other senior and young socialists to counter the New Economic Policies imposed in 1991. He held the responsibility of vice president in SJP. But his mind was ever on a quest. He played a major role in the re-establishment of the original Socialist Party in 2011 in Hyderabad as Socialist Party (India). He remained associated with his new party till the end.

Prof. Jadhav will be remembered as a man of courage, conviction and  commitment. The Socialist Party (India) has lost its three stalwarts - Bhai Viadya, Justice Rajindar Sachar and now Prof. Jadhav - within last three months. The demise of Prof. Jadhav is indeed a big loss to the socialist movement in general and to  the Socialist Party in particular.

We pay our humble tributes to him with a pledge that the fight for socialism will go on uninterrupted.


Author teaches Hindi at Delhi University and is president of Socialist Party (India), Former Fellow,Indian Institute of Advanced Study, Shimla
Former Visiting Professor, Center of Oriental Studies, Vilnius University, Lithuania
Former Visiting Professor, Center of Eastern Languages and Cultures.Dept. of Indology, Sofia University,Sofia. Bulgaria              

Saturday, 16 June 2018

Veteran Socialist Party leader Prof. Keshav Rao Jadhav passes away



16 June 20 18
Press Release
Veteran Socialist Party leader Prof. Keshav Rao Jadhav passes away

Prof. Keshav Rao Jadhav, a prominent leader of the Indian Socialist Movement, passes away today on 16th June 2018 at a hospital in Hyderabad. 85 years old Prof. Jadhav was running ill for a long time. His funeral was done in Hyderabad today in which leaders and activists associated with the Telangana movement and socialist movement participated in large numbers.

Prof. Jadhav, a retired teacher of English literature, had close association with Dr. Ram Manohar Lohia. He worked with Dr. Lohia in 'Mankind'. He was among the prominent leaders of Dr. Lohia's Socialist Party.

He played a major role in the movement of separate Telangana state and led Telangana Jan Samiti to achieve the goal. He also led the People's Union for Civil Liberties (PUCL) in Andhra Pradesh later on in Telangana.

Prof. Jadhav had been associated with Samajwadi Jan Parishad(SJP), formed in 1995. He played a major role in the re-establishment of the Socialist Party as Socialist Party (India) in 2011 in Hyderabad.

Prof. Jadhav's death is a big loss for the socialist movement and for the Socialist Party. All members of the Socialist Party pay their humble tribute to Prof. Jadhav.


Dr. Prem Singh
President               

प्रेस रिलीज़
सोशलिस्ट पार्टी के वरिष्ठ नेता प्रोफ. केशव राव जाधव का निधन

भारतीय समाजवादी आंदोलन के प्रमुख हस्ताक्षर प्रोफ. केशव जाधव का आज 16 जून 2018 को सुबह हैदराबाद के एक अस्पताल में निधन हो गया. 85 वर्षीय प्रोफ. जाधव लम्बे समय से बीमार चल रहे थे. उनका अंतिम संस्कार आज ही हैदराबाद में किया गया, जिसमें समाजवादी कार्यकर्ताओं के साथ तेलंगाना आंदोलन से जुड़े नेताओं और कार्यकर्ताओं ने बड़ी संख्या में हिस्सा लिया.

अंग्रेजी साहित्य के शिक्षक रहे प्रोफ. जाधव डॉ. राममनोहर लोहिया के निकट सहयोगी थे. उन्होंने डॉ. लोहिया के साथ 'मैन काइंड' में काम किया था. डॉ. लोहिया की सोशलिस्ट पार्टी के वे प्रमुख नेताओं में थे. उन्होंने 60 के दशक से ही अलग तेलंगाना राज्य बनाने के आंदोलन में प्रमुख भूमिका निभायी थी. वे तेलंगाना जन समिति के अध्यक्ष थे. पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) की आंध्र प्रदेश और तेलंगाना इकाई के साथ भी वे सम्बद्ध रहे.

प्रोफ. जाधव 1995 में गठित समाजवादी जन परिषद् के वरिष्ठ नेता रहे. सोशलिस्ट पार्टी की हैदराबाद में 2011 में सोशलिस्ट पार्टी (भारत) के नाम से की गई पुनर्स्थापना में उनकी प्रमुख भूमिका थी.
प्रोफ. जाधव का निधन समाजवादी आंदोलन और सोशलिस्ट पार्टी के लिए बड़ी क्षति है. सोशलिस्ट पार्टी के समस्त सदस्यों की ओर से प्रोफ. जाधव को विनम्र श्राद्धांजलि.


डॉ. प्रेम सिंह
अध्यक्ष    

Wednesday, 13 June 2018

लोकसभा चुनाव 2019 : विपक्षी एकता के लिए एक नज़रिया



प्रेम सिंह

     
लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के शिक्षक
और सोशलिस्ट पार्टी (भारत) के अध्यक्ष हैं
 विपक्षी एकता के जटिल विषय पर चर्चा करने से पहले कुछ स्पष्ट तथ्यों को देख लेना मुनासिब होगा. पहला, पिछले करीब तीन दशकों से जारी नवउदारवादी नीतियों का कोई विपक्ष देश में नहीं है. न मुख्यधारा राजनैतिक पार्टियों के स्तर पर, न बौद्धिक वर्ग के स्तर पर. लिहाज़ा, देश के संसाधनों, श्रम और सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों/प्रतिष्ठानों को कारपोरेट घरानों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों को बेचने का सिलसिला इसी तरह चलते रहना है; किसानों, असंगठित और संगठित क्षेत्र के मज़दूरों, कारीगरों, छोटे उद्यमियों, बेरोजगारों की जो बुरी हालत है, उसमें बदलाव की संभावना नहीं है; और आर्थिक विषमता की खाई इसी तरह बढ़ती जाएगी. नतीज़तन, समाज में तनाव, अलगाव, आत्महत्या, अपराध, अंधविश्वास, झूठ, फरेब जैसी प्रवृत्तियां जड़ जमाती जायेंगी. दूसरा, 2019 के लोकसभा चुनाव में वर्तमान सरकार की पराजय के बावजूद साम्प्रदायिक कट्टरता का उन्मूलन नहीं होगा. मौजूदा साम्प्रदायिक कट्टरता का चरित्र नवउदारवादी व्यवस्था के साथ गहराई से सम्बद्ध है. विपक्षी पार्टियाँ और सेक्युलर बुद्धिजीवी इस सच्चाई से आँख चुरा कर धर्मनिरपेक्षता बचाने की गुहार लगाते हैं. वे यह समझने को तैयार नहीं हैं कि संविधान के मूलभूत मूल्यों में से समाजवाद को त्याग देने के बाद धर्मनिरपेक्षता को नहीं बचाया जा सकता. बल्कि कहा जा सकता है कि साम्प्रदायिक कट्टरता बढ़ती जायेगी और समाज पर उसका कहर ज्यादा तेज़ी से टूटेगा. तीसरा, संविधान और संस्थाओं का अवमूल्यन नहीं रुकेगा, क्योंकि यह संविधान और उस पर आधारित संस्थाएं कारपोरेट उपनिवेशवाद अथवा नवसाम्राज्यवाद के तहत नवउदारवादी भारत (जिसे कभी 'शाइनिंग इंडिया' और कभी 'न्यू इंडिया' कहा जाता है) बनाने के लिए तैयार नहीं किये गए थे. चौथा, व्यक्तिवाद, परिवारवाद, साम्प्रदायिकता, जातिवाद, क्षेत्रवाद, धन-बल, बाहु-बल आदि नकारात्मक प्रवृत्तियों के सम्मिश्रण से बनी राजनीति देश में आगे भी बदस्तूर चलती रहेगी. चौथा, संसाधनों की बिकवाली और सार्वजनिक उद्यमों के विनिवेश की प्रक्रिया में राजनीतिक पार्टियों/नेताओं को जो अवैध और कानूनन चंदे के रूप में अकूत धन मिलता है, उसके बल पर राजनीति धन का खेल बनी रहेगी.
      आशावादी इसे निराशावाद न समझें, यह हकीक़त है. इस हकीक़त के मद्देनज़र 2019 के लोकसभा चुनाव में विपक्षी एकता का अर्थ चुनावी एकता ही हो सकता है. यह एकता चुनाव-पूर्व होनीं चाहिए और उसे यथार्थवादी नज़रिए, यानी चुनावी जीत के नज़रिए से अंजाम देना चाहिए. मोदी-शाह ने लोकतंत्र को चुनाव जीतने की हविस में तब्दील कर दिया है. लोकतान्त्रिक मर्यादा उनके लिए कोई मायने नहीं रखती. मोदी-शाह के नेतृत्व में 2019 का लोकसभा चुनाव एक ऐसा मर्यादा विहीन घमासान होगा कि लोकतंत्र पनाह मांगता घूमेगा! विपक्ष को चुनावी दौड़ में मोदी-शाह की शिकार-वृत्ति का शिकार नहीं होना चाहिए. उस रास्ते पर जीत मोदी-शाह की ही होगी. विपक्ष को देश के संविधान का सम्मान और नागरिकों पर भरोसा करते हुए लोकतंत्र की मर्यादा के दायरे में चुनाव लड़ना चाहिए.
      यह सही है कि चुनाव लोकतंत्र का सबसे अहम पक्ष है. लेकिन साथ में यह भी सही है कि लोकतंत्र है तो चुनाव हैं. लोकतंत्र चलता रहेगा तो नवउदारवाद/नवसाम्राज्यवाद से लड़ने वाली राजनीति के लिए कुछ न कुछ संभावना बनी रहेगी. डॉ. लोहिया ने कहा है कि राजनीति बुराई से लड़ने का काम करती है. भारत के नेता और बुद्धिजीवी हालाँकि ऐसा नहीं मानते प्रतीत होते, लेकिन भारत की मौजूदा नवउदारवाद/नवसाम्राज्यवाद की मातहत राजनीति अपने आप में एक बुराई बन गई है. राजनीति स्थायी रूप से बुराई की वाहक बन कर न रह जाए, इसके लिए चुनावों में सरकारों का उलट-फेर होते रहना ज़रूरी है. यह लोकतंत्र के रहते ही संभव है. लिहाज़ा, विपक्षी पार्टियों की चुनावी एकता लोकतंत्र के सार्थक बने रहने की दिशा में बड़ी भूमिका निभा सकती है.
      भाजपा के साथ एनडीए में छोटे-बड़े 35 से ऊपर दल शामिल हैं. लोकसभा चुनावों में एक साल से कम समय रह गया है. चुनावों तक इस गठबंधन में टूट-फूट की संभावना कम ही लगती है. लोकजन शक्ति पार्टी, अपना दल, राष्ट्रीय लोक समता पार्टी आदि का जो असंतोष दिखाई देता है, वह सरकार की नीतियों या असफलता को लेकर नहीं, 2019 में ज्यादा से ज्यादा सीटें पाने के लिए है. मोदी-शाह यह अच्छी तरह समझते हैं.     
      इधर विपक्ष की फुटकर गठबंधनों की रणनीति से कुछ संसदीय और विधानसभा सीटों पर भाजपा को हराया गया है. लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में यह फुटकर गठबंधन की रणनीति कारगर नहीं हो सकती. राष्ट्रीय स्तर का चुनाव राष्ट्रीय स्तर की रणनीति से लड़ा जाना चाहिए. उसके लिए राष्ट्रीय समझ पर आधारित राष्ट्रीय स्तर का गठबंधन जरूरी है. सवाल है कि एनडीए के बरक्स बनने वाला बाकी दलों का गठबंधन कांग्रेस के साथ बने या कांग्रेस से अलग. नेताओं और बुद्धिजीवियों की तरफ से दोनों तरह के विचार और प्रयास सामने आ रहे हैं. यहाँ विचारणीय है कि कांग्रेस और भाजपा दोनों दो-दलीय संसदीय लोकतंत्र के पक्ष में हैं. मनमोहन सिंह और लालकृष्ण अडवाणी कह चुके हैं कि देश में दो ही पार्टियां होनी चाहिए. बाकी दलों को इन्हीं दो पार्टियों में विलय कर लेना चाहिए. भाजपा अमेरिका के पैटर्न पर अध्यक्षीय प्रणाली के भी पक्ष में है. दरअसल, कारपोरेट पॉलिटिक्स की यही ज़रुरत है कि भारत में अमेरिका की तरह केवल दो पार्टियां हों.
      ऐसी स्थिति में कांग्रेस से अलग गठबंधन बनेगा तो बहु-दलीय संसदीय लोकतंत्र की संविधान-सम्मत प्रणाली को वैधता और मज़बूती मिलेगी. संविधान भारतीय राज्य के संघीय ढाँचे को स्वीकृति देता है. लेकिन आज़ादी के बाद से ही केंदवादी प्रवृत्तियों को बढ़ावा मिलता रहा है, जिसे वर्तमान सरकार ने चरम पर पहुंचा दिया है. राज्य के संघीय ढाँचे का सत्ता, संसाधन और गवर्नेंस के विकेंद्रीकरण से अविभाज्य संबंध है. भाजपा और कांग्रेस से अलग चुनाव-पूर्व गठबंधन बनने पर संघीय ढांचे और विकेंद्रीकरण का थोड़ा-बहुत बचाव ज़रूर होगा. प्रधानमंत्री मोदी कितना भी कांग्रेस-मुक्त भारत की बात करते हों, वे कांग्रेस को ही अपना विपक्ष मानते हैं. इसका मायना है कि वे कंग्रेसेतर विपक्ष की अवधारणा को ख़त्म कर देना चाहते हैं. यह कांग्रेस के भी हित में है कि 2019 नहीं तो 2024 में मतदाता उसे बहुमत से जिताएं, ताकि राहुल गाँधी के प्रधानमंत्री बनने में कोई बाधा न रहे.
      कांग्रेस पिछले चार सालों में किसान-मज़दूरों-बेरोजगारों के हक़ की बात छोडिये, गहरे संकट में पड़ी देश की सबसे बड़ी अकलियत के बचाव में एक बार भी सड़क पर नहीं उतरी है. इसका मुख्य कारण उसका सत्ता-भोगी चरित्र है. लेकिन यह रणनीति भी है. कांग्रेस शायद चाहती है कि मुसलमान इतना डर जाएं कि भविष्य में आँख बंद करके केवल कांग्रेस को वोट दें. दलित और पिछड़े समुदायों के राजनीतिकरण के बाद कांग्रेस की एकमुश्त वोट बैंक के रूप में मुलसमानों पर ही नज़र है. कांग्रेस से छिटकने के बाद मुसलमानों का ज्यादातर वोट राजनीति की तीसरी ताकत कही जाने वाली पार्टियों को मिलता है.
      मोदी की जुमलेबाजी लोगों को हमेशा बेवकूफ नहीं बनाये रख सकती. न ही येन-केन प्रकारेण चुनाव जीतने और सरकार बनाने की शाह की 'चाणक्य-नीति' हमेशा कारगर बनी रह सकती है. मोदी ने सरकार को कारपोरेट घरानों के मुनाफे का औज़ार बना दिया है. यह सबसे अमीर आदमी को सबसे पहले फायदा पहुँचाने वाली सरकार बन गई गई है. सरकार की इस अंधेरगर्दी से तबाह किसान-मज़दूर-कारीगर-उद्यमी-बेरोजगार आज नहीं तो कल भाजपा के खिलाफ वोट डालेंगे. कारपोरेट घरानों का धन और खरीदा हुआ मीडिया उसकी सत्ता नहीं बचा पाएंगे. कांग्रेस उसी घड़ी के इंतजार में बैठी लगती है. अगर राजनीति की तीसरी कही जाने वाली शक्ति की अवधारणा राष्ट्रीय स्तर पर ख़त्म हो जाती है, तो वह वोट कांग्रेस को ही मिलेगा. और कांग्रेस के पांच या दस साल राज करने के बाद फिर से भाजपा को. अगर कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ने पर केंद्र में सरकार बन भी जाती है, तो कांग्रेस उसे कार्यकाल पूरा नहीं करने देगी. मध्यावधि चुनाव होने की स्थिति में फिर मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच होगा.    
      कांग्रेस से अलग राष्ट्रीय मोर्चा बनाने का अर्थ एक राजनीतिक पार्टी के रूप में कांग्रेस का विरोध नहीं है. कांग्रेस अपने में समर्थ पार्टी है. उसका संगठन राष्ट्रीय स्तर पर है. पिछले लोकसभा चुनाव में करारी पराजय के बाद भी संसद में भाजपा के बाद उसका दूसरा स्थान है. जिन राज्यों में उसकी मज़बूती है, वहां वह पूरी ताकत से चुनाव लड़े. अगर राष्ट्रीय मोर्चा को चुनावों में पूर्ण बहुमत नहीं मिल पाता है, तो कांग्रेस बाहर से राष्ट्रीय मोर्चा सरकार को समर्थन दे सकती है. हालाँकि वैसी स्थति में एनडीए के कुछ घटक दल भी भाजपा का साथ छोड़ कर राष्ट्रीय मोर्चा सरकार के साथ जुड़ सकते हैं.      
      भाजपा और कांग्रेस से इतर गबंधन को सामाजिक न्यायवादी राष्ट्रीय मोर्चा (नेशनल फ्रंट फॉर सोशल जस्टिस) नाम दिया जा सकता है. इसमें कम्युनिस्ट पार्टियों सहित वे सभी दल शामिल हो सकते हैं जो भाजपा और कांग्रेस के साथ मिल कर लोकसभा चुनाव नहीं लड़ना चाहते. राष्ट्रीय मोर्चा के निर्माण का काम बिना देरी किये शुरू किया जाना चाहिए. इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए एक संयोजन समिति, जिसका एक संयोजक हो, बनाने से सहूलियत होगी. संयोजक के पद के लिए एक नाम शरद यादव का हो सकता है. प्रस्तावित मोर्चा के चार-पांच प्रवक्ता बनाए जाएं जो सीधे और मीडिया की मार्फत मोर्चा के स्वरूप, नीतियों और प्रगति पर लगातार रोशनी डालें. एक समिति चुनाव प्रचार की रणनीति और चुनाव सामग्री तैयार करने के लिए बनाई जाये.
      राष्ट्रीय मोर्चा में छोटे विचारधारात्मक दलों की भूमिका का भी सवाल महत्वपूर्ण है. उनके सहयोग का रास्ता निकाला जाना चाहिए. बेहतर होगा कि विचाधाराहीनता (संविधान की विचारधारा सहित) की वकालत करने वाले दलों और व्यक्तियों को राष्ट्रीय मोर्चा से अलग रखा जाए. क्योंकि वे सीधे नवउदारवादी विचारधारा की पैदाइश, लिहाज़ा, समर्थक होते हैं. राजनीतिक समझदारी से काम करने वाले नागरिक संगठनों और व्यक्तियों को भी राष्ट्रीय मोर्चा से जोड़ने का काम होना चाहिए. इनमें कल-कारखानों, खदानों, कृषि, वाणिज्य-व्यापार, साहित्य, कला, अध्ययन, खेल आदि से जुड़े संगठन और व्यक्ति हो सकते हैं. राजनीतिक रूचि रखने वाले अप्रवासी भारतीयों, जो देश के बिगड़ते हालत पर चिंतित हैं, को भी राष्ट्रीय मोर्चा से जोड़ा जा सकता है. ऐसा प्रयास होने से देश में व्यापक सहमती का माहौल बनेगा और राष्ट्रीय मोर्चा भविष्य की राजनीति में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकेगा.       
      राष्ट्रीय मोर्चा की जीत की संभावनाएं बढ़ सकती हैं, यदि साझा न्यूनतम कार्यक्रम इस वायदे के साथ बनाया जाए कि नई सरकार किसानों, मज़दूरों, छोटे-मंझोले व्यापारियों/उद्यमियों, बेरोजगारों के पक्ष में नवउदारवादी आर्थिक नीतियों की समीक्षा करेगी. भाजपा और कांग्रेस यह वादा नहीं कर सकतीं. इसके अलावा, राष्ट्रीय मोर्चा का नेतृत्व अपने सामाजिक आधार के चलते विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व व्यापार संगठन, विश्व आर्थिक मंच आदि के आदेशों को कांग्रेस और भाजपा जैसी तत्परता और तेज़ी से लागू नहीं कर सकता. ऐसा होने से कारपोरेट घरानों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की लूट में कुछ न कुछ कमी आएगी. राष्ट्रीय मोर्चा की जीत से सरकारों द्वारा संविधान में उल्लिखित 'राज्य के नीति निर्देशक तत्वों' के अनुसार आर्थिक नीतियां बनाने की पुनर्संभावना को बल मिलेगा.  
      राष्ट्रीय मोर्चा के प्रधान नेता, जो प्रधानमंत्री का उम्मीदवार भी हो, का फैसला बहुत जटिल काम है. लेकिन 2019 का चुनाव जीतने के लिए विपक्षी नेताओं को यह फैसला समझदारी से करना ही होगा. मैंने 2014 के लोकसभा चुनाव के अवसर पर 'तीसरे मोर्चे की प्रासंगिकता' शीर्षक लेख लिखा था. उसमें कांग्रेस और भाजपा से अलग राजनीतिक दलों के चुनाव-पूर्व गठबंधन बनाने की वकालत की थी. गठबंधन के नेता के रूप में एक नाम सीपीआई के वरिष्ठ नेता एबी बर्धन का सुझाया था. उस समय चुनाव के बाद गठबंधन बनाने का आग्रह लेकर चलने वाले नेताओं की वजह से तीसरे मोर्चे का निर्माण नहीं हो पाया.  
      भाजपा और कांग्रेस से अलग विपक्षी गठबंधन की नेता के रूप में ममता बनर्जी और मायावती के नामों की चर्चा होती है. ममता बनर्जी साधारण पृष्ठभूमि से आती हैं. हालांकि कांग्रेस में रहते हुए उन्हें एक सत्तारूढ़ और साधन-संपन्न राजनीतिक पार्टी का आधार मिला हुआ था. लेकिन कांग्रेस से अलग होने के बाद उन्होंने कड़ी मेहनत से तृणमूल कांग्रेस को खड़ा किया. उन्होंने संघर्ष करके अपनी राजनीतिक हैसियत हासिल की है. उसीके चलते वे लगातार दूसरी बार पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री हैं. उनकी सरकार किसी अन्य दल पर निर्भर नहीं है. हाल के पंचायत चुनावों से पता चलता है कि मतदाताओं पर उनकी मज़बूत पकड़ बनी हुई है. बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) की सुप्रीमो मायावती दलित समाज से आती हैं. आज की राजनीति में वे अकेली सेल्फ-मेड नेता हैं. उनकी पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी का दर्ज़ा हासिल है. ज्यादातर प्रांतों में उनकी पार्टी की इकाइयां हैं. 2009 के लोकसभा चुनाव में मायावती को तीसरे मोर्चे का प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनाने की बात की गई थी. मायावती के नेतृत्व में बनने वाली सरकार की राजनीतिक अर्थव्यवस्था (पोलिटिकल इकॉनमी) नवउदारवादी अर्थव्यवस्था से कुछ न कुछ अलग हो सकती है. वे फिलहाल विधायक या सांसद नहीं हैं. लिहाज़ा, राष्ट्रीय मोर्चा के निर्माण और चुनावों की तैयारी में अभी से पूरा समय दे सकती हैं.  
      यहाँ उपर्युक्त दो नाम इसलिए विचारार्थ रखे गए हैं क्योंकि इन दो नेताओं के अलावा अभी अन्य किसी नेता का नाम फिलहाल चर्चा में नहीं है. एम. करूणानिधि की उम्र करीब 95 साल हो गई है. मुलायम सिंह की उम्र 78 साल है, लेकिन उनका स्वास्थ्य ऐसा नहीं है कि वे राष्ट्रीय मोर्चा के प्रधानमंत्री के उम्मीदवार हो सकें. अलबत्ता, सलाहकार की भूमिका वे बखूबी निभा सकते हैं. वे उत्तर प्रदेश के बाहर चुनाव प्रचार के लिए निकालें तो बड़ी उपलब्धि होगी. नीतीश कुमार का नाम पहले काफी चलता था, लेकिन वे महागठबंधन को तोड़ कर भाजपा के साथ जा चुके हैं. वे अब लौटें भी तो उनकी साख नहीं बन पाएगी. चंद्रबाबू नायडू हाल में एनडीए से निकले हैं. उनका भरोसा नहीं है कि वे वापस एनडीए में नहीं लौट जायेंगे. नवीन पटनायक चौथी बार उड़ीसा के मुख्यमंत्री हैं. 2009 में उन्होंने भाजपा नीत एनडीए छोड़ कर वामपंथी पार्टियों के साथ गठजोड़ किया था. वे मुखर नेता नहीं हैं और उड़ीसा के बाहर ज्यादा नहीं निकलते. 2019 के लोकसभा चुनावों को लेकर जो राजनीतिक गहमा-गहमी है, उसमें वे अभी शामिल नहीं हैं. हाल में कर्णाटक में कांग्रेस के समर्थन से बनी जनता दल (एस) की सरकार के शपथ-ग्रहण कार्यक्रम में भी वे नहीं थे. अभी तक वे अप्रतिबद्ध (नॉन कमीटल) हैं. वे राष्ट्रीय मोर्चा में रहें, इसकी कोशिश की जानी चाहिए. कहने की ज़रुरत नहीं कि भाजपा और कांग्रेस से अलग गठबंधन के नेता के रूप में जिस नाम पर सहमति बनती है उसे अपनी सोच का धरातल ऊंचा उठाना होगा.  
      पूर्व वाणिज्य और वित्त सचिव एसपी शुक्ला ने नई आर्थिक नीतियों के दुष्परिणामों पर शुरूआती दौर में ही गंभीर विचार और प्रतिरोध किया था. विपक्षी एकता के सवाल पर उनके साथ हाल में पूना में चर्चा हुई. मैंने उनके सामने ममता अथवा मायावती के नेतृत्व में राष्ट्रीय मोर्चा बनाने का विचार रखा. उन्होंने कहा यदि ममता अथवा/और मायावती के नेतृत्व में अगला चुनाव लड़ा जाता है, तो यह राजनीति में 1989 में हुए सबाल्टर्न प्रवेश के बाद जेंडर प्रवेश का अगला चरण होगा. देश के सभी बुद्धिजीवी और एक्टिविस्ट, जो संविधान के आधारभूत मूल्यों - समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र - और संवैधानिक संस्थाओं के क्षरण को लेकर चिंतित हैं, उन्हें राष्ट्रीय मोर्चा के निर्माण और स्वीकृति की दिशा में सकारात्मक भूमिका निभानी चाहिए. भारत में अक्सर नेताओं ने बुद्धिजीवियों-कलाकारों को प्रेरणा देने का काम किया है. आज की जरूरत है कि बुद्धिजीवी, कलाकार और नागरिक समाज के सचेत नुमाइंदे नेताओं का मार्गदर्शन करें.   

  

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