Monday, 30 September 2019

लोक परिसम्पत्तियां बेचने को उतावली सरकार

16वीं लोक सभा की 2017-18 की संसदीय रक्षा समिति ने भारत में ही अभिकल्पित, विकसित व निर्मित की अवधारणा पर जोर दिया। समिति ने रक्षा अनुसंधान एवं विकास संस्थान, आर्डनेंस कारखाने व रक्षा विभाग से सम्बद्ध सार्वजनिक उपक्रमों में निर्मित एवं विकसित उपकरणों  में आयात के अंश पर चिंता प्रकट की जिसकी वजह से सेना के उपकरणों के लिए हमें विदेशी कम्पनियों पर निर्भर रहना पड़ता है। 2013-14 में आर्डनेंस कारखानों का आयात अंश 15.15 प्रतिशत था जो 2016-17 में घट कर 11.79 प्रतिशत पर आ गया। रक्षा विभाग के अन्य बड़े सार्वजनिक उपक्रमों जैसे हिन्दुस्तान एरोनाॅटिक्स लिमिटेड, भारत इलेक्ट्राॅनिक्स लिमिटेड व भारत डायनामिक्स लिमिटेड की तुलना में आर्डनेंस कारखानों का आयात अंश कम है जो दर्शाता है कि उसने प्रयासपूर्वक उपकरणों के निर्माण में लगने वाले पुर्जों को खुद विकसित किया है और यह स्थिति बरकरार रखी है।
       आर्डनेंस कारखाने विभिन्न किस्म के टैंक, लड़ाकू वाहन, बंदूकें, राॅकेट लांचर, आदि चीजों का उत्पादन करते हैं। पाकिस्तान के साथ 1947, 1965, 1971 व 1999 के युद्धों में तथा चीन के साथ 1962 के युद्ध में आर्डनेंस कारखानों ने भारतीय सेना के लिए अच्छी सहयोगी भूमिका निभाई। रक्षा मंत्रालय की सभी ईकाइयों में आर्डनेंस कारखानों का बजट 2019-20 में कुल रु. 2,01,901.76 करोड़ में से सिर्फ रु. 50.58 करोड़ था क्योंकि आर्डनेंस कारखाने अपने खर्च का बड़ा हिस्सा सामान बना कर उसे थल सेना, नौ सेना व वायु सेना को बेच कर पूरा कर लेते हैं। ये आर्डनेंस कारखानों की कार्यकुशलता का अच्छा प्रमाण है। भूतपूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वी.पी. मलिक इस बात के लिए आर्डनेंस कारखानों की तारीफ कर चुके हैं कि कारगिल युद्ध में उन्होंने अपनी क्षमता से दोगुणा उत्पादन कर जरूरी हथियार व उपकरण उपलब्ध कराए जबकि निजी कम्पनियों से जो सामान मांगा गया था उसकी समय से आपूर्ति नहीं हुई।
       नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार के मुताबिक दूसरी नरेन्द्र मोदी की सरकार में एक सौ दिनों का तेजी से आर्थिक सुधारों का कार्यक्रम लिया गया है जिसके तहत सार्वजनिक उपक्रमों का विनिवेश किया जाएगा व जिन विभागों को अभी तक नहीं छुआ गया है जैसे आर्डनेंस कााखाने को कम्पनी के रूप में तब्दील किया जाएगा। वे इस बात को छुपाते नहीं कि विदेशी कम्पनियां इस बात से बहुत खुश होंगी कि सरकार के पास जो अतिरिक्त जमीनें हैं उन्हें वे खरीद सकती हैं क्योंकि इनमें उन्हें किसानों के विरोध का सामना नहीं करना पड़ेगा। आर्डनेंस कारखानों के पास ही सिर्फ 60,000 एकड़ जमीन है। इसी अवधि में 40 से ऊपर सार्वजनिक उपक्रमों का निजीकरण हो जाएगा अथवा वे बंद हो जाएंगे। विदेशी पूंजी निवेश हेतु सीमा हटा ली जाएगी ताकि एअर इण्डिया जैसे ईकाइयों को बेचा जा सके जिसे पिछली सरकार के दौरान तमाम कोशिशों के बावजूद बेचा न जा सका।
       आर्डनेंस कारखाने अपनी क्षमता से कम पर काम करते हैं ताकि युद्ध के समय जरूरत पड़ने पर उत्पादन तीन गुणा बढ़ाया जा सके। किंतु कोई निजी कम्पनी यह नहीं कर पाएगी। बल्कि ऐसे बाजार में जहां खरीदार सिर्फ सरकार है, सरकार को इन्हें चलाने के लिए इनसें अनावश्यक सामान बनवाने पड़ेंगे, या इन कम्पनियों को जिंदा रखने के लिए सीधे पैसा देना पड़ेगा अथवा एक कृत्रिम युद्ध की स्थिति का निर्माण करना पड़ेगा, जो तीनों ही स्थितियां देश हित में नहीं हैं।
,      काॅम्पट्रोलर व आॅडिटर जनरल की कारगिल युद्ध की आख्या बताती है कि रु. 2,150 करोड़ का सामान जो देशी-विदेशी कम्पनियों से मंगाया गया था, जुलाई 1999 में युद्ध खत्म होने के बाद आया, बल्कि इसमें से रु. 1,762.21 का सामान तो युद्ध खत्म होने के छह माह बाद आया। आपातकाल जैसी स्थिति में नियमों को शिथिल करने से सरकार को रु. 44.21 करोड़ का नुकसान हुआ, रु. 260.55 करोड़ का सामान गुणवत्ता के मानकों को पूरा नहीं कर रहा था, रु. 91.86 करोड़ का गोली-बारूद पुराना हो चुका था, रु. 107.97 करोड़ की खरीद अनुमति से ऊपर हुई थी और रु. 342.47 करोड़ का गोली-बारूद जो आयात किया गया था वह आर्डनेंस कारखानों के भण्डार में था। इससे निजी कम्पनियों के बारे में गुणवत्ता व कार्यकुशलता को लेकर जो छवि बनी हुई है उसकी पोल खुलती है।
       उपर्युक्त से यह भी संकेत मिलता है कि निजीकरण से भ्रष्टाचार की नई सम्भावनाएं खुल जाती हंै। केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो ने इंग्लैण्ड की कम्पनी रोल्स-रायस के खिलाफ हिन्दुस्तान एरोनाॅटिक्स लिमिटेड से सौ सौदों में निदेशक अशोक पटनी के माध्यम से सिंगापुर की आशमोर कम्पनी, जो वाणिज्यिक सलाहकार नियुक्त की गई थी, को रु. 18.87 करोड़ घूस देने का मुकदमा दर्ज किया है जबकि रोल्स-रायस व हिन्दुस्तान एरोनाॅटिक्स लिमिटेड के बीच ईमानदारी से व्यापार करने का एक करार हुआ था।
       सरकार के निवेश एवं लोक परिसम्पत्ति प्रबंधन विभाग, जिसका नाम भ्रमित करने वाला है, का काम है सार्वजनिक परिसम्पत्तियां बेचना। जब परिसम्पत्तियां बिक ही जाएंगी तो प्रबंधन किस चीज का होगा? किसान से जो जमीन बहुत पहले किसी सार्वजनिक उद्देश्य के लिए ली गई थी, कई बार बिना कोई मुआवजा दिए सिवाए खेत में खड़ी फसल का, वह अब विनिवेश के नाम पर निजी कम्पनियों को कौड़ियों के दाम बेची जाएगी।
       इस वर्ष के शुरू में हिन्दुस्तान एरोनाॅटिक्स लिमिटेड से सरकार ने कुल रु. 2,423 के दो भुगतान कराए जिससे अपने इतिहास में पहली दफा इस उपक्रम को अपने कर्मचारियों को वेतन देने के लिए कर्ज लेना पड़ा। जीवन बीमा निगम, जिसके पास भारत में जीवन बीमा का दो तिहाई हिस्सा है और जिसे अब सार्वजनिक कम्पनी बनाया जा रहा है, को 2014-18 के दौरान केन्द्र सरकार द्वारा अपना विनिवेश का लक्ष्य पूरा करने के लिए रु. 48,000 करोड़ खर्च करने के लिए मजबूर किया गया। 2018-19 में अपने लक्ष्य रु. 80,000 के सापेक्ष सरकार ने रु. 84,972.16 करोड़ एकत्र किया। 2018-19 में सरकार द्वारा रु. 90,000 का विनिवेश लक्ष्य तय किया गया है। जीवन बीमा निगम को सरकार द्वारा घाटे में चल रहे समूचे बैंक इण्डस्ट्रियल डेवलेपमेण्ट बैंक आॅफ इण्डिया को खरीदने के लिए मजबूर किया गया जिसके पास 28 प्रतिशत ऐसा ऋण था जो माफ किया जा चुका था। अतः स्पष्ट है कि जब सरकार को कोई विदेशी पूंजी निवेश आता दिखाई नहीं पड़ता तो वह सरकारी कम्पनियों को ही विभिन्न उपक्रमों में निवेश करने के लिए कहती है। नरेन्द्र मोदी ने एक से ज्यादा बार यह कहा है कि वे एक गुजराती होने के नाते पैसे का प्रबंधन कैसे करना है उसे बखूबी जानते हैं। जब वे गुजरात के मुख्य मंत्री थे तो सरकारी बैंक से रु. 20,000 करोड़ ऋण लेकर गुजरात राज्य पेट्रोलियम कार्पोरेशन नामक कम्पनी का गठन हुआ। जब वे प्रघान मंत्री बने तो इस कम्पनी का ऋण भुगतान करने के लिए उसे आयल एण्ड नैचुरल गैस कमीशन से रु. 8,000 करोड़ में क्रय करवाया और अब ऋण भुगतान की जिम्मेदारी ओ.एन.जी.सी. की हो गई।
       सरकार एक ऐसी स्वायत्त कम्पनी बनाने की सोच रही है जिसके अंतर्गत सभी सार्वजनिक उपक्रम आ जाएंगे और परिसम्पत्तियां बेचने के मामले में वह नौकरशाही के प्रति जवाबदेह नहीं रहेगी। तब सरकार पूरी निर्लज्जता से लोक परिसम्पत्तियां बेचने के लिए स्वतंत्र हो जाएगी।
       अब जबकि प्रसिद्ध अर्थशास्त्री ज्यां डेªज ने प्रधान मंत्री की यह बात झूठी साबित कर दी है कि जम्मू व कश्मीर से अनुच्छेद 370 व 35ए हटाने से वहां विकास होगा, क्योंकि मानव विकास मानदण्डों में जम्मू-कश्मीर भारत के कई राज्यों, जिनमें गुजरात भी शामिल है, से कहीं आगे है, ऐसा प्रतीत होता है कि जम्मू व कश्मीर का दर्जा राज्य से कम कर केन्द्र शासित क्षेत्र बना देने के पीछे दो गुजराती दिमागों में यह बात जरूर रही होगी कि उनके कदम से जम्मू-कश्मीर की 2.2 करोड़ हेक्टेअर जमीन उनके गुजराती व अन्य पूंजीपति मित्रों के खरीदने के लिए खुली हो जाएगी।
 
संदीप पाण्डेय, उपाध्यक्ष, सोशलिस्ट पार्टी (इण्डिया)
ए-893, इंदिरा नगर, लखनऊ-226016
फोनः 0522 2355978,  e-mail: ashaashram@yahoo.com

Belated effort at justifying repression

Date: 28.9.2019



     " Subject (meaning there by Faruq Abdulla) has tremendous pote for creating an environment of public disorder within shrinagar district and other parts of the valley. The conduct of the is seen as fanning the emotions of general masses against the Union of uIndia and instigating the public with statement against the unity and integrity of India".

     Shaikh Abdulla ,three times chief minister of j & k and sitting member of Loksabha was detained on 4th Aug  2019 in his residence was v put under house arrest on 14/9/19 by an order passed by Shrinagar district magistrates his residence it self is declare a subjail.
The dossier ,accompanying arrest order runs into 21pages and lists 27 charges,16 polies Police reports and three firs and 13 statements in favour the abrogated 35A.

       In  One of the statements,made in 2016  at naseembagh hajaratbal Faruq is said to have invited Separatist Hurriyst Conference to join his NC .Another statements ,post Fubru Pulwama attack in which he is purported to have said I doubt 40 crpf men were killed His July 2019 statements is said to be saying thatMiir ties are also tporary.

          One wonders are these words likely to incite violence ?Official dossier states that Faruq had also asked people not to hoist Indian National flag and further that people should rise in rebellion against India.

    If true, such words are not desirable .One may even say condemnable .But all those are words of mouth .The authorities have not cited any evidence to f having procured arms or led violent action.

   Acrobatics of the authorities ,either Shrinagar or Delhi show up hem in poor color.On the one hand they say that people of JK have welcome d two resolutions passed in Parliament on 5 Aug.and that there is peace in the State and yet they cannot release 4000 activists who are detained for 53 days nor lift bans imposed on the Press.Many of the person's had stood firmly in favour of Union of India and against Pakistan.The authorities are hurling wild allegations against them without giving them chance to defend themselves in a court of law.
      And the authorities are clever ly maintaining studied silence about their wicked assault on the federal structure which is one of the basic structures of our Constitution,

        I call upon all democracy loving people to continue sustain Ed campaign demanding democracatic normalcy in Jammu Kashmir State.

      Pannalal Surana ,president, Socialist Party of India.28.9.2019 if Art 370 is temporary then Jammu Kash Miir ties are also tporary.

          One wonders are these words likely to incite violence ?    ; Official dossier states that Faruq had also asked people not to hoist Indian National flag and further that people should rise in rebellion against India.

    If true, such words are not desirable .One may even say condemnable .But all those are words of mouth .The authorities have not cited any evidence to  having procured arms or led violent action.

Right to freedom of speech and expression logically allows expressing words right,false or anti constitutional some eminent person's close to the rulers of today have been saying that the present Constitution be scrapped All those are issues to be debated and not to be labelled as antinational Whatever words are uttered cannot be used as basis for suppression of fundamental rights of the citizens What is required is to seal our borders effectively and financial flow to the terrorists plugged.

   Acrobatics of the authorities ,either Shrinagar or Delhi show up hem in poor color.On the one hand they say that people of JK have welcome d two resolutions passed in Parliament on 5 Aug.and that there is peace in the State and yet they cannot release 4000 activists who are detained for 53 days nor lift bans imposed on the Press.Many of the person's had stood firmly in favour of Union of India and against Pakistan.The authorities are hurling wild allegations against them without giving them chance to defend themselves in a court of law.
      And the authorities are clever ly maintaining studied silence about their wicked assault on the federal structure which is one of the basic structures of our Constitution.

        I call upon all democracy loving people to continue sustain Ed campaign demanding democracatic normalcy in Jammu Kashmir State.

       President, Socialist Party (India)

Wednesday, 25 September 2019

महात्मा गांधी और हमारी अप्रसांगिकता

सोपान जोशी
यह लेख मध्य प्रदेश संस्कृति परिषद की साहित्य अकादमी की भोपाल से छपने वाली पत्रिका ‘साक्षात्कार’ के अक्टूबरनवम्बरदिसम्बर 2019 के महात्मा गांधी विशेषांक छपा है। ]
कोलकाता में एक चमत्कार बस हुआ ही था। दंगा करने वाले अपने हथियार जमा करवा रहे थेप्रायश्चित की बात चल रही थी। हिंदूमुस्लिम दगों की जिस आग को सरकार और पुलिस की सम्पूर्ण शक्ति नहीं बुझा सकी थी उसे मोहनदास गांधी के सत्याग्रह ने थाम दिया था। किसी को भी विश्वास नहीं हो रहा था कि 77 साल के एक आदमी ने मारकाट से झुलसते एक महानगर में शांति स्थापित कर दी थी।
कैसेबसभोजन छोड़ केहिंसा न रुकने पर अपने प्राण त्याग देने के प्रण से। इसकी न तो कोई तुलना थी न ही इस नतीजे की कल्पना ही कोई कर सकता था। रेशम के एक धागे ने तलवार को काट दिया था। गांधीजी के हाथ में एक लाठी थीचलते हुए संभलने के लिए। लड़खड़ाते हुए अपने देश को उन्होंने सत्य और अहिंसा की दो लाठियाँ का सहारा थमा दिया था।
गांधीजी को कोलकाता आये को लगभग एक महीना हो चुका था। इसी बीच देश आजाद हो गया था लेकिन गांधीजी स्वतंत्रता का उत्सव नहीं मना रहे थे। उन्हें दंगे रोकने थे। दिन था सिंतबरसन् 1947। यह एक बूढ़े वाला अग्निशमन दल दो दिन बाद ही दिल्ली के लिए रवाना होने वाला था। रेणुका राय नामक एक प्रसिद्ध शिक्षिका और कांग्रेस नेता ने गांधीजी से छात्रों के लिए कुछ सन्देश माँगा। उन्होंने चारपाँच शब्दों का एक वाक्य बंगाली अनुवाद करवा के उन्हें थमवा दियाः “मेरा जीवन ही मेरा सन्देश है।”
गांधीजी का जीवन ऐसे किस्सों से अटा हुआ है। उनका प्रभाव व्यापक और जादुई था लेकिन उनकी भाषा और विचार एकदम सीधे और सरल थे। यह युक्ति काम इसलिए करती थी क्योंकि गांधीजी ने सालोंसाल इसकी साधना की थी। देखने वाले को सामने सिर्फ सहजसाधारण प्यार दिखता थाउसके पीछे दशकों की तपस्या से साधी हुई वीरता और सामाजिकता दिखती नहीं थी। गांधीजी की यह युक्ति इतनी नयीताजी थी कि हर तरह से असम्भव लगती है। ज्यादतर लोगों के लिए इसकी कल्पना कर पाना भी कठिन है। गांधीजी का जीवन हमारी कल्पनाशीलता के लिए चुनौती है। इसके दो कारण हैं।
पहला कारण है गांधीजी की मौलिकता। गांधी जीवन एक विराट प्रयोग था। इसमें पुराने देसी सामाजिक मूल्य खूब सारे थे लेकिन इसमें अफराता हुआइतराता हुआ राष्ट्रीय गौरव नहीं था। गांधीजी को एक बार किसी बात में अन्याय समझ आ जाता था तो वे उसे दूर करने में देर नहीं करते थे। अगर उन्हें कुछ भी गलत दिखतातो उसे हटाने में और उसका विरोध करने में उन्हें देर नहीं लगती थी। फिर चाहे वह बात देसी हो या विदेशी। इसी तरह उन्हें जो बात न्याय संगत और सत्यपरक लगती थी उसे अपनाने में भी देर नही लगती थीचाहे वह स्वदेशी हो या नहीं हो।
गांधीजी ने अपनी राजनीतिक विचारधारा नहीं गढ़ी। उनके मूल्य थेउनका विश्वास थाउनका विचार था, राजनीतिक काम भी था। किन्तु कोई एक विचारधारा नहीं थी। उनके लिए राजनीति भी समाज में काम करने का एक माध्यम था। इसीलिए चाहे दूसरे लोग अपनेआप को ‘गांधीवादी’ बताएँगांधीजी खुद गांधीवादी थे कि नहीं यह पक्के तौर पर कहा नहीं जा सकता। जब उनसे कोई किसी गुरु की भाँति कोई मन्त्र या विचारधारा माँगतातो वे कोई व्यावहारिक बात कहतेकुछ करने की बात करते। जब उनसे कोई राजनीतिक परिकल्पना या सिद्धान्त माँगतातो वे कुछ ऐसी बात कह देते थे कि उनका जीवन ही उनका सन्देश है।
वे खुद कहते थे कि उनका लिखा किसी परिवेश में से उपजता हैजिसका भावार्थ देशकाल के हिसाब बदलता भी सकता है। इसलिए अगर उनके लिखे में कोई विरोधाभास दिखेतो जो बाद में लिखा है उसे ही माना जाए। और अगर उनके लिखे और किये में कोई विरोधाभास दिखेतो उनके लिखे की बजाए उनका किया हुआ ही प्रधान माना जाए।
इस तरह की सावधानी अनूठी है। इसके पीछे यह समझ है कि दुनिया बहुत जटिल बातों से बनी है और हमारा सामना कई अन्तर्विरोधों से होता रहता है। इसीलिए गांधीजी के लिए सत्य की साधना ही एकमात्र सहारा था। गांधीजी का सत्य जटिलता को नकारने वाला पोंगापन नहीं थान ही किसी किताब की तोतारटंत। बल्कि उसमें तरहतरह के प्रमाण और सामग्री को धारण करने की गहराई थी। उसमें पुरानी बढ़िया बातों को पकड़ के रखने की प्रतिबद्धता भी थी और नयी बातों को आत्मसात करने का लोच भी। इस असम्भवसी बात को साधने में उन्होंने अपना जीवन लगाया।
दूसरी चुनौती हमारी समझ को है गांधी जीवन की व्यापकता से। अपने काम को निष्ठा से करने के लिए जो भी जतनजितना भी शोध करना पड़ेगांधीजी करते थे। स्वास्थ्यखेतीकारीगरीकोई विषय नहीं मिलेगा जिसे उन्होंने किसीकिसी वजह से समझने की चेष्टा न की हो। अनगिनत लोगों के साथ उनका पत्राचार था और न जाने कितने लोगों से वे रोजाना मिलते थे।
वे जहाँ जाते थे वहाँ के पोस्ट ऑफिस का काम बढ़ जाता था और ऐसा भी उदाहरण है कि केवल उनकी वजह से अंग्रेज सरकार को पोस्ट ऑफिस खोलना पड़ा। वे हर चिट्ठी का जवाब देते थे। दुनिया भर की सामग्री उनके पास आती थी और उनके यहाँ से दूसरों को जाती थी। न जाने कितनी तरह की सामग्री वे लगातार मँगवाते रहते थे और इतनी ही सामग्री उनसे भी लोग मँगवाते थे।
इसी वजह से उनका लिखा जो संकलित हो सका वह ही एक सौ खण्ड के उनके वाङ्गमय में है। हर साल जितना उन पर लिखा जाता हैजितना नया शोध उन पर और उनके काम पर होता हैइतना दुनिया के किसी आधुनिक जीवन पर नहीं होता। हर साल नयी किताबें आती हैं जो विविध दृष्टि और परिवेश में गांधी जीवन और कर्मयात्रा के मायने टटोलती हैं। अनेक नये शोध पत्र हर साल छपते हैं। अनगिनत सभासम्मेलन और सेमिनार होते ही रहते हैं जिनमें शास्त्रीय विद्वान भी होते हैं और सामाजिक कार्यकर्त्ता भी। लेकिन गांधीजी का शोध अकादमिक नहीं था। वे कोई डिग्री या शास्त्रीय पदवी पाने के लिए या साहित्य की दुनिया में अपना झण्डा गाढ़ने के लिए नहीं लिखते थे।
उनकी भाषा की सरल शैली पर बहुत से लोगों ने लिखा है। उनके काम में शास्त्रीय ठसक नहींसहजता और साधरणता दिखती है। उनका शोध और लेखन अपने लोगों कोअपने समाज को समझने के ध्येय से की जाने वाली साधना का हिस्सा था। अपने आप में यह उनका साध्य नहीं था। इसलिए यह जरूरी नहीं है कि जिस किसी ने गांधी जीवन का शास्त्रीय अध्ययन किया हो वह गांधी विचार का सामाजिक काम करे। उसके लिए गांधीजी महज एक विषय भी हो सकते हैं। ठीक उसी तरह ऐसे लोग भी मिलते हैं जो न गांधीजी का नाम लेते हैं और न गांधीवादी कहे जाते हैंलेकिन उनके काम और आचरण में गांधी विचार और सामाजिकता की सुगन्ध पता चलती है।
जो इतना मौलिक हो और इतना व्यापक होउसकी कल्पना करना आसान नहीं है। पिछली सदी के सबसे यशस्वी वैज्ञानिक अलबर्ट आइंस्टाइन ने शायद यह भाँप लिया था। तभी तो सन् 1944 में गांधीजी के जन्मदिन पर लिखे अपने सन्देश में उन्होंने कहा था कि आने वाली पीढ़ियाँ शायद मुश्किल से ही विश्वास करेंगी कि हाड़मांस से बना हुआ कोई ऐसा कोई व्यक्ति भी धरती पर चलताफिरता था।
आज वह पीढ़ियाँ जनम ले चुकी हैं। गांधीजी को समझने की हमारी सबसे बड़ी चुनौती तो यही है कि हमारी कल्पना की माँसपेशियों सिकुड़ चुकी हैंकठोर हो गयी हैं। उनसे हम गांधीजी की कल्पना कैसे करेंकबाड़ और लोहेलंगड़ का व्यापार करने वाले के पास स्वर्ण और जवाहर आ जाएँतो वह उसे कैसे बरतेउसके हथौड़े और तराजू किसी बहुमूल्य वस्तु को बरतने में काम आ ही नहीं सकते।
गांधी जीवन और कर्मयात्रा हमारी कल्पनाशीलता के लिए बड़ी चुनौती है। हर कोई इस चुनौती का सामना न कर सकता है और न करना चाहता ही है। ऐसे में आसान यह रहता है कि गांधी को अपनी सीमित कल्पना और सीमित ज्ञान की शीशी में उतार लें। गांधी को समझने के लिए अगर हम अपने मानस को खींच के बड़ा नहीं कर सकतेतो हम गांधी को अपने सीमित दायरे में तो बाँध ही सकते हैं। उसकी चूक बताने के लिए गांधीजी या उनके सहयोगी आज हमारे बीच हैं ही नहीं।
इसका सबसे बड़ा उदाहरण है हमारे अनेक कार्यक्रमों का एक आई.एस.आईमार्क विषयः “गांधी की प्रासंगिकता।” अंग्रेजी में “रेलेवेन्स ऑफ गांधी” के अनुवाद से आया यह जुमला कई कार्यक्रमवीरों की मुश्किलें आसान कर देता है। हमारे यहाँ कई लोगों के लिए कार्यक्रम का आयोजन ही एकमात्र काम है। उन्हें कार्यक्रम अनेक करने होते हैं और तैयार वक्ता और विषय की उन्हें हमेशा दरकार भी रहती है। विषयों की मण्डी में “गांधी की प्रासंगिकता” सदाबहार जिन्स है। ऐसा लगता है कि हर भारतीय गांधीजी को इतना बढ़िया से जानता है कि वह उनके जीवन काउनके काम काउनके प्रभाव का मूल्यांकन कर सकता है। किसी तरह के अध्ययन की जरूरत नहींअपने आप से कोई कठिन प्रश्न पूछने की आवश्यकता नहीं। ‘अरेगांधीजी ही तो हैं!’
गांधीजी का नाम और चित्र हमारे चारों तरफ फैले हुए हैं। उनकी एक समाधी है जिस पर फूल चढ़ाना एक कूटनितिक रस्म बन चुकी है। गांधी जयन्ती और पुण्यतिथि कैलेंडर में टँकी हुई तारीखें हैंजिन्हें कुछ लोग सिर्फ इसीलिए याद रखते हैं क्योंकि उस दिन शराब की दुकानें बन्द रहती हैं। गांधीजी के नाम पर चलने वाले कई गलतसलत सुभाषितों से छात्रों के निबन्ध ही नहींराजनेताओं के भाषण भी आबाद होते रहते हैं। तरहतरह के विज्ञापनों में गांधीजी की छवि माल बेचने के लिए इस्तेमाल होती है।
और तो औरस्वच्छता के नाम पर चलने वाले सरकारी कार्यक्रम की छवि साफ करने का काम भी गांधीजी के चश्मे से ही होता है। चाहे इस कार्यक्रम में अपने ही लोगों के खिलाफ हिंसा का उपयोग हो रहा हो और चाहे हमारे नदीतालाब हमारे ही मलमूत्र की वजह सेहमारी तथाकथित स्वच्छता की वजह से ही सड़ रहे हों।
गांधीजी के चश्मे का हम हर तरह का उपयोग करते हैंबस उन्हें अपनी आँख के आगे लगा के उनमें से देखते भर नहीं हैं। इस चश्में में सत्य और अहिंसा का काँच लगा है जो हमें वह सब दिखला सकता है जिसे देखने से हम डरते हैं। वह दिखा सकता है कि हमारा अर्थतन्त्र दूसरों को गरीब बना केपर्यावरण को दूषित कर के ही चलता है। वह दिखा सकता है कि हमारा स्वास्थ्य और शिक्षा तंत्र मुनाफाखोरी और भ्रष्टाचार से बीमार है।
वह दिखा सकता है कि जिस आर्थिक वृद्धि को हमने विकास मान लिया हैवह हमारे भविष्य को औनेपौने दाम पर नीलाम कर के ही प्राप्त होती है। यह भी कि हमारी राजनीति समाज में कुछ अच्छा करने का साधन नहीं बची हैसत्ता और महत्वाकांक्षा की साधना बन के रह गयी है। हमारे किसानकारीगर हताश हैंउनका रोजगार जा रहा है। हमारी आबादी के एक छोटेसे कुलीन हिस्से के विकास के लिए बाकी सब की बलि चढ़ रही है। हम विकास के नाम पर, धर्म के नाम पर, गोरक्षा के नाम पर, जाति के नाम पर, लिंग के नाम पर, भाषा के नाम पर, राष्ट्र के नाम पर…हिंसा ही कर रहे हैं।
इन सभी बातों के बारे में गांधीजी ने हमें सन् 1909 में ही आगाह कर दिया थाजब 40 साल की उम्र में उन्होंने ‘हिंद स्वराज’ लिखी थी। उन्हें तभी पता था कि निरी राजनीतिक स्वतंत्रता से हम आजाद नहीं होंगे। उन्हें तभी आभास था कि अगर गरीब देशों ने भी यूरोप की तर्ज़ पर औद्यौगिक विकास अपना लियातो पृथ्वी के संसाधन नष्ट होंगे। गांधीजी के समय ‘पर्यावरण’ शब्द का चलन नहीं था लेकिन आज पर्यावरण संरक्षण पर काम करने वाले गांधीजी में लगातार प्रेरणा पाते हैं।
हमारा राजनीतिक तन्त्रहमारे शोध संस्थानहमारी व्यवस्थाएँ और नीतियाँ बनाने वाले शास्त्रीय विशेषज्ञों का सामाजिक दृष्टि से मूल्यांकन होतो साफ दिखता है कि ये सब अप्रासंगिक होते जा रहे हैं। किन्तु अपनी अप्रासंगिकता की बात साफसाफ करने के लिए साहस चाहिएयह डरपोक लोगों के बस का नहीं है।
उसे समझने के लिए धीरज और परिश्रम चाहिएक्षमता और साधना भी। इन सब का योजन तभी हो सकता है जब हममें अपने समाज के लिएअपने लोगों के लिए कुछ अपनापन होजो गांधीजी में था। अगर नहीं होतो हम गांधीजी की प्रासंगिकता पर चर्चा कर के काम चला सकते हैं। इससे हमारे कार्यक्रम तो निपट ही सकते हैं।
किसी भी व्यक्ति की प्रासंगिकता उसके जीतेजी ही होती हैजब उसके पास यह मौका हो कि वह किसी परिस्थिति के जवाब में कुछ कर सके। उसकी मृत्यु के बाद उसकी स्मृति शेष रह जाती हैउसकी प्रासंगिकता समाप्त हो जाती है। उसके विचार की प्रासंगिकता इससे तय होती है कि उसका नाम लेने वाले उसे आचरण में लेते हैं या नहीं। जब जीवित लोग किसी दिवंगत की प्रासंगिकता पर इतना विमर्श करते हैंतब कहा जा सकता है कि वे अपने-आप से ऊबे हुए हैंकि यह विमर्श उनके लिए अपने आलस और अकर्मण्यता को ढँकने का प्रसंग है।
गांधी 150’ गांधीजी के मूल्यांकन का प्रसंग नहीं है। यह हमारे अपने मूल्यांकन का अवसर है। हम कितने प्रासंगिक हैंक्या है हमारी प्रासंगिकता?

Monday, 16 September 2019

कारपोरेट राजनीति के बदलाव का गांधीवादी तरीका-प्रेम सिंह

लोकसभा चुनाव 2019 के नतीजे आने पर कई संजीदा साथियों ने गहरी चिंता व्यक्त की कि नरेंद्र मोदी की एक बार फिर जीत संविधान और लोकतंत्र के लिए बहुत बुरा संकेत है. पिछले पांच सालों के दौरान धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील साथियों से यह बात अक्सर सुनने को मिलती है कि हम बहुत बुरे समय से गुजर रहे हैं; संकट बहुत गहरा है; संवैधानिक संस्थाओं का अवमूल्यन किया जा रहा है; अर्थव्यवस्था चौपट हो गई है; पूरा देश भगवा फासीवाद से आक्रान्त है; प्रतिरोध की शक्तियां कमजोर हो गयी है ... . इन उद्गारों के साथ जनवादी शक्तियों को एकजुट कर संघर्ष तेज करने का आह्वान किया जाता है. जनवादी शक्तियों की एकजुटता और संघर्ष के स्वरूप को लेकर विभिन्न विचारधारात्मक समूहों की अपनी-अपनी मान्यताएं और प्रयास हैं. वे निरंतर चलते रहते हैं. इस सबके बावजूद नरेंद्र मोदी लगातार दूसरी बार पूर्ण बहुमत के साथ चुनाव जीत गए, तो संकट को थोड़ा और गहराई से समझने की जरूरत है. संकट को सही रूप में समझ कर ही उसके समाधान का रास्ता निकाला जा सकता है.  

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) लोकतंत्र के रास्ते सत्ता में आई है. यूं तो लोकतंत्र संविधान के तीन आधारभूत मूल्यों - समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र - में परिगणित है, लेकिन वह एक प्रणाली और दृष्टि (विज़न) भी है. इस प्रणाली के तहत केंद्र और राज्यों की सरकारों, पंचायतों और नगर निकायों, तरह-तरह के मजदूर-कर्मचारी-अधिकारी संगठनों, किसान संगठनों, छात्र संगठनों, सामाजिक संगठनों, संस्थाओं, न्यासों, राजनीतिक पार्टियों आदि के चुनाव होते हैं. नीतियां एवं कानून बनाने तथा न्याय की प्रक्रिया में लोकतांत्रिक पद्धति अपनाई जाती है. इसीलिए विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की संस्थाओं समेत राज्य और नागरिक जीवन की समस्त संस्थाओं को लोकतांत्रिक संस्थाएं कहा जाता है. ज़ाहिर है, देश की समूची गतिविधियां लोकतंत्र के तहत लोकतांत्रिक दृष्टि से संचालित होनी चाहिए. समझने की जरूरत यह है कि लोकतंत्र की ताकत पर पलने वाली मौजूदा दौर की कारपोरेट राजनीति ही भारत के संविधान और लोकतंत्र लिए बुरा संकेत है. मोदी की राजनीति देश में चलने वाली कारपोरेट राजनीति की एक उग्र बानगी भर है.   

प्रचलित कारपोरेट राजनीति भारतीय संविधान की आधारभूत संकल्पना एवं मान्यताओं की कसौटी पर अवैध ठहरती है. कहने की जरूरत नहीं कि इस राजनीति की जगह संविधान सम्मत नई राजनीति की जरूरत है, जिसे लोकतंत्र की ताकत से स्थापित किया जाए. यानी लोकतंत्र की ताकत को एक नई संविधान-सम्मत राजनीति खड़ा करने की दिशा में सक्रिय बनाया जाए. लोकतंत्र को संवैधानिक रूप से अवैध राजनीति का जरिया बनाने वाला राजनीतिक नेतृत्व इस उद्यम के लिए तैयार नहीं होगा. यह एक बड़ी समस्या है. लेकिन इससे बड़ी समस्या यह है कि भारत का बौद्धिक वर्ग (इंटेलिजेंसिया) अभी भी मौजूदा राजनीति के विकल्प की जरूरत नहीं समझता. बल्कि मौका पड़ने पर वह कारपोरेट राजनीति के बरक्स वैकल्पिक राजनीति के विचार को अपदस्थ करने में गैर-सरकारी संस्थाओं (एनजीओ) के कर्ताओं जैसी तत्परता दिखाता है. लाखों किसानों की आत्महत्याओं, असंख्य मजदूरों की छंटनी, बेरोजगारों की अपार भीड़ के बावजूद देश का एक भी नामचीन विद्वान निर्णायक रूप से यह कहने को तैयार नहीं है कि देश से कारपोरेट राजनीति का खात्मा होना चाहिए.        

2.

जिस लोकसभा चुनाव 2019 में भाजपा-विरोधी विपक्ष की हार पर गहरी चिंता जताई गई, और विश्लेषण प्रस्तुत किये गए, वह चुनाव दरअसल विपक्ष की तरफ से लड़ा ही नहीं गया. भाजपा ने 2014 में पूर्ण बहुमत में आने के एक साल के भीतर 2019 के चुनाव की तैयारी शुरू कर दी थी. जबकि राष्ट्रीय स्तर के चुनाव में विपक्ष अंतिम समय तक पूरी तरह बिखरा हुआ और अनिर्णय की स्थिति में बना रहा. सरकार की कारपोरेट-सेवी आर्थिक नीतियों और अर्थव्यवस्था को लेकर किये गए लालबुझक्कड़ फैसलों के परिणामस्वरूप किसानों, मजदूरों, छोटे-मंझोले  व्यापारियों और बेरोजगार नौजवानों में जो स्वाभाविक असंतोष पैदा हुआ था, उसे विपक्ष के ढुलमुलपन और निठल्लेपन ने निरर्थक बना दिया. 1991 में निजीकरण-उदारीकरण की शुरुआत करने वाली कांग्रेस को लगता था कि जैसे निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों से उपजने वाले असंतोष का फायदा उठा कर वाजपेयी की राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार बनी, उसके बाद मनमोहन सिंह की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार बनी, और मोदी की भाजपा के पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनी; उसी तरह मोदी सरकार के बाद कांग्रेस की सरकार बनेगी. कारपोरेट राजनीति की इस कार्य-कारण श्रृंखला में विश्वास के चलते कांग्रेस मोदी सरकार के दो कार्यकालों के लिए भी तैयार थी. लेकिन बिना परिश्रम के तीन राज्यों में सरकार बन जाने पर उसे 2019 में ही सत्ता में लौटने का लालच हो गया.    

लेकिन मोदी सरकार ने अपना हिंदू-राष्ट्र का आख्यान 'अभी नहीं तो कभी नहीं' की टेक पर तेज कर कारपोरेट राजनीति की इस कार्य-कारण श्रृंखला को भंग कर दिया. हड़बड़ाई कांग्रेस ने हिंदू-राष्ट्र के रास्ते पर कदम रखा, जिसे निष्फल होना ही था. केवल लोकतंत्र की ताकत के बूते सत्ता में आने वाले क्षेत्रीय क्षत्रपों ने उसी लोकतंत्र की हत्या करके अपनी साख काफी पहले गिरा ली थी. उनमें से कुछ अपने राज्यों में जीतने में कामयाब भले रहे, लेकिन कुल नतीज़ा केंद्र में एक बार फिर भाजपा की पूर्ण बहुमत सरकार के रूप में सामने आया. इस चुनाव ने यह सिद्ध कर दिया कि कारपोरेटपरस्त आर्थिक नीतियों से पैदा होने वाले जन-असंतोष की काट हिंदू-राष्ट्र(वाद) है. यह स्वयंसिद्ध है कि इस परिघटना का तात्कालिक और दूरगामी फायदा सबसे ज्यादा भाजपा को मिलता रहेगा. भले ही भगवा फासीवाद के खिलाफ कितने ही हवाई फायर किए जाते रहें!    

इस रास्ते पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस)/भाजपा के तरकश में अभी बहुत तीर बाकी हैं. अयोध्या के बाद काशी और मथुरा की बारी की घोषणा अक्सर सुनने को मिलती है. इनके अलावा अन्य छोटे-मोटे मंदिर-मस्जिद विवाद ढूंढ निकालने में दिक्कत नहीं होगी. अभी औरंगजेब का नाम दिल्ली की सड़क से हटाया गया है, कल को औरंगाबाद स्थित उनका मकबरा हटाने की बात हो सकती है. औरंगजेब के बाद अकबर और उनके बाद किसी अन्य मुस्लिम शासक की बारी आ सकती है. फिलहाल यह दूर की कोड़ी लगती है, लेकिन वाजपेयी के बाद के आरएसएस/भाजपा का जो चेहरा और चरित्र सामने आया है, उसके चलते यह असंभव नहीं होगा. गाय तो है ही - वह सताई भी जाएगी, काटी भी जाएगी, और हिंदू-राष्ट्र के लिए लगातार दुही भी जाएगी. आरएसएस/भाजपा के हिंदू-राष्ट्र का उपभोक्तावादी पूंजीवादी व्यवस्था के साथ पूर्ण मेल बैठ गया है. अगर वैश्विक पूंजीवादी सत्ता-प्रतिष्ठान को भारत में अपने अस्तित्व के लिए वाकई किसी कोने से कोई संकट अनुभव होगा तो वह सीधे अपने तरकश से कुछ तीर चला सकता है. मसलन, भारत को सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता प्रदान करना, ओलंपिक खेल आयोजित करने की अनुमति देना, पूंजीवादी व्यवस्था के पैरोकार किसी नेता को नोबल शांति जैसा कोई पुरस्कार देना ... आदि. मुझे लगता है, हालांकि यह एक अंदाज़ ही है, कि नरेंद्र मोदी ने गांधी को इसीलिए उठाया हुआ है कि उन्हें शांति का नोबल पुरस्कार मिल सके. ध्यान रहे, कॉर्पोरेट राजनीति के दौर में शिक्षा का अर्थ और शिक्षण व्यवस्था को इस कदर अवमूल्यित किया जा रहा है कि समाज से संवैधानिक और मानव-मूल्यों के पक्ष में सच्ची आवाज़ पैदा ही न हो सके. समाज में अन्तर्निहित सहनशीलता और भाईचारे की जो परंपरा रही है, उसे पिछले तीन दशकों का बाज़ारवाद पहले ही बहुत हद तक छिन्न-भिन्न कर चुका है.      

3.

अभी भी नागरिक समाज के बहुत से लोग सोशल मीडिया पर मोदी और उनके भक्तों के खिलाफ लड़ाई छेड़े हुए हैं. चुनाव के दौरान और चुनाव के पहले भी वे यह काम पूरी शिद्दत के साथ कर रहे थे. उनका मोदी-विरोध अक्सर चुटकुलों के रूप में सामने आता है. मोदी को यह स्थिति माफिक आती है - चुनाव में चुनौती न मिले, चुटकुलों में भले ही मिलती रहे! बुद्धिजीवियों का विरोध भी फुटकर किस्म का है. मोदी जो कहते और करते हैं, उस पर बुद्धिजीवी प्रतिक्रिया करते हैं. वह भी ज्यादातर किसी राजनीतिक पार्टी अथवा नेता का पक्ष लेकर. फासीवाद के बरक्स लोकतंत्र की वकालत करते वक्त भी उनकी बात में दम नहीं आ पाता. क्योंकि वे चयनित (सेलेक्टिव) तरीके से यह करते हैं. भारत के पड़ोस का ही एक उदाहरण लें. पिछले दिनों चीन के वर्तमान राष्ट्रपति ने उम्र भर के लिए राष्ट्रपति बने रहने का फैसला ले लिया. भारत के फासीवाद विरोधी बुद्धिजीवियों में से शायद ही किसी ने इस फैसले का विरोध अथवा आलोचना की हो. 4 जून 2019 को चीन के थ्येनमन चौक की घटना के तीस साल होने पर दुनिया भर के मानव अधिकार/नागरिक अधिकार संगठनों ने हमेशा की तरह चीनी नेतृत्व की आलोचना की. लेकिन भगवा फासीवाद के विरुद्ध लोकतंत्र और नागरिक अधिकारों की वकालत करने वाले बुद्धिजीवियों ने तीस साल बाद भी उस घटना का नोटिस नहीं लिया. कहने का आशय यह है कि फुटकर किस्म के असम्बद्ध और चयनित विरोध से संविधान और लोकतंत्र की पुनर्बहाली नहीं की जा सकती. बल्कि यह एक शगल जैसा बन गया है, जो परिवर्तनकारी जनचेतना को उलझाए रखता है और मुकम्मल निर्णय तक नहीं पहुंचने देता.

उपनिवेशवाद के खिलाफ आज़ादी का संघर्ष तभी गतिमान और फलीभूत हुआ, जब पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में आज़ादी के हक़ में समग्र रूप से निर्णायक फैसला हो गया. नवउपनिवेशवाद का चरित्र और शिकंजा उपनिवेशवाद से ज्यादा जटिल है. इसमें किसी देश के राष्ट्रीय संसाधनों के साथ राष्ट्रीय जीवन को देश का शासक वर्ग ही साम्राज्यवादी कब्जे में दे देता है. इस तरह कारपोरेट राजनीति नवउपनिवेशवादी सत्ता-सरंचना के हथियार के रूप में काम करती है. भारत में भी कारपोरेट राजनीति नवउपनिवेशवादी सत्ता-सरंचना का हथियार है. नवउपनिवेशवाद से मुक्ति का लक्ष्य तभी हासिल हो सकता है, जब उसे हासिल करने के लिए देश में समग्र रूप से निर्णायक फैसला हो. लेकिन भारत के नागरिक समाज एक्टिविस्ट और बुद्धिजीवी नवउपनिवेशवादी व्यवस्था के अंतर्गत ही अपनी विरोधी भूमिका निभा कर संतुष्ट रहते हैं. वे उसके बाहर आकर उसे चुनौती देने की भूमिका नहीं लेते. मनमोहन सिंह ने बतौर वित्तमंत्री नब्बे के दशक के शुरू में ही चुनौती फेंकी थी कि मुक्त अर्थव्यवस्था का कोई विकल्प हो तो नई आर्थिक नीतियों के विरोधी उसे सामने लाएं. अर्थशास्त्री डॉ. मनमोहन सिंह की यह चुनौती आज तक अनुत्तरित है. केवल इतनी बात नहीं है कि भारत के बुद्धिजीवी नवउपनिवेशवाद यानी उच्च पूंजीवाद के दायरे में उपलब्ध विशेष सुविधाओं को नहीं छोड़ना चाहते. दरअसल, उन्हें कोई ऐसी अर्थव्यवस्था और विकास का मॉडल स्वीकार्य नहीं है, जो पूंजीवाद के रास्ते हो कर नहीं गुजरता हो. अगर ऐसा नहीं होता तो भारत के अभिजात तबके के साथ जनसाधारण इस अर्थव्यवस्था और विकास के पीछे पागल नहीं हुआ होता.

यहां एक बात की ओर और ध्यान दिया जा सकता है. ये बुद्धिजीवी व्यवस्था के भीतर अपनी भूमिका रख कर मुख्यधारा मीडिया में जगह बनाए रहते हैं. बल्कि केवल अंग्रेजी में लिखने-बोलने के बावजूद जनता के बुद्धिजीवी (पब्लिक इंटेलेक्चुअल) भी कहलाते हैं. जबकि इस व्यवस्था का निर्णायक रूप से विरोध करने वाले जो थोड़े से बुद्धिजीवी देश में हैं, उनके लिए मुख्यधारा मीडिया में जगह लगभग ख़त्म हो गई है. यहां तक कि ज्यादातर सोशल मीडिया/न्यू मीडिया/वैकल्पिक मीडिया में भी उनका पूरी तरह स्वागत नहीं होता.        

4.

गांधी ने साधारण भारतीय जनता की शक्ति को संगठित करके उस दौर की सभी धाराओं और स्वरों को आज़ादी के लक्ष्य के प्रति समर्पण के लिए बाध्य कर दिया था. नक्कू तत्वों ने देश को तोड़ने की हद तक नुकसान पहुंचाया, लेकिन वे आज़ादी को रोक नहीं सके. नवउपनिवेशवाद से आज़ादी की सूरत तभी बन सकती है, जब साधारण भारतीय जनता की एकजुट शक्ति नागरिक समाज, बुद्धिजीवी और नेताओं को उस लक्ष्य के प्रति बाध्य करे. उपनिवेशवादी दौर में गांधी ने यह दुरूह कार्य किया था. हर दौर में गांधी का होना जरूरी नहीं है. अन्यायकारी व्यवस्था के खिलाफ गांधी की सिविल नाफमानी की कार्यप्रणाली हमारे पास है. यह सही है कि मोदी ने गांधी को अपने कब्जे में लिया हुआ है. उससे फर्क नहीं पड़ना चाहिए. मोदी-विरोधी खेमे में गांधी की भर्त्सना करने वाले बहुत से विद्वान हैं. गांधी के नाम पर कपट-व्यापार चलाने वाले विद्वान भी देश में शुरू से ही बहुत-से हैं. यह सब सिलसिला गांधी को लेकर चलता रहेगा.

नवउपनिवेशवाद से मुक्ति के सच्चे सिपाही गांधी की अन्याय के प्रतिरोध की कार्यप्रणाली से प्रेरणा ले सकते हैं. यहां अनिवार्यत: गांधीवादी विचारधारा/दर्शन को स्वीकारने से आशय नहीं है, अन्याय के प्रतिरोध की गांधी की कार्यप्रणाली - तरीके - से आशय है. डॉ. राममनोहर लोहिया ने इसके बारे में लिखा है, "अत: हमारे युग की सबसे बड़ी क्रांति कार्यप्रणाली की है, एक ऐसी कार्यपद्धति के द्वारा अन्याय का विरोध जिसका चरित्र न्याय के अनुरूप है. यहां सवाल न्याय के स्वरूप का उतना नहीं है जितना उसे प्राप्त करने के उपाय का. वैधानिक और व्यवस्थित प्रक्रियाएं अक्सर काफी नहीं होतीं. तब हथियारों का इस्तेमाल उनका अतिक्रमण करता है. ऐसा न हो, और मनुष्य हमेशा वोट और गोली के बीच ही भटकता न रहे, इसलिए सिविल नाफ़रमानी की कार्यप्रणाली संबंधी क्रान्ति सामने आई है. हमारे युग की क्रांतियों में सर्वप्रमुख है हथियारों के विरुद्ध सिविल नाफ़रमानी की क्रांति, यद्यपि वास्तविक रूप में यह क्रांति अभी तक कमजोर रही है." (मस्तराम कपूर, संपा., 'मार्क्स गांधी और समाजवाद', राममनोहर लोहिया रचनावली, खंड 1, पृ. 137, अनामिका पब्लिशर्स, दिल्ली, 2008) नवउपनिवेशवाद के शिकंजे में फंसे साधारण भारतीय जनता को एकजुट करने में यह कार्यप्रणाली कारगर हो सकती है. तब यह भी हो सकता है कि जनता के दबाव में देश के बुद्धिजीवी/अर्थशास्त्री एक ऐसी अर्थव्यवस्था और विकास के मॉडल के स्वीकार और निर्माण का कार्यभार अपने ऊपर लें, जो ऊपर से नीचे नहीं, नीचे से ऊपर विकसित होता हो.

यह सही है कि उपभोक्तावादी पूंजीवाद ने अपने मजबूत और सर्वव्यापी नेटवर्क द्वारा भारत सहित पूरी दुनिया के लोगों के दिलों पर कब्ज़ा जमाया हुआ है. उनके दिलों पर भी, जिनके नागरिक अधिकारों, यहां तक की जीवन अधिकार की कीमत पर यह व्यवस्था चलती है. आम तौर पर देखा गया है कि इस व्यवस्था के अगुआ और लाभार्थी मनुष्य होने की स्वाभाविक स्वतंत्रता की कीमत पर ज्यादा से ज्यादा सुखी होने की स्वतंत्रता के पीछे दीवाने होते हैं. किशन पटनायक ने एक जगह लिखा है कि धन और सुविधाओं से लैस लोग सुखी भी हैं, या कितने सुखी हैं, इसमें संदेह की गुंजाइश है. उपनिवेशवाद के तहत भी लोगों के दिलों पर आधिपत्य और व्यामोह की मोटी परत जमी थी. स्वतंत्रता आंदोलन के विभिन्न चरणों और उनमें सक्रिय विविध धाराओं ने उस परत को तोड़ कर उपनिवेशित लोगों के दिलों को मुक्त किया था. लोगों के ह्रदय परिवर्तन का यह महान काम सबसे ज्यादा गांधी ने किया. लोहिया ने गांधी की ह्रदय परिवर्तन की धारणा की समीक्षा नए ढंग से परिवर्तन की राजनीति के संदर्भ में की है. लोहिया का कथन है, "गांधी ने स्मट्स, इरविन और बिरला के ह्रदय परिवर्तन में मात्र एक साल लगाया, जबकि उन्होंने अपने जीवन के 40 से ज्यादा साल दुनिया के करोड़ों लोगों के हृदयों में साहस भरने, और इस तरह उनका ह्रदय बदलने में लगाए." (डॉ. राममनोहर लोहिया, 'मार्क्स, गांधी एंड सोशलिज्म', पृ. 156, समता विद्यालय न्यास, हैदराबाद, 1963)

गांधी ने उपनिवेशवाद से मुक्ति का विचार भारतीयों के साथ-साथ उपनिवेशित दुनिया के करोड़ों लोगों के दिलों में पैदा कर दिया था. उपनिवेश कायम करने वाले देशों के लोगों के दिलों को भी कुछ हद तक गांधी के इस प्रयास ने छुआ था. उनकी हत्या के बाद भी पूरी दुनिया के स्तर पर उनका सिविल नाफ़रमानी और ह्रदय परिवर्तन का विचार उन लोगों/समूहों को प्रेरणा देता रहा, जिनकी मनुष्य अथवा नागरिक होने की स्वतंत्रता का हनन किया गया था. गांधी से प्रेरणा लेकर नवउपनिवेशवादी शिकंजे से मुक्ति का विचार आज भी भारत सहित पूरी दुनिया के लोगों के दिलों में जगह बना सकता है.  

(लेखक भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला के पूर्व फेलो और दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के शिक्षक, सोशलिस्ट पार्टी के पूर्व अध्यक्ष हैं )

Tuesday, 3 September 2019

दिल्ली विश्वविद्यालय : क्या थमेगा मूर्ति विवाद!


प्रेम सिंह
अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् (एबीवीपी) की 30 अगस्त 2019 की रैली में हुए भाषणों से यह स्पष्ट लगता है कि 12 सितम्बर को होने वाले दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ (डूसू) चुनाव में हाल का मूर्ति-विवाद प्रमुख मुद्दा रहेगा. चुनाव परिणाम के बाद भी यह विवाद बना रहने की संभावना है. 20-21 अगस्त 2019 की देर रात एबीवीपी के डूसू अध्यक्ष ने दिल्ली विश्वविद्यालय के उत्तरी परिसर में कला संकाय के प्रमुख द्वार पर विनायक दामोदर सावरकर, नेताजी सुभाषचंद्र बोस और शहीद भगत सिंह की 'त्रिमूर्ती' स्थापित कर दी. यह कार्य रात के अंधेरे में धोखे से किया गया. इस घटना पर अन्य छात्र संगठनों की ओर से तीखा विरोध और विवाद हुआ. नेशनल स्टूडेंट्स यूनियन ऑफ़ इंडिया (एनएसयूआई) के दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष ने रात के अंधेरे में ही सावरकर की मूर्ति को विरूपित कर दिया.
कुछ विद्वानों और पत्रकारों ने भी इस घटना का नोटिस लेते हुए लिखा कि सावरकर के साथ सुभाष बोस और भगत सिंह को नत्थी करना उन दोनों स्वतंत्रता सेनानियों का अपमान है. विवाद बढ़ता देख एबीवीपी ने बतौर संगठन अपने को मूर्ति-स्थापन की घटना से यह कहते हुए अलग कर लिया कि विश्वविद्यालय परिसर में कोई भी मूर्ति विश्वविद्यालय प्रशासन और अन्य सम्बद्ध निकाय की अनुमति के बिना नहीं लगाई जानी चाहिए. 22-23 अगस्त की रात को डूसू नेताओं ने मूर्तियां यह कहते हुए हटा दीं कि चुनाव के बाद विश्वविद्यालय प्रशासन की अनुमति से मूर्तियां लगाई जाएंगी. यह खबर थी कि एनएसयूआई ने एबीवीपी के इस गैर-कानूनी काम के विरोध में स्थानीय थाने में एफआरआई दर्ज कराई थी. लेकिन उस दिशा में पुलिस या विश्वविद्यालय प्रशासन की ओर से किसी कार्रवाई की सूचना नहीं है.
इस घटना में ध्यान देने बात है कि मूर्तियों को लगाने से लेकर सावरकर की मूर्ति को विरूपित करने और मूर्तियों को हटाने तक - सब कुछ गुपचुप तरीके से हुआ. विश्वविद्यालय खुलेपन, पारदर्शिता और आपसदारी के लिए जाने जाते हैं. यह चिंता की बात है कि विश्वविद्यालय प्रशासन और दोनों प्रमुख छात्र संगठनों ने इस मामले में समझदारी का परिचय नहीं दिया. मूर्तियां लगाने वाले एबीवीपी के डूसू अध्यक्ष ने कहा कि उन्होंने पिछले साल नवम्बर में विश्वविद्यालय प्रशासन को इस बारे में लिखा था, जिसमें डूसू कार्यालय सावरकर के नाम पर रखने की मांग भी की गई थी. उनके मुताबिक विश्वविद्यालय प्रशासन ने कई बार आग्रह करने के बावजूद उनकी मांग पर ध्यान नहीं दिया. लेकिन इससे डूसू अध्यक्ष को मनमानी करने की छूट नहीं मिल जाती. वहीँ विश्वविद्यालय प्रशासन को समझना चाहिए कि किसी मामले को लटकाने अथवा ढंकने-तोपने की कोशिश से चीज़ें गलत दिशा में जा सकती हैं. विश्वविद्यालय प्रशासन को समय रहते इस मामले का पारदर्शी तरीके से निपटारा करना चाहिए था.
डूसू अध्यक्ष ने इस मामले में जो किया वह सावरकर की शैली के अनुरूप था. सावरकर अपनी हिंसा और छल-कपट की नीति को भगवान कृष्ण के साथ जोड़ कर सही ठहराते थे. उनकी होड़ दरअसल गांधी की अहिंसा और पारदर्शिता की नीति से थी. डूसू अध्यक्ष का लक्ष्य भी अंतत: डूसू कार्यालय में सावरकर की मूर्ति स्थापित करना था. सुभाष बोस और भगत सिंह की मूर्तियां नौजवानों के बीच सावरकर को वैधता दिलाने के लिए नत्थी की गईं. अगर डूसू चुनाव में एबीवीपी जीतती है तो वह डूसू कार्यालय में सावरकर की मूर्ति स्थापित करने की दिशा में जरूर प्रयास करेगी. लेकिन एनएसयूआई के अध्यक्ष द्वारा सावरकर की मूर्ति को रात के अंधेरे में विरूपित करना सुभाष बोस और भगत सिंह की कार्य-शैली के विरुद्ध है. उन्होंने सावरकर की शैली का अनुसरण करके एबीवीपी को ही मजबूत किया है. इसका कारण समझ में आता है. देश के संविधान और स्वतंत्रता आंदोलन के मूल्यों के उलट भारत का शासक वर्ग जो नवउदारवादी नीतियां चला रहा है, वे बिना छल-कपट के जारी नहीं रखी जा सकतीं. पिछले करीब तीन दशकों से यह छल-कपट चल रहा है, जिसमें कांग्रेस और भाजपा सबसे बड़ी भागीदार पार्टियां हैं. भाजपा की बहुमत सरकार के दौर में यह छल-कपट परवान चढ़ना ही था.
क्रांतिकारी के रूप में सावरकर विवादास्पद रहे हैं. उन्होंने अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए सेलुलर जेल से कई माफीनामे लिख कर 1924 में रिहाई हासिल की थी. रिहाई के बाद वे हिंदू महासभा के नेता के रूप में ब्रिटिश हुकूमत के वफादार बने रहे. क्रांतिकारी आंदोलन में कई लोग मुखबिर बने, कई लोग आंदोलन से विरत हो गए और श्री अरविंदो घोष जैसे क्रांतिकारी आध्यात्मिक रास्ते पर चले गए. लेकिन ब्रिटिश सत्ता के प्रति वफादारी जैसा रास्ता केवल सावरकर ने अपनाया. गांधी की हत्या में अदालत ने उनकी संलिप्तता स्वीकार की, लेकिन सबूतों के अभाव में उन्हें बरी कर दिया. 'हिंदुत्व' की अवधारणा और 'हिंदू-राष्ट्र' का सिद्धांत देने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) उन्हें अपना प्रतीक-पुरुष (आइकॉन) स्वीकार करता है और गांधी की हत्या के केस में उनका भरसक बचाव करता है. इसी नाते अटलबिहारी वाजपेयी की मिली-जुली राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार ने 2003 में संसद के सेंट्रल हॉल में सावरकर का चित्र स्थापित किया था. राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने चित्र का अनावरण किया था. संसद के सेंट्रल हॉल में सावरकर का चित्र लगाने की अनुमति देने वाले पैनल में वरिष्ठ कांग्रेसी नेता प्रणब मुख़र्जी और शिवराज पाटिल के साथ मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) के वरिष्ठ नेता सोमनाथ चटर्जी भी थे. 2004 के आम चुनाव में भाजपानीत सरकार परास्त हो गई. तब से लोकसभा अध्यक्ष के साथ केवल भाजपा के नेता ही सावरकर की जयंती और पुण्यतिथि पर उन्हें रस्मी श्रद्धांजलि देते थे. लालकृष्ण अडवाणी ने एक बार अन्य पार्टियों के नेताओं के इस रवैये की निंदा भी थी. 2014 में प्रधानमंत्री बनने पर नरेंद्र मोदी ने संसद के सेंट्रल हॉल में सावरकर को श्रद्धांजलि दी.
डॉ. लोहिया ने यह जोर देकर कहा है कि किसी भी नेता की मूर्ति उसकी मृत्यु के 100 साल हो जाने के बाद लगाई जानी चाहिए. उनके सामने शायद तत्कालीन विश्व का परिदृश्य था, जिसमें नेताओं-विचारकों की मूर्तियां बड़े पैमाने पर प्रोपगेंडा पॉलिटिक्स में इस्तेमाल की जा रही थीं. अभी का दौर ऐसा है जब हम अपने खोखलेपन को भरने के लिए विभिन्न प्रतीक-पुरुषों की प्रतिमाओं का सहारा लेने की होड़ लगाते हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय में विवेकानंद की आदमकद प्रतिमा पहले से स्थापित है. उस पर एक तरह से एबीवीपी का पेटेंट भी है. इसके अलावा और प्रतिमाएं लगाने का सिलसिला शुरू होगा तो इस अस्मितावादी गोलबंदी के इस दौर में अपने-अपने प्रतीक-पुरुषों की कमी नहीं रहेगी. दक्षिण परिसर में भी प्रतिमा(ओं) लगाने की मांग होगी. समय के अंतराल के साथ हर कॉलेज कोई न कोई मूर्ति लगाना चाहेगा. विभागों में भी ऐसी मांग उठ सकती है. यह चलन अन्य विश्वविद्यालयों को भी प्रभावित कर सकता है.
दिल्ली विश्वविद्यालय प्रशासन का यह कर्तव्य बनता था कि सावरकर की मूर्ति लगाने को आतुर एबीवीपी के नेताओं को बुला कर समझाता कि विश्वविद्यालय में किसी भी अनुशासन का कोई एक विचार/विचारक नहीं पढ़ाया जाता है. सच्ची राष्ट्रीय चेतना का निर्माण राष्ट्रीय नायकों के विचारों/आदर्शों को आलोचनात्मक ढंग से अपनाने पर होता है. विश्वविद्यालय प्रशासन अभी भी यह काम कर सकता है, ताकि विवाद आगे न बढ़े और विश्वविद्यालय का माहौल न बिगड़े. छात्र संगठनों को भी चाहिए कि वे अपने को छात्र हितों तक सीमित रखें, ताकि ज्यादा प्रभावी रूप में अपनी भूमिका निभा सकें. मौजूदा दौर में पूरी शिक्षा व्यवस्था पर तेजी से निजीकरण का हमला हो रहा है. इस हमले का मुकाबला सबसे पहले छात्र और शिक्षक संगठन ही कर सकते हैं. एबीवीपी और एनएसयूआई बड़ी राजनैतिक पार्टियों से जुड़े सुविधा-संपन्न छात्र संगठन हैं. वे ठान लें तो अपनी पार्टियों और सरकारों को शिक्षा का निजीकरण करने के फैसलों से रोक सकते हैं. उनकी वह भूमिका परिसर में नेताओं की मूर्तियां लगाने से कहीं ज्यादा उपयोगी होगी |


(लेखक सोशलिस्ट पार्टी के पूर्व अध्यक्ष, भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला के पूर्व फेलो और दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के शिक्षक हैं)

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