रपट
प्रोफेसर जयदेव स्मृति व्याख्यान
1857 की क्रांति उन्नीसवीं सदी की
दुनिया की सबसे बडी घटना थीा इंग्लैंड में उस पर सन 1900 तक करीब 50 और बीसवीं
सदी में करीब 40 उपन्यास या फिक्शनल अकाउंट लिखे गए हैंा इस घअना पर आधारित पहला
लघु उपन्यास वहां 1857 में ही प्रकाशित हो गया थाा भारत की आजादी के बाद भी पांच
उपन्यास लिखे जा चुके हैंा हिल्डा ग्रेग ने 1897 में लिखे गए अपने शोध आलेख में
कहा है कि ‘इस सदी की समस्त महान घअनाओं, जैसा कि वे फिक्शन में प्रतिबिंबित
होती हैं, भारतीय बगावत - म्युटिनी - ने लोगों की कल्पना पर सबसे ज्यादा प्रभाव
छोडा हैा’ उन्होंने यह भी लिखा है कि ‘बगावत का उपन्यास अभी लिखा जाना बाकी हैा’
हिंदी में इस महान घटना पर पहला उपन्यास 73 साल बाद 1930 में ऋषभ चरण जैन का
‘गदर’ लिखा गया जिसे अंग्रेज सरकार ने तुरंत जब्त कर लियाा आलोचकों और साहित्यकारों
ने इस उपन्यास को नज़र अंदाज कर दिया । तबसे अब तक नौ और उपन्यास - ‘झांसी की
रानी लक्ष्मीबाई’ 1946, ‘बेकसी का मजार’ 1956, ‘सोना और खून’ 1960, ‘क्रांति के
कंगन’ 1966, ‘पाही घर’ 1991, ‘रमैनी’ 1998, ‘वीरांगना झलकारीबाई’ 2003, ‘मैं अपनी
झांसी नहीं दूंगा’ 2004, ‘महिमामयी’ 2005 – समेत कुल 10 उपन्यास लिखे गए हैंा
लगभग एक सदी की दूरी के चलते इनमें से किसी भी उपन्यास में 1857 की क्रांति का
सही चरित्र और मौलिक उत्साह पूरी तरह चित्रित नहीं हो पाया हैा इस घटना पर भारत
में सचमुच अभी महाकाव्यात्मक उपन्यास लिखा जाना बाकी हैा ये विचार डॉ प्रेम
सिंह ने 28 सितंबर को दिल्ली में आयोजित 14वां प्रोफेसर जयदेव स्मृति व्याख्यान देते
हुए व्यक्त किएा वे '1857 की क्रांति और हिन्दी उपन्यास' विषय पर बोल रहे थेा
1857 की क्रांति का वक्त भारत में नवजागरण
का वक्त भी हैा लेकिन नवजागरणकालीन भारतीय चिंतकों ने अपने को 1857 से अलग रखा एक
यह भी वजह थी कि लोगों के लाखों की संख्या में भागीदारी और शहादत के बाद भी विद्रोह
असफल रहा । विद्रोह और नवजागरण की धाराओं में परस्पर संवाद और सहयोग होता तो एक
नई चेतना का जन्म हो सकता थाा लेकिन उपनिवेशवादी संरचना में पैदा होने वाले भारत
के नवोदित मध्यवर्ग को 1857 की क्रांति में कोई सार नज़र नहीं आयाा उल्टे वे
महारनी विक्टोरिया की प्रशस्ती के गीत गाते रहेा
डॉ; सिंह ने कहा कि अलबत्ता लोकसाहित्य
में 1857 का बखूबी चित्रण होता हैा यह अपने में प्रमाण है कि इस विद्रोह का चरित्र
सामंती नहीं थाा सामंतों को ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन समाप्त होने पर फायदा ही हुआ । डॉ प्रेम
सिंह ने कहा कि 1857 की क्रांति के प्रति लेखकों की उपेक्षा के दो कारण नजर आते
हैंा पहला, राजकोप का भय और दूसरा, भारत के नवोदित मध्यवर्ग का पूंजीवादी सभ्यता
के प्रति समर्पणा नवउदारवाद का जो कब्जा 1991
के बाद से देखने को मिल रहा है उसकी शुरुआत 1857 की विफलता से ही हो गई थी। क्योंकि
पहले स्वाधीनता संग्राम के दौरान से देशज चेतना और विचार को खारिज
करने का काम मध्यवर्ग ने करना शुरू कर दिया था ।
अध्यक्षीय संबोधन में भीम सिंह दहिया ने
1857 से पहले की कुछ अंग्रेजी कविताओं का जिक्र किया जिनमें स्वाधीनता की सुगबुगाहट
मिलती हैा उन्होंने कहा कि साहित्य को इतिहास की नहीं, साहित्य की कसौटी पर
परखा जाना चाहिएा
कार्यक्रम का आयोजन
प्रोफेसर जयदेव मेमोरियल लेक्चर फोरम और साहित्य वार्ता ने कियाा कार्यक्रम की
अध्यक्षता अंग्रेजी साहित्य के जाने-माने विद्वान डॉ भीम सिंह दहिया ने की ।
संचालन अंग्रेजी साहित्य की प्राध्यापिका अनुपमा जयदेव और धन्यवाद ज्ञापन
इंद्रदेव ने कियाा
यानी 1857 की क्रांति कोई प्रतिक्रिया के
बाद पनपी घटना नहीं थी । बल्कि गुलामी की बेड़ियों से आज़ाद होने का एक सामूहिक प्रयास
था । जिसमें किसानों, महिलाओं, दलितों और आम हिन्दुस्तानियों ने भाग लिया था । कार्यक्रम में बुद्धिजीवियों और छात्रों की अच्छी
खासी तादाद मौजूद रही ।
प्रस्तुति
राजेश कुमार मिश्रा
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