सोशलिस्ट पार्टी
(इंडिया)
चौखंभा राज’ सम्मेलन का प्रस्ताव
‘‘संविधान बनाने की कला में अब अलग कदम चौखंभा
राज की दिषा में होगा। गाँव जिला, प्रांत तथा केंद्र, यही चार समान प्रतिभा और सम्मान वाले खंभे।’’ (डाॅ. राममनोहर
लोहिया)
देश अभूतपूर्व केन्द्रीकरण की प्रवृत्ति से
गुज़र रहा है। सारी राजनीतिक सत्ता अब प्रधानमंत्री कार्यालय, बल्कि
प्रधानमंत्री में सिमट गई है। सारी आर्थिक सत्ता चन्द देशी-विदेशी कारपोरेट
घरानों और विश्व बैंक, आईएमएफ, डब्ल्युटीओ जैसे कोरपोरेट पूंजीवाद के वैश्विक प्रतिष्ठानों
के निर्णयों के इर्द-गिर्द घूम रही है। सारी सामाजिक-सांस्कृतिक सत्ता कुछ
बहुसंख्यकवादी फासिस्ट मनोवृत्ति वाले संगठनों द्वारा संचालित हो रही है। आजादी के
संघर्ष के मूल्यों और संविधान के लक्ष्यों को दरकिनार करके हर स्तर पर सत्ता के
केंद्रीकरण को परवान चढ़ाया जा रहा है। सोशलिस्ट पार्टी का मानना है कि यह तत्काल
पैदा हुई परिस्थिति नहीं है, बल्कि आज़ादी के बाद चली उस प्रक्रिया का नतीजा है जिसमें
भारी उद्योग आधारित केन्द्रीकृत अर्थव्यवस्था तथा कार्यपालिका और विराट नौकरशाही
के हाथ में ताकत के सिमटते जाने ने हमारे लोकतंत्र को एक औपचारिक लोकतंत्र में
तब्दील कर दिया है। इसके चलते जनता की लोकतांत्रिक प्रक्रिया में षिरकत बस पांच
साला चुनावी अनुष्ठान में मतदान तक सीमित होकर रह गई है। अपनी वास्तविक ताकत से
वंचित जनता राजनीतिक दृष्टि से या तो निष्क्रिय हो गई है या दिग्भ्रमित। इतना ही
नहींे, वह सामाजिक विघटन
और आत्मघात की ओर बढ़ चली है। कारपोरेट घरानों, विश्व बैंक, आईएमएफ, डब्ल्युटीओ आदि
के बोझ तले देश के कई लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं।
आज़ादी की लड़ाई के दौरान और उसके बाद भी देश के विकास का
सवाल वह महत्वपूर्ण मसला था जिस पर तमाम नेता और चिंतक लगातार बहस करते रहे हैं।
यह कहना थोड़ा सरलीकरण होगा लेकिन फिर भी कहा जा सकता है कि देश में विकास के दो दशन
रहे हैं। पहला भारी उद्योग, शहरीकरण और केन्द्रीय नियोजन के समीकरण से बना था। दूसरा दर्शन
लघु उद्योग, जीवन्त ग्राम व्यवस्था और विकेन्द्रीकृत नियोजन पर आधारित रहा है। कहना न होगा
पहला दर्शन ही राजनीतिक रूप से सफल रहा और दूसरा दर्शन एक नैतिक प्रतिपक्ष की तरह
मौजूद रहा। पहले तरह के दर्शन का
प्रतिनिधित्व नेहरू करते हैं जबकि दूसरे तरह के दर्शन के प्रतिनिधि गाँधी, लोहिया और
जयप्रकाश नारायण रहे हैं।
भारी उद्योग, बहुउद्देशीय परियोजनाएँ, शहरीकरण और
केन्द्रीकृत नियोजन के गंभीर परिणाम सामने आये। राजनैतिक पार्टियां और नेता
गैरजिम्मेदार होते गये, एक पहले से विशाल और औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रस्त नौकरशाही
रोज़ ब रोज़ ज़्यादा से ज़्यादा गैरजवाबदेह होती गई, स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं का विकास नहीं
होने से निर्णय में जनता की भागीदारी सिकुड़ती गई। योजना आयोग जैसी संस्थाओं ने
सत्ता और संसाधनों का केन्द्रीकरण कर इस पूरे नाटक की पटकथा लिखी। नतीजे दूसरी
पंचवर्षीय योजना से ही सामने आने लगे थे। बड़े पैमाने पर आबादी का विस्थापन हुआ, पर्यावरण का विनाश
हुआ, गरीब और अमीर की
खाई बढ़ती गई और हाषिए के समुदायों और तबकों जैसे दलित, आदिवासी, असंगठित मजदूर, छोटे किसान, भूमिहीन, मछुआरे, महिलाएं, अल्पसंख्यक, बच्चे आदि और बड़े पैमाने पर आर्थिक तथा
सामाजिक रूप से बाहर धकेले गए हैं। गाँव और जंगल उजड़ते गये तथा उद्योग और शहर
बसते गये। ये उद्योग और षहर न केवल पर्यावरण का विनाष करते रहे, बल्कि इन्होने
अपने भीतर विस्थापित जनों के लिये ऐसी झोपड़पट्टियां बसाई हैं जो वंचना और सतत्
विस्थापन का गढ़ हैं। इस माहौल में हमारा न्याय का ढांचा भी मजलूमों के लिये मृग
मरीचिका ही साबित हुआ। तमाम जनविरोधी और औपनिवेशिक कानूनों ने जनता की जि़न्दगी को
और कठिन बना दिया। वंचित तबको के लिये समय-समय पर सामाजिक सुरक्षा की योजनाएँ बनाई
जाती रहीं, लेकिन इन योजनाओं का भी ढाँचा ऊपर से नीचे की ओर था। इनके बनाने में
जनभागीदारी नहीं थी। लिहाजा, ये योजनाएँ भ्रष्टाचार का गढ़ बनती गई और जनता मुख्यधारा
राजनीतिक दलों की और मोहताज होती गई। अब योजना आयोग को भंग करके एक ‘थिंक टैंक’ बनाने की घोषणा
प्रधानमंत्री ने की है। यह ‘थिंक टैंक’ सीधे प्रधानमंत्री के प्रति जवाबदेह होगा। यानी योजनाएं
सीधे कारपोरेट घरानों के हित में बनाई जाएंगी। बल्कि तेजी से बनाई जा रही हैं।
जंगल अधिकार कानून, भूमि अधिग्रहण कानून, श्रम कानून सभी को कारपोरेट हित में बदला जा
रहा है। नवउदारवादी नीतियों की मार से बदहाल जनता की और तबाही होगी।
आजादी से लेकर अभी तक अगर हम अपने देश की सभी समस्याओं का
एक मुख्य कारण बताना चाहें तो वह होगा केन्द्रीकरण। सत्ता का, निर्णय लेने की
क्षमता का, धन और संसाधन का केन्द्रीकरण। लेकिन साथ ही साथ हमारे पास विकेन्द्रीकरण पर
आधारित दर्शन की एक समानान्तर परम्परा भी मौजूद है। यह दर्षन इस विश्वास पर
आधारित है कि जनता के पास अपने मामलों का नियोजन करने, सभी मसलों पर सुचारू रूप से योजना बनाने और उसे
लागू करने के लिये जनता की भागीदारी पर आधारित तंत्र विकसित करने की योग्यता है।
यह दर्शन मानता है कि हमारा पूंजीवादी प्रतिनिध्यात्मक लोकतंत्र वास्तव में एक
औपचारिक व्यवस्था है और जनता के व्यापक हिस्से की इसमें कोई वास्तविक भागीदारी
नहीं है। यह दर्शन मानता है कि देश में निर्देशों, निर्णयों और नियोजन का रुख ऊपर से नीचे की ओर
नहीं, बल्कि नीचे से
ऊपर की ओर होना चाहिये। सत्ता को विकेन्द्रीकृत कर गाँव-गाँव, मोहल्लों-मोहल्लों
में बिखरा देना चाहिये। एक ऐसे तंत्र का निर्माण करना चाहिये जिसमें सत्ता
विकेन्द्रीकृत हो, जो जन भागीदारी पर आधारित हो, जिसमें विकास की सारी योजनाओं और प्रकल्पों का
प्रस्ताव जनता की छोटी इकाइयों से ऊपर जाये और जिसमें नौकरशाही की दखलन्दाजी न हो।
26 फरवरी 1950 को प्रखर समाजवादी चिंतक और स्वतंत्रता सेनानी डा.
राममनोहर लोहिया ने भागीदारी आधारित लोकतंत्र की विस्तृत रूपरेखा अपने भाषण ‘चौखम्भा राज’ में प्रस्तुत की है। जीवन्त व्याख्या प्रस्तुत करते हुये वे
कहते है, ’यह जीवन का एक
ढंग होगा जो मानव जीवन के सभी क्षेत्रों से सम्बन्ध रखेगा जैसे उत्पादन, स्वामित्व, व्यवस्था, शिक्षा, योजना आदि।’ इस रूप में उन्होंने जनता की सीधी भागीदारी को
लोकतंत्र का प्राण बताया। गाँधी और लोहिया के इन चिंतन बिन्दुओं को विस्तृत करती
हुई एक माँग पूरे देश में हमेशा बनी रही है। इस माँग ने अलग-अलग रूपों में तमाम
कानूनों और प्रयोगों की षक्ल ली है। देर से ही सही, 73 वें और 74 संशोधन के रूप में हमारे संविधान ने इस
रूपरेखा को अपनाने की कोशिश की है।
एक निश्चित सीमा तक हमारा संविधान इस भागीदारी आधारित
लोकतंत्र की स्थापना के लिये हमें एक ढाँचा भी मुहैया कराता है। राज्य के नीति
निर्देशक तत्व आर्थिक-सामाजिक विषमता को दूर करके जनता की भागीदारी से समतामूलक
समाज की रचना का लक्ष्य सामने रखते हैं।
पंचायत, नगरपालिका, जि़ला योजना समिति तथा राज्य वित्त आयोग जैसी संवैधानिक संस्थाओं के रूप में
नीचे से लेकर ऊपर तक योजना और वित्त प्रबन्धन का पूरा ढाँचा मौजूद है। 73 वें और 74 वें संविधान संशोधन
के बाद स्थानीय संस्थाओं को ऐसे कर्तव्य और अधिकार मिले हैं जो योजना और उसे लागू
करने में जनता की सीधी भागीदारी सुनिश्चित करते हैं। संविधान पंचायत और
नगरपालिकाओं को ’स्थानीय स्वशासन‘ की संस्थाएँ न कहकर उन्हें ’स्वशासन‘ की संस्थाएँ कहता है। स्थानीय स्वशासन का मतलब
हुआ स्थानीय स्तर पर स्थानीय मुद्दों को निपटाने की संस्थाएँ। लेकिन स्वशासन का
मतलब हुआ स्वराज, यानी जनता स्वयं अपने लिये निर्णय ले और उन्हें लागू करे। इसका अर्थ ये है कि
ये केन्द्रीय संस्थाओं की ताबेदार नहीं होगी, बल्कि इन्हें लोकतंत्र में बराबर की जगह हासिल
है। ये योजना बनाने, लागू करने और वित्त प्रबन्धन तक में स्वायत्त हैं। इस रूप
में संविधान ने हमें ऐसी संस्थाओं का ढाँचा दिया है जिसे मजबूती प्रदान कर हम
भागीदारी आधारित लोकतंत्र का विकास कर सकते हैं।
सोशलिस्ट पार्टी का मानना है कि इस तरह
भागीदारी पर आधारित लोकतंत्र और टिकाऊ मानव-पर्यावरण केन्द्रित विकास का हमारा
संघर्ष दो पैरों पर चलता है। एक ओर यह जनान्दोलनों की मार्फ़त जनता की चेतना को
विकसित करते हुये उसे लामबन्द करता है, दूसरी ओर यह संविधान में मौजूद भागीदारी आधारित
लोकतंत्र के सूत्रों को अपनी पहलकदमियों के लिये प्रस्थान बिंदु बनाता है।
इस सम्मेलन के जरिए सोशलिस्ट पार्टी ने पंजाब सहित पूरे देष
में प्रषासनिक व आर्थिक विकेंद्रीकरण के लिए अभियान की शुरुआत की है। इसके तहत हर
राज्य में ‘चौखंभा राज’ सम्मेलन आयोजित किया जाएगा और ग्राम, जिला, प्रांत और केंद्र
के स्तर पर कार्यक्रमों का आयोजन किया जाएगा। सत्ता का विकेंद्रकरण हुए बगैर धन और
धरती का बंटवारा नहीं हो सकता, जो समाजवाद का मूल लक्ष्य है। सोशलिस्ट पार्टी कारपोरेट
पूंजीवाद और उस पर आधारित विकास के विरोधी सभी जनांदोलनकारी समूहों, राजनीतिक
पार्टियों, सामाजिक संगठनों, सिविल सोसायटी एक्टिविस्टों, बुद्धिजीवियों और खास कर नौजवानों का आह्वान
करती है कि वे विकेंद्रीकरण की इस संविधानसम्मत व सगुण मुहिम में शामिल हों।
सोशलिस्ट पार्टी का नारा
समता और भाईचारा
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