नीरज कुमार
हर
साल की तरह इस साल भी दिल्ली विश्वविद्यालय छात्रसंघ (डूसू) चुनाव सितम्बर
महीने के पहले-दूसरे सप्ताह में होने हैं. छात्र राजनीति में कम से कम चुनाव के स्तर पर एक
शहर तथा एक यूनिवर्सिटी में यह दुनिया की संभवत: सबसे बड़ी घटना होती है. लेकिन
वैचारिक गंभीरता के लिहाज़ से यह चुनावी कवायद कोई मायना नहीं रखती है. डूसू चुनाव में
हिस्सेदारी करने वाले वैचारिक छात्र संगठन हाशिये पर रहते हैं. नवउदारवादी दौर में
डूसू चुनाव का स्तर ज्यादा तेज़ी से नीचे गया है.
विश्वविद्यालय प्रशासन की ओर से अभी औपचारिक रूप से डूसू चुनाव की तारीख की घोषणा नहीं हुई
है. न ही डूसू चुनाव में हिस्सा लेने वाले छात्र
संगठनों ने अपने प्रत्याशियों का ऐलान किया है. लेकिन कांग्रेस के छात्र संगठन एनएसयूआई
और भाजपा के छात्र संगठन एबीवीपी के संभावित प्रत्याशियों ने पूरे शहर में धनबल का
प्रदर्शन शुरू कर दिया है. वे 20-40 गाड़ियां साथ लेकर नार्थ-साउथ कैंपस और कॉलेजों में घूमते नजर आने लगे हैं. गाड़ियों
पर पोस्टर चिपके रहते हैं. दिल्ली के गली-चौराहे बड़े-बड़े पोस्टरों से भर दिए जा
रहे हैं. कहने की जरूरत नहीं कि यह सब काम छात्र संगठनों के कार्यकर्ता नहीं करते
हैं. धन देकर एजेंसियों से सब काम कराया जाता है. धनबल के साथ बाहरी तत्वों को
लेकर बाहुबल का प्रदर्शन भी बदस्तूर शुरू हो गया है. बाहरी तत्वों की मौजूदगी से
कैंपस और कालेजों में नतीजे आने और जीत का जश्न होने तक असुरक्षा का माहौल बना
रहेगा. नए-पुराने छात्र, शिक्षक, शहरी यह सब देख रहे हैं. विश्वविद्यालय प्रशासन ने
अपनी आँखें बंद की हुई हैं.
डूसू
चुनाव में हर साल यही होता है. चुनाव की तारीख और प्रत्याशियों की घोषणा होते-होते
धनबल और बाहुबल का प्रयोग तेज़ से तेज़ रफ़्तार पकड़ता जाएगा. राजनीतिक पार्टियों के
बड़े-छोटे नेता खुद मैदान में उतर आयेंगे. प्रेस वार्ताओं और दावतों का दौर चलेगा.
इसके साथ छात्र-छात्राओं को फिल्म और पिकनिक पर ले जाने का सिलसिला चलेगा. गिफ्ट
दिए जायेंगे. इसके लिए महंगी बड़ी कारों और एयर कंडिशन्ड बसों का इंतज़ाम रहेगा. जो
छात्र संगठन और उम्मीदवार जितना अधिक धन खर्च करेगा, उसे मुख्यधारा मीडिया में
उतना ही प्रचार मिलेगा. 'जो दिखता है वो बिकता है' का बाजारवादी नुस्खा पूरे डूसू चुनाव
में सर चढ़ कर बोलता है.
बहुचर्चित
लिंगदोह समिति की सिफारिशें लागू होने के बावजूद डूसू
चुनाव में हर साल यह सब होता है. केवल शुरू के एक-दो सालों में धन के इस
अश्लील प्रदर्शन पर रोक लगी थी. लेकिन नए-नए तरीकों से चुनाव फिर उसी ढर्रे पर लौट
आये. डूसू का चुनाव देख कर यही लगता है कि बड़ी पार्टियों के छात्र संगठनों के लिए
लिंगदोह समिति की सिफारिशें नहीं हैं. वे सिफारिशें सिर्फ वैचारिक छात्र संगठनों को
चुनाव की दौड़ से बाहर रखने के लिए हैं! ऐसे छात्र संगठन जो छात्र-हित के जरूरी
मुद्दों और रचनात्मक व सुरक्षित शैक्षिक वातावरण के लिए छात्र राजनीति में
हिस्सेदारी करते हैं उनका चुनाव में हिस्सा लेना कठिन ही नहीं, प्राय: असम्भव हो
गया है. यदि लिंगदोह समिति की सिफारिशों का विश्वविद्यालय प्रशासन सही तरीके से
पालन करे तो धनबल और बाहुबल से चुनाव लड़ने वाले संगठनों को विश्वविद्यालय की छात्र
राजनीति में जगह नहीं मिल सकती.
देश
की मुख्यधारा राजनीति बड़े कारपोरेट घरानों के हाथों का खिलौना बन चुकी है. उसी का
परिणाम है कि छात्र राजनीति पर भी बाजारवाद का रंग चढ़ गया है. नवउदारवादी दौर ने
ज्यादातर छात्र-छात्राओं का स्वाभिमान और स्वतंत्रता की चेतना कुंद कर दी है. वरना
जिस तरह से शिक्षा का बड़े पैमाने पर निजीकरण और बाजारीकरण किया जा रहा है, छात्र
राजनीति को सबसे पहले उसे रोकने के लिए सम्मिलित संघर्ष करना चाहिए. धनबल और
बाहुबल को छोड़ कर शिक्षा के निजीकरण के संकट पर गंभीर वैचारिक बहस चलानी चाहिए.
देश की मुख्यधारा राजनीति को बाध्य करना चाहिए कि राज्य सबको समान और
गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करे. भारत के संविधान का यही निर्देश है. साथ ही पूरे
देश के कालेजों और विश्वविद्यालयों में सुरक्षित और रचनात्मक वातावरण बनाने का
जरूरी काम करना चाहिए.
लेकिन
खुद सामान्य छात्र-छात्राएं इन मुद्दों के प्रति उदासीन रहते हैं. वे डूसू चुनाव
में वोट न डाल कर अपना कर्तव्य पूरा समझ लेते हैं. स्नातक के अंतिम वर्ष और
स्नातकोत्तर कक्षाओं के बहुत ही कम छात्र-छात्राएं डूसू चुनाव में वोट डालने जाते
हैं. जो जाते हैं वे अपने किसी मित्र के लिए जाते हैं. नागरिक समाज में भी
ज्यादातर छात्र राजनीति को लेकर नकारात्मक रवैया रहता है. लोग कहते हैं कालेजों और
विश्वविद्यालयों में चुनाव नहीं होने चाहिए. छात्र वहां पढ़ाई करने जाते हैं,
राजनीति नहीं. छात्र राजनीति के मौजूदा परिदृश्य को देखते हुए उनकी बात सही हो
सकती है. लेकिन युवा और छात्र देश की आबादी का सबसे बड़ा हिस्सा हैं. भगत सिंह ने
कहा है कि छात्रों को पढ़ना चाहिए और खूब पढ़ना चाहिए. लेकिन जब जरूरत हो तो राजनीति
के मैदान में कूदना चाहिए.
छात्र
राजनीति के इतिहास में जाएँ तो पायेंगे कि छात्र आंदोलनों की दुनिया के महत्वपूर्ण
बदलावों में सक्रिय भूमिका रही है. डॉ. लोहिया ने कहा है कि छात्र जब राजनीति नहीं
करते तो सरकारी राजनीति को चलने देते हैं और इस तरह परोक्ष राजनीति करते हैं. डूसू
चुनाव में दो बड़े दावेदार छात्र संगठन - एबीवीपी और एनएसयूआई - सरकारों की शिक्षा
के निजीकरण की नीतियों के समर्थन की राजनीति करते हैं. क्या इसे छात्र राजनीति कहा
जा सकता है?
लेखक सोशलिस्ट युवजन सभा (एसवाईएस) के अध्यक्ष हैं.
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