आसिफा के न्यायप्रिय हत्यारे!
प्रेम सिंह
'आसिफा
को न्याय' (जस्टिस फॉर आसिफा) की गुहार दिल्ली से संयुक्त राष्ट्र संघ तक गूँज रही
है. सामाजिक-नागरिक संगठन आसिफा की सामान्य और मृतावस्था की तस्वीर लगा कर अपने नाम
के बैनर-झंडे लहराते हुए, नारे लगते हुए आसिफा को न्याय दिलाने के लिए सड़कों पर उतर
पड़े हैं. कठुआ से लेकर दिल्ली और देश के अन्य कई शहरों में प्रतिरोध मार्च और कैंडल
विजिल हो रहे हैं. बच्चे भी हिस्सा ले रहे हैं. दिल्ली सरकार की एक महिला अधिकारी 'महिलाओं
की सुरक्षा' के सवाल पर भूख हड़ताल पर बैठी हैं. उनका कहना है कि मोदी जब एक झटके
में विमुद्रीकरण कर सकते हैं तो महिलाओं की सुरक्षा क्यों नहीं कर सकते! सोशल
मीडिया आसिफ़ा को न्याय दिलाने की पोस्टों से पट गया है. अखबारों के स्तंभकार, सामाजिक-राजनीतिक
सरोकार रखने वाले बुद्धिजीवी 'आसिफा को न्याय' पर लेख लिख रहे हैं. अंतर्राष्ट्रीय
मीडिया पर भी यह प्रमुख खबर बनी है. उत्तर प्रदेश के उन्नाव बलात्कार मामले पर लोगों
का आक्रोश जारी था कि जम्मू-कश्मीर की अपहरण, बलात्कार और हत्या की दिल दहला देने
वाली यह वारदात सामने आ गई.
ज़ाहिर
है, बर्बरता की शिकार हुई आसिफा को पता नहीं था कि देश में न्याय देने के लिए एक
न्यायपालिका होती है, जिसमें बड़े-बड़े न्यायधीश, वकील और गवाह सबूतों के आधार पर
न्याय करते हैं. उसे पता नहीं था कि दुनियां में संयुक्त राष्ट्र संघ भी है जो न्याय
दिलवाता है. आसिफा नहीं जानती थी कि सरकारें बर्बरतापूर्वक मार दी जाने वाली बच्चियों
के माता-पिता को कुछ धनराशि देकर न्याय करती हैं. आसिफा को यह भी कहाँ पता था कि
देश में 'फासीवाद' आ चुका है; लोग बताएँगे कि उसका वैसा हश्र उसी फासीवाद का नतीज़ा
है; और फासीवादी ताकतों को हराना ही आसिफा को न्याय दिलाना है! उसे शायद यह भी
नहीं पता चला हो कि मंदिर में उसके साथ 'हिंदू न्याय' किया जा रहा है! आसिफा
तिरंगे झंडे के बारे में नहीं जानती होगी, जिसे लहरा कर अदालत से लेकर सड़कों तक 'हिंदू
न्याय' का जुलूस निकला गया.
पता
नहीं आसिफा को कितना पता था कि वह कितनी मुसलमान है! अलबत्ता उसने छोटी-सी उम्र
में यह जरूर जान लिया कि दोजख ज़मीन पर ही है - धरती का स्वर्ग कही जाने वाली ज़मीन
पर! दुनिया छोड़ने से पहले उसने यह भी जान लिया कि शैतान अलग से नहीं होता. क़यामत
के दिन खुदा आसिफा का क्या न्याय करेगा!
रूह
अगर कोई चीज़ है तो आसिफा हैरत से सोचती होगी कि उसकी हत्या के तीन महीने बाद अचानक
देश भर में इतने लोग और संगठन उसे न्याय दिलाने के लिए आंदोलित हो उठे हैं! अपहरण
और हत्या के समय से ही उसके साथ हुए नृशंस कृत्य का प्रतिरोध करने वाले उसके गाँव
के युवा वकील तालिब हुसैन अब उसे अकेले नहीं लगते होंगे. परिपूर्ण का अंश रूह पर
शायद उम्र का असर नहीं रहता होगा. रूह बन कर आसिफा देख रही होगी कि हिन्दुस्तान और
दुनिया कितनी बड़ी और घात-प्रतिघातों से भरी है.
वह अच्छी
तरह समझ रही होगी कि यह दुनिया और व्यवस्था उसे न्याय नहीं दे सकती. इस व्यवस्था
में जितने भी न्याय हैं - सामाजिक न्याय, आर्थिक न्याय, नागरिक न्याय, मानवीय
न्याय, बाल न्याय - उन सबसे उसे बाहर रखा गया. तभी इतना आसान हुआ कि उसके वजूद को बर्बरतापूर्वक
कुचल दिया गया और पूरे देश में तीन महीने तक कहीं पत्ता नहीं खड़का. वह समझ रही
होगी कि उसे न्याय दिलाने का यह जोश जल्दी ही ठंडा हो जाएगा. अगली वारदात होने पर
फिर एक उबाल आएगा और ठंडा पड़ जाएगा. अन्य रूहों के साथ वह समझ गई होगी कि उबलने,
ठंडा पड़ने का यह सिलसिला चलते रहना है.
आसिफा
को आश्चर्य होता होगा कि ये इतने लोग क्या ढोंग करते हैं? उनकी क्या मजबूरी है? नहीं,
ढोंग नहीं करते. वे अपने में सच्चे हैं. आसिफाओं का सारा हिस्सा मार कर वे खुद को
न्यायप्रिय दिखाना चाहते हैं. जताना चाहते हैं कि यह सब उनके नाम पर नहीं हो रहा
है. रूहों को किसी के प्रति द्वेष नहीं होता. आसिफा मुस्कुरा कर कहेगी -
न्यायप्रिय हत्यारे!
तीन
सामान्य सुझाव हैं, ठीक लगें तो : आसिफा को न्याय के बहाने हम यह फैसला कर सकते
हैं कि राष्ट्र-ध्वज फिर से केवल राष्ट्रीय मामलों में इस्तेमाल किया जाए. सुप्रीम
कोर्ट का 2004 का वह निर्णय वापस ले लिया जाए, जिसमें किसी भी भारतीय नागरिक को
किसी भी अवसर पर, किसी भी स्थान पर, किसी भी समय (दिन या रात) सम्मान के साथ
तिरंगा फहराने का अधिकार दिया गया था. दूसरे, हम चुप रहना सीखें और अपने से
बात-चीत ज्यादा करें. शायद तब हम जान पायें कि हम सब इस व्यवस्था के ही हिस्सेदार और
ताबेदार हैं. तीसरी बात, आरएसएस वाले यह समझने की कोशिश करें कि 'हिंदुत्व' का जो
पिटारा वे खोले हुए हैं, उसकी समाज, सभ्यता, राष्ट्र, इंसान - किसी के लिए कोई
सार्थकता नहीं है. देश की राजनीति कारपोरेट के हाथों में चली गई है. कारपोरेट
पूंजीवाद की विष्ठा खाने वाला कोई भी संगठन सत्ता में आ सकता है. लेकिन जब तक मानव
सभ्यता की सांस बाकी है, उसका सामाजिक और मानवीय बहिष्कार बना रहेगा.
शायद
आसिफा की रूह को इससे सुकून मिले और उसके अम्मी-अब्बा, भाई-बहनों को सहने की ताकत!
बाकी सरकार और कानून-व्यवस्था कुछ न कुछ करेंगी ही. उन्हें अपने होने का धर्म जो
निभाना है. जम्मू और कश्मीर में दो मंत्रियों के इस्तीफे हो चुके हैं. अदालती
कार्रवाई भी कुछ न कुछ होगी ही.
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