प्रेम सिंह
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मौजूदा
सरकार के सत्तासीन होने के बाद से यह जंग ज्यादा तेज़ हुई है. यह स्वाभाविक है. राष्ट्र-भक्ति
और राष्ट्र-द्रोह का जुड़ाव राष्ट्रवाद से है. राष्ट्रवाद को पूंजीवाद के साथ जोड़
कर देखा जाता है. उग्र- पूंजीवाद को उग्र-राष्ट्रवाद चाहिए. उग्र-राष्ट्रवाद में राष्ट्रीय
अस्मिता/चेतना का पूंजीवादी लूट को सुरक्षित बनाने के लिए अंध-दोहन किया जाता है. इस
प्रक्रिया में लोगों के सामने राष्ट्र-द्रोही के रूप में एक फर्जी शत्रु बना कर
खड़ा कर दिया जाता है. लोग अपने और राष्ट्र के असली शत्रु (वर्तमान दौर में
कार्पोरेट पूंजीवाद) को भूल कर फर्जी शत्रु से भिड़ंत में जीने लगते हैं. भारत और
दुनिया के कई देशों में उभरा उग्र-राष्ट्रवाद किसी न किसी रूप में उग्र-पूंजीवाद
की अभिव्यक्ति (मेनिफेस्टेशन) है.
भारत
में छिड़ी राष्ट्र-भक्ति और राष्ट्र-द्रोह की जंग के मूल में राष्ट्र को लेकर कोई
सुचिंतित और गंभीर वैचारिक अंतर्वस्तु (कंटेंट) नहीं है. यह सिद्ध करने के लिए इस
जंग के विभिन्न वैचारिक-रणनीतिक प्रसंगों और आयामों की लंबी तफसील देने की जरूरत
नहीं है. जिस तरह से पक्षों, पात्रों, विचारों, आख्यानों, मुद्दों, प्रतीकों, लक्ष्यों,
रणनीतियों आदि का पल-पल पाला बदल होता है, उससे राष्ट्र-भक्ति और राष्ट्र-द्रोह की
जंग की विमूढ़ता स्वयंसिद्ध है. राष्ट्र-भक्ति और राष्ट्र-द्रोह की जंग का स्वरुप किस
कदर विद्रूप और हास्यास्पद बन गया है, यह महज तीन बिंबों पर नज़र डालने से यह
स्पष्ट हो जाता है. एक, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में टैंक रखवाया
जाना; दो, कश्मीर में फौजी अफसर का एक नागरिक को जीप के बोनेट से बांध कर प्रतिरोधकर्ताओं
के सामने घुमाना; तीन, इस बार हज करने मक्का गए भारतीय मुसलामानों का वहां पर राष्ट्र-ध्वज
तिरंगे का अजीबोगरीब प्रदर्शन करना.
कई
विद्वान् इस जंग में राष्ट्र के अलग-अलग आख्यान और उनकी टकराहट खोजते हैं. उस बहस
पर मैं यहां गहराई में नहीं जाना चाहता. केवल यह कहना है कि आधुनिक भारत में
राष्ट्र की अवधारणा का संबंध अनिवार्यत: उपनिवेशवाद विरोध से जुड़ा हुआ है. राष्ट्र
का कोई भी आख्यान अगर नवसाम्राज्यवाद को संबोधित नहीं करता है, तो वह खुद अपने
फर्जी होने की सच्चाई स्वीकार करता है. राष्ट्रीय जीवन के केंद्र में राजनीति होती
है. राजनीति वास्तविक भी हो सकती है (होनी चाहिए) और फर्जी भी. जहां फर्जी राजनीति
समवेत रूप में धड़ल्ले से चलती है, वहां राष्ट्रीय जीवन में सब कुछ फर्जी होता चला
जाता है. भारत में पिछले करीब तीन दशकों से यही होता चला आ रहा है. राष्ट्र-द्रोह
के आरोपों की बौछार झेलने वाले पक्ष की तरफ से जिस भारतीय-राष्ट्र के तर्क दिए
जाते हैं, वे भी प्राय: उतने ही उथले हैं, जितने खुद अपने को राष्ट्र-भक्ति का
प्रमाणपत्र देने वाले हिंदू-राष्ट्र के दावेदारों द्वारा दिए जाते हैं.
एक
उदाहरण पर्याप्त होगा. पूर्व राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी के राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के मुख्यालय में भाषण देने जाने पर काफी विवाद हुआ. जब
उन्होंने भाषण दे दिया तो उनके जाने का विरोध करने वाले तुरंत पाला बदल कर उनकी
प्रशंसा के पुल बांधने लगे. कहा गया कि श्री मुखर्जी ने आरएसएस को उसके मुख्यालय
में जाकर भारतीय-राष्ट्र का पाठ अच्छी तरह से पढ़ा दिया है. यह कहते वे मगन हो गए
कि भारतीय-राष्ट्र का विचार और उसके प्रणेता कितने महान हैं! और, ज़ाहिर है, उस
विचार तथा उसके प्रणेताओं को मानने वाले हम भी!
यह
सवाल उठाया ही नहीं गया कि भारतीय-राष्ट्र के महान विचार और प्रणेताओं के रहते हिंदू-राष्ट्र
का इस कदर उभार कैसे हो गया? जबकि वह पिछले 80 सालों, डॉ. लोहिया के 'हिंदू बनाम
हिंदू' निबंध का हवाला लें तो हजारों साल से हवा में तैर रहा था. यह सवाल उठता तो
यह भी पूछा जाता कि देश के समस्त अकादमिक, शैक्षिक, साहित्यिक, कलात्मक, सांस्कृतिक
संस्थानों और बड़े-बड़े एनजीओ की जिम्मेदारी लिए होने के बावजूद देश का साधारण सहित शिक्षित-संपन्न
तबका भारत से लेकर विदेशों तक हिंदुत्ववादी-फासीवादी मानसिकता के साथ क्यों चला गया?
दरअसल, भारतीय-राष्ट्र के दावेदार अपनी जिम्मेदारी का सवाल बहस में आने ही नहीं
देना चाहते. जिम्मेदारी का सवाल बहस में आने से उन्हें आत्मालोचना करनी होगी. आत्मालोचना
वही करता है, जो अपने को आलोचना से परे नहीं मानता. भारतीय-राष्ट्र के खास कर मार्क्सवादी,
आधुनिकतावादी और इच्छा-स्वातंत्र्यवादी (लिबरटेरीयंस) दावेदार नहीं चाहेंगे कि इस
बात पर खुले में चर्चा हो. वे भारतीय-राष्ट्र का हिंदू-राष्ट्र के बरक्स रणनीतिक इस्तेमाल
भर करते हैं. वह रणनीति आरएसएस को एक अकेला शत्रु चित्रित करने की है. (यह आरएसएस
को माफिक आता है, क्योंकि उसकी भी वही रणनीति है.)
उपनिवेशवादी
वर्चस्व के दौर से लेकर आजादी हासिल करने तक जो भारतीय-राष्ट्र का स्वरुप बना, और
जो अपनी खूबियों-कमियों के साथ अभी भी क्षीण रूप में निर्माणाधीन है, मार्क्सवादी,
आधुनिकतावादी और इच्छा-स्वातंत्र्यवादी उस स्वरुप को लेकर स्पष्टता नहीं बरतना चाहते. शायद उनमें से
ज्यादातर की निष्ठा उसमें नहीं है. उनका सरोकार अपने बौद्धिक दाव-पेचों से है,
जिनके बल पर वे राष्ट्रवाद का खटराग चलाए रखना चाहते हैं, जिसमें एक तरफ भारतीय-राष्ट्र
के दावेदार हों और दूसरी तरफ हिंदू-राष्ट्र के दावेदार. ज्यादातर अंग्रेजी में पगे
ये बौद्धिक अभिजन यह समझने को तैयार नहीं हैं कि भारत की मेहनतकश जनता ने उनके इन बौद्धिक
दाव-पेचों की भारी कीमत चुकाई है; और वह अब तरह-तरह की भ्रांतियों का शिकार हो
चुकी है.
श्री
मुखर्जी के भाषण के संदर्भ में भारतीय-राष्ट्र के दावेदारों की ओर से यह सवाल
उठाने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता कि ये दोनों राष्ट्र ख़ुशी-ख़ुशी नवसाम्राज्यवाद
का जुआ खींचने में एक साथ जुते हुए हैं. आरएसएस विरोधी कितना ही लोकतंत्र का
वास्ता देकर फासीवाद विरोध का आह्वान करते हों, आरएसएस जानता है भाजपा की सरकार
हमेशा नहीं रहनी है. उसने राहुल गांधी को अपने मुख्यालय में आने का निमंत्रण दे
दिया है. भारतीय-राष्ट्र के दावेदारों के समर्थन से जब कारपोरेट के किसी और प्यादे
की पूरी मज़बूती बन जायेगी, तो आरएसएस उसे भी अपने यहां बुला लेगा. यह अप्रोप्रिएसन
नहीं है. नवसाम्राज्यवाद के समर्थन में दो फर्जी पक्षों का एका है, जो 1991 के बाद
से अंदरखाने उत्तरोतर मज़बूत होता गया है.
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यह
अकारण नहीं है. आधुनिक भारत के संदर्भ में राष्ट्रवाद के ये दोनों विचार अवास्तविक
हैं. संघियों का 'स्वर्णिम' राष्ट्र सुदूर काल में स्थित है और कम्युनिस्टों,
आधुनिकतावादियों और इच्छा स्वातंत्र्यवादियों का 'स्वर्णिम' राष्ट्र सुदूर स्थान में
स्थित है, जो सुविधानुसार बदलते रहते हैं. आश्चर्य नहीं कि राष्ट्र के इन दोनों
अवास्तविक विचारों की परिणति अनिवार्यत: वर्तमान निगम पूंजीवाद में होती है. उसीका
नतीज़ा यह है कि हिंदू-राष्ट्र में डिज़िटल इंडिया के साथ 'मनुवाद' नत्थी कर दिया
जाता है. दूसरी तरफ, भारतीय-राष्ट्र के दावेदार डिज़िटल इंडिया में कई वादों
(इज्म्स) का विचित्र घालमेल नत्थी करते हैं. उपनिवेशवाद के साथ संघर्ष और संवाद की
प्रक्रिया में भारतीयता को पुनर्परिभाषित और पुनर्व्याख्यायित करने का जो ऐतिहासिक उद्यम शुरू हुआ था, उसमें लगभग ठहराव आ
चुका है. उस दौर में वैश्विक पटल पर भारत को पुनर्व्यवस्थित करने की वह धारा अब
क्षीण रूप में ही बची रह गई है. राष्ट्र का ठहरा हुआ विचार मानसिकता में बदल जाता है,
जो एक साथ हिंसावादी, षड्यंत्री और कायर हो सकती है.
पूंजीवाद
रहता है तो पूंजीवादी दमन के खिलाफ लोग प्रतिरोध करते हैं. लोग प्रतिरोध न करें,
या प्रतिरोध में शामिल न हों, इसके लिए पूंजीवादी निजाम ने एनजीओ बनाए हैं. लेकिन विशाल
आबादी वाले भारत में पूंजीवादी तबाही का कोई अंत नहीं है. यहां एनजीओ की बाड़ लगा
कर लोगों को लड़ने से नहीं रोका जा सकता. लोग नागरिक के तौर पर राजनीतिक लड़ाई नहीं
लड़ पाते तो धर्म, जाति, क्षेत्र, भाषा के नाम पर लड़ते हैं. भारतीय-राष्ट्र और
हिंदू-राष्ट्र के दावेदारों के बीच सारा झगड़ा प्रतिरोधरत लोगों को अपने-अपने पक्ष
में फोड़ने का है. वे कोई बीच का रास्ता नहीं छोड़ना चाहते. ऐसे में भारत एक 'भीड़-राष्ट्र'
में तब्दील हो रहा हो तो आश्चर्य नहीं.
यह
सोचने की बात है कि भारतीय-राष्ट्र के दावेदार सिविल सोसाइटी एक्टिविस्ट फासीवादी
हमले के खिलाफ समुदायों (दलित, मुस्लिम, आदिवासी, पिछड़े आदि) को एक मंच पर लाने का
आह्वान करते हैं. वे उन्हें 'टेक इट फॉर ग्रांटेड' लेते हुए उनके साथ वैसा ही
व्यवहार करते हैं, जैसा ठेकेदार निर्माण मजदूरों के साथ करते हैं. भारतीय-राष्ट्र
के दावेदार बुद्धिजीवी समझते हैं ज्ञान की पूंजी केवल उनके पास है. आरएसएस की
रणनीति शुरू से समुदायों को अपने पक्ष में गोलबंद करने की रही है. इस रूप में आरएसएस
शुरू से आधुनिक नागरिकता-बोध का सबसे बड़ा अवरोधक बना हुआ है. क्या भारतीय राष्ट्र
के दावेदार सिविल सोसाइटी एक्टिविस्टों ने भी फैसला कर लिया है कि हिंदू-राष्ट्र
का मुकाबाला नागरिक-राष्ट्र से नहीं करना है? कहां तो 1991 में नई आर्थिक नीतियां
लागू की जाने के साथ ही अलग-अलग क्षेत्रों के मुद्दा-आधारित प्रतिरोध आंदोलनों को
जोड़ कर नवसाम्राज्यवादी हमले को परास्त करने के लिए वैकल्पिक राजनीति खड़ी करने के
प्रयास हो रहे थे, कहां कारपोरेट राजनीति की गोद में बैठ कर समुदायों को एकजुट
करने अथवा/और आपस में लड़वाने के आह्वान किये जा रहे हैं!
एक
समय ऐसा माना गया था कि जाति-समीकरण (पिछड़े-दलित-मुसलमान) की राजनीति सांप्रदायिकता
की काट है. उसे सामाजिक न्याय की राजनीति जैसा सुंदर नाम दिया गया था. लेकिन आरएसएस
ने आगे बढ़ कर उसे अपना हथियार बना लिया. क्योंकि भारतीय-राष्ट्र के दावेदारों ने सामाजिक
न्याय की राजनीति को समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र की संवैधानिक विचारधारात्मक
धुरी पर कायम नहीं किया. चुनावों में 'सोशल इंजीनियरिंग' तक ही सामाजिक न्याय की
राजनीति सीमित रह गई. बाकी रहा-सहा काम जातिवादी-परिवारवादी नेताओं ने कर दिया. कहने
की जरूरत नहीं है कि इस भीड़ बनते राष्ट्र में सबसे ज्यादा दुर्गति मुसलमानों की
हुई है. राजनीतिकरण की प्रक्रिया से अलग-थलग पड़ा ज्यादातर मुस्लिम समाज इस या उस
सामाजिक समुदाय और राजनीतिक पार्टी/नेता का पुछल्ला बनने को बाध्य है. उनके लिए
हिंदू-राष्ट्र में जगह नहीं है. कम से कम बराबरी की जगह नहीं है. लेकिन भारतीय-राष्ट्र
में भी उनकी जगह बराबरी की हैसियत वाले नागरिकों की नहीं है. वहां उनके साथ रक्षक-भाव
से बर्ताव किया जाता है. वह बर्ताव अपने को धर्मनिरपेक्ष दिखाने और उसके बदले में
पद-पुरस्कार-अनुदान पाने की नीयत से परिचालित होता है.
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भारतीय-राष्ट्र
का दायरा बांध कर राष्ट्र की दावेदारी के जितने आख्यान सक्रिय हैं, उनके एक साझा
(कॉमन) पाखण्ड पर ध्यान देने की जरूरत है. वे सभी गांधी के विरोधी हैं. वे गांधी
को कभी भगत सिंह की छड़ी से, कभी अम्बेडकर की छड़ी से, कभी सुभाषचंद्र बोस की छड़ी
से, कभी जवाहरलाल नेहरू की छड़ी से, कभी जिन्ना की छड़ी से पीटते हैं. लेकिन आरएसएस
का सामना होते ही प्राय: वे सभी गांधी की हत्या का रोदन करने लगते हैं. मैं यहां पूंजीवादी
औद्योगिक सभ्यता के आपदायी चरित्र को उसकी जययात्रा के दौर में पहचान लेने वाले
गांधी; हिंसा-ग्रस्त दुनिया को राजनीति का नया अर्थ और तरीका बताने वाले गांधी; और
'राष्ट्रपिता' गांधी की बात नहीं कर रहा हूं. भारत में गांधी को इन रूपों में याद
करने की कोई प्रासंगिकता भी नहीं है. क्योंकि भारतीय-राष्ट्र और हिंदू-राष्ट्र दोनों
के दावेदार कारपोरेट पूंजीवाद पर एकमत हैं और उसके साथ ही गांधी के राजनैतिक दर्शन
को अमान्य करने पर एकमत हैं. भारतीय-राष्ट्र के दावेदार भले ही खुल कर न कहते हों,
हिंदू-राष्ट्र के दावेदारों की तरह 'राष्ट्रपिता' गांधी भी उन्हें स्वीकार नहीं
है. भारतीय-राष्ट्र के दावेदारों को चाहिए कि वे गांधी को 'राष्ट्रपिता' की
बेड़ियों से भी तुरंत मुक्त कर दें. इस पर सर्वानुमति बनाने में किसी कोने से कोई
दिक्कत नहीं आएगी. हिंदू-राष्ट्रवादी मन, जो अभी तक गांधी की हत्या में क्रूरता का
सुख लेता है; अथवा गोडसे की जगह गांधी की हत्या करने की अभिलाषा पालता है, इसके
लिए तुरंत तैयार होगा.
मैं
यहां उस गांधी की बात कर रहा हूं जिसने सदियों से वर्ण-जाति-सम्प्रदाय में विभाजित
और साम्राज्यवादी लूट से जर्जर विशाल भारतीय समाज की सामूहिक चेतना को साम्राज्यवाद
विरोधी चेतना के साथ जोड़ दिया था. गांधी ने आगे बढ़ कर यह भी किया कि तत्कालीन विविध
बौद्धिक समूहों को भी जनता की साम्राज्यवाद विरोधी चेतना के साथ एकबद्ध होने को बाध्य
कर दिया था. स्वतंत्र आधुनिक भारतीय-राष्ट्र के लिए गांधी की यह अनोखी देन थी कि अपने
इस उद्यम में उन्होंने साम्राज्यवादी ब्रिटिश शासकों के प्रति शत्रुता का भाव नहीं
रखा, और भारतीयों को भी इसके लिए तैयार करने की कोशिश की. मार्टिन लूथर किंग जूनियर
से लेकर नेल्सन मंडेला तक गांधी की इस सीख के प्रति धन्यवादी रहे हैं. अगर भारतीय-राष्ट्र
के दावेदारों को वह गांधी भी नहीं चाहिए, तो अपने भारतीय-राष्ट्र से उन्हें गांधी
को तुरंत बेदखल कर देना चाहिए. यह काम बुद्धिजीवी ही कर सकते हैं, क्योंकि एक समूह
के तौर पर गांधी को लेकर सबसे ज्यादा पाखंड वे ही करते हैं. दुनिया में एक भी ऐसा
उदाहरण नहीं मिलता जहां एक ऐसे व्यक्ति के खिलाफ, जिसने स्वतंत्रता संघर्ष में
अपना जीवन लगाया, अपनी भली-बुरी भूमिका के एवज़ में स्वतंत्र नवोदित राष्ट्र से न
कुछ चाहा, न कुछ लिया, उसे देश के बुद्धजीवियों से अपार घृणा और तिरस्कार मिला हो.
भारतीय-राष्ट्र
के दावेदारों द्वारा गांधी-मुक्त भारत बनाने से एक बड़ा फायदा यह होगा कि शासकवर्ग गांधी
को मोहरा बना कर अपनी सत्ता की मज़बूती नहीं बना पायेगा. क्योंकि गांधी को लेकर
बुद्धिजीवियों का पाखंड शासकवर्ग द्वारा जनता के खिलाफ उनके नाम के इस्तेमाल में
मदद करता है. गांधी-मुक्त भारत होने पर शासकवर्ग द्वारा दुनिया में गांधी को बेचने
का धंधा भी एक दिन ख़त्म हो जा सकता है. गांधी ने एक बार अपनी राजनीति में सक्रियता
का लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करना बताया था. भारतीय-राष्ट्र के दावेदार गांधी-मुक्त
भारत बना कर उन्हें सचमुच मुक्ति देने का काम करेंगे!
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यह
अकारण नहीं है कि भारतीय-राष्ट्र के लगभग सभी दावेदार संकट की गहनता के बावजूद
किसी राजनैतिक विकल्प की चर्चा तक नहीं करते. बल्कि उन्होंने 'इंडिया अगेंस्ट
करप्शन' (आईसीए) के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन और उस आंदोलन की पार्टी के साथ पूर्ण
एकजुटता बना कर 1991 के बाद बनी वैकल्पिक राजनीति की समस्त संभावनाओं को सफलता
पूर्वक नष्ट कर दिया है. ध्यान दिया जा सकता है कि पब्लिक डोमेन में भारत माता और
तिरंगे को राष्ट्र-भक्ति के प्रदर्शन का ब्रांड-उपकरण भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन और
आम आदमी पार्टी ने ही बनाया था. भारत में बुद्धिजीवियों का काफी तूमार बांधा जाता
है. यह विडम्बना ही है कि राष्ट्र के सामने उपस्थित गहन संकट के बावजूद वे कोई नया
रास्ता नहीं बनाना चाहते. जबकि आधुनिक युग की यह अलग विशेषता है कि यहां जो भी
होता है, उसकी रूपरेखा बुद्धिजीवी तैयार करते हैं; भले ही उनमें कई ऊंचे पाए के
नेता भी होते हों.
कांग्रेस
ने जब 1991 में नई आर्थिक नीतियां थोपीं तो अटलबिहारी वाजपेयी ने कहा था कि अब
कांग्रेस ने उनकी विचारधारा और काम अपना लिए हैं. 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी के
नेतृत्व में जब भाजपा की गठबंधन सरकार बनी और उसने एक के बाद एक अध्यादेशों के
ज़रिये कारपोरेट-हित के फैसले लिये तो किशन पटनायक ने 'राष्ट्रवादी' आरएसएस से जवाब
तलब किया था. आरएसएस की असलियत अब खुलकर सामने आ गई है. उसकी सारी 'सांस्कृतिक' और
'राष्ट्रवादी' फू-फां पूंजीवादी बाजारवाद की जूठन पर कब्ज़ा ज़माने के लिए थी. संस्कृति
और उस पर उपलब्ध विपुल चिंतन के मद्देनज़र आरएसएस की सांस्कृतिक समझ और प्रतिबद्धता
पर चिंता ही की जा सकती है! शिकागो में गरजने वाले आरएसएस के 'हिंदू शेर' मोहन
भागवत ने रक्षा-क्षेत्र में सौ प्रतिशत विदेशी निवेश के अपनी सरकार के फैसले पर म्याऊं
तक नहीं की. जिन छोटे और मंझोले व्यापारियों ने स्थापना के समय से ही
आरएसएस/जनसंघ/भाजपा को तन-मन-धन दिया, बहुराष्ट्रीय कंपनियों और कारपोरेट घरानों
से यारी होते ही आरएसएस ने उन्हें लात लगा कर नीचे गिरा दिया. लिहाज़ा, आरएसएस के 'हिडन
अजेंडे' का बार-बार खुलासा और विरोध करने का ज्यादा अर्थ नहीं है.
लेकिन
भारतीय-राष्ट्र के दावेदारों के यहां भारत और दुनिया में पसरी नवसाम्राज्यवाद की परिघटना,
भारत में साम्प्रदायिक फासीवाद जिसका उपोत्पाद है, पर अब कोई चर्चा नहीं होती. गोया
इतनी कुर्बानियों से हासिल की गई आज़ादी को गंवाना कोई चिंता की बात नहीं है. उनकी
मूल चिंता केवल आरएसएस के फासीवाद को परास्त करने की है. इस कवायद में भारतीय-राष्ट्र
के दावेदार बुद्धिजीवी पूरी बहस को ही दिग्भ्रमित (मिसगाइड) करने से नहीं हिचकते.
वे नवसाम्राज्यवादी शिकंजे से ध्यान हटा कर बहस को कभी फासीवाद बनाम लोकतंत्र, कभी
हिंदुत्व बनाम हिंदू-धर्म, कभी ब्राह्मणवाद बनाम दलितवाद, ब्राह्मणवाद बनाम
पिछड़ावाद आदि के रूप में पेश करते हैं. उनका सारा जोर इन्हीं संघर्षों
(कन्फलिक्ट्स) को तेज़ करने की रणनीतियां बनाने पर रहता है. यह तथ्य है कि लोकतंत्र
के चलते कुछ जातिगत-समुदायों की राजनीतिक ताकत बनी है. वे उस ताकत को सुरक्षित
रखते हुए और ज्यादा बढ़ाने की जद्दोजहद करते हैं. उनका यह संघर्ष (स्ट्रगल) लोकतांत्रिक
धरातल पर ही चलना चाहिए. क्योंकि वहीँ से वह ताकत हासिल की गई है और आगे वहीँ से
बढ़ाई जा सकती है. लेकिन देखने में आता है कि कुछ बुद्धिजीवी अपनी रणनीति के तहत इन
समुदायों में 'मिलिटेंट' तत्वों की तलाश करके उन्हें भारतीय राज्य के विरुद्ध
हिंसक प्रतिरोध से जोड़ना चाहते हैं. क्या फासीवाद के मुकाबले की इस तरह की रणनीति
के पीछे की मंशा को ईमानदार कहा जा सकता है?
5
देश
पर 1991 में नई आर्थिक नीतियां थोपे जाने पर समाजवादी चिंतक किशन पटनायक ने
राष्ट्र-भक्ति और राष्ट्र-द्रोह की बहस को एक उचित परिप्रेक्ष्य और दिशा देने की
कोशिश की थी. उन्होंने भारत पर दो सदियों के उपनिवेशवादी आधिपत्य के अनुभव को अपने
चिंतन का मुख्य आधार बनाया है. वे भारत में नवउदारवाद की शुरुआत को गुलामी की
शुरुआत से जोड़ कर देखते हैं और इसके लिए भारत के बुद्धिजीवियों को जिम्मेदार
ठहराते हैं. उनकी स्थापना है कि नवउदारवाद/नवसाम्राज्यवाद के बरक्स भारतीय
बुद्धिजीवियों का दिमाग स्वतंत्र रूप से काम नहीं कर पाता है. किशन पटनायक नवउदारवाद/नवसाम्राज्यवाद
का मुकाबला करने के लिए आर्थिक राष्ट्रवाद का सूत्र प्रस्तावित करते हैं. उनके
अनुसार देशी-विदेशी कारपोरेट घरानों की भारत के संसाधनों की लूट का निर्णायक विरोध
करते हुए नवउदारवाद के विकल्प का रास्ता तैयार करने वाले राष्ट्र-भक्त की कोटि में
आते हैं. उन्होंने स्पष्ट कहा नहीं है, लेकिन नवउदारवाद/नवसाम्राज्यवाद के समर्थक
अपने आप राष्ट्र-द्रोही की कोटि में आ जाते हैं. (इस विषय पर विस्तृत विवेचन के लिए उनकी
पुस्तकें - 'भारत शूद्रों का होगा', 'विकल्पहीन नहीं है दुनिया', 'भारतीय राजनीति
पर एक दृष्टि' तथा 'सामयिक वार्ता' व अन्य पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित उनके लेख
देखे जा सकते हैं)
अंत
में : उग्र-पूंजीवाद हमारे संसाधनों और श्रम को ही नहीं लूट रहा है, हमारे
राष्ट्रीय बोध को भी खोखला कर रहा है. बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि हमारा
राष्ट्रीय बोध खोखला हो चुका है, तभी देश के संसाधनों और श्रम की इस कदर खुली लूट
संभव हो पा रही है. राष्ट्रीय बोध नहीं रहने पर हमारा राष्ट्रीय जीवन समृद्ध बना
नहीं रह सकता. जैसा कि हम देख रहे हैं, वह सतही और कलही होने के लिए अभिशप्त है. दरअसल,
यह जो उग्र-राष्ट्रवाद दिखाई दे रहा है, वह राष्ट्रीय बोध के खोखलेपन को भरने की
एक निरर्थक कवायद है. इसके तहत येन-केन प्रकारेण ज्यादा से ज्यादा राजनीतिक सत्ता
हथिया कर नवउदारवादी लूट की ज्यादा से ज्यादा जूठन बीनने की छीना-झपटी चलती है. लगता
है यह दौर कुछ समय तक ऐसे ही चलेगा. लेकिन यह स्वीकार करना चाहिए कि हमेशा यह
स्थिति नहीं रहेगी. समय आयेगा जब किसी पीढ़ी में वास्तविक (जेनुइन) राष्ट्रीय बोध की
भूख जागृत होगी. अगर भारत के राष्ट्रीय जीवन में वह समय नहीं आता है, तो मान लेना
चाहिए कि हम राष्ट्र होने के लायक नहीं हैं. आधुनिक विश्व में गुलामी हमारी नियति
है!
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी का शिक्षक
और सोशलिस्ट पार्टी (भारत) का अध्यक्ष है)
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