Friday 11 January 2019

नागरिकता विधेयक : संविधान की अवमानना की दिशा में भाजपा का एक और कदम

10 जनवरी 2019

प्रेस रिलीज़

               केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने लोकसभा से नागरिकता (संशोधन) विधेयक 2016 पारित करके संविधान की अवमानना की दिशा में एक और कदम बढ़ा दिया है। विधेयक में प्रावधान है कि बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के छह गैर-मुस्लिम समुदायों - हिंदू, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन, पारसी - को धार्मिक उत्पीड़न की स्थिति में भारत की नागरिकता प्रदान की जाएगी. विधेयक में बांग्लादेश ही नहीं, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से आने वाले हिंदुओं, सिखों, ईसाइयों, बौद्धों, पारसियों और जैनों के लिए भारत की नागरिकता देने के नियमों को ढीला किया गया है। विधेयक में मुस्लिम समुदाय के लोगों के लिए किसी प्रकार की रियायत नहीं है। भाजपा के सांसदों ने कहा भी है कि जिस तरह से बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान में हिंदू समुदाय की आबादी घट रही है, उसे देखते हुए यह विधेयक जरूरी हो गया था। उनका कहना है कि उन देशों में हिंदुओं को प्रताड़ित किया जा रहा है और भारत उन्हें संरक्षण देना चाहता है। 


       तात्कालिक रूप से इस विधेयक का सबसे ज्यादा विरोध पूर्वोत्तर में हो रहा है। वहां असम गण परिषद ने असम की सरबानंद सोनोवाल सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया है। एनडीए में शामिल मेघालय के मुख्यमंत्री कोनार्ड संगमा ने कहा है कि उनकी पार्टी इस विधेयक के विरुद्ध है। एनडीए के एक और सहयोगी इंडीजिनस पीपुल्स फ्रंट आफ त्रिपुरा (आईपीएफटी) ने भी बिल का विरोध किया है। एनडीए के एक अन्य सहयोगी व मिजोरम के मुख्यमंत्री जोरमथंगा ने भी इस विधेयक का विरोध किया है। भाजपा के 11 दलीय उत्तर-पूर्व लोकतांत्रिक गठबंधन (नेडा), जिसमें त्रिपुरा, नागालैंड और मिजोरम के क्षेत्रीय दल शामिल हैं, ने विधेयक को स्थानीय निवासियों के लिए खतरा बताया है। विधेयक के विरोध में पूर्वोत्तर में जगह-जगह बंद का आयोजन हुआ है तथा शिलांग में भाजपा के दफ्तर पर बम से हमला भी हुआ है। अन्य विपक्षी पार्टियों ने तो लोकसभा में इस विधेयक का विरोध किया ही है।

       दरअसल, पूर्वोत्तर में अस्सी के दशक में खड़े हुए असम आंदोलन की मांग यह थी कि उन सभी विदेशियों को देश से बाहर किया जाए जो स्थानीय पहचान को बिगाड़ रहे हैं। उसमें हिंदू या मुसलमान के आधार पर भेदभाव नहीं था। यह एक प्रकार की उपराष्ट्रीयता थी जो कि पूरे पूर्वोत्तर में अलग-अलग तरह से पाई जाती है। पूर्वोत्तर की उस उपराष्ट्रीयता को संभालने के लिए कांग्रेस पार्टी के नेता और तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने 1985 में असम समझौता किया। उस समझौते में भी सारे विदेशियों की पहचान करके उन्हें बाहर करने का वादा किया गया था। वह काम तमाम तरह की अड़चनों का शिकार रहा और उसी का परिणाम है कि पूर्वोत्तर में कांग्रेस कमजोर होती गई और भाजपा ने असम, मणिपुर, त्रिपुरा और अरुणाचल प्रदेश में अपनी सरकारें बना लीं और उसके सहयोगी दलों ने मेघालय, नगालैंड और मिजोरम में।

       भाजपा उपराष्ट्रीयता के कंधे पर सवार होकर पूर्वोत्तर में सत्ता में आई है और अब उसे हिंदू राष्ट्र का रूप देने में लगी है। भाजपा को विश्वास है कि जिस तरह से उसने पूरे देश में क्षेत्रीय दलों के कंधे पर सवार होकर अपना विस्तार किया है और उसका हिंदूकरण कर रही है, वैसा ही वह पूर्वोत्तर में करने में कामयाब होगी। इसी से पूर्वोत्तर में विरोध पनप रहा है।  आरएसएस/भाजपा पूर्वोत्तर में ईसाई मिशनरियों के प्रचार और धर्म परिवर्तन को मुद्दा बनाते रहे हैं। लेकिन इस विधेयक में ईसाइयों को रियायत देकर फिलहाल उसने चर्च की नाराजगी बचाने की कोशिश की है। भले ही इस विधेयक का तात्कालिक लक्ष्य पूर्वोत्तर राज्यों का हिंदूकरण करना हो, लेकिन इसका असर वहीं तक सीमित नहीं रहने वाला है। केंद्रीय मंत्रियों ने सदन में इस बात को कहा भी है कि इसका असर पूरे देश पर पड़ेगा।  

       भाजपा का दावा था कि वह इस दिशा में जो कुछ कर रही है, वह असम समझौते की भावना के अनुरूप कर रही है। असम समझौते में वहां आने वालों का स्वीकार्य वर्ष 1971 रखा गया था। विधेयक ने उसे 2014 कर दिया है। पहले नागरिकता पाने के लिए भारत में बसने की समय सीमा 11 वर्ष रखी गई थी, जिसे अब छह साल कर दिया गया है। सबसे बड़ी बात यह कि असम समझौते में धर्म के आधार पर नागरिकता पाने का प्रावधान नहीं है। भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है और किसी भी धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में धर्म के आधार पर नागरिकता प्रदान नहीं की जाती। लिहाज़ा, भाजपा का नागरिकता कानून में संशोधन का कदम असम समझौते की मूल भावना ही नहीं, संविधान की मूल भावना के एकदम विपरीत है।

       संभव है कि इस संशोधन से एनआरसी यानी राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर में बाहर किए जा रहे 40 लाख लोगों की संख्या में कमी आए और काफी संख्या में लोग भारत के नागरिक बन जाएं। लेकिन इससे पूर्वोत्तर की उपराष्ट्रीयता जगेगी और असम जैसे राज्य, जहां मुस्लिमों की आबादी 34 प्रतिशत है, में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण तीव्र होगा। वह ध्रुवीकरण असम आंदोलन में भी देखने को मिला था। नेल्ली नरसंहार उसका प्रमाण है। लेकिन उस समय का असम का आंदोलनकारी तबका उसको लेकर शर्मिंदा था। आज भाजपा की सांप्रदायिक राजनीति फिर वही स्थितियां पैदा कर रही है।

       सोशलिस्ट पार्टी की राय में कि यह विधेयक धर्म-आधारित राष्ट्र के सिद्धांत को मजबूत करने वाला है और आरएसएस की मान्यता के अनुरूप भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की सोच पर आधारित है। जबकि संविधान निर्माताओं ने भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र स्वीकृत किया है। सोशलिस्ट पार्टी चाहती है कि इस विधेयक को राज्यसभा में पारित न होने देकर कानून बनने से रोका जाए। पार्टी का मानना है कि असम और पूर्वोत्तर की इस समस्या का समाधान भारत-पाक और बांग्लादेश का महासंघ बनाने के व्यापक विचार में है। क्योंकि यह उपमहाव्दीप धार्मिक आधार पर भौगोलिक रूप से बांट तो दिया गया, लेकिन उसका इतिहास, संस्कृति और अर्थव्यवस्था एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं। इसलिए उसे धार्मिक आधार पर बांटने की कोशिश नई-नई समस्या पैदा कर रही है।  

डॉ. प्रेम सिंह
अध्यक्ष  

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