14 फ़रवरी 2019
प्रेस रिलीज़
भारत और फ्रांस की सरकारों और उनके नेताओं, दोनों तरफ की विभिन्न सरकारी संस्थाओं और उनके अधिकारियों, हथियार कंपनियों और उनके मालिकों, मीडिया और पत्रकारों, नागरिक समाज एक्टिविस्टों के बीच घूम-भटक कर रफाल विमान सौदे का रहस्य अभी वहीं का वहीं खड़ा हुआ है। बल्कि अंधेरा साफ होने की बजाय, गहराता जा रहा है। अंधेरा गहराता इसलिए जा रहा है क्योंकि पहले सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को गुमराह किया कि भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) की रपट लोक लेखा समिति (पीएसी) के सामने पेश की जा चुकी है। अब जब कैग की रपट पेश की गई है तो उसमें भी भारतीय जनता और लोकतंत्र की आंखों में धूल झोंकने का पूरा प्रयास किया गया है। यह रपट तथ्यों को छिपाती ज्यादा है, उजागर कम करती है। और जरूरी तथ्यों पर बोलती ही नहीं है। सोशलिस्ट पार्टी का मानना है कि यह रपट एक सरकार और एक पूंजीपति का तन ढंकने के लिए तैयार की गई है, जिसमें देश का रक्षा मंत्रालय और वित्त मंत्रालय भले नंगे हो जाएं, न्यायपालिका पर भले आंख पर पट्टी बांधने और अंग्रेजी न जानने का आरोप लगे, लेकिन प्रधानमंत्री और उनके कृपापात्र उद्योगपति साफ बचे रहें।
कैग की रपट में राष्ट्रीय सुरक्षा का हवाला देकर इन तथ्यों को छुपाया गया है कि एक मूल विमान की कीमत कितनी थी और उसमें कितने प्रकार के उपकरण लगाए गए और उनसे विमान की कुल कीमत कितनी बैठती है। सवाल है कि कैग भारतीय वायु सेना के 11 सौदों का जिक्र करता है और 10 के मूल्य बताता है, लेकिन सिर्फ रफाल का मूल्य छुपा लेता है। इसके बावजूद कैग कहता है कि एनडीए का सौदा यूपीए की सौदेबाजी में उभर रहे सौदे से 2.86 प्रतिशत सस्ता है। माना जा रहा है कि कैग का यह निष्कर्ष भावनात्मक रूप से मोदी सरकार के पक्ष में जाता है। रपट की मंशा भी शायद यही है। लेकिन यह निष्कर्ष सरकार के शक्तिशाली मंत्री अरुण जेटली के उस बयान को गलत साबित करता है जो उन्होंने 2 जनवरी को संसद में दिया था। अरुण जेटली ने कहा था कि हमने यह सौदा यूपीए से 9 प्रतिशत सस्ता किया है और हथियारों वाला विमान तो 20 प्रतिशत सस्ता है। कैग के आंकड़ों के अनुसार वायु सेना के कुल 11 सौदों की कीमत 95,000 करोड़ रुपए है। इसमें 10 सौदों का कुल मूल्य 34,423 करोड़ रुपए है। रपट यहीं चुप हो जाती है। अब निष्कर्ष निकालने वाले सहज रूप से बता सकते हैं कि रफाल विमान के कुल सौदे की लागत 60,577 करोड़ रुपए है।
बैंक गारंटी अथवा संप्रभु गारंटी के सवाल पर सरकार और कैग के दावों में अंतर है। सरकार कहती है कि बैंक गारंटी न होना सरकार की बचत है और वह सौदा सस्ता कर ले गई है। जबकि कैग का कहना है कि यह तो फ्रांस की विमान बनाने वाली कंपनी डसौ की बचत है। कैग यह भी कहता है कि विमान में भारत के लिए चार विशेष उपकरण लगाए गए, जिनकी जरूरत नहीं थी। कैग की रपट कहती है कि 2007 में अग्रिम भुगतान के एवज में 15 प्रतिशत बैंक गारंटी की बात थी। इसमें 5 प्रतिशत परफार्मेंस पर और 5 प्रतिशत वारंटी पर जाना था। इस मद में होने वाली बचत रक्षा मंत्रालय के खाते में जानी थी पर कैग की रपट में वैसा नहीं दिखता। कैग की रपट में 11 बिंदुओं पर दाम की तुलना की गई है लेकिन कहीं पर दाम बताए नहीं गए हैं। हर जगह प्रतिशत बताया गया है। कैग ने दावा किया है कि चार बिंदुओं पर दाम बढ़ा है और तीन बिंदुओं पर दाम घटा है। हैरानी की बात है कि इस तरह की तुलना की जरूरत क्या थी और अगर की गई है तो सब कुछ खोल कर बताया क्यों नहीं गया?
इस रपट में इस बात का जिक्र नहीं है कि कैसे 126 विमानों के लिए चलने वाली बातचीत अचानक 36 विमानों पर आ गई। यानी वायुसेना 126 के बदले 36 विमानों से कैसे मज़बूत हो जाएगी? इस रपट में यह भी नहीं बताया गया है कि हिन्दुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) को मिलने वाला ठेका अनिल अंबानी की अचानक खड़ी की गई कंपनी को क्यों गया? यानी भारत की सेनाओं की स्थायी मज़बूती उसके अपने सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों को मज़बूत और उनका नवीकरण करने से होगी या मुनाफाखोर विदेशी-देशी प्राइवेट कंपनियों और उनके दलालों के भरोसे होगी? सौदे की प्रक्रिया को सीधे प्रधानमन्त्री और उनके कार्यालय द्वारा अनुचित रूप से प्रभावित करने, भ्रष्टाचार-विरोधी प्रावधानों को हटाने और ऑफसूट कंपनी के रूप में एचएएल की जगह अम्बानी की रिलायंस डिफेंस लिमिटेड को ठेका दिलवाने जैसे तथ्यों पर रोशनी डालने की अपेक्षा तो कैग की इस रपट से की ही नहीं जा सकती।
सोशलिस्ट पार्टी का मानना है कि रफाल विमान सौदे पर मोदी सरकार की कारगुजारियों, सुप्रीम कोर्ट के फैसले, कई अखबारों की रपटों, विपक्ष के हमलावर बयानों और कल संसद में पेश की गई कैग की रपट से जाहिर है कि भारत की अर्थव्यवस्था और राजनीति फर्जी राष्ट्रवाद की जकड़ में फंस चुकी है। यह फर्जी राष्ट्रवाद विदेशी और देशी हथियार कंपनियों का हित साधक है। वे कंपनियां जैसा चाहती हैं सौदा उसी लाइन पर होता है। वे सौदे से जुड़ी जिस जानकारी को प्रकट करना चाहती हैं, प्रकट करती हैं और जिसे छुपाना चाहती हैं, उसे छुपा लेती हैं। उन्हीं की शर्तों पर सरकारें काम करती हैं और सरकार की संस्थाएं अपनी रपट देती हैं। वे भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा को अपने ढंग से परिभाषित करती हैं और उनके खरीदे हुए चैनल और अखबार उन्हीं के नज़रिए से बहस चलाते हैं। इस सबके बदले में कंपनियां भारतीय जनता की गाढ़ी कमाई और देश के संसाधनों की लूट का कुछ हिस्सा राजनीतिक पार्टियों और नेताओं को देती हैं।
निश्चित तौर पर रफाल विमान सौदे के बारे में अभी अखबारों की और रपटें आएंगी और दाल में काफी कुछ काला दिखेगा। लेकिन कुछ दिनों बाद होने वाले लोकसभा चुनावों की धूल में वह सब खो जाएगा। इसलिए सोशलिस्ट पार्टी भारत की जनता से यह अपील करती है कि वह रफाल सौदे की सच्चाई के बारे में बिके हुए मीडिया और जाति, धर्म, वंश, परिवार, व्यक्ति के नाम पर भावनाओं से खेलने वाले दलों/नेताओं के बयानों से हट कर अपने विवेक से विचार करे। वह रफाल सौदे को भाजपा बनाम कांग्रेस की जंग के रूप में नहीं, मोदी सरकार बनाम भारतीय राष्ट्र की जंग के रूप में देखे। भारत की जनता ही भारतीय राष्ट्रवाद को हथियारों के सौदागरों और युद्ध का उन्माद फ़ैलाने वाली सरकारों के चंगुल से बाहर निकाल सकती है।
डॉ. प्रेम सिंह
अध्यक्ष
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