प्रेम सिंह
23 मार्च को डॉ. राममनोहर लोहिया का जन्मदिन होता है. हालांकि कहा जाता है वे अपना जन्मदिन मनाते नहीं थे. क्योंकि उसी दिन क्रांतिकारी भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को ब्रिटिश हुकूमत ने फांसी पर चढ़ाया था. लिहाज़ा, भारत के ज्यादातर समाजवादी लोहिया जयंती को शहीदी दिवस के साथ जोड़ कर मनाते हैं. इस बार लोहिया जयंती के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने ब्लॉग पर लोहिया को याद किया. जैसे ही यह खबर सार्वजनिक हुई, मेरे एक मित्र ने फोन करके इस ओर ध्यान दिलाया. उन्होंने तकाजे के साथ कहा कि मुझे तुरंत प्रधानमंत्री के ट्वीट का जवाब लिखना चाहिए. मैंने मित्र से कहा कि वर्तमान राजनीति में ब्लॉग और ट्वीटर एक विशाल उद्योग बन गया है, जिसमें भुगतान के आधार पर या चाटुकार काम करते हैं. नेताओं के ब्लॉग और ट्वीट का जवाब लिखेंगे तो अपना काम करने की फुर्सत ही नहीं होगी. मैंने मित्र से पूछा कि मोदी पिछले पांच सालों से गांधी, अम्बेडकर, पटेल, भगत सिंह जैसी मूर्धन्य हस्तियों के बारे में जो कहते आ रहे हैं, क्या उनका जवाब दिया जा सकता है? क्या जवाब दिया भी जाना चाहिए?
समाजवादियों में एक शब्द 'खांटी लोहियावादी' चलता है. फोन करने वाले मित्र उसी कोटि में आते हैं. वे बेचैन हो कर बोले, लेकिन डॉक्टर साहब (लोहिया) की बात अलग है; वे अभी तक बचे हुए थे; मोदी को उन पर कब्ज़ा नहीं करने देना चाहिए! मैंने कहा इस विवाद में पड़ना मोदी की पिच पर खेलना है, जिससे मैं भरसक बचने की कोशिश करता हूं. मित्र थोड़ा नाराज हो गए. मैंने उनसे निवेदन किया कि मोदी और आरएसएस न गांधी, अम्बेडकर, पटेल, भगत सिंह आदि पर और न ही लोहिया पर कब्ज़ा जमा सकते हैं. जो व्यक्ति या संगठन न आज़ादी के संघर्ष के मूल्यों को मानता हो और न संविधान के मूल्यों को, वह भला स्वतंत्रता के संघर्ष में तपी इन हस्तियों को कैसे अपना सकता है? दोनों के बीच मौलिक विरोध है. मोदी और आरएसएस केवल उनका सत्ता के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं, और वही कर रहे हैं. लोहिया के बारे में या बचाव में मोदी या आरएसएस के संदर्भ में कुछ भी कहने का औचित्य नहीं है. मैंने मित्र से आगे कहा कि लोहिया की 50वीं पुण्यतिथि पर अमृतलाल ने 'इंडियन एक्सप्रेस' (12 अक्तूबर 2017) में लोहिया के राजनीतिक चिंतन और कर्म पर एक सारगर्भित लेख ('राममनोहर लोहिया : इन हिज टाइम्स एंड अवर्स') लिखा था. मेरी समझ में पत्रकारी लेखन में लोहिया पर लिखे गए इधर के लेखों में वह सर्वोत्तम है. आप अपनी तसल्ली के लिए वह पढ़ लीजिए. और हो सके तो वह लेख लोगों तक प्रेषित करिए.
मित्र ने हामी भरी लेकिन मोदी का खंडन करने की बात पर अड़े रहे. हार कर मैंने उनसे कहा कि लोहिया के अपहरण के लिए मोदी और आरएसएस को दोष देने का ज्यादा औचित्य नहीं है. दोष उन 'समाजवादियों' का ज्यादा है जो नीतीश कुमार जैसे आरएसएस/भाजपा परस्त नेताओं की अगुआई में लोहिया जयंती अथवा पुण्यतिथि के अवसर पर कभी गृहमंत्री राजनाथ सिंह और कभी राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को मुख्य अतिथि के रूप में बुला कर लोहिया का व्यापार करते हैं! मित्र सचमुच खिन्न हुए और यह कहते हुए फोन रख दिया कि ऐसे लोग निश्चित रूप से सफल हो गए हैं. देख लेना इस बार अगर मोदी जीतेंगे तो उनकी सरकार लोहिया को जरूर भारत-रत्न देगी. वह लोहिया का अभी तक का सबसे बड़ा अवमूल्यन होगा.
बहरहाल, सुबह अखबार देखा तो मोदी के ब्लॉग पर लोहिया के बारे में लिखी गई टिप्पणी पर अच्छी-खासी खबर पढ़ने को मिली. पता चला कि मोदी ने लोकसभा चुनावों के मद्देनज़र अंत में लोहिया को हथियार बना कर विपक्ष पर प्रहार किया है. पूरी टिप्पणी में बड़बोलापन और खोखलापन भरा हुआ है. एक स्वतंत्रता सेनानी और गरीबों के हक़ में समानता का संघर्ष चलाने वाले दिवंगत व्यक्ति का उनकी जयंती के अवसर पर चुनावी फायदे के लिए इस्तेमाल अफसोस की बात है. तब और भी ज्यादा जब ऐसा करने वाला शख्स देश का प्रधानमंत्री हो! जैसा कि मैंने ऊपर कहा है, लोहिया की विचारधारा, सिद्धांतों, नीतियों पर मोदी के ब्लॉग के संदर्भ में चर्चा करने की जरूरत नहीं है. केवल उनके गैर-कांग्रेसवाद, जो मोदी के मुताबिक उनके मन-आत्मा में बसा हुआ था, पर थोड़ी बात करते हैं. यह पूरी तरह गलत है कि लोहिया के 'मन और आत्मा' में कांग्रेस-विरोध बसा था. मोदी ने नॉन-कांग्रेसिज्म को अपने ब्लॉग में एंटी-कांग्रेसिज्म कर दिया है.
लोहिया ने कांग्रेस के झंडे तले आज़ादी का संघर्ष किया था. कांग्रेस के अंतर्गत 1934 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी (सीएसपी) के गठन में हिस्सेदार बने थे. आज़ादी के बाद लोकतांत्रिक समाजवाद के लक्ष्य की दिशा में काम करने के उद्देश्य से 1948 में सोशलिस्ट पार्टी को कांग्रेस से अलग किया था. यह फैसला इसलिए किया गया कि कांग्रेस ने अपने नए पार्टी संविधान के तहत पहले की तरह सीएसपी को साथ रखने से इनकार कर दिया था. लोकतांत्रिक व्यवस्था में सत्तारूढ़ कांग्रेस और उसके नेतृत्व की आलोचना लोहिया का लोकतांत्रिक फ़र्ज़ था. लोकतंत्र में हमेशा एक ही पार्टी का शासन नहीं चलना चाहिए, लोहिया इस लोकतांत्रिक प्रेरणा पर बल देते थे. इसीलिए लोहिया ने अपने राजनीतिक कैरियर के लगभग अंत में गैर-कांग्रेसवाद की रणनीति अपनाई थी, जिसके चलते 9 राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारें बनी थीं. वह उनका कोई राजनीतिक सिद्धांत नहीं था. 'जन' (अक्तूबर 1967) के अपने अंतिम सम्पादकीय में उन्होंने गैर-कांग्रेसवाद के प्रयोग की समीक्षा करते हुए उसके नतीजों पर खुद असंतोष प्रकट किया था.
मोदी के ज़माने की सोनिया गांधी-मनमोहन सिंह कांग्रेस का लोहिया के ज़माने की नेहरू कांग्रेस से सम्बन्ध नाम भर का है. सोनिया गांधी-मनमोहन सिंह की कांग्रेस निगम पूंजीवाद की समर्थक है. आरएसएस/भाजपा और मोदी भी निगम पूंजीवाद के समर्थक हैं. मनमोहन सिंह ने 1991 में नई आर्थिक नीतियां लागू कीं तब भाजपा के वरिष्ठ नेता अटलबिहारी वाजपेयी ने कहा था कि अब कांग्रेस ने भाजपा की विचारधारा अपना ली है. लिहाज़ा, मोदी का कांग्रेस विरोध लम्बे समय तक सत्ता पर कब्ज़ा बनाए रखने की नीयत से परिचालित है. इन दोनों पार्टियों के बीच में नीतिगत अंतर नहीं रह गया है. मोदी कांग्रेस का काम ही आगे बढ़ा रहे हैं. हालांकि एक फर्क है : मनमोहन सिंह ऊंचे पाए के अर्थशास्त्री होने के नाते नवउदारवादी नीतियों को शास्त्रीय ढंग से अंजाम देते थे, मोदी अंधी चालें चलते हैं. सत्ता के दुरूपयोग के मामले में भी मोदी सरकार कांग्रेस से किसी मायने में पीछे नहीं रही है.
मोदी के शासन में उनकी या सरकार की आलोचना करने पर नागरिकों को प्रताड़ित और अपमानित किया जाता है, लोकतंत्र का आधार रही संवैधानिक संस्थाओं को अवमूल्यित और विनष्ट किया जाता है, सरकार के मंत्री संविधान को नहीं मानने और बदलने की बात खुलेआम करते हैं, वे यहां तक कहते हैं कि लोकसभा का यह चुनाव अंतिम होगा, भाजपा अध्यक्ष कहते हैं हम 50 साल तक सत्ता में बने रहेंगे ...
मोदी सरकार की लोकतंत्र-विरोधी प्रवृत्तियों का अंत नहीं है. इसके बावजूद मोदी धुर लोकतंत्रवादी लोहिया का नाम लेकर विपक्ष पर हमला बोलते है! इसे विडम्बना कहें या पाखंड की पराकाष्ठा?
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के शिक्षक और सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष हैं.)
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