Friday 10 May 2019

कांग्रेस-विरोध का आख्यान : सच और झूठ की पहचान!



प्रेम सिंह

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नरेंद्र मोदी ने 2014 के चुनाव प्रचार के दौरान खासतौर तौर पर दो बातें जोर देकर कही थीं : पहली, पिछले 65 सालों के कांग्रेसी राज में देश में कुछ नहीं हुआ. 65 साल की नाकामियों के लिए कांग्रेस को कोसते हुए उन्होंने दावा किया कि वे मात्र 65 दिन में पिछले 65 साल का काम पूरा कर डालेंगे. केवल उन्हें सत्ता दे दी जाए. दूसरी, वे विदेशों में जमा देश का काला धन वापस लाएंगे और प्रत्येक भारतीय के खाते में 15 लाख रूपया जमा कराएंगे. प्रत्येक भारतीय के खाते में 15 लाख रूपया जमा कराने के वादे को खुद भाजपा अध्यक्ष अमित शाह एक चुनावी जुमला बता चुके हैं. लेकिन 65 साल के कांग्रेसी राज की नाकामी को लेकर मोदी और इस विषय पर उनका अंध-समर्थन करने वालों ने एक पूरा आख्यान गढ़ कर तैयार कर दिया है. ये मोदी-समर्थक केवल आरएसएस के सदस्यों तक सीमित नहीं हैं. वे बड़ी संख्या में पूरे देश में और विदेश में फैले हैं. पिछले चुनाव प्रचार से लेकर अभी के चुनाव प्रचार तक मोदी ने प्रत्येक अवसर, चाहे वह किसी भी विषय से सबंधित रहा हो, कांग्रेस विरोध का अवसर बना लिया है. स्वतंत्रता सेनानी और भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को इस आख्यान का 'खलनायक' बनाया गया है. 'नायक' की भूमिका में खुद मोदी हैं.

इस आख्यान के शुरू में ही समर्थकों द्वारा यह संदेश देने की कोशिश की गई कि देश को असली आजादी मोदी के प्रधानमंत्री बनने पर मिली है. इसके गहरे निहितार्थ हैं. यानी कांग्रेस ने आज़ादी की लड़ाई नहीं लड़ी. वह देश पर एक बोझ है. लिहाज़ा, भारत को कांग्रेस-मुक्त किया जाना चाहिए. भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के कर्ताओं और समर्थकों ने भी यह धारणा व्यक्त की कि कांग्रेस भारत से समाप्ती की ओर है. इस धारणा के पीछे भी समझ यही थी कि आज़ादी के संघर्ष, मूल्यों और विचारधारा को तिलांजलि देने का समय आ गया है. हालांकि आज़ादी की चेतना से कांग्रेस खुद काफी पहले रिश्ता तोड़ चुकी थी, लेकिन उसके खोखल को भी बर्दाश्त करने को ये लोग तैयार नहीं थे. बहरहाल, इस आख्यान के तहत कश्मीर से लेकर रोजगार तक, देश की तमाम समस्याओं के लिए कांग्रेस पर दोषारोपण किया जाता है. मौजूदा सरकार की गलत नीतियों और फैसलों पर आवाज़ उठाने वालों को कह दिया जाता है कि जब कांग्रेसी राज में यह सब होता था तब वे कहां थे? मोदी और उनके मंत्रिमंडल के महत्वपूर्ण लोगों ने न केवल संविधान को लेकर अनर्गल बयान दिए हैं, रोजगार समेत अर्थव्यवस्था सम्बंधी विभिन्न आंकड़ों के बारे में भी बार-बार गलत और भ्रमित करने वाले बयान दिए हैं. लेकिन मोदी-समर्थक सब कुछ 65 साल के कांग्रेस राज के मत्थे मढ़ कर मोदी और अपने को सही होने का प्रमाणपत्र दे देते हैं. अगर कोई 2014 के बाद की समस्याओं के लिए मोदी और उनकी सरकार पर सवाल उठाता है या पूछता है कि मोदी ने सत्ता मिलने पर 65 दिनों में तस्वीर बदल देने का वादा किया था, तो इस आख्यान के तहत उसे तुरंत देशद्रोही घोषित कर दिया जाता है. मोदी और उनके समर्थकों का कांग्रेस-विरोध का महज पांच साल में गढ़ा गया आख्यान मोदी सरकार की समस्त संविधान और जन-विरोधी नीतियों, गलतबयानियों, झूठों के बावजूद प्रभावी बना हुआ है.   

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मोदी और उनके समर्थकों द्वारा गढ़े गए इस आख्यान के पहले भाजपा ने एक राजनीतिक पार्टी के बतौर कभी यह नहीं कहा था कि देश में पिछले 65 सालों में कुछ नहीं हुआ है. जनसंघ और बाद में भाजपा के शीर्ष नेताओं ने अक्सर नेहरू से लेकर राजीव गांधी तक, कांग्रेसी नेताओं की भूरी-भूरी प्रशंसा की है. नेहरू के प्रशंसक अटलबिहारी वाजपेयी ने इंदिरा गांधी को दुर्गा कह कर उनकी दृढ़ इच्छा शक्ति के प्रति सम्मान प्रकट किया था. भाजपा की पितृसंस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी कभी ऐसा दावा नहीं किया. यह एक खुली सच्चाई है कि आरएसएस की परवरिश जनसंघ से ज्यादा कांग्रेसी कांख में हुई है. उसने समय-समय पर चुनावों में कांग्रेस का समर्थन करके कर्ज़ भी चुकाया है.

यह तथ्यत: गलत है कि 2014 के पहले देश में केवल कांग्रेस का शासन रहा है. 20वीं और 21वी सदी के संधि-काल में 6 साल तक वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपानीत राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की सरकार रही है. उसके पहले भी केंद्र और राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारें रही हैं. दरअसल, बहुदलीय संसदीय लोकतंत्र और संघीय व्यवस्था वाले देश में ज्यादा समय तक एक ही पार्टी की सरकार रहने के बावजूद नाकामियों का ठीकरा अकेले उस पार्टी के सिर नहीं फोड़ा जा सकता. बहुदलीय संसदीय लोकतंत्र में उपलब्धियां और कमियां साझा होती हैं. मोदी के मुताबिक अगर कांग्रेस नाकाम और देश का अहित कर रही थी, तो इसकी उतनी ही जिम्मेदारी उस दौरान सक्रिय राजनीतिक पार्टियों और उनके नेताओं की भी बनती है. क्योंकि वे वैसी सरकार पर सही नीतियों के लिए दबाव बनाने अथवा उसे चुनावों में अपदस्थ करने में नाकाम रहे. अगर यह मान लिया जाए कि कांग्रेस के शासन में कुछ नहीं हुआ, या सब गलत हुआ, तो यह देश की राष्ट्रीय नाकामी का परिचायक है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जो अपने स्थापना काल से 'राष्ट्र-निर्माण' के काम में लगा हुआ है, भी उस नाकामी में शामिल माना जायेगा.

आज़ादी के बाद के लोकतांत्रिक भारत की 65 साल की उपलब्धियां गिनाने से सूची बहुत लंबी हो जाएगी. आज़ादी के बाद संवैधानिक और लोकतांत्रिक संस्थाओं, जिन्हें मोदी सरकार ने काफी हद तक क्षतिग्रस्त कर दिया है, के अलावा शिक्षा, शोध, साहित्य, कला, विज्ञान, वाणिज्य आदि से सम्बद्ध संस्थाओं का बड़े पैमाने पर निर्माण हुआ. पूरी दुनिया के साथ कूटनीतिक, व्यापारिक और सांस्कृतिक सम्बन्ध कायम किये गए. आधुनिक विकास के लिए जरूरी सामग्री के उत्पादन और उपकरणों के निर्माण के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों का विशाल ढांचा खड़ा किया गया. यातायात के लिए केंद्रीय रेलसेवा और प्रत्येक राज्य में पथ परिवहन प्रणाली के तहत बस सेवा का विस्तार किया गया. खेती के लिए सिंचाई, बीज, खाद, आधुनिक उपकरण एवं तकनीक आदि की सुविधाएं हासिल करने का प्रयास किया गया. बड़े पैमाने पर स्कूलों-कालेजों-विश्वविद्यालयोंके साथ स्टेडियमों और खेल परिसरों का निर्माण किया गया. मेडिकल कॉलेज, अस्पताल और प्रोद्योगिकी संस्थान बनाये गए. सेना के तीनों अंगों को मज़बूती और विस्तार दिया गया. ...

इस आख्यान की सच्चाई की पड़ताल के लिए दो स्थितियों को आमने-सामने रख कर देखते हैं. पहली, दिल्ली देश की राजधानी है. यहां तीन-चौथाई आबादी के लिए नागरिक सुविधाओं का अभाव है, सघन और गंदी बस्तियों की भरमार है, छोटे बच्चे-बच्चियां तरह-तरह के खतरनाक पेशों में खटते हैं, पूरे शहर में ट्रैफिक की लाल बत्तियों पर करतब दिखा कर भीख मांगते हैं, पिछले दिनों पूर्वी दिल्ली में तीन बहनों (मानसी 8 साल, शिखा 4 साल, पारो 2 साल) की भूख से मौत हो गई थी ... इस या ऐसी किसी स्थिति की तरफ ध्यान दिलाने पर मोदी और उनके समर्थक बिना शंका कहेंगे कि यह सब 65 साल के कांग्रेसी राज की वजह से है. अब एक दूसरी स्थिति पर नज़र डालते हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने परिधानों से लेकर विज्ञापनों और विदेशी दौरों से लेकर जनसभाओं के आयोजनों पर अरबों-खरबों रुपया खर्च करते हैं. अगर कांग्रेसी राज में कुछ नहीं हुआ था तो मोदी यह दौलत कहां से लाते हैं? दूसरे शब्दों में, पहली स्थिति के लिए कांग्रेसी राज जिम्मेदार है तो दूसरी स्थिति, प्रधानमंत्री का ठाट-बाट, भी कांग्रेसी राज की देन है. दरअसल, मोदी और उनके समर्थक कांग्रेस यानी नवउदारवाद का काम ही आगे बढ़ा रहे हैं. डॉ. मनमोहन सिंह, ऊंचे पाए के अर्थशास्त्री होने के नाते कारपोरेट की जो सेवा शास्त्रीय ढंग से कर रहे थे, मोदी वह सेवा ब्लाइंड खेल कर करते हैं. नोटबंदी और अन्य कई अवसरों पर उनके 'नए भारत' के अर्थशास्त्रियों की झलक देश और दुनिया देख ही चुकी है.     

उपरोक्त तथ्यों और विश्लेषण के मद्देनज़र कह सकते हैं कि मोदी और उनके समर्थकों द्वारा गढ़ा गया कांग्रेसी राज की नाकामी का आख्यान झूठ पर टिका है. यह माना जा सकता है कि यह सब उद्यम अपर्याप्त था. यह भी माना जा सकता है कि वह उद्यम गलत नीतियों और नज़रिए के तहत किया गया था. लेकिन पिछले 65 सालों में कोई उद्यम हुआ ही नहीं, यह कहना या मानना झूठ में जीने के सिवाय कुछ नहीं है. कहा जाता है झूठ के पांव नहीं होते. लेकिन मोदी और उनके समर्थकों का यह झूठ पिछले पांच सालों से पांव जमा कर चल रहा है. इस परिघटना की गंभीर पड़ताल अभी तक किसी ने नहीं की है.

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इस लेख में इस परिघटना को नवउदारवाद की अपनी गतिकी (डायनामिक्स) के सन्दर्भ में समझने की कोशिश की गई है. हालांकि समझने के अन्य संदर्भ भी हो सकते हैं. कोई व्यवस्था जब अपने पांव जमा लेती है तो उसकी अपनी गतिकी विकसित हो जाती है. वह अपने को विरोध की वास्तविक चुनौती से बचाने के लिए अपने भीतर से ही विरोध का आंदोलन फेंक सकती है, जिसमें अलग-अलग मान्यताओं वाले स्वर एक मंच पर शामिल हो सकते हैं. 'इंडिया अगेंस्ट करप्शन' (आईएसी) के तहत चला भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन नवउदारवाद ने अपने बचाव और अगले चरण में अधिक मज़बूती पाने के लिए अपने गर्भ से पैदा किया था. इसमें एक से एक सयाने लोग शामिल थे. 'देश में मोदी और दिल्ली में केजरीवाल' को जिताने वाले साथ-साथ थे. उसी आंदोलन से आरएसएस/भाजपा का नया अवतार पैदा होता है और मोदी पूर्ण बहुमत के साथ देश के प्रधानमंत्री बनते हैं. इस तरह प्रकट और प्रछन्न नवउदारावादियों की एकजुट ताकत का इस्तेमाल करके नवउदारवाद पूरी मज़बूती के साथ अगले चरण में प्रवेश कर जाता है. नवउदारवादी व्यवस्था, भ्रष्टाचार जिसमें बद्धमूल है, के चलते भ्रष्टाचार विरोध का कोई अर्थ नहीं है. भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के कर्ताओं और समर्थकों ने यह सवाल नहीं उठाने दिया, क्योंकि उन सबका हित नवउदारवादी व्यवस्था के साथ जुड़ा हुआ है. कहना न होगा कि नवउदारवाद की यह गतिकी भारत के शासक वर्ग के साथ तालमेल से परिचालित होती है. यह अकारण नहीं है कि उस आंदोलन में शामिल लोगों ने आज तक अपनी भूमिका को लेकर खेद प्रकट नहीं किया है. बल्कि ज्यादातर वामपंथी और लिबरल केजरीवाल की पालकी के कहार बने हुए हैं.   

जिस तरह भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के कर्ता वही लोग थे, जिन्होंने दो दशक के नवउदारवादी दौर में मज़बूती हासिल की थी, कांग्रेसी राज का विरोध करने वाले भी मोदी सहित वही लोग हैं, जिनकी हैसियत कांग्रेसी राज में बनी है. इसे थोड़ा पीछे से समझने का प्रयास करें. 1991 में लागू की गईं नई आर्थिक नीतियों से पिछले तीन दशकों में सबसे ज्यादा वे लोग लाभान्वित हुए हैं, जो पहले से शिक्षा और रोजगार संपन्न थे. यानी जिन्हें आज़ादी के बाद सरकार की ओर से किसी समय शिक्षा और रोजगार के अवसर प्राप्त हुए थे. सरकारी क्षेत्र में शिक्षा सस्ती थी और छोटे से लेकर बड़े रोजगार के साथ इलाज, मकान, बच्चों की शिक्षा, पेंशन आदि की सुविधा जुड़ी हुई थी. ऊपरी कमाई तो थी ही. नई आर्थिक नीतियों के आने से इस तबके को पंख लग गए. सरकार की ओर से उपलब्ध कराई गई सस्ती जमीन और कर्ज (हाउस लोन) से इनके मकान पहले ही बन चुके थे. सरकारी खर्चे पर विदेशों में आवा-जाही भी शुरू हो चुकी थी. प्रत्येक विभाग की अपनी ट्रेड यूनियनें थीं जो अड़ कर सरकार से अपनी मांगें मनवाती थीं. बड़े अफसरों ने पूरे देश में अपने ठहरने और मनोरंजन के लिए अतिथि गृह और क्लब बनवाये हुए थे. उनके बच्चे सरकारी सुविधा से मेडिकल और इंजिनियरी की शिक्षा पाकर विदेश में जाकर बस चुके थे.

नई आर्थिक नीतियां आने के बाद छठे और सातवें वेतन आयोग ने आर्थिक रूप से उन्हें काफी मजबूत बना दिया. उनके बच्चे महंगी से महंगी शिक्षा खरीद कर बहुराष्ट्रीय कंपनियों में नियुक्त होकर भारत के महानगरों और यूरोप-अमेरिका में फ़ैल गए. सरकारी योजनाओं के तहत बने इनके मकानों की कीमत करोड़ों रुपयों में हो गई. ये मकानों का तरह-तरह से कमर्शियल इस्तेमाल करने लगे. ज्यादातर ने पुराना मकान तोड़ कर बिल्डर से लिफ्ट के साथ चार मंजिलें बनवा लीं. बदले में एक मंजिल बिल्डर को बेचने के लिए दे दी और दो मंजिलें खुद बेच दीं. इनके एशोआराम के लिए महानगरों/नगरों के चारों ओर फार्म हाउस, कारों के शोरूम, लग्जरी विला, होटल, मोटेल, बैंक्विट हाल, बहुमंजिली रिहायशी इमारत, कमर्शियल काम्प्लेक्स, मॉल, एअरपोर्ट, प्राइवेट स्कूल/कॉलेज/यूनिवर्सिटी आदि बनते चले गए. विदेशी शराबों सहित सभी उपभोक्ता वस्तुओं की घर बैठे उपलब्धता हो गई. सोवियत रूस का विघटन हो जाने से पूर्वी यूरोप और मध्य एशियाई देशों की महिलाएं इन्हीं लोगों के भरोसे भारत के महानगरों में वेश्यावृत्ति के लिए आने लगीं. ...

कांग्रेसी राज के दोनों चरणों का अधिकतम फायदा उठाने वाले ये लोग सबसे ऊंचे स्वर में कहते हैं कि पिछले 65 सालों में कुछ नहीं हुआ. दरअसल ये नवउदारवाद के तहत होने वाली संसाधनों और श्रम की लूट से गिरने वाली जूठन पर हमेशा के लिए अपनी संततियों का कब्ज़ा रखना चाहते हैं. ये लोग ओपिनियन मेकर हैं. नवउदारवाद के पक्ष में सहमति निर्माण का काम करते हैं. मोदी के नेतृत्व में 'पिछले 65 सालों में कुछ नहीं हुआ' का संदेश इन्होंने सबसे निचले स्तरों तक पहुंचा दिया. तीस साल से नवउदारवाद की कड़ी मार झेलने वाले मेहनतकश भी कहने लगे कि पिछले 65 सालों में कुछ नहीं हुआ. ऐसा वे अपने लिए नहीं कहते, जबकि उन्हें कहना चाहिए. बल्कि वे, वाया नवउदारवाद, कांग्रेस राज के लाभार्थियों के लिए ऐसा कहते हैं. मोदी राज में बड़े लोगों को उनका हक़ मिलेगा तो मुमकिन है उनकी भी बारी आए! क्योंकि 'मोदी है तो मुमकिन है'. भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की तरह मोदी-लहर ने भी नवउदारवाद को एक बार फिर मज़बूत आधार दे दिया है. नवउदारवाद के लिए इससे बड़ी उपलब्धि क्या हो सकती है कि उसके शिकार मान रहे हैं कि कोठी-कार वालों के लिए पिछले 65 साल में कुछ नहीं हुआ! बहुजन क्रांति से लेकर खूनी क्रांति तक की बात करने वाले, यदि पूरी तरह राजनीतिक निरक्षरता का शिकार नहीं हुए हैं, प्रतिक्रांति की यह ताकत देख-समझ लें.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के शिक्षक और सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष हैं)         

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