Thursday 26 March 2020

राजनीति और धर्म



            मुख्य मुद्दा राजनीति और धर्म के रिश्ते का है | अकसर कहा जाता है कि धर्म को राजनीति से अलग रखना चाहिए । सबसे बड़े राजनेता महात्मा गांधी थे और समाजवादी आंदोलन के सबसे बड़े चिंतक डॉ॰ लोहिया । न महात्मा ने न लोहिया ने धर्म को राजनीति से अलग किया । जहां लोहिया ने “राजनीति को अल्पकालीन धर्म और धर्म को दीर्घकालीन राजनीति” कहा वहीं महात्मा गांधी प्रत्येक दिन प्रार्थना-सभा में जाते रहे और धर्म से अपने को अलग करने की कल्पना तक न करने की बात करते रहे । इन सबके बावजूद न गांधी ने न लोहिया ने देश और राष्ट्र को, भारतीयता को किसी धार्मिक समुदाय से जोड़ा ।
            गांधी थे जो कह सकते थे कि देश का राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री जिन्ना को बना दो, गांधी 1947 में कह सकते थे कि पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपया दे दो, लोहिया कह सकते थे कि जो मुसलमान से नफरत करता है वह पाकिस्तान का हितैषी है और अगर एक मुसलमान की जान बचाने के लिए दस हिंदुओं की जान देनी पड़े, तो दे देनी चाहिए ।
            धर्म तो अपना बनाना सिखलाता है, नफरत करना नहीं, धर्म तो मनुष्य के उन उद्वेगों, चिंताओं, जिज्ञासाओं तथा उलझनों को शांत करने का स्त्रोत है । जिन्हें हजार-हजार भौतिक साधन शांत करने में असफल रहते हैं । सारी संपन्नताओं के बावजूद मनुष्य कभी पूर्णतः तुष्ट नहीं हो पायेगा, उसकी कल्पनाएं छलांग लगाती रहेंगी और वह धर्म का सहारा लेगा ।
            जब तक धर्म संप्रदायवादी, अलगाववादी कट्टरपंथियों के हाथों में रहेगा, इसका गलत इस्तेमाल होता रहेगा । इसलिए धर्म को नकारने कि नहीं बल्कि उसे सहिष्णु रूप में रखने की जरूरत है । इसमें बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक का सवाल कहाँ उठता है ? क्या भारतीय मानस ने कभी विभिन्न पंथों को उस रूप में देखा ? आज जो लोग धर्म के नाम पर राजनीति कर रहे हैं वे न भारतीयता की सेवा कर रहे हैं, न राष्ट्रियता को मजबूत कर रहे हैं । भारतीयता का प्रतीक तो वह भावना थी कि स्वर्ण मंदिर का शिलान्यास एक मुसलमान ने किया था । क्या बिना वह दिन लाए भारत की राष्ट्रियता मजबूत होगी । जब राम मंदिर की नींव एक मुसलमान रखे और मस्जिद का शिलान्यास हिन्दू करे ?
नीरज कुमार

शहीद-ए-आजम भगत सिंह के स्मृति में विशेष



            23 मार्च 1931 को अमर शहीद भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को लाहौर जेल में, जेल के नियमों को ताक पर रखकर प्रातः काल की बजाय सांय 7.00 बजे फांसी दे दिया गया । भगत सिंह को फांसी तो दे दिया गया लेकिन उनके विचारों को नहीं कुचला जा सका । उनका नाम मौत को चुनौती देने वाले साहस, बलिदान, देशभक्ति और संकल्पशीलता का प्रतीक बन गया । ‘समाजवादी समाज की स्थापना’ का उनका सपना शिक्षित युवकों का सपना बन गया और ‘इंकलाब जिंदाबाद’ का उनका नारा समूचे राष्ट्र का युद्धनाद हो गया ।  
            भगत सिंह की यह निश्चित मान्यता थी कि “व्यक्तियों को नष्ट किया जा सकता है, पर क्रांतिकारी विचारों को नष्ट नहीं किया जा सकता । इतिहास इस बात का साक्षी है कि समाज में उठने वाले क्रांतिकारी विचारों को शासकों के दमन-चक्र से नहीं रोका जा सकता ।” विश्व-इतिहास से उदाहरण देते हुए भगत सिंह ने आगे कहा था कि “फ़्रांस के शासकों द्वारा बेस्टील जेल खाने में हजारों देशभक्त क्रांतिकारियों को ठूस देने के बाद भी फ्रांसीसी राज्यक्रांति को नहीं रोका जा सका । सभी देशभक्तों और क्रांतिकारियों को साइबेरिया की जेल में डालने के बाद भी रूसी राज्यक्रांति को नहीं रोका जा सका ।” उनका दृढ़ विश्वास था कि उनके फांसी पर चढ़ जाने के बाद, भारतीय क्रांति और आगे बढ़ेगी, नंगी-भूखी जनता अपनी मुक्ति के लिए अपनी रणभेरी अवश्य बजाएगी और अंततः पूंजीवादी समाज-व्यवस्था का विनाश करके राज्यसत्ता अपने हाथ में संभाल लेगी ।
            भगत सिंह गहन अध्ययन की आवश्यकता को समझते थे और इसलिए उन्होने अपनी पुस्तिका ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ’ में लिखा “अध्ययन यही एक शब्द था जो मेरे दिमाग में हमेशा गूँजता रहता था । अध्ययन, स्वयं को विपक्षियों द्वारा रखे गए तर्को का मुक़ाबला करने के काबिल बनाने के लिए; अध्ययन अपने विश्वास के समर्थन में तर्कों से स्वयं को सज्जित करने के लिए; मैंने अध्ययन शुरू कर दिया । मेरे पुराने विश्वास और धारणाओं में महत्वपूर्ण रूपांतर हुआ ।
            क्लासिकल, मार्क्सवादी साहित्य, राजनीति, अर्थशास्त्र, जीवनी, प्रगतिशील उपन्यास, कविता आदि उनका अध्ययन क्षेत्र और विषय था । भगत सिंह पूरी तरह इस बात के महत्व को समझते थे कि व्यक्तित्व के विकास के लिए ज्ञान की सिर्फ एक संकीर्ण शाखा का नहीं, बल्कि इसके विशाल क्षेत्र का गहन अध्ययन करना आवश्यक है । केवल इसी से एक सचमुच सुसंस्कृत व्यक्तित्व का सर्वतोमुखी विकास सुनिश्चित हो सकता हैं ।
नीरज कुमार

डॉ॰ राममनोहर लोहिया के जन्मदिवस पर विशेष



          
  डॉ॰ लोहिया का जीवन और चिंतन दोनों एक प्रयोग था । यदि महात्मा गांधी का जीवन सत्य के साथ प्रयोग था तो डॉ॰ लोहिया का जीवन और चिंतन समतामूलक समाज की स्थापना के लिए सामाजिक दर्शन और कार्यक्रमों के साथ एक प्रयोग था । वह प्रयोग आज भी अप्रासंगिक नहीं है, बल्कि शेक्सपियर की चतुष्ठपदी के फीनिक्स पक्षी के समान विस्मृतियों की राख से जाज्वल्यमान हो जाता है । वे भारतीय दर्शन के उदार दृष्टिकोण के साथ पाश्चात्य दर्शन की क्रियाशीलता के सम्मिश्रण के आकांक्षी थे । वे मार्क्स और गांधी के मिलन बिन्दु थे, जो सही अर्थ में भारतीय समाजवादी आंदोलन के जन्मदाता थे; जो मूल रूप से मार्क्सवादी दर्शन और पाश्चात्य देशों के समाजवादी आंदोलन से प्रभावित होने के बावजूद दोनों से भिन्न हैं । उनका समाजवादी आंदोलन पूर्णत: भारतीय संदर्भ में और राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन के गर्भ से उद्भूत था ।  जहां पूंजीवाद और साम्यवाद दोनों अप्रासंगिक हो जाते हैं क्योंकि इन दोनों की धारणाओं का नैहर यूरोप है, भारत नहीं ।
            पूंजीवाद के पास भारतीय आर्थिक एवम सामाजिक समस्याओं का निराकरण नहीं है तो उस संदर्भ में डॉ॰ लोहिया के विचार और दर्शन और भी अधिक प्रासंगिक हो जाते हैं । वैचारिक स्तर पर अब यह बात साफ हो जानी चाहिए कि यदि पूंजीवादी दर्शन हो या समाजवादी, पाश्चात्य विचारों में भारत की समस्याओं का निदान नहीं है | इसके लिए हमें डॉ॰ लोहिया की लौटना ही होगा । जब कभी भी और जो भी सरकार भारत में सही अर्थ में एक समता मूलक समाज की स्थापना का प्रयास करेगी, भारतीय समाज को जाति, धर्म और योनि के कटघरे से मुक्त करने का प्रयास करेगी, उनका आदर्श और प्रेरणा स्त्रोत डॉ॰ लोहिया की सप्तक्रांति ही होगी | भले ही कोई उसे महात्मा गांधी का राम राज्य कहे, कोई उसे जयप्रकाश की सम्पूर्ण क्रांति कहे, कोई उसे वर्गहीन और राजयहीन समाज की धारणा कहे, किंतु इन सभी आदर्शों के बीच डॉ॰ लोहिया की सप्तक्रांति की धारणा सर्वाधिक सशक्त और सगुण धारणा है | वक्ती तौर पर इसमें कुछ परिवर्तन और परिवर्द्धन न हो सकते हैं, किंतु आज भी चौखम्बा राज्य और सप्तक्रांति की धारणा मूल रूप से सिर्फ प्रासंगिक ही नहीं है बल्कि साम्यवाद की अप्रासंगिक और पूंजीवाद की असमर्थता सिद्ध हो जाने के बाद भारतीय संदर्भ में नए समाज के निर्माण का यही एक रास्ता है | जब तक जाती के आधार, धर्म के आधार पर, आर्थिक गैरबराबरी आधार पर भारत में शोषण की प्रक्रिया जारी है, इनके खिलाफ लड़ने वालों के प्रेरणा स्त्रोत डॉ॰ लोहिया के विचार और कार्य सदैव रहेंगे |
            डॉ॰ लोहिया एक वैकल्पिक व्यवस्था की खोज में थे | पंचमढ़ी में उन्होने कहा कि “पूंजीवाद उत्पादन तंत्र  तंत्र एशियाई देशों के लिए निरर्थक है क्योंकि यहाँ की जनसंख्या ज्यादा है और उत्पादन साधन कम और अविकसित हैं । यूरोप-अमेरिका की योग्यता के उत्पादन साधन यहाँ बनाने में और इसके लिए पूंजी का संचय करने में पूंजीवाद नाकामयाब साबित होगा ।” साम्यवाद भी दो कारणों से निकम्मा है । पहला, कम्युनिज्म का उत्पादन-तंत्र और जीवनशैली पूंजीवाद के ही समान है । वह भी केंद्रीकृत उत्पादन और उपभोगवादी जीवनशैली में विश्वास करता हैं । अविकसित देशों को विकेंद्रित उत्पादन व्यवस्था और सरल जीवनशैली चाहिए । और दूसरा, साम्यवाद सिर्फ पूंजीवादी उत्पादन के सम्बन्धों को बदलता है, उत्पादन की शक्तियों को बदलने की व्यवस्था नहीं है । तीसरी दुनिया के विकास के लिए न केवल उत्पादन के स्वामित्व में परिवर्तन लाना है बल्कि उत्पादन की शक्तियों को खास नीतियों के मार्फत योग्य भी बनाना है । लोहिया पूंजीवाद और साम्यवाद को एक ही सभ्यता के दो रूप मानते हैं ।
            आजाद भारत ने आर्थिक विकास की जो नीति अपनायी, डॉ॰ लोहिया उसके विरोधी थे । उन्होने यहाँ तक कहा था की हिंदुस्तान नया औद्योगिक नहीं प्राप्त कर रहा है, बल्कि यूरोप और अमेरिका की रद्दी मशीनों का अजायबघर बन रहा है । पश्चिम की नकल करके जिस उद्योगीकरण का इंतजाम हुआ है उससे न तो देश में सही औद्योगिक की नींव पड़ सकती है, न ही अर्थव्यवस्था में आंतरिक शक्ति और स्फूर्ति आ सकती है । सही उद्योगीकरण उसको कहते हैं जिसमें राष्ट्रीय उत्पादन के बढ़ने के साथ गरीबी का उन्मूलन होता जाता है । नकली उद्योगीकरण में असमानता और फिजूलखर्ची के कारण गरीबी भी बढ़ती जाती हैं । पूंजी निवेश की बढ़ती मात्रा, आर्थिक साधनों पर सरकारी स्वामित्व और विकास के लिए संभ्रांत वर्ग की अगुआयी, भारत के पुनरुत्थान के लिए पर्याप्त शर्त नहीं है । विकेंद्रित अर्थव्यवस्था,टेक्नालजी का नया स्वरूप और वैकल्पिक मानसिक रुझान से ही तीसरी दुनिया पूंजीवाद और साम्यवाद से बचते हुए आर्थिक विकास का रास्ता तय कर सकती है ।
            भारत यदि डॉ॰ लोहिया के बताये मॉडेल को अख़्तियार करता तो इसकी आर्थिक प्रगति तेज होती । देश आज मुद्रास्फीति की समस्या में नहीं उलझता यदि इसने ‘दाम बांधों’ की नीति का अनुसरण किया होता । यदि ‘छोटी मशीन’ द्वारा उद्योगीकरण होता तो आर्थिक असमानता, बेरोजगारी और विदेशी ऋण की समस्या खड़ी नहीं होती । यदि उपभोग की आधुनिकता पर छूट न दी गयी होती तो फिजूल खर्ची से देश को बचाया जा सकता था । सैद्धांतिक रूप से डॉ॰ लोहिया की नीति एक वैकल्पिक विकास पद्धति की रूपरेखा है । यदि भारत में डॉ॰ लोहिया की आर्थिक नीति का प्रयोग होता तो देश की आर्थिक व्यवस्था में आंतरिक स्फूर्ति आती जिससे यहाँ का विकास तेज होता, राष्ट्रियता गतिशील होती और यह प्रयोग दूसरे विकासशील देशों के लिए उदाहरण बनता ।
            लोहिया की आर्थिक विकास नीति एक वैकल्पिक आर्थिक व्यवस्था और सामाजिक सिद्धांत की खोज नीति है । इसका आधार छोटी मशीन, विकेंद्रित व्यवस्था और सरल जीवनशैली है । इसका लक्ष्य ऐसी व्यवस्था का निर्माण करना है जो लोगों में स्वतंत्रता और सृजनात्मकता को सुदृढ़ बना सके । यह सिर्फ गांधीवादी ही कर सकता है । लेकिन सरकारी गांधीवादी नहीं जो गांधी को सत्ता प्राप्ति के लिए बाजार में बेचता है । मठी गांधीवादी भी नहीं जो पूंजीवादी व्यवस्था के रहते भी चैन से सो सकता है । यह सिर्फ कुजात गांधीवादी ही कर सकता है जो पूंजीवाद से अनवरत लड़ने की इच्छा शक्ति रखता है और जो करुणा और क्रोध भरे दिलो-दिमाग से हिंसा का प्रतीकार मात्र अहिंसा के लिए नहीं बल्कि समता, संपन्नता और न्याय के लिए करता हैं ।     
नीरज कुमार

कोरोना क्रांति के बाद

अरुण कुमार त्रिपाठी

कोविड-19 अगले छह महीने में खत्म होगा या उससे भी जल्दी, कुछ ठीक ठीक कहा नहीं जा सकता। लेकिन एक बात जरूर है कि इसका प्रभाव खत्म होने के बाद दुनिया का आख्यान वह नहीं रहेगा जो आज है। बीसवीं सदी की महान उपलब्धियों पर गर्व करने वाले इजराइली इतिहासकार जुआल नोवा हरारी और उनसे प्रभावित बौद्धिकों को सोचना होगा कि हमारी अजेय वैज्ञानिक क्षमताएं वास्तव में कितनी अजेय हैं। कुदरत अभी भी हमसे ज्यादा ताकतवर है या हम उससे अधिक शक्तिशाली हो चुके हैं। लोकतंत्र ही सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था है या मनुष्य के लिए अधिनायकवाद की ओर लौटना लाजिमी होगा? आर्थिक वैश्वीकरण उचित है या इनसान को राष्ट्रवाद और क्षेत्रवाद के दायरे में सिमट जाना पड़ेगा? सोचना यह भी पड़ेगा कि हमारे इतिहासकार बीसवीं सदी में जिन समस्याओं का हल तय मान चुके हैं, वे नई सदी में किस रूप में प्रकट होंगी?
कोरोना ने हरारी के इस कथन को चुनौती दे दी है कि अब मानव सभ्यता युद्ध, अकाल और महामारी से तबाह नहीं होगी। उनका दावा था कि हमने इन लंबे समय से चली आ रही इन समस्याओं को जीत लिया है यानी होमो सेपियन्स अब होमो डियस बन चुका है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोरोना से निपटने के लिए जिस तरह 21 दिनों की अभूतपूर्व राष्ट्रीय तालाबंदी करते हुए लोगों के घर के बाहर लक्ष्मण रेखा खींचकर उन्हें अंधविश्वास से दूर रहने की सलाह दी है, लगता है इस समय में वही एक मात्र उपाय है। लेकिन यह उपाय हमारी स्वास्थ्य संबंधी तैयारी और सामान्य जन की आर्थिक जरूरतों की पूर्ति संबंधी सवाल भी खड़ा करते हैं। प्रधानमंत्री ने पहले सार्क देशों से वीडियो कांफ्रेंसिंग की थी और एक ऐसी पहल दिखाई थी जिसमें राष्ट्रवादी कटुता मिटती और मानवता का दायरा फैलता दिख रहा था। लेकिन इस बार उन्होंने स्पष्ट कर दिया है कि सबको अपना बचाव स्वयं ही करना होगा यानी वैश्वीकरण की भावना टिक नहीं पा रही है और उल्टे मीडिया के कुछ हिस्सों में पाकिस्तान द्वेष और अंधविश्वास की चर्चा चिंता पैदा करती है। संकुचित विचारों से संचालित होने वाली राजनीति और मीडिया यह समझ पाने में असमर्थ है कि यह समय सभ्यताओं के संघर्ष के सिद्धांत से बाहर निकलने का है। शायद कोरोना ने हमें यह सोचने का अवसर भी दिया है कि किसी एक समुदाय, देश या आतंकवाद से बड़ा खतरा एक अदृश्य संरचना है जो हमारी सारी प्रगति को नेस्तनाबूद कर सकती है।
लेकिन राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय भाईचारा कायम होने की फिलहाल जो आशा है वह बहुत दूर तक नहीं जाती। इसका सबसे बड़ा प्रमाण चीन और अमेरिका की उस बहस में दिखता है जिसमें अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप इसे चीनी वायरस बता रहे हैं तो चीन इसे अमेरिकी प्रयोग की चूक कह रहा है। चीन इस बात से नाराज है कि इस बायरस के साथ उसके देश का नाम जोड़ा जा रहा है। जबकि अमेरिकी अधिकारी कह रहे हैं कि 1918 में भी तो फ्लू को स्पैनिश फ्लू कहा गया था। इस तरह के आख्यान से राष्ट्रीय कट्टरता से नजदीकी और वैश्वीकरण की उदारता से भी दूरी बनती दिखाई दे रही है। इससे भी बड़ी बहस अमेरिका में जनता के स्वास्थ्य और अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य को लेकर छिड़ गई है। अमेरिकी राष्ट्रपति अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य के लिए चिंतित हैं तो विशेषज्ञ जनता के स्वास्थ्य के लिए।
भय और उम्मीद के इस विरोधाभास के बीच मशहूर दार्शनिक बर्ट्रेन्ड रसेल की `इन्फ्रा रेडियोस्कोप’ कहानी प्रासंगिक लगती है। उन्होंने इस कहानी में परमाणु युद्ध की आशंका के समक्ष मंगल ग्रह से आक्रमण का खतरा उपस्थित किया था। कहानी कहती है कि `इन्फ्रा रेडियोस्कोप’ नामक एक यंत्र से देखा गया है कि मंगल ग्रह के निवासी धरती पर कब्जा करने की योजना बनाते हुए वहां पहुंच गए हैं। वैज्ञानिकों के नाम पर फैलाई गई इस खबर से टकराव को आमादा महाशक्तियां एक हो जाती हैं। लेकिन सद्भाव के लिए तैयार किए गए इस षडयंत्र का भंडाफोड़ हो जाता है और फिर महाशक्तियां आपस में टकराकर नष्ट हो जाती हैं। यह कहानी मनुष्य जाति को एक सीख देने की कोशिश करती है और सचेत करती है कि उसके विनाश का खतरा सन्निकट है। अगर वह अपनी वफादारियों और प्राथमिकताओं को नए तरीके से परिभाषित नहीं करती तो उसे रोक पाना कठिन है। इसी तरह की चेतावनी राशेल कार्सन का उपन्यास `द साइलेंट स्प्रिंग’ भी देता है। वे कीटनाशकों के प्रभाव में हो रहे प्रकृति के विनाश की कल्पना करती हैं और कहती हैं कि एक दिन ऐसा बसंत आएगा जहां कोयल नहीं कूकेगी। नाभिकीय हथियारों से पैदा हो रहे ऐसे ही खतरे के प्रति जान हरसे अपनी रचना `हिरोशिमा’ में आगाह करते हैं। उनका मानना है कि नाभिकीय हथियार सिर्फ खतरा ही नहीं हैं बल्कि हमारे लिए नरक का द्वार खोलते हैं।
मानव निर्मित हथियारों, रसायनों या दूसरे ग्रह के आक्रमणों के इन खतरों की रोशनी में हम कोरोना के मौजूदा खतरे को देख सकते हैं। यूरोप जहां पर लोकतंत्र की मजबूत जड़े देखी जाती हैं और कहा जाता है कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद वह तानाशाही की आशंका से बहुत दूर चला गया है, वहां युवाओं और बूढ़ों के इलाज में भेदभाव मानवाधिकारों और राज्य के कल्याणकारी चरित्र की अलग ही कहानी कहता है। भारत में भी राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के अस्पताल के वार्ड से निकल कर भागने या कूद कर आत्महत्या करने की कहानी भी इलाज के नाम पर नागरिक अधिकारों के दमन और उससे विद्रोह की कहानी कहते हैं। कोरोना के खत्म होने के बाद यह बहस जरूर उठेगी कि राज्य को स्वास्थ्य के सवाल पर अपने नागरिकों को कितनी स्वतंत्रता देनी चाहिए और कहां तक उसे नियंत्रित करना चाहिए। यह भी बहस उठेगी कि इसे उन देशों ने ज्यादा अच्छी तरह नियंत्रित किया जहां तानाशाही व्यवस्था थी या उन देशों ने जहां लोकतंत्र था। निश्चित तौर पर इस दौरान इटली बनाम चीन और चीन बनाम ब्रिटेन बनाम रूस की बहस भी उठेगी। यह विवाद उस बहस को नया रूप देगा जो उदारीकरण की विफलता के साथ चल रही है और अर्थव्यवस्था के राज्य संरक्षण पर जोर दे रही है।
यही वजह है कि `हाउ डेमोक्रेसी इन्ड्स’ में डेविड रैन्सीमैन लोकतंत्र को खत्म करने के तीन कारणों में एक कारण विनाश को भी बताते हैं। बाकी दो कारण विद्रोह और तकनीकी अधिपत्य हैं। अभी यह कहना कठिन है कि कोराना प्रकृति प्रदत्त विनाश या महामारी है या मानव निर्मित। पर इस बारे में दोनों तरह के सिद्धांत चल रहे हैं। जाहिर है दुनिया की अर्थव्यवस्था को जितनी क्षति मंदी से हुई है उससे कहीं अधिक क्षति इस महामारी से होने जा रही है। इस बीमारी ने वैश्वीकरण के मानवविरोधी स्वरूप को उजागर करने के साथ वैधता प्रदान की है। अब वैश्वीकरण के क्रूर योजनाकारों के लिए यह कहना आसान हो जाएगा कि पूंजी और प्रौद्योगिकी का आदान प्रदान तो ठीक है लेकिन मनुष्यों का निर्बाध आवागमन निरापद नहीं है। यानी दुनिया का वैश्वीकरण फिर पूंजी और प्रौद्योगिकी का वैश्वीकरण होकर रह जाएगा और बीसा व पासपोर्ट के नियमों के कड़े बनाए जाने की ओर जाएगा।
इस बीच अगर अपने अपने देशों को बचाने में पूरी ताकत से जुटे और गुंजाइश मिलने पर दूसरे देशों की मदद करने की पहल से एक उम्मीद बनती है तो अपने को वायरस के वैक्सीन के परीक्षण के लिए प्रस्तुत करते वाशिंगटन राज्य के नील ब्राउनिंग के त्याग से और भी बड़ा संदेश जाता है। नील ब्राउनिंग पूरी दुनिया की चिंता करते हुए इस वायरस का जल्दी से जल्दी अंत चाहते हैं। यह दोनों उम्मीदें मानव सभ्यता की पिछली सदी के आविष्कारों से समृद्ध होती हैं। एक आविष्कार सूचना प्रौद्योगिकी का है और दूसरा आविष्कार है जैव प्रौद्योगिकी का। वे मानव प्रजाति के लिए कहर ला सकते हैं और उसके लिए अमरता की खोज भी कर सकते हैं।
इस दौरान मनुष्य अभय और सहकारिता के सिद्धांत में अटूट विश्वास भी विकसित कर सकता है और भय व संदेह का यकीन भी पुख्ता कर सकता है। कोरोना वायरस ने मानवता के समक्ष यह चुनौती प्रस्तुत की है कि वह साजिश की राजनीति से निकलकर सद्भाव और सहयोग का मजबूत आख्यान कैसे रचे। समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के मूल्य चुके नहीं हैं। दुनिया को उनकी जरूरत है और मानवता का कल्याण उसी रास्ते पर चलकर ही होगा। जरूरत उन्हें नए सिरे से परिभाषित करने की है। अगर हम वैसा कर पाएंगे तो बचे रहेंगे, वरना असमानता, गुलामी और शत्रुता के वायरस कोविड-19 से मिलकर हमला करने को तैयार बैठे हैं।


Published : Rashtriya sahara Newspaper