पूंजीवाद के पास भारतीय आर्थिक एवम
सामाजिक समस्याओं का निराकरण नहीं है तो उस संदर्भ में डॉ॰ लोहिया के विचार और
दर्शन और भी अधिक प्रासंगिक हो जाते हैं । वैचारिक स्तर पर अब यह बात साफ हो जानी
चाहिए कि यदि पूंजीवादी दर्शन हो या समाजवादी, पाश्चात्य
विचारों में भारत की समस्याओं का निदान नहीं है | इसके लिए
हमें डॉ॰ लोहिया की लौटना ही होगा । जब कभी भी और जो भी सरकार भारत में सही अर्थ
में एक समता मूलक समाज की स्थापना का प्रयास करेगी, भारतीय
समाज को जाति, धर्म और योनि के कटघरे से मुक्त करने का
प्रयास करेगी, उनका आदर्श और प्रेरणा स्त्रोत डॉ॰ लोहिया की सप्तक्रांति
ही होगी | भले ही कोई उसे महात्मा गांधी का राम राज्य कहे, कोई उसे जयप्रकाश की सम्पूर्ण क्रांति कहे, कोई उसे
वर्गहीन और राजयहीन समाज की धारणा कहे, किंतु इन सभी आदर्शों
के बीच डॉ॰ लोहिया की सप्तक्रांति की धारणा सर्वाधिक सशक्त और सगुण धारणा है | वक्ती तौर पर इसमें कुछ परिवर्तन और परिवर्द्धन न हो सकते हैं, किंतु आज भी चौखम्बा राज्य और सप्तक्रांति की धारणा मूल रूप से सिर्फ
प्रासंगिक ही नहीं है बल्कि साम्यवाद की अप्रासंगिक और पूंजीवाद की असमर्थता सिद्ध
हो जाने के बाद भारतीय संदर्भ में नए समाज के निर्माण का यही एक रास्ता है | जब तक जाती के आधार, धर्म के आधार पर, आर्थिक गैरबराबरी आधार पर भारत में शोषण की प्रक्रिया जारी है, इनके खिलाफ लड़ने वालों के प्रेरणा स्त्रोत डॉ॰ लोहिया के विचार और कार्य
सदैव रहेंगे |
डॉ॰ लोहिया एक वैकल्पिक व्यवस्था की
खोज में थे | पंचमढ़ी में उन्होने कहा कि “पूंजीवाद
उत्पादन तंत्र तंत्र एशियाई देशों के लिए
निरर्थक है क्योंकि यहाँ की जनसंख्या ज्यादा है और उत्पादन साधन कम और अविकसित हैं
। यूरोप-अमेरिका की योग्यता के उत्पादन साधन यहाँ बनाने में और इसके लिए पूंजी का
संचय करने में पूंजीवाद नाकामयाब साबित होगा ।” साम्यवाद भी दो कारणों से निकम्मा
है । पहला, कम्युनिज्म का उत्पादन-तंत्र और जीवनशैली
पूंजीवाद के ही समान है । वह भी केंद्रीकृत उत्पादन और उपभोगवादी जीवनशैली में
विश्वास करता हैं । अविकसित देशों को विकेंद्रित उत्पादन व्यवस्था और सरल जीवनशैली
चाहिए । और दूसरा, साम्यवाद सिर्फ पूंजीवादी उत्पादन के
सम्बन्धों को बदलता है, उत्पादन की शक्तियों को बदलने की
व्यवस्था नहीं है । तीसरी दुनिया के विकास के लिए न केवल उत्पादन के स्वामित्व में
परिवर्तन लाना है बल्कि उत्पादन की शक्तियों को खास नीतियों के मार्फत योग्य भी
बनाना है । लोहिया पूंजीवाद और साम्यवाद को एक ही सभ्यता के दो रूप मानते हैं ।
आजाद भारत ने आर्थिक विकास की जो नीति
अपनायी, डॉ॰ लोहिया उसके विरोधी थे । उन्होने यहाँ तक कहा था की हिंदुस्तान नया
औद्योगिक नहीं प्राप्त कर रहा है, बल्कि यूरोप और अमेरिका की
रद्दी मशीनों का अजायबघर बन रहा है । पश्चिम की नकल करके जिस उद्योगीकरण का इंतजाम
हुआ है उससे न तो देश में सही औद्योगिक की नींव पड़ सकती है,
न ही अर्थव्यवस्था में आंतरिक शक्ति और स्फूर्ति आ सकती है । सही उद्योगीकरण उसको
कहते हैं जिसमें राष्ट्रीय उत्पादन के बढ़ने के साथ गरीबी का उन्मूलन होता जाता है
। नकली उद्योगीकरण में असमानता और फिजूलखर्ची के कारण गरीबी भी बढ़ती जाती हैं ।
पूंजी निवेश की बढ़ती मात्रा, आर्थिक साधनों पर सरकारी
स्वामित्व और विकास के लिए संभ्रांत वर्ग की अगुआयी, भारत के
पुनरुत्थान के लिए पर्याप्त शर्त नहीं है । विकेंद्रित अर्थव्यवस्था,टेक्नालजी का नया स्वरूप और वैकल्पिक मानसिक रुझान से ही तीसरी दुनिया
पूंजीवाद और साम्यवाद से बचते हुए आर्थिक विकास का रास्ता तय कर सकती है ।
भारत यदि डॉ॰ लोहिया के बताये मॉडेल
को अख़्तियार करता तो इसकी आर्थिक प्रगति तेज होती । देश आज मुद्रास्फीति की समस्या
में नहीं उलझता यदि इसने ‘दाम बांधों’ की नीति का अनुसरण किया होता । यदि ‘छोटी
मशीन’ द्वारा उद्योगीकरण होता तो आर्थिक असमानता,
बेरोजगारी और विदेशी ऋण की समस्या खड़ी नहीं होती । यदि उपभोग की आधुनिकता पर छूट न
दी गयी होती तो फिजूल खर्ची से देश को बचाया जा सकता था । सैद्धांतिक रूप से डॉ॰
लोहिया की नीति एक वैकल्पिक विकास पद्धति की रूपरेखा है । यदि भारत में डॉ॰ लोहिया
की आर्थिक नीति का प्रयोग होता तो देश की आर्थिक व्यवस्था में आंतरिक स्फूर्ति आती
जिससे यहाँ का विकास तेज होता, राष्ट्रियता गतिशील होती और
यह प्रयोग दूसरे विकासशील देशों के लिए उदाहरण बनता ।
लोहिया की आर्थिक विकास नीति एक
वैकल्पिक आर्थिक व्यवस्था और सामाजिक सिद्धांत की खोज नीति है । इसका आधार छोटी
मशीन, विकेंद्रित व्यवस्था और सरल जीवनशैली है । इसका लक्ष्य ऐसी व्यवस्था का
निर्माण करना है जो लोगों में स्वतंत्रता और सृजनात्मकता को सुदृढ़ बना सके । यह
सिर्फ गांधीवादी ही कर सकता है । लेकिन सरकारी गांधीवादी नहीं जो गांधी को सत्ता
प्राप्ति के लिए बाजार में बेचता है । मठी गांधीवादी भी नहीं जो पूंजीवादी
व्यवस्था के रहते भी चैन से सो सकता है । यह सिर्फ कुजात गांधीवादी ही कर सकता है
जो पूंजीवाद से अनवरत लड़ने की इच्छा शक्ति रखता है और जो करुणा और क्रोध भरे
दिलो-दिमाग से हिंसा का प्रतीकार मात्र अहिंसा के लिए नहीं बल्कि समता, संपन्नता और न्याय के लिए करता हैं ।
नीरज कुमार
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