Thursday, 3 May 2018

लोहिया, भारतरत्न और सौदेबाज़ समाजवादी

लोहिया, भारतरत्न और सौदेबाज़ समाजवादी

प्रेम सिंह

      किसी क्षेत्र में विशिष्ट भूमिका निभाने वाले व्यक्ति के निधन पर शोक व्यक्त करते हुए अक्सर कहा जाता है कि वह अपने विचारों और कार्यों के रूप में दुनिया में जीवित रहेगा. यह भी कहा जाता है कि उसके विचारों और कार्यों को समझ कर उन्हें आगे बढ़ाना उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि होगी. कहने में यह भली बात लगती है. लेकिन, विशेषकर सक्रिय राजनीति में, दिवंगत व्यक्ति का अक्सर सत्ता-स्वार्थ के लिए इस्तेमाल होता है. अनुयायी प्रतिमा-पूजा करते हुए और और विरोधी प्रतिमा-ध्वंस करते हुए दिवंगत नेता के विचारों और कार्यों को अनेकश: विकृत करते हैं. यह भी होता है कि विचारधारा में बिल्कुल उलट प्रतीक-पुरुषों को सत्ता-स्वार्थ के लिए बंधक बना लिया जाता है. प्रतीक-पुरुषों की चोर-बाज़ारी भी चलती है. इस तरह प्रतीक-पुरुषों के अवमूल्यन की एक लंबी परंपरा देखने को मिलती है, जो बाजारवाद के दौर में परवान चढ़ी हुई है. अफसोस की बात है कि दिवंगत व्यक्ति अपना इस्तेमाल किये जाने, विकृत किये जाने, बंधक बनाए जाने या चोर-बाजारी की कवायदों को लेकर कुछ नहीं कर सकता. शयद यही समझ कर डॉ. राममनोहर लोहिया ने कहा था कि किसी नेता के निधन के 100 साल तक उसकी प्रतिमा नहीं बनाई जानी चाहिए. ज़ाहिर है, लोहिया की इस मान्यता में प्रतिमा प्रतीकार्थक है.  

      डॉ. राममनोहर लोहिया को गुजरे अभी 50 साल हुए हैं. ऊपर जिन प्रवृत्तियों का ज़िक्र किया गया है, कमोबेस लोहिया भी उनका शिकार हैं. इधर उन्हें भारतरत्न देने की मांग बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से की है. 2011-12 में लोहिया के जन्मशताब्दी वर्ष के अवसर पर भी कुछ लोगों ने उन्हें भारतरत्न देने की मांग रखी थी. लोहिया के विचारों, संघर्ष और व्यक्तित्व का ज़रा भी लिहाज़ किया जाए तो उनके लिए सरकारों से किसी पुरस्कार की मांग करना, या उनके नाम पर पुरस्कार देना पूरी तरह अनुचित है. लोहिया आजीवन राजनीति में रहते हुए भी 'राज-पुरुष' नहीं थे. दो जोड़ी कपड़ा और कुछ किताबों के अलावा उनका कोई सरमाया नहीं था. कहने की ज़रुरत नहीं कि उनका चिंतन और संघर्ष किसी पद या पुरस्कार के लिए नहीं था. सौदेबाज़ समाजवादी नवसाम्राज्यवाद की गुलाम सरकार से लोहिया को भारतरत्न देने की मांग करके मृत्योपरांत उनका अपमान कर रहे हैं.

      देश में बहुतायत में सौदेबाज़ समाजवादी हैं. ये लोग भारतीय समाजवाद के प्रतीक-पुरुषों का जहां -तहां सौदा करते हैं. एनजीओ से लेकर विभिन्न राजनीतिक पार्टियों और सरकारों तक इनकी आवा-जाही रहती है. नीतीश कुमार उनमें से एक हैं. पिछले दिनों वे मध्यप्रदेश के ग्वालियर शहर में एक प्राइवेट यूनिवर्सिटी में लोहिया स्मृति व्याख्यान में शामिल हुए थे. यह स्मृति व्याख्यान राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने दिया था. पिछले साल गृहमंत्री राजनाथ सिंह यह व्याख्यान दे चुके थे. हो सकता है नीतीश कुमार ने उस अवसर पर राष्ट्रपति महोदय से लोहिया को भारतरत्न दिलवाने के बारे चर्चा की हो. और हो सकता है राष्ट्रपति महोदय ने उन्हें यह मांग प्रधानमंत्री से करने की सलाह दी हो.

      गाँधी और आम्बेडकर के विचारों और कार्यों से आरएसएस/भाजपा का कोई जुड़ाव नहीं है. लेकिन नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार सत्ता के लिए उनका निरंतर इस्तेमाल कर रहे हैं. लोहिया ने आरएसएस को भारतीय संस्कृति के पिछवाड़े पड़े घूरे पर पलने वाला कीड़ा कहा है. लोहिया आम्बेडकर को गाँधी के बाद भारत का सबसे बड़ा आदमी मानते थे. आगामी 12 अक्तूबर को संभव है भारतरत्न देकर लोहिया को नई साम्राज्यशाही की ताबेदारी में 'बड़ा आदमी' बना दिया जाए! सौदेबाज़ समाजवादी इसे अपनी बड़ी उपलब्धि बताएँगे. गाँधी और आम्बेडकर अगर नरेंद्र मोदी के महल में बंधक पड़े हैं, तो इसमें सौदेबाज़ गांधीवादियों और सौदेबाज़ आम्बेडकरवादियों की कम भूमिका नहीं है.
    
      कई बार लगता है इंसान साधारण जीवन जीकर ही दुनिया से विदा ले तो बेहतर है. मानवता के लिए जीने वाले लोग अक्सर दुर्भाग्यशाली साबित हुए हैं. वे जीवनपर्यंत कष्ट पाते हैं, और मृत्यु के बाद भी उनकी मिटटी खराब होती है! बाजारवाद के इस भयानक दौर में पुरखों की खाक के सौदागर गली-गली घूमते है! वे पुरखों की खाक के साथ राष्ट्रीय धरोहरों का सौदा भी कर रहे हैं!    

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