Tuesday, 31 July 2018

दिल्ली में भूखी बच्चियों की मौत : कौन जिम्मेदार?


  
                
प्रेम सिंह

डॉ. प्रेम सिंह, सोशलिस्ट पार्टी (इंडिया) के अध्यक्ष हैं |
देश की राजधानी दिल्ली के मंडावली इलाके में तीन बच्चियों (मानसी 8 साल, शिखा 4 साल, पारो 2 साल) की एक साथ मौत चर्चा, अफसोस, जांच और राजनैतिक पार्टियों/नेताओं के बीच आरोप-प्रत्यारोप का विषय बनी हुई है. तीनों बहनें थीं. उनकी मां बीना के बारे में पता चला कि वह मानसिक रोग से  पीड़ित है, जिसे बच्चियों की मौत के बाद अस्पताल में भरती कराया गया है. बच्चियों की मौत के एवज़ में उसे दिल्ली सरकार की ओर से कुछ नक़द धनराशि भी दी गई है. बच्चियों का पिता मंगल सिंह शराबी बताया गया है. संभ्रांत समाज मज़दूरों के इस दुर्गुण पर सहज ही विश्वास कर उनकी बुरी आर्थिक हालत के लिए जिम्मेदार मान लेता है. हालांकि मंगल सिंह के पुराने जानने वालों के मुताबिक वह मेहनती और निपुण कुक है. पहले एक कैटरिंग सर्विस में नौकरी और बाद में अपनी परांठा और चाय की दुकान में वह अच्छा खाता-कमाता था. उसके साझीदार ने धोखा किया और घाटे के कारण उसे अपनी दुकान बंद करनी पड़ी. नई जगह पर उसने फिर से दुकान ज़माने का प्रयास किया, लेकिन सफलता नहीं मिली. उसके जानकार बताते हैं कि दो-अढ़ाई साल से वह काफी शराब पीने लगा था. उसने रिक्शा चलाना शुरू किया, जिसे किन्हीं लोगो ने छीन या चुरा लिया. बेटियों की मौत के बावजूद वह अभी तक लापता है.

पोस्टमार्टम की रपट में आया है कि तीनों बच्चियां कुपोषण और भूख से मरी हैं. दोबारा अंत्यपरीक्षण करने पर भी वही परिणाम आया. डाक्टरों ने बताया है कि तीनों बच्चियों के पेट में आठ दिन से निवाला नहीं गया था और शरीर पर वसा (फैट) का नामोनिशां नहीं था. डाक्टरों के मुताबिक 'बच्चियों की मौत भयावह और दर्दनाक है'. बच्चियों के हिस्से का निवाला छीनने वाले कौन हैं? और उनके जीवन के लिए जरूरी चर्बी किन लोगों के शरीरों पर चढ़ी हुई है? - यह बताना डाक्टरों का काम नहीं है. उनकी मौत पर चर्चा, अफसोस, जांच और आरोप-प्रत्यारोप में लगे महानुभावों का यह काम है. उनसे कुछ छुपा नहीं है. लेकिन वे इधर-उधर की सारी बातें करेंगे - मसलन, तीनों एक साथ कैसे मर सकती हैं? चौबीस घंटे पहले खाना खाया था तो भूख से कैसे मर सकती हैं? उपराज्यपाल राशन नहीं रोकते तो क्या बच्चियां मरतीं? पिता ने जो दवा पानी में मिला कर दी थी, मौत उसका परिणाम तो नहीं है? यानी शराबी पिता बच्चियों को मार कर फरार तो नहीं हो गया है ...? - लेकिन सच्चाई नहीं बताएंगे.

यह इलाका दिल्ली के उपमुख्यमंत्री, जिनके पास महिला एवं बाल विकास मंत्रालय भी है, का क्षेत्र है. इस मायने में नहीं कि उन्होंने यहां लम्बे अरसे तक कोई राजनीतिक या सामाजिक काम किया था. वे यहां से पिछली बार विधायक का चुनाव जीते थे. अपने चुनाव क्षेत्र में हुई तीन बच्चियों की मौत को उन्होंने व्यवस्था की असफलता बताया है. उनके मुताबिक गरीबों के लिए योजनाओं की कमी नहीं है, उन बच्चियों तक योजनाओं का फायदा नहीं पहुंच पाया. क्यों नहीं पहुंच पाया, व्यवस्था की इस असफलता की जांच कराने का आदेश उन्होंने दिया है. उपमुख्यमंत्री, मुख्यमंत्री, उनकी सरकार या उनके समर्थक यह कदापि स्वीकार नहीं करेंगे कि बच्चियों की मौत व्यवस्था की असफलता का नतीज़ा नहीं, सीधे गलत व्यवस्था का नतीज़ा है; कि यह नवउदारवादी व्यवस्था ही गलत है, जिसे भारत का राजनीतिक और बुद्धिजीवी वर्ग पिछले तीन दशकों से चला रहा है. सभी को पता है बड़े कारपोरेट घरानों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हित में चलाई जा रही नवउदारवादी व्यवस्था संवैधानिक कसौटी पर अवैध ठहरती है. लेकिन कारपोरेट घरानों के हित-साधन में इस व्यवस्था को चलाने और चलाने वालों का समर्थन कर ने वालों का हित बखूबी सध जाता है.

यह अकारण नहीं है कि देश की 73 प्रतिशत दौलत एक प्रतिशत लोगों के पास इकठ्ठा हो गई है. इन एक प्रतिशत लोगों को सरकारों, उन्हें चलाने वाली राजनीतिक पार्टियों और बुद्धिजीवियों का तिहरा सुरक्षा घेरा प्राप्त है. वे चाहें तो देश में रह कर मेहनतकश जनता और उनके बच्चों का खून चूस सकते हैं, चाहें तो विदेश भाग जा सकते है. यह तिहरा घेरा देश-परदेश दोनों जगह उनकी सुरक्षा की गारंटी करता है. खुद प्रधानमंत्री उनके बचाव में कहते हैं कि वे 'चोर-लुटेरे नहीं हैं'. प्रधानमंत्री के कथन का निहितार्थ है कि नवउदारवाद के नाम पर देश के समस्त संसाधनों और श्रम, शिक्षा से लेकर रक्षा तक को कारपोरेट घरानों को बेचने वाला राजनीतिक और बुद्धिजीवी वर्ग भी कोई चोर-लुटेरा नहीं हैं! नवउदारवाद के पैरोकार ही वे लोग हैं, जिन्होंने मानसी, शिखा, पारो जैसी करोड़ों बच्चियों के पेट का निवाला और शरीर का वसा छीना हुआ है.   

नवउदारवाद में अर्थव्यवस्था (इकॉनमी) पूरी आबादी के लिए नहीं होती. वह मूलत: कारपोरेट घरानों और उस तिहरे घेरे में शामिल लोगों के लिए होती है. बाकी बची अधिकांश आबादी के लिए कई तरह की योजनाएं चलाई जाती हैं. ये योजनायें प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री एवं सत्तारूढ़ दलों के प्रतीक पुरुषों के नाम पर होती हैं. वर्तमान केंद्र सरकार की इस तरह की योजनाओं की एक लंबी सूची है. एक तरफ ये योजनाएं विज्ञापन के ज़रिये नेताओं और सरकार की छवि चमकने के काम आती हैं, दूसरी तरफ इन योजनाओं के लिए आबंटित धन-राशि का बड़ा हिस्सा सीधे अर्थव्यवस्था से लाभान्वित लोग हड़प जाते हैं. वैसी ही आंगनवाड़ी अथवा स्कूल में भोजन व वर्दी-किताबों के लिए कुछ पैसा देने जैसी योजनाओं का ज़िक्र उपमुख्यमंत्री कर रहे हैं. वे मान कर चल रहे हैं कि नवउदारवादी व्यवस्था के तहत ये योजनाएं बच्चियों के अभी और भविष्य के जीवन के लिए 'रामबाण' थीं. कुछ भ्रष्ट तत्वों, जिनमें उपराज्यपाल भी शामिल हो सकते हैं, ने उन रामबाण योजनाओं का लाभ बच्चियों तक नहीं पहुंचने दिया और एक परिपूर्ण व्यवस्था पर असफलता/नाकामी का दाग लगा दिया.

नवउदारवादी व्यवस्था लागू होने के बाद से देश में बड़े पैमाने पर आबादी का विस्थापन और बाह्यीकरण (एक्सक्लूशन) हुआ है. देहात और कस्बों से उखड़े लोग बड़े शहरों, महानगरों में दिन-रात काम करने, सिर छुपाने, बच्चों को पढ़ाने, दावा-दारू जुटाने की जद्दोजहद में भिड़े रहते हैं. (मंगल सिंह भी पश्चिम बंगाल से दिल्ली आकर करीब 15 साल से अपने परिवार के जीवन की जड़ें ज़माने की जद्दोजहद कर रहा था.) जो लोग गांव-कस्बों-छोटे शहरों में रह गए हैं, वे अपने को (विकास की दौड़ में) पीछे छूटा हुआ मान कर पराजित मानसिकता में जीते हैं. नवउदारवादी अर्थव्यवस्था ने भारत के सामाजिक और राजनीतिक पटल को अंदर-बाहर काफी बदल दिया है. गांव-कस्बों-छोटे शहरों में छूट गई और बड़े शहरों, महानगरों में पहुंची आबादी की अपनी एक अलग दुनिया और समस्याएं हैं. अपने को विकल्पहीन जताने वाली नवउदारवादी व्यवस्था इस बह्यीकृत दुनिया का समायोजन करने की कोशिश करती है. इसके दो मुख्य कारण हैं : एक, लोकतंत्र में इस दुनिया में रहने वालों के वोट का महत्व है. चुनाव इसी दुनिया के समर्थन से जीते जा सकते हैं. दूसरे, नवउदारवादियों की 'सोने की लंका' को इन 'भालू-वानरों' से बचा कर रखना है. नवउदारवाद के कर्ताओं ने इस विशाल आबादी की समस्याओं के समाधान के नाम पर सरकारी योजनाओं के समानांतर एक विशाल एनजीओ तंत्र विकसित किया है. यह दोहरा तंत्र समस्याओं के समाधान का झांसा बनाए रखने में कामयाब रहता है.
  
यह सच्चाई विद्वानों और राजनैतिक एक्टिविस्टों के अध्ययनों पर आधारित है कि पूरी दुनिया में फैला एनजीओ नेटवर्क नवउदारवादी व्यवस्था का अविभाज्य हिस्सा है. समाजवादी विचारधारा, यहां तक कि उदार लोकतंत्र (लिबरल डेमोक्रेसी) पर आधारित कल्याणकारी राज्य की अवधारणा की चुनौती ख़त्म करने में एनजीओ तंत्र ने बड़ी भूमिका निभाई है. एनजीओ तंत्र इस प्रचार का भी मज़बूत वाहक बना है कि नवउदारवादी व्यवस्था विकल्पहीन है. दिल्ली में सरकार चलाने वाली नवेली आम आदमी पार्टी और उसके मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री सीधे नवउदारवाद की कोख से पैदा हुए हैं. नेता बनने के पहले वे यूरोप अमेरिका की बड़ी-बड़ी दानदाता संस्थाओं से मोटा धन लेकर एनजीओ  चलाते थे और कभी मनमोहन सिंह, कभी लालकृष्ण अडवाणी, कभी सोनिया गांधी से 'स्वराज' मांगते थे. उनका 'ज़मीनी' संघर्ष केवल 'यूथ फॉर इक्वेलिटी' संगठन के साथ मिल कर दाखिले और नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था ख़त्म करने की मांग के रूप में देखने में आया था.

करीब दो दशक के नवउदारवादी दौर के बाद भारतीय राजनीति में ऐसा समय आया जब सरकारें नवउदारवादी व्यवस्था के वैश्विक प्रतिष्ठानों - विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व व्यापार संगठन, विश्व आर्थिक मंच आदि - के लिए एनजीओ सरीखा काम करने लगीं. ऐसे में लम्बे समय से राजनीति की परिधि पर चक्कर काटने वाले एनजीओ कर्मियों को राजनीति में आना ही था. भारत शायद पहला देश है, जहां एनजीओबाजों का राजनीति में प्रवेश सबसे पहले और धूमधाम से हुआ है. नवउदारवादी व्यवस्था को इससे दोहरी मज़बूती मिली है. ये लोग खुल कर कहते हैं, राजनीति में विचारधारा की ज़रुरत नहीं होती. मजेदारी यह है कि सबसे ज्यादा विचारधारा की बात करने वाले कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट इनके सबसे बड़े समर्थक हैं. शुरू में ही इन्होंने संविधान की ज़रुरत को भी नकारा था, तो प्रभात पटनायक और एसपी शुक्ला जैसे विद्वानों के कान खड़े हुए थे. मुख्यमंत्री बनने पर उद्योगपतियों से पहली मुलाकात में ही केजरीवाल ने कहा था कि वे पूंजीवाद के विरोधी नहीं हैं, क्रोनी पूंजीवाद के विरोधी हैं. यहां पहली बात यह कि राजनीति में विचारधारा के निषेध की वकालत करने वाले वास्तव में नवउदारवादी विचारधारा के स्वाभाविक सेवक होते हैं. दूसरी बात यह कि चाहे पहले का उपनिवेशवादी दौर रहा हो या यह नवसाम्राज्यवादी दौर - भारत में पूंजीवाद क्रोनी ही रहा है. यह नहीं माना जा सकता कि भारत के कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट यह नहीं जानते हों. दरअसल, सरकारी कम्युनिस्ट और सरकारी सोशलिस्ट विचारधारा की लड़ाई नहीं लड़ना चाहते. वे सत्ता की लड़ाई के सिपाही हैं. इसीलिए मंडावली से लेकर मुजफ्फरपुर तक नवउदारवादी व्यवस्था द्वारा बाहर फेंक दी गईं भारत माता की बच्चियों के लिए निकट भविष्य में न्याय की आशा नहीं दिखती.

Friday, 27 July 2018

'REDUNDANT' - AN UNFORGIVABLE EXPRESSION USED FOR OFFICIALLY DESIGNATED DRINKING WATER RESERVOIRS BY GOVERNMENT OF TELANGANA IN THE HIGH COURT at HYDERABAD

HYDERABAD 25 JULY2018
PRESS RELEASE
'REDUNDANT' - AN UNFORGIVABLE EXPRESSION USED FOR OFFICIALLY DESIGNATED DRINKING WATER RESERVOIRS BY GOVERNMENT OF TELANGANA IN THE HIGH COURT at HYDERABAD


Today we, (Sanghamitra, Asif Ali Khan, Lubna Sarwath), met Shri Suryanarayana, Director-Technical, Hyderabad Metro Water & Sewage Board at his office and gave him a representation (attached).

We urged that:

- Water Board take up with goverment counsel how he stated before high court that two existing drinking water reservoirs can be stated as 'redundant'. we showed him the news item of times of india.

Director said he was not aware of that.

Director also denied any knowledge about Joint Collector RR district filing affidavit in Tribunal regarding illegal layouts/structures/buildings.

we assured him that we would email him the same.


  • Water board give us time frame when Hyderabadis can drink sweet waters of Gandipet and Himayat sagar, again, as water board has denied fundamental right of drinking waters supply from twin reservoirs to Hyderabadis.
  • Water Board evict all inflow channel blockages and diversions, as Managing Director has himself expressed anguish that despite Excess rainfall in catchment the twin reservoirs failed to be filled up.

  • We also reminded him that very recently when Water board asked for release of Nagarjuna sagar waters for the Hyderabad city, the Chief Engineer denied stating that water was needed for irrigation.

Hence, it is simple commonsense and wisdom that we nurture our heritage water reservoirs and not make our city dependent on far off water sources, which are again unpredictable;

These two reservoirs are the shaan(pride) of our city and its pride is essentially in restoring its glory of being able to supply drinking water on a continuum, as it used to be when the inflow channels were not diverted/blocked.

Osman Sagar and Himayat Sagar should not be treated as lakes but as two drinking water reservoirs.

As 'Purification of Land records' process is completed, government immediately examine and tell the court, who are the major land holders in the 84 villages of GO111, and, who are those demanding for shrinking of GO111(as mentioned in HMDA counter affidavit in high court), so that people understand government better when its counsel called the drinking water reservoirs as 'redundant'.

The entire hydrological architecture and structure as bequeathed to the city by VII Nizam Osman Ali Khan through his eminent engineers Sir Mokshagundam Visweswarayya and Mir Ahmed Ali, Nawab Ali Nawaz Jung Bahadur, should be preserved as a heritage marvel in essential utility on a continuum.

Sanghamitra Malik(Poetess & Activist)
Asif Ali Khan(Hyderabadi Architect), 
Dr Lubna Sarwath(General Secretary, Socialist Party(India)-Telangana

Monday, 23 July 2018

बाज़ार की गली में गांधी-अम्बेडकर पर बहस


बाज़ार की गली में गांधी-अम्बेडकर पर बहस
प्रेम सिंह

सोशलिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता दिल्ली और एनसीआर में सदस्यता अभियान और आगामी 9 अगस्त की 'शिक्षा और रोजगार दो, वर्ना गद्दी छोड़ दो' रैली के परचे बांट रहे हैं. हम अच्छी तरह जानते हैं कि राजनीति विज्ञापन का खेल बन चुकी है, जिसमें जनता की गाढ़ी कमाई का लूटा गया अकूत धन सरकारी और प्राइवेट स्रोतों से पानी की तरह बहाया जाता है. चाहे वह सत्ता पक्ष की हो या विपक्ष की, भारी तामझाम से भरी आज की राजनीति में खुद परचे बांटना और लोगों से चर्चा करना एक अर्थहीन और निराशा भरी कवायद है. आने-जाने वाले ज्यादातर लोग परचा पकड़ते ही नहीं. जो पकड़ते हैं, दो कदम आगे जाकर फेंक देते हैं. सस्ते कागज़ पर परचे का लाल रंग भी लोगों की उपेक्षा का कारण बनता है.

दुकानों पर बहुत कम लोगों की चर्चा करने में रूचि होती है. विचारहीनता का आलम इस कदर है कि अब पुराने और छोटे बाजारों में भी समाजवादी विचारधारा की जानकारी और उसके प्रति सहानुभूति रखने वाले लोग नहीं मिलते. अगर आपका चर्चा टीवी, रंगारंग पोस्टरों, बैनरों, होर्डिंगों पर नहीं है, तो आपकी राजनीति में लोगों की रूचि नहीं है. नवउदारवाद के प्रकट या प्रच्छन्न समर्थकों/भागीदारों ने ऐसे अराजनीतिक वातावरण का निर्माण किया है, समाजवाद छोड़िये, संविधान की विचारधारा की बात करना भी लगभग असंभव हो गया है. अन्ना आंदोलन के कर्ताओं और समर्थकों को विचारधारा-विहीनता को राजनीति का 'गुण' स्थापित करने में काफी हद तक सफलता मिल चुकी है. मार्केट से अलग पार्कों में परचा बांटने की समस्या अलग होती है. वहां क्लर्क से सेक्शन अफसर बन कर रिटायर होने वाले लोगों का बोलबाला होता है. उनकी सबसे प्रबल इच्छा युवा कार्यकर्ताओं से यह जानने की होती है कि उन्हें परचा बांटने का कितना पैसा दिया गया है? उनमें से ज्यादातर ने तनख्वा पर नहीं, ऊपर की कमाई पर सरकारी सेवा की होती है. 
    
जो भी हो. परचा बांटने के दौरान होने वाले खट्टे-मीठे अनुभवों का अपना महत्व है. लोगों के मन में क्या चल रहा है, कई बार इसकी सीधी जानकारी मिलती है. एक अनुभव का यहां ज़िक्र करते हैं. 17 जुलाई 2018 शाम हम कुछ साथी जमनापार लक्ष्मी नगर के बाज़ार में परचा बांटते हुए लोगों से बातचीत कर रहे थे. मंजू मोहन जी भी हमारे साथ थीं. महिला साथ रहने पर एक सुभीता यह होता है कि महिलाओं को भी परचा दिया जा सकता है. यदि कोई महिला दुकानदार है तो उसके साथ बात-चीत का अवसर भी बन जाता है. पुरुष दुकानदार कुछ लिहाज़ से बात करते हैं. उस दिन मंजू जी मेन बाज़ार के अंदर की एक गली में मोबाइल और एसेसरीज की छोटी-सी दुकान में घुस गयीं. दुकानदार के साथ उनकी चर्चा होते देख हम तीन-चार साथी भी अंदर चले गए. दुकानदार का करीब 30 साल का एक परिचित युवक भी वहां बैठा था. दुकानदार की उम्र 50 साल के ऊपर होगी.

सोशलिस्ट पार्टी के हर परचे पर एक स्कैच-चित्र छपा होता है, जिसमें गांधी और अम्बेडकर के बीच कुछ समाजवादी नेताओं के स्कैच हैं. दुकानदार के परिचित ने परचा डेस्क पर पटकते हुए तंज कसा कि हमने दो सड़े हुए लोगों की तस्वीर परचे पर छापी हुई है. मैंने मतलब पूछा तो उसने कहा, 'एक ने देश को पकिस्तान का उपहार देकर नाश किया और दूसरे ने आरक्षण देकर सब बर्बाद कर दिया'. इस दुत्कार के बाद भी हम टले नहीं. बहस छिड़ गई. दुकानदार भी अपने साथी के पक्ष में बहस में शामिल हो गया. सोशलिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता अपने पक्ष से राजनैतिक तर्क करने लगे. बहस गाँधी जी पर नहीं जम पाई. युवक ने यह कह कर पल्ला झाड़ लिया कि गांधी को उनकी करतूत के लिए ठीक ही ठिकाने लगा दिया गया. उसकी बात सुन कर मुझे फेसबुक पर कुछ महीने पहले पढ़ा एक कमेंट याद आया. गोडसे के महिमा मंडन पर किसी व्यक्ति ने गांधी की उम्र का हवाला देते हुए उनके पक्ष में कुछ तथ्य रखे थे. उसके जवाब में किसी लडके का कमेंट था कि 'कुछ भी हो, पेला खूब'. अस्सी साल के व्यक्ति की प्रार्थना सभा में धोखे से की गई हत्या पर सत्तर साल बाद एक भारतीय नवयुवक के मन में ऐसी भयानक ख़ुशी! गांधी के प्रति घृणा की यह मानसिकता कहां से पैदा होती है? भारत के लोग क्यों गाँधी की एक बार हत्या से संतुष्ट नहीं हैं? क्यों उसे बार-बार मारते हैं? मैं यह नहीं स्वीकार नहीं करता हूँ कि अकेला  आरएसएस इसके लिए जिम्मेदार है.

बहरहाल, गांधी से हट कर बहस आरक्षण पर जम गई. वे दोनों लोग धुर आरक्षण विरोधी थे. आरक्षण के पक्ष में कोई सामाजिक-राजनीतिक तर्क उन्हें स्वीकार नहीं था. देश, समाज और मानवता के हित में उनके अपने 'तर्क' थे, जिनका वास्तविकता और तथ्यों से संबंध नहीं था. दुकानदार ने अंतत: कहा कि आरक्षित कोटे के डाक्टरों को केवल आरक्षित वर्ग के लोगों का इलाज़ करने देना चाहिए. दूसरे मरीजों को मारने का उन्हें क्या हक़ है? उन्होंने स्पष्ट कहा कि आरक्षण राजनैतिक पार्टियों की मज़बूरी हो सकती है, देशवासियों की मज़बूरी क्यों बने? बहस में ज्यादातर वहां बैठा युवक ही बोला. हम लोग म्याऊं-म्याऊं करते रहे. आखिर हम सबने चलने में ही भलाई समझी.

मैंने यह गौर किया कि वे दोनों लोग पूरी बहस में अनर्गल थे, लेकिन उग्र बिलकुल नहीं थे. युवक हँस-हँस कर सारी बात कर रहा था. हो सकता है दुकानदार का साथी भी छोटा-मोटा दुकानदार हो और उनका वैसा व्यवहार दुकानदारी के धर्म से जुड़ा हो. यह भी हो सकता है वे स्वभाव से अच्छे लोग हों. निकलने से पहले मैंने दुकानदार के साथी से पूछ लिया कि 2019 में क्या करा रहे हो? उसने आत्मविश्वास के साथ कहा, 'पिछली बार की तरह केंद्र में मोदी और दिल्ली में केजरीवाल को लाना है'.

पुनश्च : नरेंद्र मोदी ने गांधी और अम्बेडकर को एक साथ अपनी जेब में डालने का कौतुक किया तो अम्बेडकरवादी और कुछ कम्युनिस्ट बुद्धिजीवियों ने हमला बोला कि आरएसएस अम्बेडकर को नहीं पचा सकता. गोया उन सबने अम्बेडकर को पूरा आत्मसात किया हुआ है! और आरएसएस के इस्तेमाल के लिए अम्बेडकर में कुछ बचा ही नहीं है! गांधी पंचायती बच्चा है ही. स्वार्थ पड़े तो पुचकार दो, नहीं तो लतियाए रखो. उस समय हमारे मन में ख़याल आया था कि आरएसएस पहले गांधी को लात मार कर नीचे गिराएगा या अम्बेडकर को? लगता है गांधी की बारी पहले आएगी. 'हिंदू राष्ट्र' का कुछ स्थायित्व होते ही आरएसएस साफ़ तौर पर कह देगा - गांधी की हत्या उसी की योजना थी. तब पूरे राष्ट्र में खुल कर मिठाई बांटी जायेगी - पूरी योजना के तहत. अगर किन्हीं साथियों को हमारी स्थापना से मतभेद है तो बेशक बताएं. हम विस्तार से जवाब देने के लिए तैयार हैं.  

Thursday, 19 July 2018

सबक सिखाने के दौर में

सबक सिखाने के दौर में

प्रेम सिंह



सामाजिक एक्टिविस्ट स्वामी अग्निवेश पर हुए हमले की जहां ठीक ही कड़ी निंदा की जा रही है, वहीँ कई लोग स्वामी जी के कुछ पूर्व प्रकरणों का हवाला देकर इसे सही परिणति बता रहे हैं. यह निश्चित ही दुर्भाग्यपूर्ण है. जिन्हें उनके विचारों और कार्यों से सहमति नहीं है, वे अपना मत रखने के स्वतंत्र हैं. वे उनका विरोध करने के लिए भी स्वतंत्र है. हालाँकि, ऐसा करते हुए उन्हें स्वामी अग्निवेश की पृष्ठभूमि पर भी नज़र डालनी चाहिए.

     इधर देखने में आ रहा है कि संघी ब्रिगेड के 'हिंदुत्ववादी लुम्पनों' के हमलों से त्रस्त कुछ साथी उन्हें सबक सिखाने के लिए दलित, पिछड़े, आदिवासी, अल्पसंख्यकों की एकजुटता का आह्वान करते हैं. स्वामी अग्निवेश पर हुए हमले की प्रतिक्रिया में भी यह स्वर काफी उभर का आ रहा है. कुछ साथियों ने ललकारा है कि जब दलित, पिछड़े, आदिवासी, अल्पसंख्यकों का एका हो जायेगा, तब हिंदुत्ववादी लुम्पनों की खैर नहीं रहेगी. आरएसएस का हिंदूत्व और उससे जुड़ा गर्व पराजित मानसिकता की कुंठा से पैदा होता है. इसीलिए वह हमेशा नकारात्मक बना रहने के लिए अभिशप्त है. साथियों की दलित, पिछड़े, आदिवासी, अल्पसंख्यकों की एकजुटता से हिंदूत्ववादी लुम्पनों को सबक सिखाने की ललकार भी सकारात्मक नहीं कही जा सकती. यह एक तरह से कुंठित आक्रोश की पुकार है.

      इस सन्दर्भ में पहला निवेदन यह है कि दलित, पिछड़े, आदिवासियों का एका आरएसएस/भाजपा के साथ बखूबी हो चुका है और चल रहा है. आरएसएस/भाजपा का 'एकात्म' नवउदारवाद/नवसाम्राज्यवाद के साथ हो चुका है. कहने की जरूरत नहीं है कि आरएसएस/भाजपा के साथ एकजुट दलित, पिछड़े, आदिवासियों का भी. जहाँ तक अल्पसंख्यक मुसलामानों की बात है, वे कितने दिनों तक अलगाव में रह कर आरएसएस/भाजपा का विरोध करते रह सकते हैं? आखिर वे भी हम सब जैसे भारतवासी हैं. उन्हें भी दीन के साथ कुछ न कुछ सत्ता का सहारा चाहिए. आरएसएस शिया मुसलमानों में घुस कर काम कर रहा है. इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि आरएसएस का काम देर से ही सही, परिणाम लेकर आता है. वर्ना आज हालत यह नहीं होती कि उसने समस्त वैज्ञानिक, प्रगतिशील और क्रन्तिकारी चिंतन की धाराओं को एक 'पांचजन्य' से पीट दिया है! वैसे भी मुसलमान इतना जानता है कि वह किसी भी सूरत में हिंदूत्ववादी लुम्पनों की खुली कुटाई नहीं कर सकता. दलित, पिछड़े और आदिवासी ही उसे सबक सिखा देंगे!   

      दूसरा निवेदन है, अगर इस देश के बुद्धिजीवियों को दलित, पिछड़े, आदिवासी, अल्पसंख्यकों को हिंदूत्ववादी लुम्पनों को सबक सिखाने के लिए ही एकजुट करना है, तो स्वीकार कर लेना होगा कि लोहिया का आह्वान - 'जिंदा  कौमें पांच साल इंतज़ार नहीं करतीं - उनका एक मुगालता था. लोहिया ने यह समझ कर कि अस्मिता का विमर्श और राजनीति दक्षिणपंथी ताकतों की सहायक न बन जाएं, राजनीति में दलित, पिछड़े, आदिवासी, महिला, अल्पसंख्यकों की एकजुटता का सूत्र दिया था. इसके पीछे उनका नई भारतीय सभ्यता के निर्माण का स्वप्न था, जिसे आधुनिक विश्व में अपनी जगह बनानी थी. उनकी परिकल्पना में भारत की आबादी का यह अधिकांश हिस्सा उपनिवेशपूर्व की ब्राह्मणवादी विचारधारा और उपनिवेशकालीन पूंजीवादी विचारधारा के शिकंजे से कमोबेस मुक्त रहा है. इन समूहों की एकजुटता से लोकतंत्र में राजनीतिक सत्ता हासिल करके दुनिया के सामने ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद से अलग बराबरी की नई व्यवस्था कायम की जा सकती है. उसी दिशा में आगे बढ़ने के लिए उन्होंने विशेष अवसर का सिद्धांत (आरक्षण) रखा था. लोहिया के इस सूत्र का अभी तक वोट की राजनीति के लिए ही इस्तेमाल हुआ है. आरएसएस/भाजपा ने भी देखा-देखी वह कर लिया.

      अगर बुद्धिजीवी कह रहे हैं कि इन समूहों की एकजुटता से हिंदूत्ववादी लुम्पनों को सबक सिखाना है, तो यह वोट की राजनीति से भी पीछे जाने वाली बात होगी. कारपोरेट पूंजीवाद देश के नेताओं को ही नहीं, बुद्धिजीवियों को भी नचा रहा है. ध्यान दिला दें, हिंदूत्ववादी लुम्पनों को सबक सिखाने के लिए दलित, पिछड़े, आदिवासी, अल्पसंख्यकों की एकजुटता का आह्वान करने वाले बुद्धिजीवी धुर आरक्षण विरोधी अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल के समर्थन में 'भीड़' बन गए थे!  

स्वामी अग्निवेश पर हमला निंदनीय और आपराधिक

प्रेस रिलीज़
स्वामी अग्निवेश पर हमला निंदनीय और आपराधिक

               
 सोशलिस्ट पार्टी सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश पर झारखण्ड के पाकुड़ शहर में कल हुए हमले की कड़ी निंदा करती है. पार्टी की नजर में यह आपराधिक कृत्य है. खबरों से यह साफ़ पता चलता है कि हमला करने वाले आरएसएस/भाजपा से जुड़े लोग हैं. झारखंड में भाजपा की सरकार है. ज़ाहिर है, हमला करने वालों को यह भरोसा रहा होगा कि कानून हाथ में लेने के बावजूद उनका कुछ नहीं बिगड़ पाएगा. भारतीय जनता युवा मोर्चा और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के पदाधिकारियों का यह कहना सही नहीं माना जा सकता कि उन्होंने स्वामी अग्निवेश के खिलाफ केवल प्रतिरोध का आयोजन किया था. अगर हमला उन्होंने नहीं किया तो फिर वे कौन लोग थे?
               
यह अच्छी बात है कि मुख्यमंत्री रघुबर दास ने घटना की जांच का आदेश दिया है और पुलिस प्रशासन ने 92 अनाम और 8 नाम सहित आरोपियों पर प्राथमिकी दर्ज की है. आरोपियों पर लगाई गई धाराओं में जानलेवा हमला भी शामिल है. अगर राजनैतिक नेतृत्व, पुलिस प्रशासन और न्यायपालिका भीड़ द्वारा की जाने वाली हिंसा और नागरिकों की हत्याओं पर त्वरित कार्रवाई करे तो तेज़ी से फ़ैल रही इस खतरनाक प्रवृत्ति पर काबू पाया जा सकता है.
      
सोशलिस्ट पार्टी झारखंड राज्य सरकार से मांग करती है कि स्वामी अग्निवेश पर जानलेवा हमला करने वाले लोगों पर त्वरित कार्रवाई करे और दोषियों को कानून के तहत सजा दिलवाए. स्वामी अग्निवेश एक चर्चित और सम्मानित नागरिक हैं. उन पर इस तरह सरेआम हमला कानून-व्यवस्था पर तो चोट है ही, इससे उनके मित्रों और समर्थकों की भावनाओं को भी चोट पहुंची है. सोशलिस्ट पार्टी उनके प्रति सहानुभूति और समर्थन व्यक्त करती है.

डॉ. अभिजीत वैद्य
प्रवक्ता       

Attack on Swami Agnivesh is a deplorable and criminal act

   Press release
Attack on Swami Agnivesh is a deplorable and criminal act


     The Socialist Party strongly condemns the recent attack on social activist Swami Agnivesh that took place in Pakur city of Jharkhand. The Socialist Party terms the act as criminal. It is clear from the reports that the attackers are persons belonging to the RSS/BJP. There is BJP government in Jharkhand. Therefore, the attackers might have thought that despite taking the law into their hands, nothing would happen to them. The clarification given by the office bearers of Bharatiya Janata Yuva Morcha (BJYM) and Akhil Bharatiya Vidyarthi Parishad (ABVP) that they had merely organized resistance against Swami Agnivesh, cannot be accepted as right. If not them, then, who were the other people involved in the attack on Swami Agnivesh?
     It is good that the Chief Minister Raghubar Das has ordered an inquiry and police administration has registered an FIR against accused, which includes 92 unnamed persons and 8 with names. The sections imposed on the accused include the attempt to murder. If the political leadership, police administration and judiciary mobilize prompt action on the incidents of mob violence and mob lynching, this fast spreading and dangerous trend could be controlled.
            The Socialist Party urges the Jharkhand State government to take immediate action against those who made this murderous attack on Swami Agnivesh, and to punish the culprits under the law. Swami Agnivesh is a well known and respected citizen. The attack on him has not broken law and order but has also caused deep injury to the sentiments of his friends and followers. The party expresses support and concern towards him.

Dr. Abhijit Vaidya
Spokesperson

Tuesday, 3 July 2018

US pressure on Modi's foreign policy

3 July 2018
Press release

Prime Minister Narendra Modi's so-called aggressive foreign policy is once again ready to surrender the political sovereignty of the country to American imperialism. After breaking the nuclear treaty with Iran the American President Donald Trump has told all countries of the world that they should completely stop importing oil from Iran until November 4. Nikki Haley, the visiting representative of the United States in the United Nations, has given the same message to the Prime Minister of India in stern words. She has said that India should rethink its relations with Iran, because America considers Iran a threat to world peace. Haley  said that Iran is going to prove next North Korea. However, in reality the US has recently made an agreement with North Korea with a great fanfare. Due to the engagement of the US representative in connection with the same deal, the India-US dialogue on July 7 has been canceled.

The explanation of Ravish Kumar, spokesperson of the Ministry of External Affairs, did not have any special effect on Nikki. Ravish has said that relations between India and Iran are very old. India is the largest importer country of hydrocarbons from Iran. Indian Oil wanted to buy 7 million tons of crude oil from Iran by March next. In May, India imported 771,000 barrels of oil per day from Iran. The biggest difficulty after the US pressure would be the cash payment. It is not clear how India will pay for the import of crude oil of $ 10 billion. India's oil companies have prepared a flexible plan for the payment along with making payment to Iran in certain items. These items include things like wheat and medicines.

Here the real question arises. Is India's tilt under American pressure not a challenge to its political and economic sovereignty? The ruling class of India and the advocates of capitalism world over do not exhaust stating India as a fast emerging superpower. The Socialist Party wants to ask if the superpower India has no right to decide who to befriend and whom to do business with? It seems that pomposity of 'aggressive' foreign policy of Modi is only to mislead the people of the country.

At the time when India had prepared to build a gas pipeline from Iran, the then Bush administration had forced India to enter into nuclear agreement and had pressurized her to break the gas agreement with Iran. Today, when India was dependent on Iran to meet its energy needs, then it is being forced to rely on Saudi Arabia and other countries. Meanwhile, under the pressure of the US, India continued to vote against Iran in the International Atomic Energy Agency. Yet Iran has continued to have friendship with India. The reason for this is that India has had a stable  Iran policy for a long time. Recently, Prime Minister Modi appeared to be growing in friendship with Iran. But it seems that under the American pressure, he is ready to overturn India's established Iran policy.

The Socialist Party would like to caution the citizens - if it happens, India's image as a sovereign nation will be weak in the world and its interests will be damaged. Therefore, the Socialist Party demands that the Modi-government should not sacrifice India's long-tested Iran policy under the American pressure.


Dr. Abhijit Vaidya
Spokesperson

मोदी सरकार की विदेश नीति पर अमेरिकी दबाव

3 जुलाई 2018
प्रेस रिलीज़



प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तथाकथित आक्रामक विदेश नीति एक बार फिर अमेरिकी साम्राज्यवाद के आगे राजनीतिक संप्रभुता के समर्पण के लिए तैयार है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने ईरान से नाभिकीय संधि तोड़ने के बाद दुनिया के तमाम देशों से कह दिया है कि वे चार नवंबर तक ईरान से तेल का आयात पूरी तरह बंद कर दें। संयुक्त राष्ट्र में अमेरिका की विजिटिंग प्रतिनिधि निक्की हेली ने यही संदेश भारत के प्रधानमंत्री को कड़े शब्दों में दिया है। उन्होंने कहा है कि भारत ईरान के साथ अपने संबंधों पर पुनर्विचार करे, क्योंकि अमेरिका ईरान को विश्व-शांति के लिए खतरा मानता है। हेली का कहना था कि ईरान अगला उत्तर कोरिया साबित होने जा रहा है। हालांकि हकीकत यह है कि अमेरिका ने हाल में गाजे-बाजे के साथ उत्तर कोरिया से समझौता कर लिया है। उसी समझौते के सिलसिले में अमेरिकी प्रतिनिधि की व्यस्तता के कारण इसी सात जुलाई को होने वाली भारत-अमेरिका वार्ता रद्द कर दी गई है।

भारतीय विदेश विभाग के प्रवक्ता रवीश कुमार के स्पष्टीकरण का निक्की पर कोई विशेष असर नहीं पड़ा है। रवीश ने कहा था कि भारत और ईरान के संबंध बहुत पुराने हैं। भारत ईरान से हाइड्रोकार्बन का सबसे बड़ा आयातक देश है। इंडियन आयल अगले मार्च तक 70 लाख टन कच्चा तेल खरीदना चाहता था। मई में भारत ने ईरान से 771000 बैरल तेल प्रतिदिन की दर से आयात किया था। अमेरिकी दबाव के बाद सबसे बड़ी दिक्कत नकद भुगतान को लेकर है। भारत 10 अरब डालर के कच्चे तेल के आयात का भुगतान कैसे करेगा, यह स्पष्ट नहीं हो पा रहा है। एक तरफ भारत की तेल कंपनियों ने वैकल्पिक योजना तैयार कर रखी है, तो दूसरी ओर ईरान को वस्तु के रूप में भुगतान करने की तैयारी भी है। इन वस्तुओं में गेहूं और दवाइयां जैसी चीजें शामिल हैं।

यहां असली सवाल यह है कि अमेरिकी धमकी पर भारत का झुकना क्या उसकी राजनीतिक और आर्थिक संप्रभुता को चुनौती नहीं है? भारत का शासक वर्ग और दुनियां में पूंजीवाद के पैरोकार भारत को एक तेज़ी से उभरती महाशक्ति बताते नहीं थकते। सोशलिस्ट पार्टी पूछना चाहती है कि क्या महाशक्ति भारत को यह तय करने का हक नहीं है कि वह किससे दोस्ती करे और किससे व्यापार करे? लगता यही है कि 'आक्रामक' विदेश-नीति के नाम पर की जाने वाली सारी फू-फां केवल देश की जनता को गुमराह करने के लिए है।

जिस समय भारत ने ईरान के साथ गैस पाइप लाइन बनाने की तैयारी कर ली थी, तब भी तत्कालीन बुश प्रशासन ने भारत को नाभिकीय समझौते के लिए मजबूर किया था और ईरान से गैस का संबंध तोड़ने का दबाव बनाया था। आज जब भारत अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए ईरान पर निर्भर था, तब फिर उसे सऊदी अरब व दूसरे देशों पर निर्भर होने के लिए मजबूर किया जा रहा है। इस बीच अमेरिकी दबाव में भारत ने लगातार अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी में ईरान के विरुद्ध मतदान भी किया। फिर भी ईरान ने भारत से मैत्री जारी रखी है। इसका कारण है कि भारत की लम्बे समय से एक सुनिश्चित ईरान नीति चली आ रही है। हाल में प्रधानमंत्री मोदी ईरान से दोस्ती की पेंगे बढ़ाते दिखे थे। लेकिन लग यही रहा है कि अमेरिकी दबाव पड़ते ही वे भारत की स्थापित ईरान नीति पर पलटी मारने को तैयार हैं।

सोशलिस्ट पार्टी का मानना है ऐसा होने से एक संप्रभु राष्ट्र के रूप में भारत की छवि दुनियां में कमजोर होगी और उसके हितों को नुकसान पहुंचेगा। सोशलिस्ट पार्टी मोदी-सरकार से मांग करती है कि उसे अमेरिकी दबाव में भारत की पुख्ता ईरान नीति का त्याग नहीं करना चाहिये।


डॉ. अभिजीत वैद्य
प्रवक्ता  

नदियां साफ करो



नदियां साफ करो
डॉ. राममनोहर लोहिया

 
            आज मैं आपसे एक बात ऐसी करूँगा जिसे धर्म के आचार्यों को करनी चाहिए, लेकिन वे नहीं कर रहे हैं | वे तो गलत और गैरजरूरी कामों में फंसे हुए हैं | मैं अपने लिए कह देता हूं कि मैं नास्तिक हूँ | कोई यह न समझ बैठे कि ईश्वर से मुझे मुहब्बत हो गई है |

            हिन्दुस्तान का मौजूदा जीवन और पुराना इतिहास सभी, बहुत-कुछ नदियों के साथ-साथ चला, यों सारी दुनिया में, लेकिन यहाँ ज्यादा | अगर मैं राजनीति न करता और स्कूल में अध्यापक होता, तो इसके इतिहास को समझता | राम की अयोध्या सरयू के किनारे, कुरु सुर पंचाल और मौर्य तथा गुप्त गंगा के किनारे, और मुग़ल और शौरसेनी नगर और राजधानियां यमुना के किनारे रहीं | बारहों मॉस पानी के कारण, शायद विशेष जलवायु के कारण, या हो सकता है, विशेष संस्कृति के कारण ऐसा हुआ हो | एक बार मैं महेश्वर नाम के स्थान पर गया, जहां अहिल्या अपनी ताकत से गद्दी पर बैठी थी | वहां पर एक संतरी था | उसने पूछा कि तुम किस नदी के हो ? दिल में घर कर जाने वाली बात है | उसने शहर नहीं पूछा, भाषा भी नहीं, नदी पूछी | जितने साम्राज्य बढे, किसी न किसी नदी के किनारे बढे-चोल कावेरी के किनारे, पंड्या वैगई के और पल्लव पालार के किनारे बढे |

            आज हिन्दुस्तान में 40 करोड़ लोग बसते हैं | एक-दो करोड़ के बीच रोजाना किसी न किसी नदी में नहाते हैं और 50-60 लाख पानी पीते हैं | उनके मन और क्रीडाएं इन नदियों से बंधे हैं | नदियाँ हैं कैसी ? शहरों का गंदा पानी इनमें गिराया जाता है | बनारस के पहले जो शहर है, इलाहाबाद, मिर्जापुर, कानपुर, इनका मैला कितना मिलाया जाता है इन नदियों में | कारखानों का गंदा पानी नदियों में गिराया जाता हैं-कानपुर के चमड़े आदि का गंदा पानी | यह दोनों गंदगियाँ मिलकर क्या हालत बनाती हैं ? करोड़ो लोग फिर भी नहाते हैं और पानी पीते हैं | इस समस्या पर मैं, साल से ऊपर हो गया, कानपुर में बोला था |

            तैराकी का खेल दुनिया में सबसे ज्यादा खेला जाता है -क्रिकेट, हॉकी, फुटबॉल से ज्यादा | क्रिकेट कह गया | यह तो पाजी, पुराने सामंतों और जमींदारों का खेल है | यूरोप, अमेरिका में तैराकी के तालाब बनाए जाते हैं | अरबों रुपये खर्च होते हैं | वैसे तालाब यहाँ नहीं हैं | अगले 50-100 वर्षों में रूस और अमरीका के जैसे तैराकी के तालाब यहाँ नहीं बन सकते | जो राजा हैं या गद्दी पर बैठने का मंसूबा रखते हैं, वे थोड़े ही नहाने जाते हैं | वे तो आधुनिक हो गए हैं, किन्तु इतने आधुनिक भी नहीं कि करोड़ों के दुःख-दर्द का इलाज कर सकें |

            क्या हिन्दुस्तान की नदियों को साफ़ रखने और करने का आन्दोलन उठाया जाए ? अगर यह काम किया जाए तो दौलत के मामले में भी फायदा पहुंचाया जा सकता है | मल-मूत्र और गंदे पानी की नालियां खेतों में गिरें | उनको गंगामुखी या कावेरिमुखी न किया जाए | दूर, कोई 10-20 मील पर नालियों द्वारा मल-मूत्र ले जाया जाए | खर्च होगा | दिमाग के ढर्रे को बदलना होगा | मुमकिन है, इस योजना में अरबो रुपयों का खर्च हो | 2,200 करोड़ रूपए सरकार हर साल खर्च करती है | पंचवर्षीय योजना के कुछ काम बंद करने होंगे, हालांकि इसमें रूकावटे जबरदस्त हैं | राजनैतिक व्यक्ति, चाहे गद्दी पर हो चाहे बाहर, अपने दिमाग से नकली यूरोपी हो गए हैं | कौन हैं हिंदुस्तान के राजा ? करीब एक लाख लोग होंगे, या उससे भी कम, जो थोड़ी बहुत अंग्रेजी जानते हैं, कांटे-छुरी से खाना और कोट-टाई पहनना जानते हैं | ताकतवर दुनिया के प्रतिक हैं | पंडित नेहरु मूर्ति हैं ऐसी दुनिया की | किसी कदर श्री संपूर्णानंद भी मूर्ति हैं, हालाँकि शक्ल में भिन्न हैं और यूरोपी जैसे नहीं लगते | श्री नेहरु भी अमरीका में तो रंगीन ही समझे जाएंगे |

            बनारस में विश्वनाथ को लेकर झगड़ा चला | दूसरा मंदिर बनाया जा रहा है | किस विश्वनाथ का झगड़ा चला-ब्राह्मणनाथ अथवा चमारनाथ ? इन बातों में हिन्दू दिमाग बे मतलब फंस जाता है | करपात्री जी, जैसा मैंने कहा  वैसे करते तो अच्छा होता | किस दुनिया के सहारे चलते हैं ये ? ये लोग करोड़पति और राजस्थान के राजाओं के नुमाइंदे हैं | एक विश्वनाथ की जगह पर दो खड़ा करने से काम नहीं चलेगा | सारे राष्ट्र के निर्माण की बात है | बेहद गरीबी है | वह कैसे मिटे ?

            आखिर पलटन में आज सिपाही कौन हैं ? गरीबों के लड़के | वे ही गरीबों पर गोली चलाते हैं | वही खड़गवासला, देहरादून और सैंडहर्स्ट के नकली यूरोपी रंग में रंगे अफसर का हुक्म मानते हैं | उनके पास पैसा है, साधन हैं, और आधुनिक दुनिया के प्रतिक वे हैं ही | करोड़ो से उनका क्या वास्ता ? आज राजगद्दी चलाने वाले हैं कौन ? नकली आधुनिक विदेशी लोग - दिमाग ज़रा भी हिन्दुस्तानी नहीं, नहीं तो हिन्दुस्तान की नदियों की योजना बन जाती | मैं चाहता हूँ कि इस काम में, न केवल सोशलिस्ट पार्टी के, बल्कि और लोग भी आएं, सभाएं करें, जुलूस निकालें, सम्मेलन करें और सरकार से कहें कि नदियों के पानी को भ्रष्ट करना बंद करो | फिर सरकार को नोटिस दें कि 3 से 6 महीने के भीतर वह नदियों का गंदा पानी खेतों में बहाए, इसके लिए ख़ास खेत बनाए, और वह अगर यह न करें तो मौजूदा नालियों को तोड़ना पड़ेगा | इससे हिंसा नहीं होती |

कबीर ने कहा था :
            माया महा ठगिनि हम जानी |
            तिरिगुन फांस लिए कर डोलै,
            बोलै मधुरी बानी |
            केसो के कमला होए बैठी,
            सिव के भवन भवानी |
            पंडा के मूरित होय बैठी,
            तीरथ महं भई पानी |

सब अपने ढंग से इसका अर्थ लगाते हैं | तीर्थ है क्या-पानी | पानी को साफ़ करने के लिए आन्दोलन चाहिए | लोगों को सरकार से कहना चाहिए - बेशर्म, बंद करो यह अपवित्रता ! यह सही है कि दुनिया से सीखना है, लेकिन करोड़ो का ध्यान रखना है | मैं फिर कहता हूँ कि मैं नास्तिक हूँ | मेरे साथ तिर्थबाजी का मामला नहीं है | मुख्य बात यह है कि 30 लाख का देश बने या 40 करोड़ का | इसके लिए अगर कुछ लोग आन्दोलन करना चाहें तो मैं मदद करूँगा |


Sunday, 1 July 2018

मृत्यु - विश्वासघात का कृत्य





मधु दंडवते
संभव है कि मृत्यु ही जीवन को तुम्हारा अंतिम उपहार हो, परंतु यह विश्वासघात का कृत्य नहीं होना चाहिए |                                - डाग हैमरशोल्ड

2 जुलाई 1950 | सूर्य उगने से पहले ही भोर बेला में युसुफ़ मेहरअली की जीवन ज्योति बंबई के जस्सावाला नर्सिंग होम में बूझ गयी | युसुफ़ के घनिष्ठ मित्र और सहकर्मी जयप्रकाश नारायण अंतिम क्षणों में उनके साथ थे | उन्होंने अश्रुपूर्ण नेत्रों से उनको दम तोड़ते देखा | ऊर्जा और गतिशीलता से भरपूर एक स्पंदनशील जीवन का समय से पूर्व ही 47 वर्ष के अल्पायु में अवसान हो गया | यह हृदयद्रावक समाचार जंगल की आग की तरह देशभर में फैल गया तथा  युसुफ़ के प्रति सौहार्दपूर्ण और संवेदनशील श्रद्धांजलि दी जाने लगीं | भावना के आवेग में जयप्रकाश नारायण ने कहा :
"मैं युसुफ़ मेहरअली की जीवन को सर्वदा समर्पण की एक ऐसी अभिव्यक्ति के रूप देखता रहूँगा           जिसका स्थान गांधी जी के बाद सर्वप्रथम है |"

राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने युसुफ़ की स्मृति में श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहा :
"मेरे लिए वे एक आत्मीय मित्र और देश के एक समर्पित सेवक थे | अल्पायु में ही उनके निधन से हमारे सार्वजनिक जीवन को भारी क्षति पहुंची है |"

प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने मेहरअली की मृत्यु पर टिप्पणी करते हुए कहा :
"मुझे यह जानकर गहरा दुःख हुआ कि युसुफ़ मेहरअली का बंबई में निधन हो गया | एक लम्बी बीमारी ने उन्हें पंगु बना दिया था तथापि उनके चेहरे पर सदा मुस्कान खेलती रहती थी | वे अपने  परिचितों के लिए एक प्रिय मित्र थे | वे देश के स्वतंत्रता संग्राम के एक वीर तथा दुर्दमनीय सेनानी तो थे ही, उनके चरित्र में उच्चकोटि की प्रामाणिकता का विरल गुण भी विद्यमान था जिसके कारण वे सबके लिए आदर के पात्र बन गए थे | इस उदार मानव और प्रिय मित्र के निधन से हमें भारी क्षति पहुंची है |"

आचार्य नरेंद्र देव ने कहा :
"मेहरअली एक शक्तिशाली और गतिशील व्यक्तित्व के धनि तथा भारतीय राजनीति में अपने ढंग के एक अनूठे व्यक्ति थे |"

आचार्य कृपलानी ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कहा :
"मेहरअली आदि से अंत तक भारतीय थे अर्थात उनमें उन सभी तत्वों का सामंजस्यपूर्ण संयोग हुआ था, जिन्होंने आधुनिक भारत का निर्माण किया है |"

डॉ. राममनोहर लोहिया ने अपनी श्रद्धांजलि में उनका वर्णन इस प्रकार किया :
"मेहरअली का जीवन राजनीतिक दलों तथा धर्मों के बीच आपसी मतभेदों की खाई को आदर्शों और मानवाहित के प्रति प्रेम से पाटने का एक जीता-जागता उदाहरण था |"

अशोक मेहता ने युसुफ़ को 'समाजवादी आन्दोलन का अंतःकरण' बताया तथा कहा :
"रोग ने उनका शरीर नष्ट कर दिया था परंतु वह उनकी आत्मा को तनिक भी घायल नहीं कर पाया|"

कमला देवी चट्टोपाध्याय ने अपने श्रद्धापूर्ण सन्देश में कहा :
" युसुफ़ मेहरअली एक विलक्षण व्यक्ति थे | उनके निधन से उनकी मित्रमंडली में एक अपूरणीय रिक्तता की चेतना व्याप्त हो गयी है | उनकी आत्मीयतापारक मानवीयता और अपने प्रत्येक साथी में व्यक्तिगत दिलचस्पी लेने तथा उसके हितों का ध्यान रखने की वृति ने उन्हें एक महामानव बना दिया था | साहस और बलिदान के महान कार्य तो बहुत लोग सम्पन्न कर सकते हैं किन्तु व्यक्ति के चरित्र की महानता निर्बलता के प्रति उसकी उदारता तथा दयालुता पर निर्भर करती है | निर्भय तथापि कोमल, साहसी तथापि उदार, प्रत्येक बलिदान के लिए तैयार तथापि प्रेम और स्नेह से परिपूर्ण मेहरअली एक अनूठे पुरुष थे | उन्हें ऐसे समर्पित मित्र तथा निष्ठावान सहकर्मी प्राप्त हुए जो विविध राजनीतिक पक्षों  और धर्मों के अनुयायी थे | युसुफ़ सभी के लिए उस जीवनसूत्र का मूर्त स्वरुप बन गए थे, जो स्वयं उन्हें अत्यंत प्रिय था : 'खतरों में जियो' |"

बॉम्बे क्रानिकल ने युसुफ़ मेहरअली के प्रति अपनी श्रद्धांजलि अपने एक संपादकीय लेख द्वारा अर्पित की, जिसमें कहा गया था :
" ऐसे संसार में जहां ढेरों असत्य खुले में फैला हुआ है और ढेरों सत्य नीचे दबा पड़ा है, एक ऐसे व्यक्ति के अभाव को शब्दों द्वारा नहीं आँका जा सकता जो सादगी और पारदर्शी निश्छलता का प्रतीक बन गया था |"

          युसुफ़ मेहरअली बम्बई विधान सभा के सदस्य थे, इस नाते राज्य विधानमंडल के सदस्यों ने भी उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की |
          मुंबई के मुख्यमंत्री बी. जी. खेर ने युसुफ़ मेहरअली के बारे में कहा : "वे एक ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने अपने आपको कर्म में निचोड़ डाला |"

          विधानसभा में युसुफ़ मेहरअली के समाजवादी सहकर्मी पीटर अलवारिस ने कहा : "वे उग्रता और मधुरता का मिश्रण थे | उनकी चिंता का एक मात्र विषय प्रत्येक मनुष्य का हित था, स्वार्थ नहीं |"

          युसुफ़ को समर्पित इन सब श्रद्धांजलियों में जो सत्य उजागर हुआ है वह अगले पृष्ठों में प्रस्तुत उनके जीवनचरित से प्रमाणित होता है |

          युसुफ़ की मृत्यु के पश्चात उनके पार्थिव शरीर को पहले समाजवादी दल के लाल झंडे में और फिर तिरंगे राष्ट्रिय झंडे में लपेटकर स्वाधीनता संग्राम के पावन गौरव से जुड़े बंबई के जिन्ना हॉल में रखा गया जिससे कि हजारों नागरिक अपने उस प्रिय युवा नेता के अंतिम दर्शन कर सकें जिसे मृत्यु ने विश्वासघात करके उनसे छीन लिया था | मृत्यु ने जीवन की डाली से एक ऐसा फूल तोड़ लिया था जो पूरी तरह खिल भी नहीं पाया था |

          युसुफ़ मेहरअली की शवयात्रा सायंकाल ठीक चार बजे प्रारम्भ हुई | युसुफ़ की इस अंतिम यात्रा में मोरारजी देसाई, जीवराज मेहता, गणपति शंकर देसाई, नगीनदास टी. मास्टर, एन. एम. चोकसी, मीनू मसानी, आबिद अली जाफर भाई, सिरखे स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों तथा जयप्रकाश नारायण, डॉ. राममनोहर लोहिया, अशोक मेहता, एम. हैरिस, अचुत्य पटवर्धन, एन. जी गोरे, एस. एम. जोशी सरीखे युसुफ़ के समाजवादी सहकर्मीयों के अतिरिक्त हजारों औद्योगिक श्रमिक, गुमाश्ते, युवा बुद्धिजीवी और मध्यवर्गीय कर्मचारी भी शामिल हुए | यह सोचकर आज भी दुःख होता है कि एक निर्भीक राजनीतिज्ञ और उत्कट समाज सुधारक युसुफ़ को जिस समय कब्रिस्तान ले जाया जा रहा था, उनके अनेक सहधर्मियों ने उस अंतिम घड़ी में भी उनके साथ चार कदम चलने और उन्हें अपनाने से इंकार कर दिया था | उनमें से कुछ ने तो शवयात्रा को सामने से गुजरते देखकर रोषपूर्वक अपने घरों की खिड़कियाँ तक बंद कर ली थीं | युसुफ़ अपनी सुधारवादी और क्रन्तिकारी भावना के कारण ही उनके क्रोधभाजन बन गए थे |

          रोग की यंत्रणाओं से जर्जर युसुफ़ मेहरअली की देह बंबई के डोंगरी कब्रिस्तान में संगमरमर की एक कब्र में शाश्वत शान्ति में सोयी पड़ी है, परंतु जैसा कि उनके साथी अशोक मेहता ने ठीक ही कहा था - 'वह पंगुकारी रोग उनकी आत्मा को तनिक भी घायल नहीं कर पाया |' उनकी आत्मा की ज्योतिर्मयी शालीनता आज तक उनके लोगों को मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध समर्पित जीवन जीने की प्रेरणा दे रही है | यही वह धरोहर है जो युसुफ़ अपने पीछे छोड़ गए हैं |    



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