Saturday, 18 August 2018

Declare Kerala Floods as a 'National Disaster'

Hyderabad, 18 August 2018
PRESS RELEASE


From:
Socialist Party(India)-Telangana
Hyderabad
To:
The Prime Minister of India
Government of India
New Delhi
Dear Prime Minister,
We urge you to declare Kerala Floods, that you have just surveyed, as a 'National Disaster'.
Even as the Kerala state is reeling under distress of floods of unprecedented magnitude, the human loss occurring due to being stranded, and lack of vehicle mobility of provisions and medicines to those in relief campus due to landslides, is most likely to cause another catastrophe that must not happen, given that entire country stands with Kerala.
Help should have reached before nation got the chilling distress calls from residents of Kerala.
Declaring as 'National Disaster' will only rush thru the aid from all quarters national and international and help save lives and property.
We appreciate gesture of Government of Telangana of sending nutritional aid and Rs.20 crs aid to Kerala, even though the aid is meagre before the funds squandered in the name of dawat-e-iftars; nosering, moustache, necklace gifts to temples; chadar&nazrana gift to ajmer dargah; batukamma sarees; christmas feast; etc. etc.
We acknowledge the heroic rise to call of duty by our army/navy/Disaster Team who are rescuing from ground/skies and also acknowledge gratefully the bravery by local fishermen helping thru their boats in waters.
Every helping hand is being saluted.
Dr Lubna Sarwath,General Secretary & Spokes Person,
Bandari Babu Rao, President,
Gopal Patangay, Vice-President & Treasurer,
Socialist Party(India)-Telangana
Hyderabad

Thursday, 16 August 2018

संकट, समाधान और बुद्धिजीवी





प्रेम सिंह


वर्तमान भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सरकार ने सभी क्षेत्रों को विदेशी पूंजी के लिए खोल दिया है. देश के संसाधनों और श्रम की लूट इस फैसले के साथ जुड़ी हुई है. सरकार के मंत्री संविधान बदलने सहित अक्सर तरह-तरह की संविधान-विरोधी घोषणाएं करते हैं. शिक्षा का तेज़ी से बाजारीकरण और सम्प्रदायीकरण किया जा रहा है. रोजगार की गंभीर समस्या को प्रधानमंत्री ने प्रहसन में बदल दिया है. न्यायपालिका सहित सभी संवैधानिक संस्थाओं को नष्ट किया जा रहा है. प्रधानमंत्री समेत पूरी सरकार अज्ञान, असत्य, अंधविश्वास, पाखंड, षड्यंत्र, घृणा और प्रतिशोध का अधार लेकर चलती नज़र आती है. सरकारी कर्तव्य और धार्मिक कर्मकांड की विभाजक रेखा लगभग मिटा दी गई है. मानवता, तर्क और संवैधानिक मूल्यों का पक्ष लेने वाले नागरिकों की निशाना बना कर हत्या कर दी जाती है. सरकार के साथ सम्बद्ध गैर-राजकीय संगठन/व्यक्ति योजनाबद्ध ढंग से गौ-रक्षा के नाम पर अल्पसंख्यकों की हत्या कर रहे हैं. भीड़ कहीं भी किसी भी नागरिक को पकड़ कर पीटती है या हत्या कर देती है, पुलिस उपयुक्त कार्रवाई नहीं करती. पूरे देश में कानून-व्यवस्था की जगह भीड़ का राज होता जा रहा है. भारतीय-राष्ट्र गहरे संकट में पड़ गया है. कारपोरेट पूंजीवाद और सांप्रदायिक कट्टरवाद के मुकम्मल गठजोड़ से यह संकट पैदा हुआ है. ऐसी गंभीर स्थिति में संविधान और कानून-व्यवस्था में भरोसा करने वाले नागरिकों का चिंतित होना स्वाभाविक है.

भाजपा की केंद्र के अलावा देश के 22 राज्यों में सरकारें हैं. लिहाज़ा, नागरिकों का यह विचार करना भी स्वाभाविक है कि अगले आम चुनाव में इस सरकार को बदला जाए. अगले लोकसभा चुनाव में वर्तमान सरकार को बदलने की दिशा में विपक्ष प्रयास करता नज़र आता है. हालांकि अभी तक वह कोई पुख्ता रणनीति नहीं बना पाया है, जबकि चुनाव में केवल 9 महीने का समय बाकी रह गया है. यह कहा जा सकता है कि विपक्षी एकता के प्रयासों में संकट के मद्देनज़र वाजिब गंभीरता नहीं है. विपक्षी नेता उपस्थित संकट की स्थिति का फायदा उठा कर सत्ता हथियाने की नीयत से परिचालित हैं. लेकिन लोकतंत्र में इसके अलावा कोई चारा नहीं है कि जो विपक्ष मौजूद है, जनता उसीसे बदलाव लाने की आशा करे. भले ही वह मात्र सत्ता के लिए सरकार का बदलाव हो.     

हालांकि देश का जागरूक नागरिक समाज विपक्ष के सत्ता की नीयत से परिचालित प्रयास को कुछ हद तक संकट के समाधान की दिशा में मोड़ सकता है. संकट के समाधान की दिशा संविधान-सम्मत नीतियों की दिशा ही हो सकती है. संकट के मद्देनज़र इस सच्चाई को समझने में अब और देरी नहीं करनी चाहिए कि प्रचलित कारपोरेट पूंजीवादी नीतियों के साथ आरएसएस/भाजपा का हिंदू-राष्ट्र ही चलेगा. भारतीय-राष्ट्र संविधान-सम्मत नीतियों के साथ ही चल सकता है, जिन्हें कांग्रेस समेत सभी सेक्युलर पार्टियों और बुद्धिजीवियों ने लगभग त्याग दिया है. हिंदू-राष्ट्र के बरक्स भारतीय-राष्ट्र का पुनर्भव होना है तो कारपोरेट परस्त नवउदारवादी नीतियों की जगह संविधान-सम्मत नीतियां अपनानी होंगी. जागरूक नागरिक समाज चाहे तो यह लगभग असंभव दिखने वाला काम हो सकता है. जागरूक नागरिक समाज विविध बुद्धिजीवी समूहों से बनता है. लेकिन भारत के ज्यादातर धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी करीब तीन दशक बाद भी संकट की सही पहचान करने को तैयार नहीं हैं. समाधान की बात तो उसके बाद आती है. वे नवउदारवादी नीतियों को चलने देते हुए संकट के लिए केवल आरएसएस/भाजपा के फासीवादी चरित्र को जिम्मेदार मानते हैं. धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी इस सदी के पहले दशक तक यह कहते थे कि नवउदारवादी नीतियों से बाद में निपट लेंगे, पहले फासीवाद के खतरे से निपटना जरूरी है. लेकिन यह उनका बहाना ही है. फासीवाद के विरुद्ध उनका संघर्ष 2004 में वाजपेयी के नेतृत्व में और 2014 में मोदी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनने से नहीं रोक पाया है. यानी समाज और राजनीति में साम्प्रदायिक फासीवादी शक्तियां तेज़ी से मज़बूत होती गई हैं. इस सच्चाई के बावजूद धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी उपस्थित संकट का समाधान केवल आरएसएस/भाजपा को सत्ता से बाहर करने में देखते हैं. नवउदारवादी नीतियां अब उनके विरोध का विषय ही नहीं रह गई हैं.    

राजनीति को संभावनाओं का खेल कहा जाता है. अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा की हार से संकट के समाधान का मार्ग खुलने की संभावना बनेगी. इसलिए धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों के आरएसएस/भाजपा को परास्त करने के एकल आह्वान की सार्थकता बनती है. भले ही वह नवउदारवादी नीतियों का विरोध हमेशा के लिए ताक पर रख कर चलाया जाए. लेकिन इस संदर्भ में धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों की ईमानदारी (इंटीग्रिटी) का सवाल अहम है. फिलहाल के लिए भी और 2019 के चुनाव में भाजपा की हार हो जाने के बाद के लिए भी. अगर वे आरएसएस/ भाजपा-विरोध के साथ-साथ आरएसएस/भाजपा का समर्थन करने वाले फासीवादी-अधिनायकवादी प्रवृत्तियों से परिचालित नेताओं/पार्टियों का बचाव करते हैं, तो उनके अभियान को विश्वसनीय नहीं माना जा सकता. संकट के प्रति उनकी चिंता भी खोखली मानी जाएगी. बल्कि उनका बुद्धिजीवी होना ही सवालों के घेरे में आ जायेगा. एक ताज़ा प्रसंग लेकर धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों की ईमानदारी की पड़ताल की जा सकती है.

आम आदमी पार्टी ('आप') के सुप्रीमो और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने पिछले दिनों घोषणा की कि यदि केंद्र सरकर दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्ज़ा दे तो वे उसके बदले अगले चुनाव में भाजपा का समर्थन करने को तैयार हैं. हाल में राज्यसभा में उपसभापति के चुनाव में 'आप' के सांसदों ने मतदान में हिस्सा नहीं लिया. पार्टी के एक सांसद ने यह बताया कि विपक्ष के उम्मीदवार का समर्थन करने के लिए केजरीवाल की शर्त थी कि राहुल गांधी उन्हें फोन करें. अब केजरीवाल ने घोषणा की है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपानीत एनडीए के खिलाफ बनने वाले विपक्ष के गठबंधन में वे शामिल नहीं होंगे. ज़ाहिर है, केजरीवाल को आरएसएस/भाजपा की तरफ से कोई संकट नज़र नहीं आता - न अभी, न भाजपा के फिर सत्ता में आने से. उनके नज़रिए से देखा जाए तो कहा जाएगा कि देश में कहीं कोई संकट की स्थिति नहीं है, संकट का केवल हौआ खड़ा किया जा रहा है.  इसमें केजरीवाल को दोष नहीं दिया जा सकता. उन्होंने एक सामान्य मांग के बदले भाजपा के समर्थन की खुली घोषणा करके एक बार फिर अपनी स्थिति स्पष्ट की है कि राजनीति में विचारधारा अथवा नैतिकता की जगह नहीं होती. उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि उन्हें किसी संकट के समाधान से नहीं, सत्ता से लेना-देना है.      

धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों ने केजरीवाल के उपरोक्त ताज़ा फैसलों का हल्का-सा भी विरोध नहीं किया है. यह दर्शाता है कि देश और समाज के सामने दरपेश संकट की स्थिति के बावजूद केजरीवाल द्वारा सीधे भाजपा का समर्थन करने से धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों को कोई ऐतराज़ नहीं है. जबकि, ख़ास कर कम्युनिस्ट बुद्धिजीवी, स्वतंत्रता आंदोलन और स्वातंत्र्योत्तर युग के नेताओं-विचारकों से लेकर समकालीन नेताओं-बुद्धिजीवियों को साम्प्रदायिक सिद्ध करने के नुक्ते निकालने में देरी नहीं करते. लेकिन केजरीवाल का सामना होते ही उनकी सारी तर्क-बुद्धि और वैज्ञानिक दृष्टि अंधी हो जाती है. वे पिछले करीब 5 साल से 'आप' और उसके सुप्रीमो के समर्थन में डट कर खड़े हुए हैं. केजरीवाल निश्चिंत रहते हैं कि दिल्ली और पूरे देश के स्तर पर धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी मुख्यधारा और सोशल मीडिया में उनके समर्थन की बागडोर मुस्तैदी से सम्हाले हुए हैं. राजनीतिशास्त्र के कई प्रतिष्ठित विद्वान अंग्रेजी अखबारों और पत्रिकाओं में 'आप' और केजरीवाल की राजनीति के समर्थन/दिशा-निर्देशन में अक्सर लेख लिखते हैं. इससे केजरीवाल को अपना पूरा ध्यान सरकारी विज्ञापनों पर केंद्रित करने की सुविधा होती है, जो करदाताओं का धन खर्च करके तैयार किये जाते हैं.

हालांकि दोहराव होगा लेकिन केजरीवाल और धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों से सम्बद्ध कुछ तथ्यों को एक बार फिर देख लेना मुनासिब होगा. केजरीवाल और उनके साथी नेता बनने के पहले यूरोप-अमेरिका की बड़ी-बड़ी दानदाता संस्थाओं से मोटा धन लेकर एनजीओ चलाते थे और मनमोहन सिंह, लालकृष्ण अडवाणी, सोनिया गांधी से 'स्वराज' मांगते थे. उनका 'ज़मीनी' संघर्ष केवल 'यूथ फॉर इक्वेलिटी' का गठन कर दाखिलों और नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था ख़त्म करने की मांग तक सीमित था. इन लोगों ने अन्ना हजारे, रामदेव, श्रीश्री रविशंकर और विभिन्न विभागों के अवकाश-प्राप्त अफसरों, अन्य एनजीओ चलने वालों के साथ मिल कर दिल्ली में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन खड़ा करने की कोशिश की. पहली बार में आंदोलन नहीं उठ पाया. अगली बार सत्तारूढ़ कांग्रेस की बदनामी को आंदोलन की टेक बनाया गया. मीडिया को अच्छी तरह से साधा गया. 'जो आंदोलन के साथ नहीं है, वह भ्रष्टाचारियों के साथ है' यह संदेश मीडिया ने घर-घर पहुंचा दिया. बहुत-से परिपक्व जनांदोलानकारी, सिविल सोसाइटी एक्टिविस्ट, प्रगतिशील बुद्धिजीवी, कम्युनिस्ट, समाजवादी, गांधीवादी आंदोलन में शामिल हो गए. पिछले 25 साल की नवउदारवादी नीतियों से लाभान्वित मध्यवर्ग का आंदोलन को अभूतपूर्व समर्थन मिला. आरएसएस ने मौका भांप लिया और अंदरखाने आंदोलन का पूरा इंतजाम सम्हाल लिया. आंदोलनकारियों के गुरु अन्ना हजारे ने शुरू में ही अच्छा शासन देने के लिए पहले नंबर पर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी, और दूसरे नंबर पर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की प्रशंसा की.

'भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की राख' से उठ कर 'आम आदमी' की नई पार्टी खड़ी हो गई. 'अन्ना क्रांति' का अध्याय जल्दी ही समाप्त हो गया; 'केजरीवाल क्रांति' का डंका चारों तरफ बजने लगा. कार्पोरेट राजनीति का रास्ता प्रशस्त करते हुए घोषणा कर दी गई कि राजनीति में विचारधारा की बात नहीं होनी चाहिए. पार्टी पर देश-विदेश से धन की बारिश होने लगी. दीवारों पर 'केंद्र में पीएम मोदी, दिल्ली में सीएम केजरीवाल' के पोस्टर लग गए. कांग्रेस की सत्ता जाती देख, धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों ने केजरीवाल का दामन कस कर पकड़ लिया. तब से अब तक गंगा में काफी पानी बह चुका है. केजरीवाल के मोदी की जीत सुनिश्चित करने के लिए बनारस से चुनाव लड़ने, वहां गंगा में डुबकी लगा कर बाबा विश्वनाथ के दर्शन करने, मुजफ्फरपुर और दिल्ली के दंगों पर मुहं न खोलने, दिल्ली विधानसभा चुनाव में मिली सम्पूर्ण जीत पर हवन कर उसे ईश्वर का पुरस्कार बताने, केंद्र सरकार के दिल्ली में औरंगजेब रोड का नाम बदलने के फैसले का आगे बढ़ कर स्वागत करने, दिल्ली का यमुना तट विध्वंस के लिए श्रीश्री रविशंकर को सौंपने जैसे अनेक फैसलों का धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों ने कभी विरोध नहीं किया. वे तब भी चुप रहे जब दिल्ली सरकार के पूर्व कानून मंत्री सोमनाथ भारती ने नैतिक पुलिसगीरी करते हुए मालवीय नगर इलाके में चार विदेशी महिलाओं पर आधी रात में धावा बोला. वे तब भी चुप रहे जब फांसी पर लटकाए गए अफज़ल गुरु की पत्नी अंतिम संस्कार के लिए अपने पति का शव मांगने दिल्ली आई तो 'आप' के हुड़दंगियों ने प्रेस कांफ्रेंस में घुस कर विरोध किया. प्रशांत भूषण पर उनके चेंबर में घुस कर हमला करने वाले अन्ना हजारे और केजरीवाल के समर्थक थे, लेकिन धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी कुछ नहीं बोले. वे तब भी चुप रहे जब केजरीवाल ने पार्टी के कुछ समाजवादी नेताओं पर अभद्र टिप्पणी की. तब भी नहीं बोले जब केजरीवाल के समर्थकों ने एक बैठक में समाजवादी नेताओं के साथ हाथापाई की और अंतत: पार्टी से बाहर कर दिया. फासीवादी/अधिनायकवादी प्रवृत्तियों को दर्शाने वाली यह फेहरिस्त काफी लंबी है.  

अलबत्ता, धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी समय-समय पर जनता को बताते रहते हैं कि 'आप' में कुमार विश्वास और कपिल मिश्रा जैसे संघी तत्व घुसे हुए हैं, जिनका काम केजरीवाल की छवि खराब करना है. गोया वे जानते नहीं कि 'आप' अवसरवादी तत्वों का ही जमावड़ा है! इस जमावड़े में संघी, कांग्रेसी, समाजवादी, वामपंथी और तरह-तरह के गैर-राजनीतिक लोग शामिल हैं. धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों का केजरीवाल सरकार के पक्ष में हमेशा तर्क होता है कि वह लोगों द्वारा चुनी हुई सरकार है. गोया केंद्र और अन्य राज्यों की सरकारें लोगों ने नहीं चुनी हैं! कपिल मिश्रा प्रकरण के समय एक लेखिका ने कहा, 'एक शेर को चारों तरफ से गीदड़ों ने घेर लिया है!' एक लेखिका बता चुकी हैं कि केजरीवाल जैसा मुख्यमंत्री अन्य कोई नहीं हो सकता. दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के एक अवकाशप्राप्त प्रोफेसर शुरु से केजरीवाल के बड़े गुण-गायक हैं. कोई अवसर, कोई विषय हो, वे अपना व्याख्यान केजरीवाल की स्तुति से शुरू और समाप्त करते हैं. धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों द्वारा केजरीवाल की गुण-गाथा की यह फेहरिस्त भी काफी लंबी है. चुनाव नजदीक आने पर केजरीवाल समर्थक बुद्धिजीवियों ने दिल्ली सरकार के साथ मिल कर एक नया अभियान चलाया है. 'विकास का गुजरात मॉडल' की तर्ज़ पर वे शिक्षा और स्वास्थ्य के दिल्ली मॉडल का मिथक गढ़ने में लगे हैं.

तस्वीर का एक पहलू यह भी है कि 15 साल तक दिल्ली की मुख्यमंत्री रहीं शीला दीक्षित ने दिल्ली और देश भर के धर्मनिरपेक्ष लेखकों-बुद्धिजीवियों को स्वतंत्रता के साथ भरपूर अनुदान, पद और पुरस्कार दिए. एक-एक नाट्य प्रस्तुति पर सरकार ने करोड़ों रुपये खर्च किये. लेखकों के घर जाकर उनका सम्मान किया. बीमारी में सरकार की तरफ से आर्थिक समेत सब तरह की सहायता प्रदान की. लेकिन जैसे ही उनकी हार के आसार बने, लेखकों-बुद्धिजीवियों ने इस कदर नज़रें घुमा लीं, गोया शीला दीक्षित से कभी वास्ता ही न रहा हो! बिना किसी दुविधा के वे शीला दीक्षित को हराने वाले शख्स के 'भक्त' बन गए.    

भारत में कम्युनिस्ट बुद्धिजीवी समूह सर्वाधिक संगठित और ताकतवर है. वह आरएसएस/भाजपा के फासीवाद को परास्त करने के आह्वान में प्रगतिशील और वैज्ञानिक दृष्टि के दावे के साथ सबसे आगे रहता है. लेकिन साथ ही केजरीवाल और उनकी पार्टी का भी वह सतत रूप से सबसे प्रबल समर्थक है. (भारत की तीनों आधिकारिक कम्युनिस्ट पार्टियों की भी वही लाइन है.) इसकी गहन समीक्षा में जाने की जरूरत नहीं है. यही देखना पर्याप्त है कि ऐसा है. समझना यह है कि जहां सर्वाधिक संगठित और ताकतवर बौद्धिक समूह सहित ज्यादातर धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी, नवउदारवाद छोड़िये, साम्प्रदायिकता विरोध की अपनी भूमिका ईमानदारी से नहीं निभाते हों, वह देश एक दिन गहरे संकट का शिकार होना ही था. ज्यादा चिंता की बात यह है कि धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी देश को और ज्यादा गहरे संकट की तरफ धकेल रहे हैं. अपने तात्कालिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए वे भाजपा के सामानांतर एक अन्य फासीवादी/अधिनायकवादी सत्ता-सरंचना का पोषण करने में लगे हैं. कारपोरेट पूंजीवादी प्रतिष्ठान आगे की भारतीय राजनीति में यही चाहता है.  

Friday, 10 August 2018

सोशलिस्ट पार्टी का 'शिक्षा और रोजगार दो वर्ना गद्दी छोड़ दो' अभियान पूरे देश में जारी रहेगा

10 अगस्त 2018
प्रेस रिलीज

सोशलिस्ट पार्टी का 'शिक्षा और रोजगार दो वर्ना गद्दी छोड़ दो' अभियान पूरे देश में जारी रहेगा

भारत छोड़ो आंदोलन की 76वीं सालगिरह 9 अगस्त के मौके पर सोशलिस्ट पार्टी ने 'शिक्षा और रोजगार दो वरना गद्दी छोड़ दोरैली निकाली। ये रैली मंडी हाउस से संसद मार्ग तक निकाली गई। इस रैली में विभिन्न राज्यों से आये सोशलिस्ट पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं ने बड़ी संख्या में हिस्सा लिया। रैली में सोशलिस्ट युवजन सभा (एसवाईएस) के युवा सदस्य, सहमना संगठनों के नेता, एक्टिविस्ट, कलाकार और बुद्धिजीवी शामिल हुए। रैली में दिल्ली विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, जामिया विश्वविद्यालय के छात्र-छात्राओं और शहर के युवाओं ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। रैली का नेतृत्व सोशलिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ प्रेम सिंह ने किया। वरिष्ठ समाजवादी नेता पन्नालाल सुराणा ने मंडी हाऊस से रैली को झंडी दिखाकर रवाना किया। इस अवसर पर उन्होंने कहा कि मौजूदा नरेन्द्र मोदी सरकार संवैधानिक निर्देशों और दायित्व को त्याग कर शिक्षा को पूंजीपतियों के मुनाफे का जरिया बना रही है। प्रधानमंत्री रोजगार के बारे में अपने चुनावी वादे को निभाने में नाकामयाब रहे हैं। नवउदारवादी नीतिया जब तक रहेंगी, सभी बच्चों और युवाओं को शिक्षा और रोजगार नहीं मिल सकता। उन्होंने आह्वान किया कि शिक्षा और रोजगार देने में पूरी तरह विफल रही इस सरकार को देश के युवाओं को उखाड़ फेंकना चाहिए ।


मंडी हाउस पर जमा हुए युवाओं को रैली का मकसद समझते हुए डॉ. प्रेम सिंह ने कहा कि सभो समान, गुणवत्तायुक्त और मुफ्त शिक्षा देना सरकारों का संवैधानिक दायित्व है। सरकार की पूंजीपति परस्त नीतियों के चलते केवल मुट्ठी भर अमीर घरों के बच्चे और युवक-युवतियां अच्छी और मन-मुताबिक शिक्षा पा सकते हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि रोजगार के मामले में प्रधानमंत्री युवाओं का मज़ाक उड़ा रहे हैं। वे जनता की मेहनत की कमाई का अरबों रुपया अपने चुनाव पर खर्च कर चुके हैं। अरबों रुपया अपने विज्ञापन और विदेश यात्राओं पर खर्च कर रहे हैं। धन्नासेठों का दिया लाखों रूपये का सूट पहनते हैं। देश की दौलत अपने चहेते उद्योगपतियों पर लुटा रहे हैं। लेकिन शिक्षित बेरोजगार युवाओं से पकोड़े बेचने और स्मार्ट इंडिया के तहत चलने वाले निर्माण कार्यों में मज़दूरी करने को कहते हैं। प्रधानमंत्री ने प्राइवेट कंपनियों अधिकारियों को भारतीय सिविल सेवा के पदों पर बिठाने का फैसला कर लिया है। आगे वे राज्य सेवाओं में भी वे ऐसा कर सकते हैं। सोचना युवाओं को है कि इस सरकार को चलने देना है या उखाड़ फेंकना है? रैली में मौजूद युवाओं ने कहा कि शिक्षा उर रोजगार नहीं देने वाली सरकार को उखड फेंकेंगे।

मंडी हाउस से संसद मार्ग तक रैली में 'शिक्षा और रोजगार दो वरना गद्दी छोड़ दो' नारे के साथ अगस्त क्रांति के शहीदों की याद में लगाये गए नारे गूंजते रहे। संसद मार्ग पर रैली जनसभा में बदल गई।

जनसभा को पार्टी की महासचिव मंजू मोहन और राजशेखरन नायरउपाध्यक्ष रामबाबू अग्रवालपूर्व उपाध्यक्ष संदीप पांडे, प्रवक्ता डॉ. अभिजीत वैद्य, कोषाध्यक्ष जयंती पांचाल, सचिव फैजल खानराष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य श्याम गंभीरडॉ. अश्विनी कुमारराष्ट्रीय कार्यकारिणी के विशेष आमंत्रित सदस्य सुरेंद्र कुमार, सोशलिस्ट युवजन सभा (एसवाईएस) के राष्ट्रीय अध्यक्ष नीरजमहासचिव बंदना पांडे, सोशलिस्ट पार्टी के तमिलनाडु राज्य के अध्यक्ष इलम सिंघमगुजरात के अध्यक्ष कौशर अलीतेलंगाना की महासचिव डॉ. लुबना सर्वथकेरल के अध्यक्ष ईके श्रीनिवासन, मध्य प्रदेश के अध्यक्ष रामस्वरूप मंत्री, पंजाब के अध्यक्ष हरेंद्र सिंह मानसाइयादिल्ली के अध्यक्ष तहसीन अहमद. महासचिव योगेश पासवान, सचिव शाहबाज़ मलिक सहित कई पार्टी नेताओं ने संबोधित किया। सीपीआईएमएल (न्यू प्रोलितेरियन) के अध्यक्ष डॉ. शिवमंगल सिद्धांतकार, वरिष्ठ पत्रकार अरुण त्रिपाठीडूटा के पूर्व उपाध्यक्ष और पूर्व विधायक डॉ. हरीश खन्ना, दिल्ली विश्वविद्यालय अकादमिक परिषद् के सदस्य डॉ. शशि शेखर सिंह, वरिष्ठ समाजवादी डॉ. भगवान सिंह, खुदाई खिदमतगार के सदस्य कृपाल सिंह मंडलोई ने जनसभा को संबोधित किया। इस मौके पर ज़बिउल्लाह और भारती वर्मा ने कविता-पाठ किया।


जनसभा के अंत में डॉ. प्रेम सिंह ने घोषणा की कि सोशलिस्ट पार्टी की सभी राज्य इकाइयाँ 'शिक्षा और रोजगार दो वरना गद्दी छोड़ दो' अभियान जारी रखेंगी।
कार्यक्रम का संचालन डॉ. हिरण्य हिमकर ने किया और राजेश कुमार मिश्रा ने रैली में हिस्सा लेने वाले सभी साथियों का धन्यवाद ज्ञापन किया।

मंजू मोहन
महासचिव,
सोशलिस्ट
पार्टी(इंडिया)

Tuesday, 7 August 2018

भारत छोड़ो आंदोलन की 76वीं सालगिरह के मौके पर 'शिक्षा और रोजगार दो वर्ना गद्दी छोड़ दो' रैली


7 अगस्त 2018
प्रेस विज्ञप्ति   

भारत छोड़ो आंदोलन की 76वीं सालगिरह के मौके पर
'शिक्षा और रोजगार दो वर्ना गद्दी छोड़ दो' रैली
9 अगस्त 2018  
रैली सुबह 12 बजे मंडी हाउस से चल कर संसद मार्ग पहुंचेगी
संसद मार्ग पर जनसभा होगी
             


       9 अगस्त 1942 को भारत छोड़ो आंदोलन/अगस्त क्रांति की शुरुआत हुई. गांधीजी के 'करो या मरो' के आह्वान पर भारत की 20 प्रतिशत जनता ने इस आंदोलन में सक्रिय हिस्सेदारी की. ब्रिटिश हुकूमत ने करीब 50 हज़ार देशभक्तों को मारा. भारत के क्रन्तिकारी आंदोलन की धारा भारत छोड़ो आंदोलन में समाहित हो गई और यह साम्राज्यवादी गुलामी के खिलाफ निर्णायक संघर्ष साबित हुआ. भारत की आज़ादी के प्रवेशद्वार इस आंदोलन का नेतृत्व समाजवादी नेताओं ने किया. 'भारत छोड़ो' नारे  की रचना युसुफ मेहर अली ने की थी.   
       डॉक्टर राममनोहर लोहिया ने कहा कि 9 अगस्त भारतीय जनता का दिन है और 15 अगस्त भारतीय राज्य का दिन है. उनका मानना था कि 9 अगस्त निहत्थी जनता के संघर्ष के इतिहास का पहला दिन है. उन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन की 25वीं सालगिरह (9 अगस्त 1967) पर इच्छा ज़ाहिर की थी कि भारत छोड़ो आंदोलन की 50वीं सालगिरह इतने विशाल पैमाने पर मनाई जाये कि 26 जनवरी का गणतंत्र दिवस भी फीका पड़ जाए. आप जानते हैं 50वीं सालगिरह 9 अगस्त 1992 को पड़ी. यह वह समय था जब संविधान की मूल संकल्पना के बरखिलाफ देश में नवसाम्राज्यवाद का दरवाजा खोलने वाली नई आर्थिक नीतियां 1991 में लागू की जा चुकी थीं. इसी के साथ 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद को ढहा दिया गया था. ज़ाहिर है, अगस्त क्रांति की 50वीं सालगिरह को भारतीय जनता के दिन के रूप में याद नहीं किया गया.
       तब से अब तक - डंकल प्रस्तावों से लेकर रक्षा क्षेत्र में 100 विदेशी निवेश के फैसले तक - शासक जमातें देश के संविधान को दरकिनार करती गई हैं. नीति-निर्धारण का काम विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोश, विश्व व्यापार संगठन, विश्व आर्थिक मंच जैसी नवउदारवाद की पुरोधा वैश्विक संस्थानों के आदेश पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों और बड़े कार्पोरेट घरानों के हित में कर रही हैं.        
      
9 अगस्त 2018 को भारत छोड़ो आंदोलन की 76वीं सालगिरह है. सोशलिस्ट पार्टी ने इस मौके पर 'शिक्षा और रोजगार दो वर्ना गद्दी छोड़ दो' रैली का आयोजन किया है. यह युवा ललकार रैली पार्टी के अध्यक्ष डॉ. प्रेम सिंह के नेतृत्व में निकाली जाएगी. वरिष्ठ समाजवादी नेता पन्नाला सुराणा मंडी हाउस से रैली को रवाना करेंगे. रैली का मकसद देशवासियों तक यह सन्देश पहुँचाना है कि सरकार द्वारा शिक्षा और रोजगार के लिए नीति-निर्धारण का काम संविधान में उल्लिखित 'नीति-निर्देशक तत्वों' के आधार पर हो, न कि नवउदारवादी नीतियों के तहत. की पुरोधा उपरोक्त संस्थाओं के आदेश पर. संविधान की प्रस्तावना में उल्लिखित समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक भारत के निर्माण का संकल्प तभी पूरा हो सकता है. सोशलिस्ट पार्टी सभी देशवासियों, विशेष तौर पर युवाओं से आगामी 9 अगस्त को ज्यादा से ज्यादा तादाद में दिल्ली के मंडी हाउस और संसद मार्ग पहुँचने की अपील करती है. आइये, इस संविधान विरोधी सरकार को सत्ता से उखाड़ फेंकें.

सोशलिस्ट पार्टी का नारा समता और भाईचारा

डॉ. प्रेम सिंह
अध्यक्ष


Wednesday, 1 August 2018

National Register of Citizens in Assam: Need for Responsibility, Caution and Restraint

1 August 2018
Press Release


The problem of presence of illegal Bangladeshi nationals in Assam is quite complex and old. When the students movement against the Bangladeshi infiltration in Assam held in the eighties, they were supported by socialists and Gandhians of the country. Then that movement was secular and its emphasis was on Assamese citizens identity. Although there was opposition to Bangla-speaking population, but people of all sections of Assamese society took part in the movement. The then Prime Minister Indira Gandhi tried to give it a communal color. When she went to address a rally in the Brahmaputra Valley, a slogan 'hath men bidi muhn men paan, asam banega pakistan' (having bidi in hand and betel leaf in mouth Assam will become Pakistan) was raised. That was a vote bank of the Congress. The intrusion continued due to lose security arrangements on  Bangladesh border. Meanwhile the Nelly massacre of women and children of minority community highlighted the communal and gruesome face of that movement. After her, Rajiv Gandhi became prime minister and signed the Assam Accord in 1985. The concept of National Register of Citizens (NRC) in Assam is the result of that process. According to this, those whose names are not registered in the NCR, will not be considered as citizens of India. It was decided to identify foreign nationals and exclude them from the NCR. But due to lack of political will and no such agreement with Bangladesh, that work could not be done.

The NRC issued on Monday by the present government excludes names of over 40 lakh people. If their families are added then this number will be more than one crore. It is being said that most of the 4 million people out of the National Citizen Register are Indian citizens. These include both Hindus and Muslims. Putting such a large number of people in one state of insecurity shows that the duty to prepare the NRC has not been fulfilled properly. It seems that the government was quick to issue a NRC for electoral gains rather than a proper solution to the problem. This essential work of national interest should have been done in a non-political manner. But the Bharatiya Janata Party (BJP) leadership did not act maturity.

The BJP president Amit Shah is presenting the publication of the National Citizen Register as a bravery. The BJP in-charge of West Bengal, Kailash Vijayvargiya has   given a statement in the style of attack on West Bengal after Assam. Amit Shah has made an unsubstantiated statement to link the whole issue with national security even in the Parliament. With this kind of irresponsible statements of BJP leaders, the initial balanced statement given by Home Minister Rajnath Singh on this issue has become meaningless. The ruling party and its president should understand that the threat to national security rather lies in their intention of making communal polarization across the country in the name of the National Register of Citizens in Assam. In fact, the BJP had an eye on this long-standing and complex problem. After getting power at the center and the state, it has used the Office of the Registrar General of India and the Census Commissioner in such a way that it can play politics of communal polarization for a long time to come. The BJP's immediate target on the path of communal polarization is the Lok Sabha elections 2019. The BJP has lost mid-term elections due to the unity of opposition parties in the Hindi region. Therefore it wants to compensate the loss from the Northeast and West Bengal.

Although the work of identifying genuine citizens is being supervised by the Supreme Court, and the court has stated that this list is not final and no action should be taken on its basis. The Election Commission has also said that the National Register of Citizens will not disrupt voter rights of the people. But how can the court prevent the politics on this sensitive issue? While Chief of Army Staff General Vipin Rawat has also intervened there by giving a political statement. In view of the Socialist Party that it is the responsibility of the leadership of all the parties, including the ruling party. The Socialist Party urges the country's political leadership to ensure that instead of doing vote politics on this sensitive issue, make sure that no single Indian citizen is left out of the National Register of Citizens. Whether it belongs to any religion, caste and state. While preparing the National Register of Citizens, it was the responsibility of the citizens themselves to prove that they are citizens of India, while the United Nations puts the responsibility on the state too. Secondly, the leadership should decide the fate of Bangladeshi citizens living illegally, whether they are Hindus or Muslims, in the light of the Indian Citizenship laws and the provisions of the United Nations (UNO).

The Socialist Party believes that India has the right to recognize the people who have entered the country illegally. If possible, send them back to their country, if not possible, then consider granting them permits or giving citizenship. The provisions made in the Indian Citizenship Amendment Bill, 2014 only allowed to give citizenship to non-Muslims, but not to Muslims. India is a member of the United Nations. The goal of the United Nations is to eliminate the statelessness of citizens from the world by 2014. If such a large number of people will be made stateless then this will create an international problem. The excluded population is 10 percent of Assam state. Therefore, those who claim to be 'Vishwguru' and who chant the mantra of 'Vasudhaiva Kutumbakam', instead of considering it from a communal perspective, should think in a sensitive human way. Opinion of all the political parties should be considered and the Supreme Court should make decisions according to the Constitution and United Nations Charter in order to solve the problem.

Dr. Prem Singh
President

असम में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर : जिम्मेदारी, सावधानी और संयम की जरूरत

1 अगस्त 2018
प्रेस रिलीज़


असम में अवैध रूप से रहने वाले बंग्लादेशी नागरिकों की मौजूदगी की समस्या काफी जटिल और पुरानी है. असम में बांग्लादेशी घुसपैठ के विरुद्ध अस्सी के दशक में जब वहां के छात्रों ने आंदोलन किया था तो उनका समर्थन पूरे देश के समाजवादियों और गांधीवादियों ने किया था। तब वह आंदोलन धर्मनिरपेक्ष था और उसका जोर असमिया नागरिकों की अस्मिता बचाने पर था। हालांकि उसमें बांग्लाभाषियों का विरोध था, लेकिन आंदोलन में असमिया समाज के सभी तबके के लोगों ने हिस्सा लिया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उसे सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश की और जब वे ब्रह्मपुत्र घाटी में एक रैली में गईं तो वहां नारा भी लगा था कि 'हाथ में बीड़ी मुहं में पान असम बनेगा पाकिस्तान'। वह सब कांग्रेस का वोट बैंक था. बांग्लादेश से लगी सीमा पर ढीली-ढाली सुरक्षा व्यवस्था होने के कारण घुसपैठ जारी रही। इस बीच नेल्ली नरसंहार ने उस आंदोलन का सांप्रदायिक और वीभत्स रूप भी उजागर किया। उस नरसंहार में अल्पसंख्यक समुदाय के औरतों-बच्चों को काट डाला गया था। उनके बाद प्रधानमंत्री बने राजीव गांधी ने 1985 में असम समझौता किया. असम में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर की परिकल्पना उसी प्रक्रिया का परिणाम है. इसके मुताबिक जिनके नाम राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर में नहीं दर्ज होंगे, उन्हें भारत का नागरिक नहीं माना जायेगा. इसमें विदेशी नागरिकों की पहचान करके उन्हें बाहर करने का निर्णय लिया गया। लेकिन राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव और बांग्लादेश से इस तरह का कोई समझौता न होने के कारण वह काम हो नहीं पाया।

मौजूदा सरकार ने सोमवार को जो राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर जारी किया है, उसमें 40 लाख से ऊपर लोगों के नाम नहीं हैं. उनके परिवारों को जोड़ा जाए तो यह संख्या एक करोड़ से ज्यादा होगी. ऐसा बताया जा रहा है कि राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर से बाहर किये गए 40 लाख लोगों में से ज्यादातर भारतीय नागरिक हैं. इनमें हिंदू और मुसलमान दोनों शामिल हैं. एक राज्य में इतनी बड़ी संख्या में लोगों को असुरक्षा की स्थिति में डाल देना बताता है कि राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर तैयार करने में कर्तव्य का सही तरह से निर्वाह नहीं किया गया है. ऐसा लगता है कि सरकार को समस्या के समुचित समाधान के बजाय चुनावी फायदे के लिए राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर जारी करने की जल्दी थी. इस आवश्यक कार्य को गैर-राजनीतिक तरीके से किया जाना चाहिए था. लेकिन भाजपा नेतृत्व ने वैसी परिपक्वता का प्रमाण नहीं दिया.

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के अध्यक्ष अमित शाह राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर के प्रकाशन को पराक्रम की तरह पेश कर रहे हैं. पश्चिम बंगाल के भाजपा प्रभारी कैलाश विजयबर्गीय असम के बाद पस्श्चिम बंगाल पर धावा बोलने की शैली में बयान दे रहे हैं. अमित शाह ने पूरे मसले को राष्ट्रीय सुरक्षा से जोड़ने की बेजा बयानबाजी संसद में की है. भाजपा नेताओं की इस तरह की गैर-जिम्मेदाराना बयानबाज़ी से इस मुद्दे पर गृहमंत्री राजनाथ सिंह द्वारा दिया गया शुरूआती संतुलित बयान निरर्थक हो गया है. सत्तारूढ़ पार्टी और उसके अध्यक्ष को समझना चाहिए कि  राष्ट्रीय सुरक्षा पर खतरा असम में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर के नाम पर पूरे देश में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करने की उनकी मंशा से है. दरअसल, देश की इस पुरानी और जटिल समस्या पर भाजपा की निगाह लंबे समय से थी. केंद्र और राज्य में सत्ता में बैठने के बाद उसने रजिस्ट्रार जनरल आफ इंडिया और जनगणना आयुक्त के कार्यालय का इस्तेमाल कर उसे ऐसा रूप दिया है कि उस पर लंबे समय तक साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति की जा सके. साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के रास्ते पर भाजपा का तात्कालिक लक्ष्य 2019 के लोकसभा चुनाव हैं. हिंदी क्षेत्र में विपक्षी दलों की एकजुटता से भाजपा मध्यावधि चुनाव हार चुकी है. उसकी भरपाई वह पूर्वोत्तर और पश्चिम बंगाल से करना चाहती है.

हालांकि सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में होने वाले नागरिकों के पहचान के इस कार्यक्रम में न्यायालय ने हस्तक्षेप करते हुए यह जरूर कहा है कि यह सूची अंतिम नहीं है बल्कि एक मसविदा है और इसके आधार पर कोई कार्रवाई नहीं होनी चाहिए। चुनाव आयोग ने भी कहा है कि राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर लोगों के मतदाता अधिकार को बाधित नहीं करेगा. लेकिन इस संवेदनशील मुद्दे पर जो राजनीति की जा रही है उसे न्यायालय कैसे रोक सकता है? जबकि सेनाध्यक्ष जनरल विपिन रावत भी राजनीतिक बयान देकर वहां हस्तक्षेप कर चुके हैं। यह सत्तारूढ़ पार्टी सहित सभी पार्टियों के नेतृत्व की जिम्मेदारी है. सोशलिस्ट पार्टी देश के राजनैतिक नेतृत्व से अपील करती है कि इस संवेदनशील मुद्दे पर वोट की राजनीति करने के बजाय मिल कर सुनिश्चित करें कि एक भी भारतीय नागरिक राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर से बाहर नहीं रहे. चाहे वह किसी भी प्रदेश का रहने वाला हो. राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर तैयार करते वक्त यह जिम्मा स्वयं नागरिकों का था कि वे साबित करें कि भारत के नागरिक हैं, जबकि संयुक्त राष्ट्र यह जिम्मेदारी राज्य पर भी डालता है। दूसरे, अवैध रूप से रहने वाले बंग्लादेशी नागरिकों, चाहे वे हिंदू हैं या मुस्लमान, पर भारतीय नागरिकता कानून और संयुक्त राष्ट्र (यूएनओ) के प्रावधानों की रोशनी में कार्रवाई करें.

सोशलिस्ट पार्टी का मानना है कि भारत को पूरा हक है कि वह अवैध तरीके से घुस आए लोगों की पहचान करे. अगर संभव है तो उन्हें उनके देश वापस भेजे, अगर नहीं संभव है तो उन्हें परमिट देने या नागरिकता देने पर विचार करे। इस बारे में नागरिकता संशोधन विधेयक 2014 में गैर-मुस्लिमों को नागरिकता देने की व्यवस्था तो है, लेकिन मुस्लिमों के लिए नहीं है। भारत संयुक्त राष्ट्र का सदस्य है. संयुक्त राष्ट्र का उद्देश्य 2024 तक दुनिया से नागरिकों की राज्यविहीनता समाप्त करना है। अगर इतनी बड़ी संख्या में लोगों को राज्यविहीन किया जाएगा तो इससे एक अंतरराष्ट्रीय समस्या पैदा होगी। 'विश्वगुरु' और 'वसुधैव कुटुंबकम' का दावा करने वाले भारत को इस समस्या पर सांप्रदायिक नजरिए से नहीं, संवेदनशील मानवीय नज़रिए से विचार करना चाहिए। इसमें सभी दलों की राय लेनी चाहिए, सुप्रीम कोर्ट को संविधान और संयुक्त राष्ट्र के चार्टर के अनुरूप निर्णय देना  चाहिए।  


डॉ. प्रेम सिंह
अध्यक्ष

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