Tuesday, 15 January 2019

प्रतिक्रांति के हमसफर

(यह टिप्पणी 2014 की है. हस्तक्षेप पर प्रकाशित हुई थी. 5 साल बाद देश और दिल्ली में अब फिर चुनाव होंगे. टिप्पणी फिर से इसलिए दी जा रही है कि प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्षता के पराभव की चिंता करने वाले साथी इस बार समझदारी से काम लेंगे.)  


प्रतिक्रांति के हमसफर

प्रेम सिंह

‘‘इस वक्त समूची दुनिया में जो हो रहा हैवह शायद विश्व इतिहास की सबसे बड़ी प्रतिक्रांति है। यह संगठित हैविश्वव्यापी है और समाज तथा जीवन के हर पहलू को बदल देने वाली है। यहां तक कि प्रकृति और प्राणिजगत को प्रभावित करने वाली है। इक्कीसवीं सदी के बाद भी अगर मानव समाज और सभ्यता की चेतना बची रहेगीतो आज के समय के बारे में इसी तरह का जिक्र इतिहास की पुस्तकों में होगा। डंकेल संधि की तारीख इस प्रतिक्रांति की शुरुआत की तारीख मानी जा सकती है।’’

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‘‘प्रतिक्रांति का मतलब पतन या क्षय नहीं है। पतन या क्षय वहां होता हैजहां परिपक्वता आ चुकी है या चोटी तक पहुंचा जा चुका है। सोवियत रूस का पतन हो गयाया हम कह सकते हैं कि आधुनिक सभ्यता का क्षय एक अरसे से शुरू हो गया है। इससे भिन्न प्रतिक्रांति का रूप क्रांति जैसा ही होता हैसिर्फ उसका उद्देश्य उलटा होता है। यह भी संगठित होता है और एक विचारधारा से लैस रहता है और कई मूल्यों और आधारों को उखाड़ फेंकने का काम करता है। इसकी विचारधारा ही ऐसी होती है कि इसका आंदोलन अति संगठित छोटे समूहों के द्वारा चलाया गया अभियान होता है।’’ (विकल्पहीन नहीं है दुनिया’, किशन पटनायकराजकमल प्रकाशनपृ. 172)   

किशन जी का यह कथन फरवरी 1994 का है। तब से दुनिया और भारत में प्रतिक्रांति का पथ उत्तरोत्तर प्रशस्त होता गया है। राजनीति में पिछले तीन-चार सालों में बनी नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल की केंद्रीयता से प्रतिक्रांति की विचारधारा काफी मजबूत स्थिति में पहुंच गई है। गौरतलब है कि दोनों ने लगभग समान प्रचार शैली अपनाकर यह हैसियत हासिल की है, जिसमें मीडिया और धन की अकूत ताकत झोंकी गई है। बहुत-से मार्क्सवादियोंसमाजवादियोंसामाजिक न्यायवादियोंगांधीवादियों और बुद्धिजीवियों ने अरविंद केजरीवाल का साथ देकर या दिल्ली विधानसभा चुनाव में बिना मांगे समर्थन करके इस प्रतिक्रांति को राजनीतिक स्वीकार्यता प्रदान कर दी है। दिल्ली में आप’ की सरकार बनती है या भाजपा कीइससे इस सच्चाई पर फर्क पड़ने नहीं जा रहा है कि भारत की मुख्यधारा राजनीति में प्रतिक्रांति का सच्चा प्रतिपक्ष नहीं बचा है।
केजरीवाल की राजनीति के समर्थक खुद को यह तसल्ली और दूसरों को यह वास्ता देते रहे हैं कि जल्दी ही केजरीवाल को (अपने पक्ष में) ढब कर लिया जाएगा। हुआ उल्टा है। केजरीवाल ने सबको (अपने पक्ष में) ढब कर लिया है। सुना है किरण बेदी के छोटे गांधी’ कामरेडों के लेनिन हैं! प्रकाश करात ने कहा बताते हैं कि केजरीवाल का विरोध करने वाले मार्क्स को नहीं समझते हैं। प्रतिक्रांति इस कदर सिर चढ़ कर बोल रही है कि मार्क्स को भी उसके समर्थन में घसीट लिया गया है। यह परिघटना भारत की प्रगतिशील राजनीति की थकान और विभ्रम को दर्शाती है।

ऊपर दिए गए किशन जी के दो अनुच्छेदों के बीच का अनुच्छेद इस प्रकार है, ‘‘समूची बीसवीं सदी में क्रांति की चर्चा होती रही। क्रांति का एक विशिष्ट अर्थ आम जनता तक पहुंच गया थाक्रांति का मतलब संगठित आंदोलन द्वारा उग्र परिवर्तनजिससे समाज आगे बढ़ेगा और साधारण आदमी का जीवन बेहतर होगाआखिरी आदमी को नजरअंदाज नहीं किया जाएगा। साधारण आदमी का केंद्रीय महत्व और आखिरी आदमी का अधिकार बीसवीं सदी की राजनीति और अर्थनीति पर जितना हावी हुआवैसा कभी नहीं हुआ था।’’

यह लिखते वक्त किशन जी को अंदेशा भी नहीं रहा होगा कि एनजीओ सरगनाओं का गिरोह करोड़पतियों को भी आम आदमी बना देगाउनकी समृद्धी बढ़ाने के लिए गरीबों का वोट खींच लेगाऔर समाजवादी क्रांति का दावा करने वाले नेता व बुद्धिजीवी उसके समर्थन में सन्नद्ध हो जाएंगे! किशन जी ने अपने उसी लेख में यह कहा है कि ''1980 के दशक में हिंदुत्व के आवरण में एक प्रतिक्रांति का अध्याय शुरू हुआ है देश की राजनैतिक संस्कृति को बदलने के लिए। इस वक्त विश्व-स्तर पर जो प्रतिक्रांति की लहर प्रवाहित हैउससे इसका मेल है; ... ।"  हम जानते हैं पूंजीवादी प्रतिक्रांति के पेटे में चलने वाली सांप्रदायिक प्रतिक्रांति के तहत 1992 में बाबरी मस्जिद का ध्वंस कर दिया गया।

किशन जी ने डंकेल समझौते के साथ शुरू होने वाली प्रतिक्रांति के मुकाबले में वैकल्पिक राजनीति की विचारधारा और संघर्ष खड़ा किया था। साथ ही उन्होंने विस्तार से धर्मनिरपेक्षता का घोषणापत्र लिखा। उनके साथ शामिल रहे ज्यादातर लोग आज प्रतिक्रांति के साथ हैं। जाहिर हैवे किशन जी के जीवन काल में उन्हें धोखा देते रहे और उनके बाद उनके जीवन भर के राजनीतिक उद्यम को नष्ट करने में लगे हैं।
ऐसे में ज्यादा कुछ कहने-सुनने को नहीं बचा हैकुछ बिंदु अलबत्ता देखे जा सकते हैं :

(1) मोदी का तिलस्मजिसे तोड़ने के लिए केजरीवाल को अनालोचित समर्थन दिया गया हैवास्तव में कारपोरेट पूंजीवाद का तिलस्म है। मार्क्सवादियोंसमाजवादियोंसामाजिक न्यायवादियोंगांधीवादियों और बुद्धिजीवियों ने केजरीवाल का समर्थन करके उस तिलस्म को दीर्घजीवी बना दिया है।

(2) केजरीवाल की जीत में धर्मनिरपेक्षता की जीत नहीं हैजैसा कि अति वामपंथियों से लेकर तरह-तरह के राजनीतिक निरक्षर जता रहे हैं। मुसलमानों के भय की भित्ति पर जमाई गई धर्मनिरपेक्षता न जाने कितनी बार भहरा कर गिर चुकी है। भारत की धर्मनिरपेक्षता मोदी की जीत के पहले कई बार हार का मुंह देख चुकी है। भारत का विभाजनगांधी की हत्याआजादी के बाद अनेक दंगे, 1984 में सिख नागरिकों का कत्लेआम, 1992 में बाबरी मस्जिद का ध्वंस, 2002 का गुजरात कांड - धर्मनिरपेक्षता की हार के अमिट निशान हैं।

(3) धर्मनिरपेक्षता के दावेदार यह सब जानते हैं। लिहाजाकेजरीवाल के समर्थन के पीछे के मनोविज्ञान को समझने की जरूरत है। इनमें से बहुत-से लोग मोदी के हाथों मिली करारी शिकस्त को पचा नहीं पाए हैं। उनका दृढ़ विश्वास था कि मोदी जैसा शख्स भारत का प्रधानमंत्री नहीं बन सकता। उनका विश्वास टूटा है। खीज मिटाने के लिए वे किसी को भी मोदी को हराता देखना चाहते हैं। केजरीवाल को उनके समर्थन का दूसरा अंतर्निहित कारण घृणा की राजनीति से जुड़ा है। सर्वविदित है कि आरएसएस घृणा की राजनीति करता है। धर्मनिरपेक्षतावादियों में भी संघियों के प्रति तुच्छता से लेकर घृणा तक का भाव रहता है। केजरीवाल की जीत से उनके इस भाव की तुष्टी होती है। तीसरा कारण सरकारी पद-प्रतिष्ठा से जुड़ा है। धर्मनिरपेक्षतावादियों को कांग्रेसी राज में सत्ता की मलाई खाने का चस्का लगा हुआ है। उन्हें पता है कांग्रेस दिल्ली में सत्ता में नहीं आने जा रही है। सीधे भाजपा का न्यौता खाने में उन्हें लाज आती है। दिल्ली राज्य में केजरीवाल की सत्ता होने से विभिन्न निकायों/समितियों में शामिल होने में उन्हें लाज का अनुभव नहीं होगा। हालांकि वे एक भूल करते हैं कि एनजीओ वाले राजनीति में आए हैं तो उनके अपने साथी-सगोती निकायों/समितियों में आएंगे। लिहाजाधर्मनिरपेक्षतावादियों के लिए यहां कांग्रेस जैसी खुली दावत नहीं होने जा रही है। मोदी को हराने के नाम पर किए गए समर्थन को वे प्रतिक्रांति के समर्थन तक खींच कर लाएंगे। देखना होगा तब साथी क्या पैंतरा लेते हैं?  

(4) केजरीवाल को वोट देने वाले दिल्ली के गरीबों से कोई शिकायत नहीं की जा सकती। मीडिया और बुद्धिजीवियों ने आप’ के आर्थिक और गरीब विरोधी विचारधारात्मक स्रोतों की जानकारी उन तक पहुंचने ही नहीं दी। इस मेहनतकश वर्ग को जल्दी ही पता चलेगा कि उनका इस्तेमाल उन्हीं के खिलाफ किया गया है। हालांकि केजरीवाल के दीवाने आदर्शवादी’ नौजवानों को वैसा नादान नहीं कहा जा सकता। प्रतिभावान कहे जाने वाले इन नौजवानों ने प्रतिक्रांति के पदाति की भूमिका बखूबी निभाई है।

(5) दलित पूंजीवाद के पैरोकार देख लेंशूद्रों समेत ज्यादातर सवर्ण नेताप्रशासकविचारकएनआरआई पूंजीवादी प्रतिक्रांति के साथ जुट गए हैं। पूंजीवाद की दौड़ में बराबरी का मुकाम कभी नहीं आता। 

(6) उस अदृश्य एजेंसी का लोहा मानना पड़ेगा जिसने केजरीवाल का यह चुनाव अभियान तैयार किया और चलाया। जनता का सीएम’ कैसे बनता हैयह उस एजेंसी ने बखूबी करके दिखाया है। वह जनता का प्रधान सेवक’ बनाने वाली एजेंसी की टक्कर की ठहरती है।    
अंत में सबक। नई आर्थिक नीतियों के साथ शुरू होने वाली प्रतिक्रांति का लगातार प्रतिरोध हुआ है। अबजबकि सारे भ्रम हट गए हैंक्रांति का संघर्ष निर्णायक जीत की दिशा में तेज होना चाहिए।

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