Thursday, 14 February 2019

रफाल सौदा : सवाल भाजपा बनाम कांग्रेस का नहीं, मोदी सरकार बनाम भारतीय राष्ट्र का है

14 फ़रवरी 2019
प्रेस रिलीज़


भारत और फ्रांस की सरकारों और उनके नेताओं, दोनों तरफ की विभिन्न सरकारी संस्थाओं और उनके अधिकारियों, हथियार कंपनियों और उनके मालिकों, मीडिया और पत्रकारों, नागरिक समाज एक्टिविस्टों के बीच घूम-भटक कर रफाल विमान सौदे का रहस्य अभी वहीं का वहीं खड़ा हुआ है। बल्कि अंधेरा साफ होने की बजाय, गहराता जा रहा है। अंधेरा गहराता इसलिए जा रहा है क्योंकि पहले सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को गुमराह किया कि भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) की रपट लोक लेखा समिति (पीएसी) के सामने पेश की जा चुकी है। अब जब कैग की रपट पेश की गई है तो उसमें भी भारतीय जनता और लोकतंत्र की आंखों में धूल झोंकने का पूरा प्रयास किया गया है। यह रपट तथ्यों को छिपाती ज्यादा है, उजागर कम करती है। और जरूरी तथ्यों पर बोलती ही नहीं है। सोशलिस्ट पार्टी का मानना है कि यह रपट एक सरकार और एक पूंजीपति का तन ढंकने के लिए तैयार की गई है, जिसमें देश का रक्षा मंत्रालय और वित्त मंत्रालय भले नंगे हो जाएं, न्यायपालिका पर भले आंख पर पट्टी बांधने और अंग्रेजी न जानने का आरोप लगे, लेकिन प्रधानमंत्री और उनके कृपापात्र उद्योगपति साफ बचे रहें।

कैग की रपट में राष्ट्रीय सुरक्षा का हवाला देकर इन तथ्यों को छुपाया गया है कि एक मूल विमान की कीमत कितनी थी और उसमें कितने प्रकार के उपकरण लगाए गए और उनसे विमान की कुल कीमत कितनी बैठती है। सवाल है कि कैग भारतीय वायु सेना के 11 सौदों का जिक्र करता है और 10 के मूल्य बताता है, लेकिन सिर्फ रफाल का मूल्य छुपा लेता है। इसके बावजूद कैग कहता है कि एनडीए का सौदा यूपीए की सौदेबाजी में उभर रहे सौदे से 2.86 प्रतिशत सस्ता है। माना जा रहा है कि कैग का यह निष्कर्ष भावनात्मक रूप से मोदी सरकार के पक्ष में जाता है। रपट की मंशा भी शायद यही है। लेकिन यह निष्कर्ष सरकार के शक्तिशाली मंत्री अरुण जेटली के उस बयान को गलत साबित करता है जो उन्होंने 2 जनवरी को संसद में दिया था। अरुण जेटली ने कहा था कि हमने यह सौदा यूपीए से 9 प्रतिशत सस्ता किया है और हथियारों वाला विमान तो 20 प्रतिशत सस्ता है। कैग के आंकड़ों के अनुसार वायु सेना के कुल 11 सौदों की कीमत 95,000 करोड़ रुपए है। इसमें 10 सौदों का कुल मूल्य 34,423 करोड़ रुपए है। रपट यहीं चुप हो जाती है। अब निष्कर्ष निकालने वाले सहज रूप से बता सकते हैं कि रफाल विमान के कुल सौदे की लागत 60,577 करोड़ रुपए है।

बैंक गारंटी अथवा संप्रभु गारंटी के सवाल पर सरकार और कैग के दावों में अंतर है। सरकार कहती है कि बैंक गारंटी न होना सरकार की बचत है और वह सौदा सस्ता कर ले गई है। जबकि कैग का कहना है कि यह तो फ्रांस की विमान बनाने वाली कंपनी डसौ की बचत है। कैग यह भी कहता है कि विमान में भारत के लिए चार विशेष उपकरण लगाए गए, जिनकी जरूरत नहीं थी। कैग की रपट कहती है कि 2007 में अग्रिम भुगतान के एवज में 15 प्रतिशत बैंक गारंटी की बात थी। इसमें 5 प्रतिशत परफार्मेंस पर और 5 प्रतिशत वारंटी पर जाना था। इस मद में होने वाली बचत रक्षा मंत्रालय के खाते में जानी थी पर कैग की रपट में वैसा नहीं दिखता। कैग की रपट में 11 बिंदुओं पर दाम की तुलना की गई है लेकिन कहीं पर दाम बताए नहीं गए हैं। हर जगह प्रतिशत बताया गया है। कैग ने दावा किया है कि चार बिंदुओं पर दाम बढ़ा है और तीन बिंदुओं पर दाम घटा है। हैरानी की बात है कि इस तरह की तुलना की जरूरत क्या थी और अगर की गई है तो सब कुछ खोल कर बताया क्यों नहीं गया?

इस रपट में इस बात का जिक्र नहीं है कि कैसे 126 विमानों के लिए चलने वाली बातचीत अचानक 36 विमानों पर आ गई। यानी वायुसेना 126 के बदले 36 विमानों से कैसे मज़बूत हो जाएगी? इस रपट में यह भी नहीं बताया गया है कि हिन्दुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) को मिलने वाला ठेका अनिल अंबानी की अचानक खड़ी की गई कंपनी को क्यों गया? यानी भारत की सेनाओं की स्थायी मज़बूती उसके अपने सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों को मज़बूत और उनका नवीकरण करने से होगी या मुनाफाखोर विदेशी-देशी प्राइवेट कंपनियों और उनके दलालों के भरोसे होगी? सौदे की प्रक्रिया को सीधे प्रधानमन्त्री और उनके कार्यालय द्वारा अनुचित रूप से प्रभावित करने, भ्रष्टाचार-विरोधी प्रावधानों को हटाने और ऑफसूट कंपनी के रूप में एचएएल की जगह अम्बानी की रिलायंस डिफेंस लिमिटेड को ठेका दिलवाने जैसे तथ्यों पर रोशनी डालने की अपेक्षा तो कैग की इस रपट से की ही नहीं जा सकती।     

सोशलिस्ट पार्टी का मानना है कि रफाल विमान सौदे पर मोदी सरकार की कारगुजारियों, सुप्रीम कोर्ट के फैसले, कई अखबारों की रपटों, विपक्ष के हमलावर बयानों और कल संसद में पेश की गई कैग की रपट से जाहिर है कि भारत की अर्थव्यवस्था और राजनीति फर्जी राष्ट्रवाद की जकड़ में फंस चुकी है। यह फर्जी राष्ट्रवाद विदेशी और देशी हथियार कंपनियों का हित साधक है। वे कंपनियां जैसा चाहती हैं सौदा उसी लाइन पर होता है। वे सौदे से जुड़ी जिस जानकारी को प्रकट करना चाहती हैं, प्रकट करती हैं और जिसे छुपाना चाहती हैं, उसे छुपा लेती हैं। उन्हीं की शर्तों पर सरकारें काम करती हैं और सरकार की संस्थाएं अपनी रपट देती हैं। वे भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा को अपने ढंग से परिभाषित करती हैं और उनके खरीदे हुए चैनल और अखबार उन्हीं के नज़रिए से बहस चलाते हैं। इस सबके बदले में कंपनियां भारतीय जनता की गाढ़ी कमाई और देश के संसाधनों की लूट का कुछ हिस्सा राजनीतिक पार्टियों और नेताओं को देती हैं।

निश्चित तौर पर रफाल विमान सौदे के बारे में अभी अखबारों की और रपटें आएंगी और दाल में काफी कुछ काला दिखेगा। लेकिन कुछ दिनों बाद होने वाले लोकसभा चुनावों की धूल में वह सब खो जाएगा। इसलिए सोशलिस्ट पार्टी भारत की जनता से यह अपील करती है कि वह रफाल सौदे की सच्चाई के बारे में बिके हुए मीडिया और जाति, धर्म, वंश, परिवार, व्यक्ति के नाम पर भावनाओं से खेलने वाले दलों/नेताओं के बयानों से हट कर अपने विवेक से विचार करे। वह रफाल सौदे को भाजपा बनाम कांग्रेस की जंग के रूप में नहीं, मोदी सरकार बनाम भारतीय राष्ट्र की जंग के रूप में देखे। भारत की जनता ही भारतीय राष्ट्रवाद को हथियारों के सौदागरों और युद्ध का उन्माद फ़ैलाने वाली सरकारों के चंगुल से बाहर निकाल सकती है।

डॉ. प्रेम सिंह
अध्यक्ष  

Rafale Deal: The question is not of BJP vs. Congress, but Modi government vs. Indian nation

February 14, 2019
Press Release


The mystery on the Rafale Aircraft Deal is standing right there even after the deal has been moving around the governments and their leaders of India and France, various governmental institutions and their officials on both sides, weapon companies and their masters, media and independent journalists, civil society activists etc. Rather there is a over casting of darkness in the matter instead of being cleared. The over casting of darkness is being done because the government first misled the Supreme Court by stating that the report of the Comptroller and Auditor General of India (CAG) has been submitted to the Public Accounts Committee (PAC). Now when the report of the CAG has been introduced, it has also tried to dump the eyes of the Indian public and democracy. This report tells less, hides more and does not speak at all on certain facts related to the deal.

The Socialist Party believes that the CAG report has been prepared to cover the body of a government and a capitalist. No matter, by this deed of the government, the Ministry of Defense and the Ministry of Finance may become uncovered and the Judiciary may bears accusation of wearing a blindfold and not knowing English, but the Prime Minister and his benevolent industrialist stay clear.

Referring to national security the CAG report has hidden the facts such as the price of an original plane, and how many types of equipments were installed in it and how much the total cost comes by installing them. The question is : why  the CAG only conceals Rafale's price where as it discloses the price of 10 deals out of 11 deals of the IAF it has mentioned in the report? Despite this, the CAG says that the NDA deal is 2.86 per cent cheaper than the emerging deal in the UPA's bargain. It is believed that this conclusion of the CAG goes in favor of the Modi Government, at least emotionally. That has been probably the intention of the report. But this conclusion proves the statement of the powerful minister Arun Jaitley wrong which he gave in the parliament on January 2. Arun Jaitley had said that we have made this deal 9 percent cheaper than the UPA and the aircraft with equipments is 20 percent cheaper. According to CAG data, the Air Force's total 11 deals worth 95,000 crore rupees. In this, the total value of 10 deals is 34,423 crore rupees. The report is silent right here. Now the conclusions can instinctively draw  that the cost of the total deal of Rafale aircraft is Rs. 60,577 crore.

Further, there is a difference between the government and the CAG's claims on the issue of bank guarantee or sovereign guarantee. The government says that the absence of  bank guarantee in the deal is a saving for the government and, therefore, it carried out a cheaper deal. While the CAG says that it is the saving of France's aircraft maker Dassault. The CAG also says that the aircraft had four special equipments installed for India, which was not needed. The CAG report says that in 2007, in lieu of advance payment, there was a provision of 15 percent bank guarantee. It had to go 5 percent on performance and 5 percent on warranty. The savings in this item were to be gone in the account of the Ministry of Defense but the CAG report did not look like this. The prices have been compared at 11 points in the report of CAG but prices have not been disclosed anywhere. Everywhere the percentages are mentioned. The CAG has claimed that the price has been increased on four points and reduced on three points. Surprisingly, what was the need for comparisons like this and if it has been done then why all details were not told and explained?

There is no mention in this report that how the deal originally made for 126 aircrafts suddenly arrived on 36 aircrafts? That is, how the strength of the IAF will be enhanced with 36 aircrafts instead of 126? It is also not mentioned in this report that why the contract for Hindustan Aeronautics Limited (HAL) changed  to Anil Ambani's suddenly stacked company? That is, the lasting strength of India's defense forces would be achieved by strengthening and renewing its own public sector enterprises or would this task of utmost importance be left to the profit-hungry foreign-domestic private companies and their brokers? One cannot expect from this CAG report that it will speak something about how the process of the deal was improperly influenced by the Prime Minister and his office, how the  anti-corruption clauses were dropped, how the offshoot contract was awarded to Ambani's Reliance Defense Limited and how the HAL was thrown out from the deal?

The Socialist Party believes that the dubious deeds of the Prime Minister, the decision of the Supreme Court, the reports of several newspapers/magazines, the attacking statements of the opposition and the report of the CAG presented in the Parliament yesterday on the contentious issue of the Rafale Aircraft Deal show that India's economy and politics have been stuck in the grip of fake nationalism. This fake nationalism serves the interests of foreign and domestic weapon companies. The arm deals are made as per the wishes of these  very companies. They reveal and hide the information related to the deal as per their interests. Governments work on their terms and government institutions give their reports accordingly. They define India's national security in their own way and channels and newspapers purchased by them run debates on the line of their perspective. In return, companies give some part of the their loot, made of the hard earnings of the Indian public and country's resources, to the political parties and politicians.

Certainly there will be more news reports about the Rafale Aircraft Deal in the coming days and a lot of chaff in the grain will be seen. But in the dust of the Lok Sabha elections, which will take place after a few days, all of that will be lost. That is why the Socialist Party urges the people of India that they should contemplate about the truth of the Rafale Deal as per their own wisdom. They should not be swept away with the mainstream media and the statements/counter-statements of parties/politicians playing with emotions in the name of caste, religion, lineage, family, person. They should not see the Rafale Deal as a war between BJP and Congress, but as a war between the Modi Government and the Indian nation. The people of India can only pull Indian nationalism out of the clutches of arms dealers and war-mongering governments.

Dr. Prem Singh
President

Wednesday, 13 February 2019

महात्मा गांधी और डॉ. भीमराव अम्बेडकर



मधु लिमये
            मुझे यह कहते हुये जरा भी संकोच नहीं होता है कि सामाजिक न्याय और समता के लिए हो रहे संघर्ष में मैं उनके साथ खड़ा हूँ जो जाति के आधार पर दलित हैं और पिछड़े हुये हैं | लेकिन इसके साथ ही साथ मैं यह भी बता देना चाहता हूँ की दलित वर्ग के ऐसे नेताओं का विरोधी भी हूँ जो आये दिन बिना प्रायोजन के महात्मा गांधी को बुरा भला कहते हैं |
            मैं स्वयं ऐसे लोगों को, जिनमें महात्मा ज्योति बा फुले, नारायण गुरु, रामास्वामी पेरियार, डॉ. अम्बेडकर और राम मनोहर लोहिया का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है, श्रद्धा की दृष्टि से देखता हूँ | क्योंकि इन महापुरुषों ने सामाजिक बराबरी के सन्दर्भ में वर्ण विहीन और जाती विहीन समाज की रचना के लिए संघर्ष किया था, आन्दोलन किया था | लेकिन मेरे द्वारा इन महापुरुषों की प्रशंसा करने का अर्थ यह कदापि नहीं होता कि विश्व की पीड़ित मानवता के प्रतिनिधि महात्मा गांधी का मैं अपमान करने वालों में हूँ | उन्होंने अछूतों, महिलाओं, गरीब किसानों और शोषित-पीड़ित मजदूरों के प्रति हो रहे अन्यायों को चुनौती के रूप में स्वीकारा था और प्रतिकार स्वरुप उन्हें नेतृत्व प्रदान किया | उन्होंने भारत में अनेक धर्मों और सम्प्रदायों में विभाजित लोगों के बीच शांति और एकता स्थापित करने की दिशा में काम किया था | उन्होंने दलित वर्ग को, जो अस्त्र-शास्त्र विहीन था, सविनय अवज्ञा का शक्तिशाली शास्त्र दिया | अम्बेडकर की भांति वे भी विश्व नागरिकता के प्रवक्ता थे | उनकी मांग थी कि पिछड़ी जातियों, अनुसूचित जातियों, जनजातियों और महिलाओं को मताधिकार मिले | पिछड़ी जातियों और अनुसूचित जातियों के कतिपय नेता महात्मा गांधी के ऊपर झूठ-मूठ का आरोप लगाते हैं कि सन 1931-32 में उन्होंने शूद्रों को मताधिकार देने का विरोध किया था और जब ब्रिटिश सरकार ने मताधिकार दे दिया तो उन्होंने इसके विरोध में 18 अगस्त 1932 को अपना अनशन प्रारम्भ कर दिया |
            ऐसा नेता जिसने इस तरह के उजड्डपने का महात्मा गांधी के ऊपर आरोप लगाया, शायद उसे वस्तु स्थिति का ज्ञान नहीं है और उसका ऐसा आरोप अफवाहों पर ही आधारित है | यदि ऐसा है तो उसे अपनी भूल को सुधार लेना चाहिए और यदि उसने जान बुझकर ऐसा आरोप लगाया तो मैं कह सकता हूँ कि उनका ऐसा आरोप पूर्व विचारित एवं पूर्वाग्रह से प्रेरित है | ऐसे आरोप से दलित वर्ग को, जो ब्राह्मणवाद की बेड़ियों में जकड़ा हुआ है, मुक्ति नहीं मिलेगी जबकि ऐसा कहने वाला नेता यह कहता है कि वह मुक्ति दिलाने के लिए पूर्ण समर्पित है |
            अब मैं मताधिकार के सवाल पर महात्मा गांधी और डॉ. अम्बेडकर के विचारों को एक जगह प्रस्तुत करना चाहूँगा | मांटेग्यू चेम्सफोर्ड की सुधार योजना विचारार्थ प्रस्तुत थी | साउथब्रो सामिति के समक्ष दलितों को मताधिकार दिलाने के पक्ष में डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने बड़े ही जोश-खरोश में उनका पक्ष प्रस्तुत करते हुये, जो विशेष रूप से उल्लेखनीय है, कहा था, "वे लोग, जो मताधिकार की परिधि को कम करने का विचार बना चुके हैं, ऐसा सोच रहे हैं कि सिर्फ प्रज्ञावान ही मताधिकार का सही उपयोग कर सकता है, गलत है | क्योंकि मताधिकार का उपयोग अपने आप में एक शिक्षण है |"
            और लगभग 10 वर्ष बाद साइमन कमीशन के समक्ष जब डॉ. अम्बेडकर उपस्थित हुये तो उन्होंने अपने पूर्व विचारों के साथ सामंजस्य स्थापित करते हुये तत्कालीन मताधिकार के सन्दर्भ में संयुक्त निर्वाचन क्षेत्र के लिए स्वीकृति दी | इसे निम्नलिखित अंशों द्वारा द्वारा देखना न्यायपूर्ण होगा -
            कर्नल लेनफाक्स : आपने अपने प्रत्येक स्मृति पत्र के द्वारा दलित वर्ग के लिए विशेष प्रतिनिधित्व देने के       लिए मांग की है | अब आप बालिग मताधिकार की मांग कर रहे हैं | आप जानते हैं कि बालिग मताधिकार की मांग बहुत बड़ी मांग है | इस मांग में वे लोग भी आते हैं जो आदमी जनजातियों के हैं और अपराध कर्मी जाति के भी हैं | आपकी मांग बड़े समुदाय के लिए या छोटे समुदाय के लिए है ?
            डॉ. अम्बेडकर : मैंने मताधिकार की मांग उनके लिए की है जो दलित वर्ग के हैं |
            कर्नल लेनफाक्स : तो क्या आदिम जन-जातियों और अपराधकर्मी जातियों के लिए भी ?
           डॉ. अम्बेडकर : मेरा विचार है कि ऐसे लोगों को वर्त्तमान में मताधिकार देना संभव नहीं होगा | यदि बालिग़     मताधिकार दिया जाता है तो हमारी मांग है कि हमें सुरक्षित निर्वाचन क्षेत्र भी दिया जाये |
            अध्यक्ष : और अगर बालिग मताधिकार नहीं मिला तो ?
            डॉ. अम्बेडकर : ऐसी स्थिति में हम पृथक निर्वाचन क्षेत्र की मांग करेंगे | 
            मई, 1946 तक आते-आते डॉ. अम्बेडकर ने आदिम जनजातियों को मताधिकार दिये जाने का निरंतर विरोध करना शुरू कर दिया | उनका विरोध इस आधार पर था | "आदिम जन जातियों में राजनैतिक ज्ञान का अभाव हैं जबकि राजनैतिक शक्ति का अपने हित में इस्तेमाल करने के लिए राजनैतिक ज्ञान का होना जरुरी हैं |" उन्होंने यह भी कहा कि वह सम्पूर्ण पीड़ित जनता का नेतृत्व करते हैं | जीवन बड़ा ही थोड़ा है | उनकी शारीरिक उर्जा चुक गयी है | इसलिए उन्होंने अपने को सिर्फ अछूतों तक ही सीमित कर लिया है | हालाँकि इसके लिए और भी जरुरी बहुत से कारण थे |
            महात्मा गाँधी ने अनुसूचित जातियों के लिए पृथक निर्वाचन क्षेत्र बनाने के विचार का विरोध किया था, मगर इन्हें बालिग मताधिकार दिलाने के वे प्रबल पक्षधर थे | सन 1931 में कांग्रेस के कराची अधिवेशन में आर्थिक परिवर्तनों और मौलिक अधिकारों के सम्बन्ध में जो प्रस्ताव पारित हुआ था उसे महात्मा गांधी ने स्वयं लिखा था और उस प्रस्ताव में इसका उल्लेख है कि सभी को बालिग मताधिकार, दासता से मुक्ति और निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था आजाद भारत में की जायेगी |
            सन 1928 में कलकाता में कांग्रेस का जो अधिवेशन हुआ था, उसमें महात्मा गांधी ने जवाहरलाल नेहरु के प्रतिवेदन, जिसमें सभी को बालिग मताधिकार देने का प्रस्ताव था, का जोरदार समर्थन किया था | 16 जुलाई, 1931 को 'यंग इंडिया' में महात्मा गांधी ने अपने एक लेख में लिखा था कि सांप्रदायिक समस्या, जिसकी नींव डाली जा चुकी है, को सुलझाने के लिए कांग्रेस योजना सभी वर्गों के बालिगों के लिए चाहे पुरुष हों या स्त्री, मताधिकार और संयुक्त निर्वाचन क्षेत्र के लिए होनी चाहिए और जब भविष्य में भारत का संविधान निर्मित होगा उसमें इसका साफ़ तौर से उल्लेख होगा |
            गोलमेज सम्मेलन में संघीय ढांचा समिति के समक्ष महात्मा गांधी ने कहा था, "मैं बालिग मताधिकार से बंधा हुआ हूँ | बालिग मताधिकार एक बहुत बड़ी आवश्यकता है | कारण यह है कि इससे मैं अपने आप को समर्थ पाता हूँ कि उन लोगों की, सिर्फ मुसलमानों की ही नहीं वरन तथाकथित अछूतों और मेहनतकश ईसाईयों की भी आकांक्षाओं को संतुष्ट कर सकूँगा |" महात्मा गांधी ने यह भी कहा कि, "मैं नहीं चाहता हूँ कि सिर्फ धनिकों और साक्षरों को ही मताधिकार मिले | कुछ उदाहरण के तौर पर गरीबों में भी उच्चस्तर के लोग होते हैं | अगर धन को ही मताधिकार का मापदंड माना जाता है तो मैं बहुत दिनों तक इसके लिए प्रतीक्षा नहीं करूँगा |"
            हैराल्ड लास्की, जे. एस. होराबीन, एच. एन. वेल्स फोर्ड और दूसरों के साथ एक बातचीत के अवसर पर 3 दिसम्बर, 1931 को महात्मा गांधी ने कहा था, "जब तक सभी को बालिग मताधिकार नहीं मिलता मुझे संतोष नहीं होगा | एक ही झटके में दलितों को मैं ऐसे शक्तिशाली शास्त्रों से लैस कर दूंगा |" ऐसा नहीं कि महात्मा गांधी के ये विचार बाद में पैदा हुये, अपितु जीवन के प्रारम्भ काल से ही इन विचारों के बिज उनमें थे | सिर्फ अहिंसा और पीड़ित मानवता की सेवा की भावना और आदर्श ही बाद में उनमें उत्पन्न हुआ | अन्य बहुत से सवालों पर महात्मा गांधी ने विचार बनाया और सार्वजनिक जीवन में प्रयोग करते हुए उसे बदल भी दिया |
            बचपन में उन्होंने वर्णव्यवस्था का समर्थन किया था लेकिन बाद में वे इस तरह बदल गए कि बिना भेदभाव के उन्होंने सवर्णों और हरिजनों के बीच अंतर्जातीय शादी को प्रोत्साहित किया | महात्मा गांधी का यह कर्म हम सभी को दलितों की सेवा करना और उनसे शक्ति अर्जित करने की प्रेरणा देता है | ठक्कर बापा उन अनेक लोगों में से एक हैं जिन्होंने भारतीय संविधान के अस्तित्व में आ जाने के बाद दलितों की मदद करनी शुरू कर दी | पिछड़ी जातियों, अनुसूचित जातियों और जनजातियों से सम्बंधित भारतीय संविधान में उल्लिखित सभी प्रावधानों को लागू करने के लिए उन्होंने सरकार पर भारी दबाव डालने का काम किया था | यह हम लोगों का कर्तव्य है कि हम उन सभी लोगों के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करें जिन्होंने दलितों और शोषितों के उद्धार के लिए संघर्ष किया है |
            यह तो महात्मा गांधी का ही प्रभाव था जिसकी वजह से बहुत से नेताओं को बालिग़ मताधिकार स्वीकार करना पड़ा और जिसका भारतीय संविधान के अनुच्छेद 330 अंतर्गत अनुसूचित जातियों और जन जातियों के लिए आबादी के अनुपात में निर्वाचन क्षेत्रों को सुरक्षित किए जाने का उल्लेख है | इसी अनुच्छेद के अनुसार लोकसभा में सदस्यों की कुल संख्या के 1/5 से ज्यादा सदस्य अनुसूचित जाती और जन जाती से आते हैं | हमारे जैसे लोग महात्मा गांधी के वर्ण व्यवस्था समर्थक विचार, जो उनके प्रारंभिक दिनों में था, को मान्यता नहीं देते हैं और न तो डॉ. अम्बेडकर के उन विचारों को मान्यता देते हैं, जबकि उन्होंने सन 1928 से 1946 तक आदिवासियों और तथाकथित अपराधकर्मी जातियों को बालिग मताधिकार देने का विरोध किया था |
            भारतीय संविधान, जो डॉ. अम्बेडकर के देखरेख में लिखा गया था, में अनुसूचित जाति और जन जातियों को उच्च सदन और निचले सदन में बराबर प्रतिनिधित्व दिया गया है और न सिर्फ इसी क्षेत्र में अपितु राजकीय सेवाओं में भी आरक्षण प्रदान किया गया है | इसलिए राष्ट्र का कर्तव्य होता है कि महात्मा गांधी और डॉ. अम्बेडकर दोनों विभूतियों को उचित सम्मान दे | 

Sunday, 10 February 2019

Two Phenomena of 'Modi Era' : Virtual World and Unabated Communal-Caste Conflicts



Prem Singh


Writer, a former Fellow of Indian Institute of
 Advanced Study, Shimal,
 teaches Hindi at Delhi University
and is president of Socialist Party (India) 
First phenomenon : Prime Minister Narendra Modi's team has succeeded in projecting the political debate from the ground on to the virtual world. The political and intellectual class  has played a pivotal role in the last three decades in the crystallisation of this successful endeavour of Modi. As political and intellectual discussions began taking shape in a manner which led to the decimation of any opposition to the New Economic Policies introduced in 1991, the virtual world gradually erected its tall stature vis-a-vis the real world. Through this world of bizarre social-religious serials, sermons of god men, endless albums/videos of dance and songs, endless commercial advertisements of consumer products, slap stick comedies, masala films etc. the virtual world found its way into the arena of news channels. By now the phenomena is so mature that news can be created even without any real content! In this world, the only currency which is in circulation is that of lies, ignorance, shamelessness, immorality, aggression, violence, crime etc. Here the issues like manipulation of governmental figures/data, breakdown of constitutional institutions, scams; narratives such as patriotism and treason; and incidents, starting from mob lynching, murders, rapes, encounters to surgical strikes, are sacrificed at the altar of virtual world.

Politics based on real issues and debates confronts against neo-imperialist designs. That is why the country is being changed into the virtual world by the supporters of neo-imperialism. Whatever the advantages of social media may be when compared to the mainstream media, ultimately the former is also found engaged in the facilitation of the virtual world. There are sporadic instances of discussions over real issues by the intellectuals and non-BJP leaders. But since they align with the BJP and the Congress on neo-liberal policies, hence this virtual world exists unaffected.

The magical spell of this virtual world is too strong to be dismantled easily. Therefore, whatever government will be formed in the future, it will be a government situated in this virtual world. The mob will prevail, instigating killings, taking the law in its own hands and the society will remain drunk with the intoxication of the virtual world. And the list of casualties will no longer be restricted to the Muslims and other minorities but anyone, including the police personnel, would be the victim of this raging mobocracy.

The episode of the anti-corruption movement and Aam Aadmi Party which made inroads to the corridors of power on anti-ideology plank presented a trailer of this phenomenon. The team Narendra Modi extended/converted it into a full-fledged film. The frenzy of the Hindu nationalism rides on the frenzy of the anti-corruption movement. And there is no need to repeat the fact that almost entire secular-progressive intelligentsia supported that 'trailer' held under the auspices of the RSS. Just as the actors of anti-corruption movement were not virtuous, in the same way, the soldiers of Hindu nationalism, as per even the most distorted interpretations of Hindu religion, are not religious. Both are pawns in the politics of neo-imperialism. They, in fact, have made neo-imperialism the destiny of the country in blatant disregard to the spirit of the Constitution.

Second phenomenon : In the Vajpayee era, the government was wary of the fact that communal frenzy might hamper foreign investment because one of the preconditions of any private investment, be it indigenous or foreign, is stable and safe environment. Vajpayee often used to admonish the RSS to keep its frenzy spreading agenda within bounds. In fact, Vajpayee even commanded that the RSS keep its facade of opposing the private investment in check. 'Modi Era' has brought a complete reversal of the situation. Now the investors of domestic as well as foreign private capital themselves believe that higher the incidence of communal and social conflicts, higher will be the safety of their business interests. Such an alignment of mutual interests was sealed on the day when diplomatic and business representatives from the countries of Europe and America met the RSS/BJP prime ministerial candidate Narendra Modi in Delhi. Moreover the visa-ban which was imposed on Narendra Modi owing to his role in the Gujarat riots, was nullified by them only.

Modi did not disappoint domestic and foreign investors. He has shown that an atmosphere of communal and societal frenzy is conducive to domestic and foreign business interests. Under the 'able' leadership of Modi, the Hindu society is dutifully engaged in Muslim bashing and, at the same time, bashing of 'manuvadis'. Modi’s feat is owed to the fact that secular and progressive intellectuals have been busy in securing benefits and positions for themselves in the ten year rule of the Congress. The ground for the same, however, was laid in the Vajpayee era only. Khushwant Singh foresaw the arrival of fascism at that time only when he wrote a comment titled 'Fascism Has Come' in his weekly column 'With Malice Towards One and All', used to be published in Hindi newspapers under the title 'Bura mano ya bhala". In this, he wrote, 'Fascism of the Hindustani brand is standing at our door, and the most prominent advocate of Hindustani fascism is our Deputy Prime Minister, LK Advani. During his imprisonment at the time of Emergency he read Hitler's 'Mein Kampf'. The supreme leader of Shiv Sena never shied away from calling Hitler as Superman. Narendra Modi has been instrumental in implementing fascism in Gujarat. Apart from these, Singhal, Giriraj Kishore, Togadia etc. have been the flag bearers of fascism.'

Upon the completion of four years of the Vajpayee government I wrote an article in 'Jansatta' with the title of 'Fasiwadi Muhim Ke Nayak' (Leader of the Fascist Campaign). I had even raised questions on Khushwant Singh's commentary as he kept Vajpayee out of the entire cauldron. I inquired as to who is spearheading the fascist campaign? Securing shelter for themselves is the specialty of intellectuals and likewise Khushwant Singh found his refuge in Vajpayee.

Most secular-progressive intellectuals who raise hue and cry about fascism are concerned more about their entitlements rather than about the public which actually bears the brunt of this menace. So despite change in the government in the upcoming elections, they will be busy holding and securing their positions. Therefore, these two phenomena, which speared their heads in the 'Modi Era', show no signs of relenting. The minorities of the country need to understand this unfortunate reality of present times and so should those who are engaged in the struggle of identity politics as a guarantee of their education and employment.


Thursday, 7 February 2019

'मोदी युग' की दो परिघटनाएं

'मोदी युग' की दो परिघटनाएं

प्रेम सिंह

     
पहली परिघटना : प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी की टीम ने राजनीतिक बहस को ज़मीन से उठा कर आभासी दुनियां में प्रक्षेपित कर दिया है. उसकी इस सफलता के पीछे पिछले करीब तीन दशक की राजनीति है जिसे राजनीतिक और बौद्धिक जमात ने सम्मिलित रूप में सींचा है. जैसे-जैसे राजनीतिक और बौद्धिक विमर्श से नई आर्थिक नीतियों का विपक्ष समाप्त होता चला गया, वास्तविक दुनिया के बरक्स एक आभासी दुनिया खड़ी होती चली गई. विचित्र सामाजिक-धार्मिक सीरियलों, प्रवचनों, नाच-गानों के अनंत एल्बमों, अनंत विज्ञापनों, फूहड़ हास्य कार्यक्रमों, मसाला फिल्मों से होते हुए इस आभासी दुनियां ने सीधे समाचार चैनलों को अपनी गिरफ्त में ले लिया. इस दुनिया में झूठ, अज्ञान, निर्लज्जता, अनैतिकता, कूपमंडूकता, आक्रामकता, हिंसा, जुर्म आदि का सिक्का सरे आम चलता है. यहां सरकारी आंकड़ों में हेर-फेर, संवैधानिक संस्थाओं में तोड़-फोड़, घोटाले, देश-भक्ति, देश-द्रोह जैसे मुद्दे और मोब लिंचिंग, बलात्कार के बाद हत्या, एनकाउंटर से लेकर सर्जिकल स्ट्राइक जैसी घटनाएं आभासी दुनिया की भेंट चढ़ जाती हैं.      
      वास्तविक मुद्दों पर ज़मीनी राजनीति और बहस नवसाम्राज्यवादी दखल और लूट से टकराती है. इसीलिए देश आभासी दुनिया में तब्दील किया जा रहा है. मुख्यधारा मीडिया के बरक्स सोशल मीडिया जो भी फायदे हों, अंतत: वह भी आभासी दुनिया की सेवा में लगा होता है. ऐसा नहीं है कि कभी-कभार वास्तविक मुद्दों की बात बुद्धिजीवियों और भाजपेतर नेताओं की और से नहीं होती है. चूंकि वे सभी नवउदारवादी नीतियों पर भाजपा और कांग्रेस के साथ हैं, इसलिए इस आभासी दुनिया पर उसका प्रभाव नहीं पड़ता. आभासी दुनिया का यह तिलस्म टूटना आसान नहीं है. लिहाज़ा, आगे जो भी सरकार बनेगी वह इसी आभासी दुनियां में स्थित सरकार होगी. ज़मीन पर भीड़ लोगों को दौड़ाती और हत्या करती रहेगी और समाज आभासी दुनिया के नशे में गर्क बना रहेगा. मारे जाने वाले केवल और हमेशा मुलसमान या अन्य अल्पसंख्यक होंगे, यह जरूरी नहीं है. कोई भी, पुलिस वाले तक, भीड़तंत्र का शिकार हो सकता है.
      भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन और विचारधाराहीनता की वकालत करके सत्ता में आने वाली आम आदमी पार्टी के प्रसंग में इस परिघटना का ट्रेलर देखने को मिला था, जिसे टीम नरेंद्र मोदी ने पूरी फिल्म में तब्दील कर दिया. भ्रष्टाचार विरोध के उन्माद पर सवार होकर हिंदू राष्ट्रवाद का उन्माद परवान चढ़ा है. जिस तरह भ्रष्टाचार विरोध का आंदोलन चलाने वाले सदाचारी नहीं थे, उसी तरह हिंदू राष्ट्रवाद के सिपाही, हिंदू धर्म की बुरी से बुरी व्याख्या के हिसाब से, धार्मिक नहीं हैं. दोनों नवसाम्राज्यवाद की राजनीति के खिलौने हैं, जिन्होंने देश की संवैधानिक धारा के बरक्स हमेशा के लिए नवसाम्राज्यवाद को देश की नियति बना दिया.    
      दूसरी परिघटना पर बात करें. वाजपेयी काल में सरकार को डर होता था कि एक सीमा के बाद सांप्रदायिक उन्माद फ़ैलाने से विदेशी निवेश आने में बाधा हो सकती है. क्योंकि देशी-विदेशी निवेशकर्ता अपनी पूँजी लगाने के लिए देश में सुरक्षित माहौल की अपेक्षा करते थे. वाजपेयी आरएसएस को धमकाते रहते थे कि वह एक सीमा के बाद सांप्रदायिक उन्माद न फैलाये. वे उसे प्राइवेट पूँजी का सीधा विरोध, जो आरएसएस उस दौर में दिखावे के लिए करता था, करने पर भी धमकी देते थे. 'मोदी युग' में सिक्का बदल गया है. अब देशी-विदेशी प्राइवेट पूँजी के निवेशकार खुद मानते हैं कि समाज में जितना सांप्रदायिक और सामाजिक टकराव (कनफ्लिक्ट) होगा, वे उतना ही सुरक्षित रहेंगे. विदेशी पूँजी और आरएसएस के बीच यह उसी दिन तय हो गया था जब यूरोप-अमेरिका के देशों के कूटनीतिक और बिज़नेस प्रतिनिधि आरएसएस/भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी से दिल्ली में आकर मिले थे. उन्होंने गुजरात दंगों में नरेंद्र मोदी की भूमिका के चलते अपने देशों में उनके प्रवेश पर लगाया प्रतिबन्ध खुद ही रद्द कर दिया था.
      मोदी ने देशी-विदेशी निवेशकर्ताओं को निराश नहीं किया. उन्होंने यह कर दिखाया है कि सांप्रदायिक और जातीय उन्माद जितना फैलेगा, देशी कारपोरेट घरानों और विदेशी निवेश के लिए उतना ही अच्छा है. मोदी के कुशल नेतृत्व में हिंदू समाज एक तरफ मुसलमानों के और दूसरी तरफ 'मनुवादियों' के छक्के छुड़ाने में मुस्तैदी से लगा हुआ है. मोदी यह इसलिए कर पाए हैं कि वाजपेयी के बाद कांग्रेस के 10 साल के शासन में धर्मनिरपेक्ष-प्रगतिशील बुद्धिजीवी संस्थाओं के पद-पुरस्कार लेने-देने में मशगूल रहे. जबकि जो अब हो रहा है उसकी ज़मीन वाजपेयी के शासन में अच्छी तरह से तैयार हो गयी थी. उस समय खुशवंत सिंह ने अपने सप्ताहवार कॉलम 'बुरा मानो या भला' में 'आ चुका है फासीवाद' शीर्षक से एक टिप्पणी लिखी थी. उसमें उन्होंने लिखा, "हिन्दुस्तानी ब्रांड का फासीवाद हमारे दरवाज़े पर खड़ा है. इस हिन्दुस्तानी फासीवाद के सबसे बड़े पैरोकार हमारे उप-प्रधानमन्त्री लालकृष्ण अडवाणी हैं. इमरजेंसी के दौरान जेल में उन्होंने हिटलर की 'मेई कैंफ' पढ़ी थी. शिवसेना के सुप्रीमो हिटलर को सुपरमैन कहते नहीं अघाते. उसे लागू करने वाले सबसे ख़ास गुजरात के नरेन्द्र मोदी हैं. इनके अलावा सिंघल, गिरिराज किशोर, तोगड़िया वगैरह तो झंडा उठाये ही हुए हैं." मैंने उस समय 'फासीवादी मुहिम के नायक' शीर्षक से 'जनसत्ता' में लेख लिखा था. तब तक वाजपेयी सरकार के 4 साल पूरे हो चुके थे. मैंने खुशवंत सिंह की टिप्पणी पर सवाल उठाया था कि फासीवाद की मुहिम किसके नेतृत्व में चल रही है? क्योंकि उन्होंने प्रधानमंत्री वाजपेयी को फासीवादी मुहिम से बाहर रखा था. बुद्धिजीवियों की यह खासियत होती है कि वे अपने लिए कोई न कोई कोना तलाश लेते हैं. जैसे खुशवंत सिंह सरीखों ने वाजपेयी का कोना तलाश लिया था.    
      अभी भी फासीवाद-फासीवाद का शोर मचाने वाले ज्यादातर धर्मनिरपेक्ष-प्रगतिशील बुद्धिजीवियों को इस परिघटना का दंश झेलने वाली आबादी की नहीं, उसके बहाने अपने हितों की चिंता है. इसलिए आगामी चुनाव में सरकार बदलने के बावजूद वे बिना किसी दुविधा के अपने-अपने कोने पकड़ कर व्यस्त हो जायेंगे. लिहाज़ा, 'मोदी युग' में परवान चढ़ी ये दोनों परिघटनाएं भविष्य में दबने वाली नहीं हैं. यह सच्चाई देश के अल्पसंख्यकों को अच्छी तरह समझ लेने की जरूरत है. उन्हें भी जो अस्मितावाद की राजनीति में अपनी शिक्षा और रोजगार की गारंटी मान कर संघर्ष में लगे होते हैं.   

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