Tuesday, 26 March 2019

और अंत में लोहिया!


प्रेम सिंह

23 मार्च को डॉ. राममनोहर लोहिया का जन्मदिन होता है. हालांकि कहा जाता है वे अपना जन्मदिन मनाते नहीं थे. क्योंकि उसी दिन क्रांतिकारी भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को ब्रिटिश हुकूमत ने फांसी पर चढ़ाया था. लिहाज़ा, भारत के ज्यादातर समाजवादी लोहिया जयंती को शहीदी दिवस के साथ जोड़ कर मनाते हैं. इस बार लोहिया जयंती के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने ब्लॉग पर लोहिया को याद किया. जैसे ही यह खबर सार्वजनिक हुई, मेरे एक मित्र ने फोन करके इस ओर ध्यान दिलाया. उन्होंने तकाजे के साथ कहा कि मुझे तुरंत प्रधानमंत्री के ट्वीट का जवाब लिखना चाहिए. मैंने मित्र से कहा कि वर्तमान राजनीति में ब्लॉग और ट्वीटर एक विशाल उद्योग बन गया है, जिसमें भुगतान के आधार पर या चाटुकार काम करते हैं. नेताओं के ब्लॉग और ट्वीट का जवाब लिखेंगे तो अपना काम करने की फुर्सत ही नहीं होगी. मैंने मित्र से पूछा कि मोदी पिछले पांच सालों से गांधी, अम्बेडकर, पटेल, भगत सिंह जैसी मूर्धन्य हस्तियों के बारे में जो कहते आ रहे हैं, क्या उनका जवाब दिया जा सकता है? क्या जवाब दिया भी जाना चाहिए?

समाजवादियों में एक शब्द 'खांटी लोहियावादी' चलता है. फोन करने वाले मित्र उसी कोटि में आते हैं. वे बेचैन हो कर बोले, लेकिन डॉक्टर साहब (लोहिया) की बात अलग है; वे अभी तक बचे हुए थे; मोदी को उन पर कब्ज़ा नहीं करने देना चाहिए! मैंने कहा इस विवाद में पड़ना मोदी की पिच पर खेलना है, जिससे मैं भरसक बचने की कोशिश करता हूं. मित्र थोड़ा नाराज हो गए. मैंने उनसे निवेदन किया कि मोदी और आरएसएस न गांधी, अम्बेडकर, पटेल, भगत सिंह आदि पर और न ही लोहिया पर कब्ज़ा जमा सकते हैं. जो व्यक्ति या संगठन न आज़ादी के संघर्ष के मूल्यों को मानता हो और न संविधान के मूल्यों को, वह भला स्वतंत्रता के संघर्ष में तपी इन हस्तियों को कैसे अपना सकता है? दोनों के बीच मौलिक विरोध है. मोदी और आरएसएस केवल उनका सत्ता के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं, और वही कर रहे हैं. लोहिया के बारे में या बचाव में मोदी या आरएसएस के संदर्भ में कुछ भी कहने का औचित्य नहीं है. मैंने मित्र से आगे कहा कि लोहिया की 50वीं पुण्यतिथि पर अमृतलाल ने 'इंडियन एक्सप्रेस' (12 अक्तूबर 2017) में लोहिया के राजनीतिक चिंतन और कर्म पर एक सारगर्भित लेख ('राममनोहर लोहिया : इन हिज टाइम्स एंड अवर्स') लिखा था. मेरी समझ में पत्रकारी लेखन में लोहिया पर लिखे गए इधर के लेखों में वह सर्वोत्तम है. आप अपनी तसल्ली के लिए वह पढ़ लीजिए. और हो सके तो वह लेख लोगों तक प्रेषित करिए.   

मित्र ने हामी भरी लेकिन मोदी का खंडन करने की बात पर अड़े रहे. हार कर मैंने उनसे कहा कि लोहिया के अपहरण के लिए मोदी और आरएसएस को दोष देने का ज्यादा औचित्य नहीं है. दोष उन 'समाजवादियों' का ज्यादा है जो नीतीश कुमार जैसे आरएसएस/भाजपा परस्त नेताओं की अगुआई में लोहिया जयंती अथवा पुण्यतिथि के अवसर पर कभी गृहमंत्री राजनाथ सिंह और कभी राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को मुख्य अतिथि के रूप में बुला कर लोहिया का व्यापार करते हैं! मित्र सचमुच खिन्न हुए और यह कहते हुए फोन रख दिया कि ऐसे लोग निश्चित रूप से सफल हो गए हैं. देख लेना इस बार अगर मोदी जीतेंगे तो उनकी सरकार लोहिया को जरूर भारत-रत्न देगी. वह लोहिया का अभी तक का सबसे बड़ा अवमूल्यन होगा.     

बहरहाल, सुबह अखबार देखा तो मोदी के ब्लॉग पर लोहिया के बारे में लिखी गई टिप्पणी पर अच्छी-खासी खबर पढ़ने को मिली. पता चला कि मोदी ने लोकसभा चुनावों के मद्देनज़र अंत में लोहिया को हथियार बना कर विपक्ष पर प्रहार किया है. पूरी टिप्पणी में बड़बोलापन और खोखलापन भरा हुआ है. एक स्वतंत्रता सेनानी और गरीबों के हक़ में समानता का संघर्ष चलाने वाले दिवंगत व्यक्ति का उनकी जयंती के अवसर पर चुनावी फायदे के लिए इस्तेमाल अफसोस की बात है. तब और भी ज्यादा जब ऐसा करने वाला शख्स देश का प्रधानमंत्री हो! जैसा कि मैंने ऊपर कहा है, लोहिया की विचारधारा, सिद्धांतों, नीतियों पर मोदी के ब्लॉग के संदर्भ में चर्चा करने की जरूरत नहीं है. केवल उनके गैर-कांग्रेसवाद, जो मोदी के मुताबिक उनके मन-आत्मा में बसा हुआ था, पर थोड़ी बात करते हैं. यह पूरी तरह गलत है कि लोहिया के 'मन और आत्मा' में कांग्रेस-विरोध बसा था. मोदी ने नॉन-कांग्रेसिज्म को अपने ब्लॉग में एंटी-कांग्रेसिज्म कर दिया है.

लोहिया ने कांग्रेस के झंडे तले आज़ादी का संघर्ष किया था. कांग्रेस के अंतर्गत 1934 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी (सीएसपी) के गठन में हिस्सेदार बने थे. आज़ादी के बाद लोकतांत्रिक समाजवाद के लक्ष्य की दिशा में काम करने के उद्देश्य से 1948 में सोशलिस्ट पार्टी को कांग्रेस से अलग किया था. यह फैसला इसलिए किया गया कि कांग्रेस ने अपने नए पार्टी संविधान के तहत पहले की तरह सीएसपी को साथ रखने से इनकार कर दिया था. लोकतांत्रिक व्यवस्था में सत्तारूढ़ कांग्रेस और उसके नेतृत्व की आलोचना लोहिया का लोकतांत्रिक फ़र्ज़ था. लोकतंत्र में हमेशा एक ही पार्टी का शासन नहीं चलना चाहिए, लोहिया इस लोकतांत्रिक प्रेरणा पर बल देते थे. इसीलिए लोहिया ने अपने राजनीतिक कैरियर के लगभग अंत में गैर-कांग्रेसवाद की रणनीति अपनाई थी, जिसके चलते 9 राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारें बनी थीं. वह उनका कोई राजनीतिक सिद्धांत नहीं था. 'जन' (अक्तूबर 1967) के अपने अंतिम सम्पादकीय में उन्होंने गैर-कांग्रेसवाद के प्रयोग की समीक्षा करते हुए उसके नतीजों पर खुद असंतोष प्रकट किया था.

मोदी के ज़माने की सोनिया गांधी-मनमोहन सिंह कांग्रेस का लोहिया के ज़माने की नेहरू कांग्रेस से सम्बन्ध नाम भर का है. सोनिया गांधी-मनमोहन सिंह की कांग्रेस निगम पूंजीवाद की समर्थक है. आरएसएस/भाजपा और मोदी भी निगम पूंजीवाद के समर्थक हैं. मनमोहन सिंह ने 1991 में नई आर्थिक नीतियां लागू कीं तब भाजपा के वरिष्ठ नेता अटलबिहारी वाजपेयी ने कहा था कि अब कांग्रेस ने भाजपा की विचारधारा अपना ली है. लिहाज़ा, मोदी का कांग्रेस विरोध लम्बे समय तक सत्ता पर कब्ज़ा बनाए रखने की नीयत से परिचालित है. इन दोनों पार्टियों के बीच में नीतिगत अंतर नहीं रह गया है. मोदी कांग्रेस का काम ही आगे बढ़ा रहे हैं. हालांकि एक फर्क है : मनमोहन सिंह ऊंचे पाए के अर्थशास्त्री होने के नाते नवउदारवादी नीतियों को शास्त्रीय ढंग से अंजाम देते थे, मोदी अंधी चालें चलते हैं. सत्ता के दुरूपयोग के मामले में भी मोदी सरकार कांग्रेस से किसी मायने में पीछे नहीं रही है.

मोदी के शासन में उनकी या सरकार की आलोचना करने पर नागरिकों को प्रताड़ित और अपमानित किया जाता है, लोकतंत्र का आधार रही संवैधानिक संस्थाओं को अवमूल्यित और विनष्ट किया जाता है, सरकार के मंत्री संविधान को नहीं मानने और बदलने की बात खुलेआम करते हैं, वे यहां तक कहते हैं कि लोकसभा का यह चुनाव अंतिम होगा, भाजपा अध्यक्ष कहते हैं हम 50 साल तक सत्ता में बने रहेंगे ...
मोदी सरकार की लोकतंत्र-विरोधी प्रवृत्तियों का अंत नहीं है. इसके बावजूद मोदी धुर लोकतंत्रवादी लोहिया का नाम लेकर विपक्ष पर हमला बोलते है! इसे विडम्बना कहें या पाखंड की पराकाष्ठा?  

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के शिक्षक और सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष हैं.)

भगत सिंह और लोहिया के चिंतन का संश्लेषण जरूरी है - अरुण त्रिपाठी

24 मार्च 2019
प्रेस रिलीज़

शहीदी दिवस और लोहिया जयंती पर सोशलिस्ट पार्टी का आयोजन

23 मार्च 2019 को शहीदी दिवस और लोहिया जयंती के अवसर पर अरुण कुमार त्रिपाठी ने 'सामाजिक चेतना के विकास में भगत सिंह और लोहिया के योगदान' विषय पर एकल व्यक्तव्य दिया। कार्यक्रम का आयोजन सोशलिस्ट पार्टी ने गांधी शांति प्रतिष्ठानदिल्ली में किया था. कार्यक्रम की अध्यक्षता योगेश पूरी ने और विषय प्रवर्तन डॉ. प्रेम सिंह ने किया.

अरुण कुमार त्रिपाठी ने डॉ. लोहिया को भगत सिंहगांधी और आंबेडकर की त्रिवेणी बताते हुए कहा कि उनके चिंतन में इन तीनों संश्लेषण मिलता है. उन्होंने ने समाजवाद शब्द से जुड़े इतिहास के बारे में बताते हुए कहा कि ग़दर पार्टी ने पहली बार समाजवाद शब्द को अपने घोषणापत्र शामिल किया था। इसके बाद भगत सिंह और उनके साथियों ने हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन की स्थापना में 'सोशलिस्टशब्द का प्रयोग किया। त्रिपाठी कहा कि भगत सिंह और गदरी बाबाओं ने 1857 की क्रांति से प्रेरणा ली थी. त्रिपाठी ने अपना वक्तव्य मुख्यत: भगत सिंह के समाजवादी विचारों पर केन्द्रित रखते हुए विस्तार से उनके लेखन की चर्चा की और  कीर्ति'प्रताप' 'मतवाला' आदि पत्र-पत्रिकाओं में छपे उनके लेखों का जिक्र किया. अरुण त्रिपाठी ने भगत सिंह के 'विश्वप्रेम', 'युवा', और 'मैं नास्तिक क्यों हूँजैसे लेखों का विशेष तौर पर उल्लेख करके बताया कि भगत सिंह जीवन में हिम्मत और मोहब्बत को सबसे बड़ा दर्ज़ा देते थे. वे मानते थे कि घृणा के बल पर न आज़ादी मिल सकती है, न समाजवादी क्रांति संभव है.
उन्होंने कहा कि भगत सिंह ने समाजवाद की विचारधारा को पूंजीवादी साम्राज्यवाद के दमन और शोषणमूलक चरित्र के विकल्प के रूप में समझा और स्वीकार किया था. भगत सिंह ने भारत की जातिवाद, छुआछूत, साम्प्रदायिकता जैसी समस्याओं पर भी समाजवादी नज़रिए से विचार किया था. त्रिपाठी ने कहा कि डॉ. लोहिया की सप्तक्रांति में भगत सिंह के क्रन्तिकारी विचारों का संश्लेष मिलता है. इसलिए नवसाम्राज्यवाद से मुक्ति पाने के लिए इन दोनों विचारकों को साथ रखने की जरूरत है.  

योगेश पुरी ने अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए कहा कि अरुण त्रिपाठी ने विषय पर बहुत विस्तार से विचार रखे हैं. यह रोचक है कि अरुण जी ने भगत सिंह और डॉ. लोहिया सहित आज़ादी के आंदोलन की प्रमुख
हस्तियों के बीच विवाद बढाने के बजाय उन्हें साथ लेन की जरूरत पर बल दिया है. कार्यक्रम का संचालन डॉ. निरंजन महतो और धन्यवाद ज्ञापन आकाशदीप ने किया।

डॉ. हिरण्य हिमकर
(कार्यक्रम संयोजक)  

The Claimants of Sheila Dikshit's Delhi!


Prem Singh





Delhi is the ancient city of India. The city’s history bears testimony to settlements and also to ruins. This order of settling and deserting of the city has been going on since the Mahabharata period. In the medieval period, this city enjoyed eminence as a centre of power and this eminence endured for a long time. It is hardly surprising that the city is a power centre in modern times as well. Delhi is synonymous with power and success so much so that the phrase 'Delhi is not far away' has entered common lexicon. The rulers, who made Delhi its power centre, had designed it to suit and facilitate their interest and purpose. Initially the British ruled India from Calcutta. In 1880, they decided to make Shimla the summer capital of India for obvious climatic reasons and constructed several administrative and military buildings along with the grand Vice Regal Lodge by 1888. In 1912, when the decision was made to shift the capital from Calcutta to Delhi, then the British architect Adwin Lutyens was tasked with designing 'New Delhi' in order to serve their interest and purpose. As a result, in 1929, the New Delhi came up, which till date is called Lutyens' Delhi. The newly constructed Lutyens' Delhi was inaugurated in 1931 and with this the glow of the Delhi of Mughals started fading. After the Independence, Lutyens' Delhi remained the centre of India's power because the new rulers of independent India did not endorse the Gandhian concept of power and governance.

Although numerous construction activities have been taking place since the formation of the Lutyens' Delhi but till the end of the 20th century there was no major change in its original structure except gradual expansion of the city. For the first time, Sheila Dikshit, who was Chief Minister of Delhi for 15 years from 1998 to 2013, started a new design of Delhi's development and began to execute it. The Delhi around us today could rightly be called Sheila Dikshit's Delhi. 'Let’s not break the thread of development' - had been the slogan of Sheila Dikshit during the elections. Here it becomes pertinent to mention my outright opposition to the model of development propagated by Sheila Dikshit. I am also totally against her policy of transferring the civic services from the government hands to the private hands, even a partial transfer. Like most of the present-day leaders of the country, her perspective of governance is not based on Directives of the Constitution of India, but on the dictates of the World Bank and its allied institutions. It is hard for any Indian citizen to agree with her perspective. But Sheila Dikshit did rule Delhi and the hearts of Delhites for 15 years only on the basis of her model of development and administration.

Construction, up-gradation and beautification of many destinations including flyovers, underpasses, national highways, multiple/signature bridges, posh farm houses, banquet halls, resorts, motels, hotels, malls, new Delhi Secretariat, Connaught Place, Interstate Bus Terminal, new government houses/offices/business complexes were carried out by dismantling the old government quarters in Sarojini Nagar and Kidwai Nagar areas and the network of Delhi Metro which kept emerging from underground to the top like a miracle - all were visualized and started/built during the tenure of Sheila Dikshit. The construction work involving the Commonwealth Games, in which she was heavily accused of corruption, was also held during Sheila Dikshit's tenure.

Apart from these ventures, several new colleges of Delhi University were opened. The University of Engineering and Technology (DTU), which happened to be under the Delhi University, was given the State University status and a separate campus. Vardhman Medical College, affiliated to the Safdarjung Hospital was also opened during her tenure. Two new state universities - Guru Gobind Singh Indraprastha and Dr. BR Ambedkar - were also commenced by her. Although the concept of the National Capital Region (NCR) had already been in vogue in some form or the other, it attained recognition and importance only during the tenure of Sheila Dikshit. It can probably be said that Delhi started getting populated in record numbers during the reign of Sheila Dikshit as unprecedented number of people entered Delhi and got settled in areas of Delhi and NCR. All these works of gigantic scale have changed the face of Delhi forever. Leave aside people coming out of Delhi, the original residents themselves started dizzying because of the new structure of Delhi!
    
The current 'honest' prime minister at the Centre and the current 'honest' chief minister at the State had each come to power by protesting against the politics of 'Congress culture'. But it is interesting to see that both of them have been in constant tug of war ever since to lay their claim on that very legacy of the Congress! A recent example can be seen in this regard. The Wazirabad Signature Bridge, which is called Delhi's Eiffel Tower, was inaugurated in the first week of November last year. At the inauguration venue, a physical fight erupted between the leaders of the parties of Delhi government and the Central government. Each side wanted to take credit for the construction of Signature Bridge, which was decided in 2004 and mostly completed during Sheila Dikshit's tenure. Some journalists raised the question on the unfortunate and indecent incident of fist fight and pointed to the rightful claim of Sheila Dikshit to inaugurate the Signature Bridge. But she was not even invited to attend the inaugural ceremony by the organisers. The chief minister of Delhi, who is infamous for blindly spending the public money on his publicity, split the whole of Delhi with huge and expensive hoardings placing his photo on them to advertise the inaugural ceremony of the Signature Bridge. Many of these hoardings /billboards have not yet been removed.

Whenever a new phase of the Delhi Metro starts or a completed phase is inaugurated, again there is contestation of claims between both the so-called 'champions of honesty'. However, in reality, both Central and Delhi governments have utterly failed in contributing towards the proper maintenance of the Delhi that can be attributed to Sheila Dikshit’s projects of rejuvenation. Delhi is grossly ridden with ever increasing problems of garbage, disease, traffic jam and rising crime. But morning after morning one finds new advertisements scattered from newspapers to streets' walls congratulating the people of Delhi. Modi is doing this at the pan-India level and Kejriwal is doing the same at the level of Delhi. Such a waste of public money to cover up its indolence can hardly be done before by any government or leader, as these two 'honest' people of the country are doing. After the unfortunate incident which occurred at Signature Bridge inauguration, Sheila Dikshit rightly quipped that for some publicity is their profession!

With the declaration of 2019 Lok Sabha elections and Delhi Legislative Assembly elections scheduled for next year, both the claimants are placing new bets and devising new tricks to claim Sheila Dikshit's Delhi. The ensuing fight as to which side did what shows no sign of diminishing with the two claiming for credit. Whereas the reality is a different story altogether. It is a story of a unique partnership between the two. A few examples can be shown to elaborate the point. Ravishankar, a 'governmental saint', whose business is to teach 'art of living' to middle and upper middle class gentry who are over-fed with the loot of the hard earned money of the working class, in the name of world Culture Fair in 2016 had hugely damaged the already fragile ecology of the Yamuna bank. The report of the National Green Tribunal (NGT) revealed this fact. That huge spectacle was organized jointly by the senior and the junior 'honest'. There was a road in Delhi namely Aurangzeb Road. Both the 'honests' jointly displayed the courage of protecting 'Hindu culture' by changing the name of the road. It is often seen that certain impending leaders in Aam Admi Party (AAP) are aptly described by secular journalists and intellectuals as the agents of the RSS. They further emphasize that these elements have been planted there to defame Kejriwal and AAP. But despite the repeated controversies, they remain in the party. Moreover, secular journalists and intellectuals have not expressed any curiosity about the identity of two members of the Rajya Sabha who were sent by AAP from Delhi Assembly. Not even those gentlemen, who themselves were gazing at Kejriwal from the very beginning that he would send them to the Rajya Sabha. May be the gentlemen sent to the Rajya Sabha by Kejriwal are also shared-elements! Perhaps by observing this partnership between the two, one is called senior and another is called junior 'Modi'!

Recently, Kejriwal said that if Delhi is given full statehood, then he will campaign for BJP in the next Lok Sabha elections. (On the issue of statehood of Delhi, Sheila Dikshit had said that being the country's capital Delhi cannot be given the same status as other states are given.) The interesting thing is that those who show huge concern about fascism which descends in the country under the leadership of Modi did not question their 'honest' leader, asking him how can the fascist Modi be supported just in lieu of fulfilment of a slender demand like full statehood? Even those learned people who joined AAP in a hope to turn Kejriwal a 'socialist' and were shabbily shown the way out did not ask this question. These very people would not shy away from attacking other leaders or citizens for their certain statements or decisions labelling them as RSS/BJP supporters. The phase has long gone when the anti-corruption movement which led to the birth of AAP were being associated with the Independence Movement, JP Movement and further described as a second revolution and third revolution by these people!

It would be needless to once again repeat the established fact that the anti-corruption movement and emergence of AAP were accomplished under the auspices of the RSS. That is why all credits, which secular journalists and intellectuals promptly bestow on Kejriwal and AAP alone, is also indirectly given to the RSS itself. I wrote a long time ago that capitalism makes its masses in the streets and homes. By seeing this attitude of India's intellectuals of secular and socialist camp, it can be said that capitalism also continues to nurture its intellectuals and even its own political parties along with the common masses. After ousting of the socialists, the communists are trying hard to revive their political fortunes by singing odes to please Kejriwal.    

Nevertheless, it would be interesting to see how much of Sheila Dikshit's Delhi would be grabbed by the claimants? And how far Sheila Dikshit herself would be able to win her Delhi again! The cycle of Congress politics in Delhi went in such a way that she is the president of the Delhi Congress during this election times. There is one more thing to note in this war of claimants over Delhi. The Bahujan Samaj Party (BSP), whose vote percentage in Delhi had reached to the mark of 14 at one time, emerged as the third claimant of Delhi apart from the Congress-BJP. This challenge of the BSP had been thwarted by the common contenders in the last election. Now the BSP's vote share has been reduced to only 5 percent.
  
(The author teaches Hindi at Delhi University and is president of Socialist Party)

Monday, 18 March 2019

शीला दीक्षित की दिल्ली के दावेदार!



प्रेम सिंह



दिल्ली भारत का प्राचीन शहर है. कहते हैं दिल्ली शहर कई बार बसा और उजड़ा है. महाभारत काल से यह सिलसिला चल रहा है. मध्यकाल में यह शहर लम्बे समय तक भारत की सत्ता का केंद्र रहा. आधुनिक काल में भी वह सत्ता का केंद्र है. दिल्ली याने सत्ता और सफलता. लिहाज़ा, 'दिल्ली दूर नहीं' मुहावरा ही बन गया. दिल्ली को सत्ता का केंद्र बनाने वाले शासकों ने अपनी-अपनी रुचि और उपयोग के हिसाब से दिल्ली की अभिकल्पना की. शुरू में अंग्रेज़ भारत पर कलकत्ता से शासन करते थे. 1880 में उन्होंने शिमला में ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने का फैसला करके 1888 तक भव्य वाईसरीगल लॉज के साथ कई प्रशासनिक और सैन्य इमारतों का निर्माण कराया. 1912 में राजधानी कलकत्ता से दिल्ली बदलने का फैसला हुआ तो वास्तुकार लुटियंस को 'नई दिल्ली' की अभिकल्पना का काम सौंपा गया. 1929 में वह दिल्ली तैयार हुई जिसे आज तक लुटियंस की दिल्ली कहा जाता है. 1931 में लुटियंस की दिल्ली का उद्घाटन हुआ और उसने मुग़लों की दिल्ली की चमक फीकी कर दी. आज़ादी के बाद भारत का सत्ता केंद्र लुटियंस की दिल्ली ही बना. क्योंकि सत्ता और शासन का गांधीवादी ढब भारत के नए  शासकों को पसंद नहीं था.

लुटियंस की दिल्ली बनने के बाद से दिल्ली में कई तरह के निर्माण कार्य तो काफी होते रहे, लेकिन 20वीं सदी के अंत तक उसकी मूल संरचना में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया. पहली बार शीला दीक्षित ने, जो 1998 से 2013 तक 15 साल दिल्ली की मुख्यमंत्री रहीं, दिल्ली के विकास की एक नई अभिकल्पना की और उसे अंजाम देना शुरु किया. आज जो दिल्ली हमारे सामने है, वह शीला दीक्षित की दिल्ली है. 'टूटे नहीं विकास की डोर' - शीला दीक्षित ने अपने चुनावों में यह नारा रखा. हम शीला दीक्षित की विकास की अवधारणा के स्पष्ट विरोधी हैं. सार्वजनिक नागरिक सेवाओं को सरकारी दायरे से पूरी तरह या आंशिक रूप में निकाल कर निजी क्षेत्र में ले जाने की उनकी नीति के भी हम पूर्ण विरोधी हैं. देश के ज्यादातर नेताओं की तरह गवर्नेंस का उनका नज़रिया भी भारत का संविधान न होकर विश्व बैंक के आदेश हैं. कोई भी भारतीय नागरिक इस नज़रिए से सहमत नहीं हो सकता. लेकिन शीला दीक्षित ने अपने विकास और प्रशासन के आधार पर 15 साल तक दिल्ली और दिल्लीवासियों के दिलों पर राज किया.

आज शहर में जितने फ्लाईओवर, अंडरपास, दिल्ली के चौतरफा बने राष्ट्रीय राजमार्ग, सिग्नेचर ब्रिज, आलीशान फार्म हाउस, बैंकट हॉल, रिसॉर्ट्स, मोटल्स, मॉल, दिल्ली सरकार का नया सचिवालय, क्नॉट प्लेस और अंतर्राज्यीय बस अड्डे सहित कई स्थलों का नवीनीकरण और सौन्दर्यीकरण, सरोजिनी नगर और किदवई नगर में पुराने सरकारी आवासों को गिरा कर बने नए सरकारी आवास/ऑफिस/बिज़नेस कॉम्प्लेक्स ... और ज़मीन के नीचे से ज़मीन के ऊपर तक आश्चर्य की तरह बिछता चला गया दिल्ली मेट्रो का जाल - सब शीला दीक्षित की देन है. राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन, जिसमें भ्रष्टाचार के लिए उनकी भारी हुई, से जुड़े निर्माण कार्य भी शीला दीक्षित के कार्यकाल में हुए. इनके अलावा दिल्ली विश्वविद्यालय के कई नए कॉलेज खोले गए. दिल्ली के इंजीनियरिंग कॉलेज को दिल्ली टेक्नोलॉजीकल यूनिवर्सिटी (डीटीयू) बना कर राज्य यूनिवर्सिटी का दर्ज़ा और अलग कैंपस दिया गया. सफदरजंग अस्पताल से सम्बद्ध वर्द्धमान मेडिकल कॉलेज भी उनके कार्यकाल में खोला गया. दो नए विश्वविद्यालय - गुरु गोबिंद सिंह इंद्रप्रस्थ और डॉ. बीआर अम्बेडकर - खोले गए. राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की परिकल्पना भले ही किसी रूप में पहले से मौजूद रही हो, उस पर तेजी से अमल शीला दीक्षित के कार्यकाल में ही हुआ. शायद शीला दीक्षित के शासनकाल में ही रिकॉर्ड भीड़ दिल्ली में आई और दिल्ली तथा एनसीआर में जहां डील समय बस गई. इन समस्त निर्माणों से दिल्ली की काया ही पलट गयी. बाहर से आने वालों की बात जाने दें, यहां के वाशिंदे दिल्ली की नई सरंचना से चक्कर खाने लगे.       
    
केंद्र में कायम मौजूदा 'ईमानदार' प्रधानमंत्री और राज्य में कायम मौजूदा 'ईमानदार' मुख्यमंत्री दोनों राजनीति की 'कांग्रेस संस्कृति' का साझा विरोध करके सत्ता में आये थे! लेकिन मजेदारी यह है कि दोनों ही कांग्रेस की विरासत पर अपनी दावेदारी ठोकने में दिन-रात एक किये रहते हैं. हाल का एक उदाहरण देखा जा सकता है. दिल्ली का इफिल टावर कहे जाने वाले वजीराबाद सिग्नेचर ब्रिज का पिछले साल नवम्बर में उद्घाटन हुआ. उदघाटन स्थल पर दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार की पार्टियों के नेता आपस में भिड़ गए. दोनों सिग्नेचर ब्रिज के निर्माण का श्रेय लेना चाहते थे, जिसके निर्माण का फैसला 2004 में किया गया था. उस घटना पर कुछ पत्रकारों ने यह सवाल उठाया था कि सिग्नेचर ब्रिज के उद्घाटन की असली हकदार शीला दीक्षित हैं. लेकिन उन्हें उद्घाटन समारोह में निमंत्रित ही नहीं किया गया था. जनता का धन अपने प्रचार पर लुटाने वाले दिल्ली के मुख्यमंत्री ने अपने फोटो सहित वजीराबाद के सिग्नेचर ब्रिज के विशाल और महंगे होर्डिंगों से पूरी दिल्ली को पाट दिया था. उनमें से कई होर्डिंग अभी तक नहीं हटाये गए हैं.

मेट्रो का जब भी कोई नया चरण शुरू होता है या बन चुके चरण का उदघाटन होता है तो दोनों 'ईमानदारों' में श्रेय लेने की होड़ मच जाती है. हकीकत यह है कि शीला दीक्षित ने दिल्ली का जो कायाकल्प किया, उसका ढंग का रख-रखाव तक केंद्र और दिल्ली की मौजूदा सरकारें नहीं कर पाई हैं. दिल्ली गंदगी, बीमारी, ट्रेफिक जाम और अपराध जैसी समस्याओं से बुरी तरह त्रस्त है. लेकिन दिल्ली के चप्पे-चप्पे को बधाई देने के नित नए विज्ञापन अखबारों से लेकर सड़कों तक बिखरे देखे जा सकते हैं. मोदी जो देश के स्तर पर कर रहे हैं, केजरीवाल वह दिल्ली के स्तर पर कर रहे हैं. अपनी अकर्मण्यता को ढंकने के लिए जनता के धन की ऐसी बर्बादी शायद ही अब से पहले किसी सरकार या नेता ने की हो, जैसी देश के ये दो 'ईमानदार' कर रहे हैं! सिग्नेचर ब्रिज उद्घाटन की अशोभनीय घटना के बाद शीला दीक्षित ने चुटकी ली थी कि ये लोग प्रचार को ही काम मानते हैं!

अब लोकसभा चुनाव सामने हैं. अगले साल दिल्ली विधानसभा चुनाव होने हैं. शीला दीक्षित की दिल्ली पर कब्जा बनाये रखने के लिए दोनों दावेदार नए-नए दांव और चालें चल रहे हैं. हमने यह किया, हमने वह किया का झगड़ा रोज दोनों के बीच होता रहता है. जबकि हकीकत में दोनों के बीच साझा है. मेहनतकश जनता की गाढ़ी कमाई से अघाए लोगों को 'जीने की कला' सिखाने वाले 'सरकारी संत' रविशंकर ने 2016 में विश्व संस्कृति मेले के नाम पर पर्यावरण सुरक्षा की दृष्टि से पहले से ही संवेदनशील यमुना के कछार को तबाह कर डाला. नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) की रपट ने यह खुलासा किया. वह भारी-भरकम तमाशा बड़े और छोटे 'ईमानदार' - दोनों ने मिल कर आयोजित किया था. दिल्ली में एक सड़क का नाम औरंगजेब रोड था. दोनों ने सड़क का वह नाम बदल कर 'हिंदू संस्कृति' की रक्षा का सम्मिलित शौर्य प्रदर्शित किया. अक्सर देखने में आता है कि 'आप' के कुछ 'विघ्न संतोषी' नेताओं को धर्मनिरपेक्ष पत्रकार और बुद्धिजीवी आरएसएस का बताते रहते हैं. यह कहते हुए कि वे केजरीवाल और 'आप' को बदनाम करने के लिए वहां प्लांट किये गए हैं. लेकिन विवादों के बावजूद वे लगातार पार्टी में बने रहते हैं. 'आप' ने जो दो राज्यसभा के सदस्य बनाये हैं, उनकी पहचान के बारे में धर्मनिरपेक्ष पत्रकारों और बुद्धिजीवियों ने कोई जिज्ञासा आज तक नहीं जताई है. उन महानुभावों ने भी नहीं, जो खुद राज्यसभा जाने के लिए केजरीवाल की ओर टकटकी लगाए हुए थे. हो सकता है राज्यसभा भेजे गए सज्जन भी साझा तत्व हों! शायद दोनों के बीच इसी साझेपन को देख कर एक को बड़ा और दूसरे को छोटा 'मोदी' कहा जाता है.

हाल में केजरीवाल ने कहा कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्ज़ा दे दिया जाए तो वे लोकसभा चुनाव में भाजपा का प्रचार करेंगे. (तब शीला दीक्षित ने कहा था कि देश की राजधानी होने के नाते दिल्ली में अन्य राज्यों जैसा विधान नहीं हो सकता.) मजेदारी यह है कि मोदी के राज में देश में फासीवाद उतर आने पर अतिशय चिंता जताने वालों ने हमेशा की तरह 'ईमानदार' नेता से पूछा तक नहीं कि महज राज्य का दर्ज़ा जैसी मांग मान लिए जाने के बदले फासीवादी मोदी का समर्थन कैसे किया जा सकता है? उन सयाने लोगों ने भी नहीं पूछा जो केजरीवाल को 'समाजवादी' बनाने गए थे और जिन्हें अभद्रतापूर्वक बाहर का रास्ता दिखाया गया. जबकि ये लोग अन्य नेताओं अथवा नागरिकों के कतिपय वक्तव्यों अथवा फैसलों को अपने अनुमान से आरएसएस/भाजपा के समर्थन में बता कर उन पर चारों तरफ से टूट पड़ते हैं. वह दौर तो गुजर गया जब भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन और 'आप' को स्वतंत्रता आंदोलन, जेपी आंदोलन, दूसरी क्रांति, तीसरी क्रांति के साथ जोड़ा जा रहा था.

यह बार-बार बताने की जरूरत नहीं होनी चाहिए कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन और 'आप' आरएसएस के तत्वावधान में संपन्न हुए थे. इसलिए वह सब श्रेय, जिसे धर्मनिरपेक्ष पत्रकार और बुद्धिजीवी अकेले 'आप', उसमें भी केजरीवाल को देते हैं, अपने आप आरएसएस को भी चला जाता है. हमने काफी पहले लिखा था कि पूंजीवाद अपनी जनता गली-मोहल्लों और घरों में बनाता चलता है. भारत के धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी खेमे का यह रवैया देख कर कहा जा सकता है कि पूंजीवाद अपनी जनता के साथ अपने बुद्धिजीवी और राजनीतिक पार्टियां भी बनाता चलता है.  

बहरहाल, यह देखना रोचक होगा कि शीला दीक्षित की दिल्ली के दावेदारों को आपस में कितना हिस्सा मिलता है? खुद शीला दीक्षित अपनी दिल्ली को फिर से कितना फतह कर पाती हैं! दिल्ली में कांग्रेस की राजनीति का चक्र कुछ ऐसा चला कि वे ऐन चुनाव के वक्त दिल्ली कांग्रेस की अध्यक्ष हैं. दावेदारी के इस युद्ध में एक और बात गौर करने की है. बहुजन समाज पार्टी (बसपा), दिल्ली में जिसका मत प्रतिशत एक समय 14 के ऊपर पहुंच गया था, कांग्रेस-भाजपा से अलग दिल्ली की दावेदार पार्टी के रूप में उभरी थी. दिल्ली पर बसपा की दावेदारी की चुनौती साझे दावेदारों ने पिछले चुनाव में ख़त्म कर दी. अब बसपा  केवल 5 प्रतिशत पर सिमट गई है.  

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के शिक्षक और सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष हैं.)      

Monday, 11 March 2019

Patriotism of cowardice and enslaved Mind


Prem Singh

1.

The modern industrial civilization has witnessed two World Wars. The researchers of war have yet not been able to estimate the magnitude of casualties/deaths – both military and civilian – which occurred in these two World Wars. The estimated figure of people killed in both World Wars is between 10 to 15 crores. World Wars I and II were preceded and succeeded by many major battles. Wars of independence were invariably fought by all the colonized countries. Even the Cold War that began after the end of the World War II and lasted until the dissolution of the USSR, has been described by the scholars as a special kind of world war. Cold War was also characterized by a large number of deaths. There have been many direct and proxy wars during and after the Cold War involving sometimes two countries and sometimes five-six countries. In many wars of the nature of internal conflicts such as those that followed the dissolution of Yugoslavia, civil war was accompanied with racial massacre. In the last few decades, Islamic terrorists have redefined the concept of war which now includes the features of traditional war, counter-war and civil war. In response a new concept of 'War Against Terror' (WAT), has emerged which is global in nature.

In the First World War, chemical weapons were used, but not nuclear weapons. World War II witnessed the emergence and consolidation of US supremacy over the erstwhile colonial powers primarily due to the former’s use of atom bombs on Japan's Hiroshima and Nagasaki cities. Since then, on the one hand the world is living in the danger of a nuclear war, and, on the other hand, the same nuclear weapons are considered as a deterrent to the third world war. The weapon-manufacturing countries are competing against each other in the race to produce extreme weapons of mass destruction. Meanwhile, the discussion on the imminent third world war has also been continuously occurring on the world stage. Since the end of World War II, it is believed that Europe and America had sworn that the third world war would not be fought on their land. In this context it becomes pertinent to take note of Albert Einstein’s words, "I do not know with what weapons World War III will be fought, but World War IV will be fought with sticks and stones."

India also played a role in these ongoing wars. The path of India’s colonization by the British was paved by numerous battles and treaties. Being a British colony, India participated in the two World Wars, even though the participation was limited in nature. In 1857 and 1942, India fought a direct war against the colonial power. In the middle of the World War II, under the leadership of Subhash Chandra Bose and collaboration with the Axis countries, the Azad Hind Fauj (Independent National Army- INA) fought the freedom struggle of India in its own way. In the struggle of 1857, millions of Indians sacrificed their lives for the sake of independence. Also in 1942, according to Dr. Lohia, 50 thousand patriots were killed by the British. After independence, in 1948, 1962, 1965, 1971 and 1999 India fought wars with its two neighbors - Pakistan and China.

This brief recounting of wars has not been done to show the scale of the destruction of lives and resources or its drastic effects on human beings, although it is a matter of separate problem altogether. However, if the imperialists will keep on looting, wars will also keep on occurring. The looters will continue to wage wars against the countries that are looted. Simultaneously, the imperialist forces will keep forcing these countries to wage wars against each-other and  will also fight amongst themselves for the dominance on various resources. Further, the brokers serving the interests of the imperialist powers in the countries looted by the imperialists will keep waging war against the working classes of their own countries. Therefore, wars are inevitable until this exploitative capitalist system exists. The aforementioned details have been made in order to demonstrate that while living in the civilization of the wars, India's mainstream civil society, which, to a large extent, includes the intellectual class as well, has no serious understanding about war neither for their own sake nor for the country, nor for the world. The same civil society is not only ignorant of the world's war-industry; it doesn’t have any idea about the potential role of India in current or future wars (if any). It is said since World War II that the next World War, whatever form it takes, will be fought on the soil of Asia. But the Indian civil society has no anticipatory thoughts about the possible role of India in that war, and how the consequences of that war will impact/shape India. The same civil society has no knowledge of the reasons behind the success of the erstwhile invaders’ and colonists’ in defeating the Indian forces in the wars. It would not be an exaggeration to say that the civil society is an illiterate lot even regarding the two major wars of India's independence - the armed struggle of 1857 and the peoples' struggle of 1942.

It may be due to the fact that a civil society has decided to deliberately overlook the wars by focusing its attention on other areas of national life concerning country's strength and prosperity. There are many such countries in the world including Japan. In India, with Gandhi's support it can be said that we, as a society, doesn’t endorse perpetuation of violent conflicts. But the dream of civil society in India is to see India as a superpower soon without being actually aware of the real network and pace of growing military-world. Rather, a part of civil society considers India as a super power owing to it being a huge market and the associated economy. This civil society of India displays its patriotism in a variety of bizarre ways and appears to be fiercely full of exhortations of war. In this context, the situation has now become catastrophic - that it attacks in groups, even sometimes alone, 'the hidden traitors in the house'. It has become a common practice that such elements of civil society openly abuse even women in the name of patriotism.

Needless to say, in reality, the civil society of India does not know its country. Nor it feels any sincere attachment to it. It cannot even think of making any sacrifice for the country. In spite of this, it is seen always afflicted with patriotism and war hysteria posing itself as a sole master of the whole country. Such groups term themselves as civil society of India, but its members would be termed as illegitimate citizens of India if they are tested on the touchstone of the Indian Freedom Struggle and the Indian Constitution. In the words of Kishan Patnayak, this enslaved mentality has irreparably dented their minds. In my journalistic writings over the past 20-25 years I have written many a times about this phenomenon of the Indian civil society. One may notice that this pathology shows no sign of abatement rather it grows in intensity with the passage of time. So, despite the repetition, here it has been briefly considered once again.

2.

With the making of 'new India' with the New Economic Policies, patriotism possessed the civil society like a ghost. Simultaneously, its already narrow sense of citizenship became narrower, and the virtues of humanity also decreased. The fact is known to everyone that the resources and labour of the country has progressively been robbed in the interest of corporate capitalism in the last three decades.  In the rule of Narendra Modi, this process has turned into a blind race. The private sector is being promoted at the expense of the public sector against the spirit of the Constitution. All democratic institutions are being destroyed. The democracy is changing into a mobocracy. India is stuck badly in the clutches of neo-imperialism. The deeds of the political leadership which resulted in the loss of freedom, the Constitution, the resources, the labour, the constitutional institutions could not have been done without the collusion of the civil society. But the civil society is not ready to accept the blame of being country's traitor and imperialist forces' slave as the same civil society has unjustly enriched itself-socially as well as economically in the last three decades. As the treacherous conduct and slavery of the civil society of India increases, its pompous display of patriotism will also take new forms. The corporate capitalism will readily sponsor such performances in the full fledged manner, so that the vast population devastated by robbing continues to be intoxicated by the drug of patriotism. The civil society will continue to tell this deprived and excluded population that the cause of their problems is not the loot of corporate capitalism, but the Muslims. However, the impact of this jingoistic atmosphere is such that even Muslims do not want to be behind anyone in the race of showing patriotism!

The ideals of patriotism projected by the civil society keep changing from time to time. But there is a fundamental condition for this ideal-man - his faith in capitalism should remain intact. For the past few years, its ideal is Narendra Modi and Rashtriy Swayamsevak Sangh (RSS). Take the RSS first. Since its establishment the RSS has a deep desire to be labeled as a patriot. It is said that God’s bounty is boundless. Today's divinity resides in corporate capitalism. With the grace of corporate capitalism, RSS is distributing certificates of patriotism today! It tells that the army of his volunteers can take the front even before the Indian army! The bunker made from cow dung will fail China's invasion of Dokalam! Nation-protecting yagnas safeguard the nation from external aggression! Soldiers should regularly read Gita-Ramayana to enhance their bravery! Through some of his leaders, it also tells that soldiers are meant to die in the security of the country as well as the seats which will be won by BJP in the upcoming Lok Sabha elections in the atmosphere created by the death of soldiers in Pulwama and on the border! Its workers are caught while spying for the Pakistani intelligence agency ISI, but it does not matter to the patriotism of the RSS! Because in its eyes they are 'holy sinners'!

Narendra Modi, whose government allowed 100 percent Foreign Direct Investment (FDI) in the defense sector when he became the Prime Minister, explains that the traders take more risk than the soldiers for the country! He also tells that the business runs in his veins! 'Patriotic' businessmen are seen running with him in the country and abroad! Perhaps in this raid, Narendra Modi one day went to meet Prime Minister Nawaz Sharif without an official program! In the Rafale aircraft deal, the name of the public sector company Hindustan Aeronautical Limited (HAL) was removed and was replaced with the newly formed company of industrialist Anil Ambani! The way he openly and publicly announces his intimacy with his industrial friends, he also does the same about the army's operations! The interest of merchants is paramount for him, provided they are big businessmen! The risk takers of Modi, sometime leave the country and flee abroad!

This personality called Narendra Modi is the ideal of patriotism of the civil society of India. In the case of patriotism, the civil society worships him unquestioningly. So, Narendra Modi too considers himself to be above the questions and is confident that his worshippers are capable of taking care of all the task. Even after the terrorist attack on security forces in Pulwama on 14th February, he was busy in filming himself, inaugurating events and giving speeches to the election rallies by giving an open hand to his worshippers!

A little discussion about the Pulwama attack must be made here. In any systematic country, the task of investigating the deaths of soldiers in the terrorist attack is the first and foremost. And so far some clues must have been found out by now. But nothing like this happened in India. So far the number of soldiers who were martyred in the attack is itself not clear to the public. Somewhere the number is written 42, somewhere 44 and somewhere above 40If the mistake in the Pulwama attack has also happened due to same lapses on behalf of the government, as the Governor had said immediately after the attack, then it should have been honestly detected. Accountability should have been fixed, and under the law, the culprits should have been punished. The truth of taking responsibility of the attack by Jaish e Mohammed (JEM) should have been further ascertained for the sake of military security in future. But sadly, February 14th was sunk into the war cry. The death of these para-military soldiers carry no value, because they were not members of the civil society that has been well-fed by the loot of corporate capitalism. Yes, they could be used to do politics; and that use has been made thoroughly.  

In democracy, the military establishment works under political leadership. But at the same time it is also necessary that political leadership is not working under the pressure of imperialist powers at least in the matter of security of the country. The Indian Air Force (IAF) entered into Pakistan in pre-dawn hours on February 26 and dropped bombs at the training camp of JEM situated in Balakot. According to the Foreign Secretary's statement, this was a 'non-military preemptive action' of the Air Force. The President of America had given a statement that India would do something big to avenge the Pulwama attack. In retaliation of the IAF action, the Pakistan Air Force (PAF) entered in the Indian territory and attacked a military base. Indian pilot Abhinandan Varthman had to land in the Pakistani territory due to damage to the MiG-21 fighter aircraft. The US president again said that a good news will come from Pakistan. The Indian pilot was released by Pakistan.

After Indira Gandhi, America has been dictating India more or less during the tenures of all Prime Ministers. On October 1, 2001, JEM attacked the assembly in Srinagar, in which 27 people were killed and 60 were injured. The then Prime Minister Atal Bihari Vajpayee wrote a letter pleading US President George Bush to persuade Pakistan to stop facilitating terrorists on its soil. Until then, 9/11 had happened and Vajpayee had been first after Britain's Prime Minister Tony Blair in joining the US's "new war" against terrorism. But America stood with Pakistan, it is with her even today. It is understandable that America dictates Pakistan, but how can it give directions to India?

There has been a continuous demand for war from the civil society in the events that took place from February 14 till today. There has been no war, and it was not meant to be. Of course, more than 50 Indian soldiers have been received martyrdom in a fortnight. There’s still no certainty regarding the number of terrorists that have been killed across the border in the air strike by IAF. Bombs dropped in Balakot were purchased from Israel. The war-mongers, in their enthusiasm for war did not care to discuss that why did India start buying arms from Israel, who used to buy arms from Soviet Russia and won three wars against Pakistan on their strength? Will India's security be predicated on weapons purchased from abroad forever? Will the weapon selling countries continue to provide India with weapons that could secure its boundaries in the possible third World War or in any other war? Will the security of India be given to the private companies established by the players of crony capitalists guided by the lust of profit at the expense of the Public Sector? Will America, the 'Mecca' of the civil society, to whom it has been worshiping for the last 40 years, will stop giving arms and other financial assistance to Pakistan? And, will India become a superpower on the strength of the purchased weapons?

The air strike took place 12 days after the Pulwama incident. It was well thought out that there should be no civilian casualties in the attack. But what justifies the decision of keeping military bases of Pakistani Army, which caters the terrorists,  out from the target of the attack in the war? Any war usually takes place between the two armies of the two countries. If the war-demanding civil society considers this action to be the destroyer of terrorism, then it is not aware of the nature of Pakistan-based and international network of terrorism. The business flows in the prime minister's blood. War cannot be fought with a commercial instinct; only political trade can be done in the name of war. War is the art of Veer Rasa (heroic essence). The Sthayii Bhava (enduring emotion) of Veer Rasa is Utsah (enthusiasm). Poetics have said that this feeling is found only in those men and women who attained the sublime nature. Those whose anger overturns their wisdom all the time cannot live in the spirit of valor associated with the war.

Actually, the war-mongers and their heroes are guided by the feeling of hatred. There is no need to state towards whom this hatred is directed. Every person knows his/her feelings well. Since India's defeat in the 1962 war China has occupied 20,000 square kilometers of land of India. The Parliament of India had passed the unanimous resolution to reclaim its lost territory. But the war-monger civil society of India never demands war against China. It also never demands for boycott of America, who has been the savior of Pakistan since the beginning, which kept Osama bin Laden hidden in its territory. The point to be stated is that the civil society always indulged in demanding war but is grossly unaware of the basic spirit of the war with which it is fought in true national spirit. A civil society having coward and slave mind can make quarrels not war. The most worrying aspect of this negative mentality of the civil society guided by hatred can have an adverse impact on the psychology of the security forces in the long run.

3.

Considering RSS and Modi as their ideal for patriotism is not limited to the RSS/BJP camp only. There are a great number of people associated with political parties other than RSS/BJP supporters. With them, all the highly educated professionals and government officers are also involved, who, despite all their capabilities, are essentially political illiterates. The RSS/BJP brand patriotism derives a great strength from them. The secular progressive camp of the civil society is against the RSS/BJP brand patriotism. But it has been relegated to the margins. There is nothing in their kitty other than repeating some of the prevailing facts against the RSS/BJP or making jokes about and on the devotees of Modi on social media just to tease them or make fun of them. The secular progressive camp is not being able to regain its strength and there are several reasons for that. The most important reason is that by being a covert supporter of capitalism it automatically stands with the RSS/BJP. Apart from this, its strategy of sustaining 'war' status with RSS also strengthens the RSS/BJP. Its opportunistic behavior with non-BJP political parties and politicians hinders the strenuous political stream to set a decisive alternative to capitalism and thus brings lasting benefits to the RSS/BJP. Most of the intellectuals and activists who fight for social justice in this camp promote the political power of the RSS/BJP by abusing Hinduism and its Gods/Goddesses. There are also individuals and groups in the secular-progressive camp that are always full of anger towards the Indian State. In anger, generally they forget to make a difference between the governments formed in the Indian State and the State itself. Their anger often leads them to the opposition of the Indian State. The advantages of this go to the RSS/BJP only. There is also a special group of Bharatiyatawadis (scholars interested in exploring and employing Indian systems of knowledge) in the civil society. They connect themselves with Gandhi. However, it is often found  that most of them distort Gandhi and the RSS becomes their last refuge. A new 'ideologically neutral' group is also there which has come out of the womb of corporate capitalism directly. It has a long range from the saffron to the red. However, its brand of patriotism is identical to the RSS/BJP's.

In the last three decades, the secular progressive camp has not been able to comprehend a patriotic narrative apart from the RSS/BJP. Now it does not even seem to have this desire. It talks about the 'Idea of India' in such a manner as if India resides in any book. The secular progressive camp can be seen in using its intellect, which it never suspects, either in certain identity discourses or tie-ups or in the mugging for governmental posts and prizes. The RSS/BJP’s brand of fake, hollow and hypocritical patriotism prevails because there is no authentic alternative to it. Therefore it is prevailing. As long as this brand of patriotism will run, the real crisis before the country - freedom from the anti-imperialist forces - cannot be resolved. This is a big 'achievement' of the RSS/BJP that, by making an alliance with corporate capitalism, it has provided credibility/reputation to cowardice of the enslaved mind in the country.

(The author teaches Hindi at Delhi University and is president of Socialist Party )

Monday, 4 March 2019

बुजदिल और गुलाम दिमाग की देशभक्ति



प्रेम सिंह


1.


(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी
के शिक्षक और सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष हैं) 
आधुनिक औद्योगिक सभ्यता दो विश्वयुद्ध देख चुकी है. युद्ध विशेषज्ञ अभी तक तय नहीं कर पाए हैं कि दो विश्वयुद्धों में कितनी मौतें - फौजी और नागरिक - हुईं. दोनों विश्वयुद्धों में मारे गए लोगों का अनुमानित आंकड़ा 10 से 15 करोड़ के बीच में बताया जाता है. पहले और दूसरे विश्वयुद्ध के आगे-पीछे कई बड़े-छोटे युद्ध हुए हैं. सभी उपनिवेशित देशों ने अपने-अपने स्वतंत्रता युद्ध लड़े हैं. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद 1946 से सोवियत रूस के विघटन तक चले शीतयुद्ध के दौर को भी विद्वानों ने एक ख़ास तरह का विश्वयुद्ध कहा है और उसमें मारे जाने वाले लोगों की भी बड़ी संख्या बताई है. शीतयुद्ध के दौरान और बाद भी कई सीधे और प्रॉक्सी युद्ध हुए हैं, जिनमें दो देशों से लेकर पांच-छह देशों की भागीदारी रही है. कई युद्धों, जैसे युगोस्लाविया के विघटन के बाद हुए आतंरिक संघर्षों में गृहयुद्ध और नस्ली नरसंहार का मिश्रण हो गया है. पिछले कुछ दशकों में इस्लामी आतंकवादियों ने युद्ध और गृहयुद्ध को मिला कर युद्ध को एक अलग आयाम दे दिया है. इसके चलते 'आतंक के खिलाफ युद्ध' (वार अगेंस्ट टेरर) नाम से एक नया युद्ध शुरू हुआ है, जिसका विस्तार विश्वव्यापी है.

पहले विश्वयुद्ध में रासायनिक हथियारों का प्रयोग तो हुआ था, लेकिन परमाणु हथियारों का नहीं. दूसरे विश्वयुद्ध में अमेरिका ने जापान के हिरोशिमा और नागासाकी शहरों पर परमाणु बम गिरा कर आने वाले समय में अपने चक्रवर्तित्व की घोषणा कर दी थी. तभी से दुनिया जहां एक ओर परमाणु युद्ध के खतरे में जी रही है, वहीँ दूसरी ओर परमाणु हथियारों को तीसरे विश्वयुद्ध को रोकने का एक बड़ा निवारक (डेटेर्रेंट) भी माना जाता है. हालांकि हथियार-निर्माता देश एक से बढ़ कर एक एक्सट्रीम वेपन्स बनाते जा रहे हैं. इस बीच तीसरे विश्वयुद्ध की चर्चा भी लगातार होती रही है. दूसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति के समय से ही माना जाता है कि यूरोप और अमेरिका ने यह फैसला कर लिया था कि तीसरा विश्वयुद्ध युद्ध उनकी धरती पर नहीं लड़ा जाएगा. अल्बर्ट आइन्स्टीन ने कहा है, 'मुझे नहीं मालूम तीसरा विश्वयुद्ध किन हथियारों से लड़ा जाएगा, लेकिन चौथा विश्वयुद्ध छड़ियों और पत्थरों के साथ लड़ा जाएगा.'  

भारत ने भी युद्धों की इस सभ्यता में कुछ हिस्सेदारी की है. कई युद्धों और उसके बाद संधियों के माध्यम से ब्रिटेन ने भारत को अपना उपनिवेश बनाया. ब्रिटेन का उपनिवेश होने के नाते दोनों विश्वयुद्धों में भारत की भी सीमित हिस्सेदारी रही. 1857 और 1942 में उसने उपनिवेशवादी सत्ता के खिलाफ सीधा युद्ध किया. दूसरे विश्वयुद्ध के बीचों-बीच सुभाषचंद्र बोस के नेतृत्व में धुरी (एक्सिस) देशों के साथ सहयोग बना कर आज़ाद हिंद फौज ने भी अपने ढंग का भारत की आजादी का युद्ध लड़ा. 1857 के संघर्ष में लाखों भारतीयों ने अपने प्राणों की बाज़ी लगाई. 1942 में भी, डॉ. लोहिया के अनुसार, 50 हज़ार भारतीयों ने अपने प्राण गवांए. आज़ादी के बाद 1948, 1962, 1965, 1971 और 1999 में भारत ने अपने दो पड़ोसियों पकिस्तान और चीन के साथ युद्ध किए.

यह संक्षिप्त उल्लेख मैंने युद्ध से होने वाली जान और माल की तबाही अथवा मनुष्य पर पड़ने वाले उसके दारुण प्रभावों को दिखाने के लिए नहीं किया है. वे अपनी जगह है. यहां केवल यह कहना है कि युद्धों की सभ्यता में जीते हुए भी भारत के मुख्यधारा नागरिक समाज, जिसमें ज्यादातर बौद्धिक समाज भी समाहित है, की युद्ध के बारे में गंभीर समझ नहीं मिलती. न अपने लिए, न देश के लिए, न दुनिया के लिए. न उसे दुनिया में फैले युद्ध-उद्योग के बारे में जानकारी है, न फिलहाल चलने वाले अथवा संभावित युद्धों में भारत की क्या भूमिका रहेगी, इसकी जानकारी है. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से ही कहा जाता है कि अगला विश्वयुद्ध, उसका जो भी स्वरूप रहे, एशिया की धरती पर लड़ा जाएगा. उस युद्ध में भारत की भूमिका और उस युद्ध के बाद भारत कैसा होगा, इस बारे में भारत के नागरिक समाज की कोई सोच देखने-सुनने को नहीं मिलती. क्योंकि वह यह तक नहीं जानता है कि उपनिवेशवादियों से पहले के आक्रमणकारियों और उपनिवेशवादियों को भारत की सेनाओं को परास्त करने में कामयाबी क्यों मिलती चली गयी. भारत की आज़ादी के दो बड़े युद्धों - 1857 का सशस्त्र संग्राम और 1942 का जनसंग्राम - के बारे में वह प्राय: निरक्षर है.   

यह हो सकता है कि कोई नागरिक समाज देश की मजबूती और खुशहाली के लिए युद्ध की तरफ से आंख फेर कर अन्य क्षेत्रों पर ध्यान केन्द्रित करे. दुनिया में जापान समेत ऐसे कई देश हैं. भारत में तो गांधी का सहारा भी लिया जा सकता है कि हम हिंसक संघर्ष में विश्वास करने वाले समाज नहीं है. लेकिन सैन्य-जगत की स्थिति और गति से अनभिज्ञ भारत के नागरिक समाज का सपना भारत को जल्द से जल्द महाशक्ति के रूप में देखने का है. बल्कि नागरिक समाज का एक हिस्सा भारत के विशाल बाज़ार और उसके साथ जुड़ी अर्थव्यवस्था की चकाचौंध में भारत को महाशक्ति मानता है. भारत का यह नागरिक समाज तरह-तरह से देशभक्ति का प्रदर्शन करता हुआ 'युद्धं देहि' की उग्र ललकार से भरा नज़र आता है. इस सिलसिले में अब स्थिति यह हो चली है कि वह गोल बना कर, यहां तक कि कई बार अकेले ही, 'घर में छिपे गद्दारों' पर हमला कर बैठता है. ऐसे तत्वों द्वारा खुलेआम गाली-गलौच, महिलाओं के प्रति भी, आम बात हो गयी है.

कहने की जरूरत नहीं कि वास्तविकता में भारत के नागरिक समाज को अपने देश की पहचान नहीं है. न उसका देश के प्रति लगाव है. क़ुरबानी देने की बात वह सोच भी नहीं सकता. इसके बावजूद वह पूरे देश का ठेकेदार बन कर दिन-रात देशभक्ति और युद्ध के उन्माद से ग्रस्त नज़र आता है.  कहने को यह भारत का नागरिक समाज है, लेकिन इसके सदस्य भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और भारतीय संविधान की कसौटी पर भारत के अवैध नागरिक ठहरते हैं. किशन पटनायक के शब्दों में इनके दिमाग में गुलामी का ऐसा छेद हो गया है जिसकी मरम्मत आसान काम नहीं है. मैंने अपने पत्रकारी लेखन में भारतीय नागरिक समाज से जुड़ी इस परिघटना पर पिछले 20-25 सालों में कई बार लिखा है. देखने में यही आ रहा है कि इस चिंतनीय परिघटना में कमी आने बजाय तेजी आती जा रही है. लिहाज़ा, दोहराव के बावजूद, यहां संक्षेप में एक बार फिर से इस पर विचार किया गया है.  

2.

नई आर्थिक नीतियों के साथ जो 'नया भारत' बनना शुरू हुआ, उसमें नागरिक समाज पर देशभक्ति भूत की तरह सवार होती चली गई है. इसके सामानांतर उसका पहले से ही संकुचित नागरिकता बोध और ज्यादा संकुचित होता गया है, और इंसानियत की खूबियां भी घटती गई हैं. सभी जानते हैं पिछले तीन दशकों में देश के संसाधनों और श्रम की निगम पूंजीवाद (कारपोरेट कैपिटलिज्म) के हक़ में उत्तरोत्तर भारी लूट हुई है. नरेंद्र मोदी के शासन में यह प्रक्रिया अंधी दौड़ में बदल चुकी है. संविधान की मान्यताओं के खिलाफ सार्वजनिक क्षेत्र की कीमत पर प्राइवेट क्षेत्र को खड़ा किया जा रहा है. समस्त लोकतान्त्रिक संस्थाओं को विनष्ट किया जा रहा है. लोकतंत्र भीड़तन्त्र में बदलता जा रहा है. भारत नवसाम्राज्यवादी शिकंजे में बुरी तरह से फंस चुका है. राजनीतिक नेतृत्व द्वारा आज़ादी, संविधान, संसाधन, श्रम, संस्थाएं गंवाते जाने का यह कारनामा नागरिक समाज की सहमति के बिना नहीं हो सकता था. लेकिन नागरिक समाज  अपने को देश का गद्दार या साम्राज्यवादी ताकतों का गुलाम मानने को तैयार नहीं है. क्योंकि उसने पिछले तीन दशकों में अच्छी-खासी आर्थिक-सामाजिक हैसियत बना ली है. जैसे-जैसे भारत के नागरिक समाज की गद्दारी और गुलामी बढ़ती जाएगी, उसकी देशभक्ति का प्रदर्शन भी नए-नए रूपों में बढ़ता जाएगा. निगम पूंजीवाद ऐसे प्रदर्शन को पूरी हवा देगा, ताकि लूट से तबाह विशाल आबादी देशभक्ति का नशे की तरह सेवन करती रहे. नागरिक समाज इस आबादी को बताता रहता है कि उनकी समस्याओं का कारण निगम पूंजीवाद की लूट नहीं, मुसलमान हैं. हालांकि, माहौल का ऐसा असर है कि मुसलमान देशभक्ति दिखाने की होड़ में किसी से पीछे नहीं रहना चाहते!     

नागरिक समाज की देशभक्ति के आदर्श समय-समय पर बदलते रहते हैं. लेकिन उसके आदर्श-पुरुष के लिए एक आधारभूत शर्त है - उसकी आस्था निगम पूंजीवाद में होनी चाहिए. पिछले कुछ सालों से उसके आदर्श नरेंद्र मोदी और आरएसएस हैं. पहले आरएसएस को लें. आरएसएस की अपने स्थापना काल से ही बलवती इच्छा रही है कि उसे देशभक्त मान लिया जाए. कहते हैं परमात्मा जब देता है, छप्पर फाड़ कर देता है. आज का परमात्मा निगम पूंजीवाद है. उसकी कृपा से आरएसएस आज देशभक्ति का प्रमाणपत्र बांट रहा है! वह बताता है कि उसके स्वयंसेवकों की सेना भारतीय सेना से पहले मोर्चा सम्हाल सकती है! गाय के गोबर से तैयार किये गए बंकर डोकलम में चीन का आक्रमण विफल कर देंगे! राष्ट्र-रक्षा यज्ञ करने से देश सुरक्षित हो जाता है! सैनिकों को शूरवीरता बढ़ाने के लिए नित्य गीता-रामायण का पाठ करना चाहिए! अपने कुछ नेताओं के माध्यम से वह यह भी बता देता है कि सैनिक देश की सुरक्षा में मरने के लिए ही होते हैं! और यह भी कि सैनिकों के मरने से बने माहौल में भाजपा चुनाव में कितनी सीटें जीत जाएगी! पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई के लिए जासूसी करते हुए उसके कार्यकर्ता पकड़े जाते हैं, लेकिन उससे आरएसएस की देशभक्ति पर कोई फर्क नहीं पड़ता! क्योंकि उसकी नज़र में वे 'पवित्र पापी' हैं!     

नरेंद्र मोदी, जिन्होंने प्रधानमंत्री बनते ही रक्षा-क्षेत्र में शत-प्रतिशत विदेशी निवेश कर दिया, बताते हैं कि व्यापारी देश के लिए सैनिकों से ज्यादा जोखिम उठाते हैं! वे यह भी बताते हैं कि उनकी नस-नस में व्यापार दौड़ता है! 'देशभक्त' व्यापारी उनके साथ देश-विदेश में दौड़ लगाते नज़र आते हैं! शायद इसी दौड़ा-दौड़ी में नरेंद्र मोदी एक दिन बिना राजकीय कार्यक्रम के पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ से मिलने पहुंच गए! रफाल विमान सौदे में सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी हिन्दुस्तान एरोनौटिकल लिमिटेड (एचएएल) का नाम हटा कर उद्योगपति अनिल अम्बानी की कंपनी का नाम चढ़ा दिया! वे जिस तरह धन्नासेठों से अपनी यारी की खुलेआम और सगर्व घोषणा करते हैं, उसी तरह का व्यवहार सेना के अभियानों के बारे में भी करते हैं! व्यापारियों का हित उनके लिए सर्वोपरि है, बशर्ते वे बड़े व्यापारी हों! जोखिम उठाने वाले, कि देश छोड़ कर विदेश भाग जाएं!

ऐसे नरेंद्र मोदी भारत के नागरिक समाज की देशभक्ति का आदर्श हैं. देशभक्ति के मामले में उनके प्रति नागरिक समाज का पूजा-भाव किसी भी सवाल से परे है. लिहाज़ा, नरेंद्र मोदी खुद को भी सवालों से ऊपर मानते हैं और आश्वस्त रहते हैं कि उनके पुजारी बखूबी सारा काम सम्हाल लेने में सक्षम हैं! तभी पुलवामा में 14 फरवरी को सुरक्षा बलों पर हुए आतंकी हमले के बाद वे पुजारियों को खुली छूट देकर अपने ऊपर फिल्म बनवाने, उदघाटन करने और चुनावी रैलियों में भाषण देने में व्यस्त बने रहे!

पुलवामा हमले के बारे में थोड़ी चर्चा की जा सकती है. किसी भी व्यवस्थित देश में सुरक्षा बल के सैनिकों की आतंकी हमले में मौत की जांच का काम सबसे पहले और पूरी गंभीरता के साथ किया जाता. और अभी तक हमले से जुड़े कुछ सुराग हाथ में आ जाते. लेकिन भारत में ऐसा कुछ नहीं हुआ. अभी तक हमले में शहीद होने वाले सैनिकों की संख्या भी जनता के सामने स्पष्ट नहीं है. कहीं 42 लिखा मिलता है, कहीं 44 और कहीं 40 से ऊपर. पुलवामा हमले में अगर चूक शासन की तरफ से भी हुई है, जैसा कि हमले के बाद राज्यपाल महोदय ने कहा, तो उसका ईमानदारी से पता लगाया जाना चाहिए था. जवाबदेही तय की जानी चाहिए थी, और कानून के तहत दोषियों को सजा दी जानी चाहिए थी. जैशे मोहम्मद द्वारा हमले की जिम्मेदारी लेने की सच्चाई का भी आगे की सैन्य सुरक्षा की दृष्टि से पता लगाया जाना चाहिए था. लेकिन अफसोस की बात है कि 'युद्धं देहि' के शोर में 14 फरवरी डूब गया. उनकी मौत का कोई मोल नहीं है, क्योंकि वे सैनिक निगम पूंजीवाद की लूट से मुटाए नागरिक समाज के सदस्य नहीं थे. हां, राजनीति करने के लिए उनका इस्तेमाल किया जा सकता था, सो कर लिया या!    

लोकतंत्र में सैन्य प्रतिष्ठान राजनीतिक नेतृत्व के तहत काम करता है. लेकिन साथ ही यह भी जरूरी है कि राजनीतिक नेतृत्व कम से कम देश की सुरक्षा के मामले में साम्राज्यवादी शक्तियों के दबाव में काम नहीं कर रहा हो. भारतीय वायुसेना ने 26 फरवरी को मुंह-अंधेरे पाकिस्तान की सीमा में प्रवेश करके बालाकोट स्थित जैशे मोहम्मद के ट्रेनिंग कैंप पर बम गिराए. विदेश सचिव के बयान के मुताबिक वायुसेना की यह 'गैर-सैन्य प्रीइम्पटिव कार्रवाई' (नोन-मिलिट्री प्रीइम्पटिव एक्शन) थी. पुलवामा हमले के बदले में भारत कुछ बड़ा करेगा, यह बयान अमेरिका के राष्ट्रपति दे चुके थे. भारतीय वायुसेना की कार्रवाई के बदले में पाकिस्तान की वायुसेना ने भारत की सीमा में दाखिल होकर सैन्य अड्डे पर हमला किया. लड़ाकू विमान मिग 21 के क्षतिग्रस्त होने से पायलट अभिनन्दन वर्तमान को पाकिस्तान की सीमा में उतरना पड़ा. अमेरिकी राष्ट्रपति ने फिर बताया कि पाकिस्तान से अच्छी खबर आने वाली है. इंदिरा गांधी के बाद से देश के सभी प्रधानमंत्रियों के कार्यकाल में कमोबेस अमेरिका भारत का भाग्यविधाता बना रहा है. 1 अक्तूबर 2001 को जैशे मोहम्मद ने श्रीनगर में विधानसभा पर आतंकी हमला किया था, जिसमें 27 लोग मारे गए थे और 60 घायल हुए थे. प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने चिठ्ठी लिख कर अमेरिका के राष्ट्रपति जॉर्ज बुश से पकिस्तान को समझाने की गुहार लगायी थी. तब तक 9/11 हो चुका था और वाजपेयी ब्रिटेन के प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर के साथ आतंकवाद के खिलाफ अमेरिका की 'नई जंग' में सबसे पहले शामिल हो चुके थे. लेकिन अमेरिका तब भी पकिस्तान के साथ था, आज भी साथ है. अमेरिका पाकिस्तान को डिक्टेट करे यह समझ आता है, लेकिन वह भारत को कैसे निर्देश दे सकता है?

14 फरवरी से लेकर आज तक घटे घटनाक्रम में नागरिक समाज की ओर से निरंतर युद्ध की मांग होती रही. युद्ध न होना था, न हुआ. अलबत्ता, एक पखवाड़े में 50 से ज्यादा भारतीय सैनिक वीरगति को प्राप्त हो चुके हैं. अभी यह भी पक्का नहीं है कि सीमा के उस पार इससे ज्यादा संख्या में आतंकवादी मार गिराए गए हैं. बालाकोट में गिराए गए बम इज़रायल से खरीदे गए थे. युद्ध मांगने वालों ने पूरी कवायद में यह चर्चा नहीं की कि एक समय सोवियत रूस से हथियार लेने और उनके बल पर पाकिस्तान से युद्ध जीतने वाला भारत इज़रायल से हथियार क्यों खरीदने लगा? क्या भारत की सुरक्षा हमेशा के लिए विदेश से खरीदे गए हथियारों के भरोसे रहेगी? क्या हथियार बेचने वाली ताकतें भारत को ऐसे हथियार मुहैया कराती रहेंगी जिनसे संभावित तीसरे विश्वयुद्ध या किसी भी युद्ध में वह अपनी सीमाओं को सुरक्षित रख सके? क्या भारत की सुरक्षा सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठानों की कीमत पर याराना पूंजीवाद के खिलाड़ियों द्वारा मुनाफे की हविस से आनन-फानन में कायम की गईं निजी कंपनियों के भरोसे छोड़ दी जाएगी? क्या युद्ध मांगने वाले नागरिक समाज का 'मक्का' अमेरिका, जिसकी वह पिछले 40 सालों से पूजा करने में लगा है, पाकिस्तान को हथियार और अन्य आर्थिक सहायता देना बंद कर देगा? और क्या खरीदे गए हथियारों के बल पर भारत महाशक्ति बन पायेगा?

पुलवामा की घटना के 12 दिन बाद जो हवाई कार्रवाई हुई उसमें यह ठीक ख़याल रखा गया  कि हमले में नागरिक हताहत न हों. लेकिन आतंकवादियों की सरपरस्त पाकिस्तानी सेना के ठिकानों को हमले के लक्ष्य से बाहर रखने का युद्ध में क्या औचित्य बनता है? युद्ध तो दो देशों की दो सेनाओं के बीच में होता है. अगर युद्ध की मांग करने वाले इस कार्रवाई को आतंकवाद की कमर तोड़ देने वाली मान रहे हैं तो उन्हें आतंकवाद के पाकिस्तान स्थित और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विद्यमान नेटवर्क की जानकारी नहीं है. प्रधानमंत्री के खून में व्यापार बहता है. वणिक वृत्ति से युद्ध नहीं लड़ा जा सकता, युद्ध के नाम पर राजनीतिक व्यापार किया जा सकता है. युद्ध वीर रस की कला है. वीर रस का स्थायी भाव 'उत्साह' होता है. काव्यशास्त्रियों ने बताया है कि यह भाव उत्तम प्रकृति के स्त्री-पुरुषों में ही पाया जाता है. जिनके विवेक को गुस्सा आक्रांत कर  लेता है, वे युद्ध से जुड़े वीरता के भाव में नहीं जी सकते.

दरअसल, 'युद्धं देहि' की ललकार देने वाले और उनके नायक घृणा की भावना से परिचालित हैं. उनकी घृणा किसके प्रति है, यह बताने की जरूरत नहीं है. हर इंसान अपनी भावनाओं को अच्छी तरह जानता है. वर्ना 1962 के युद्ध में चीन से हुई पराजय के बाद से भारत की 20 हजार वर्ग किलोमीटर धरती चीन के कब्जे में है. भारत की संसद ने उसे वापस लेने का सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित किया हुआ है. लेकिन भारत का युद्धोन्मादी नागरिक समाज उसके लिए कभी युद्ध की मांग नहीं करता. वह अमेरिका के बहिष्कार की भी कभी मांग नहीं करता, जो ओसामा बिन लादेन को अपने देश में छिपा कर रखने वाले पाकिस्तान का शुरू से सरपरस्त बना हुआ है. कहने का आशय यह है कि युद्ध मांगने वाला नागरिक समाज राष्ट्रीय भावना से किये जाने वाले युद्ध के मूल चरित्र (बेसिक स्पिरिट) से अनभिज्ञ है. बुजदिल और गुलाम दिमाग वाला नागरिक समाज कलह कर सकता है, युद्ध नहीं कर सकता. इसका सबसे चिंतनीय पहलू यह है कि लम्बे समय तक घृणा से परिचालित नागरिक समाज का सेना के मनोजगत पर गलत असर पड़  सकता है.             

3.

आरएसएस और मोदी को देशभक्ति का आदर्श मानने वाले केवल आरएसएस/भाजपा तक सीमित नहीं हैं. आरएसएस/भाजपा के समर्थकों से ज्यादा बड़ी संख्या दूसरी पार्टियों से जुड़े लोगों की है. उनके साथ वे तमाम उच्च शिक्षा प्राप्त प्रोफेशनल्स और सरकारी अफसर भी जुड़ जाते हैं, जो अपनी सारी काबिलियत के बावजूद मूलत: राजनीतिक निरक्षर (पोलिटिकल इलीट्रेट) होते हैं. उन सबसे आरएसएस/भाजपा ब्रांड देशभक्ति को बड़ी ताकत हासिल होती है. नागरिक समाज का धर्मनिरपेक्ष प्रगतिशील खेमा आरएसएस/भाजपा ब्रांड देशभक्ति का विरोधी है. लेकिन वह हाशिये पर चला गया है. आरएसएस/भाजपा के खिलाफ कुछ पुराने प्रचलित तथ्यों को दोहराने या सोशल मीडिया पर 'भक्तों' को चिढ़ाने वाली फुलझड़ियां छोड़ने के अलावा कुछ नहीं कर पाता. उसकी ताकत नहीं बन पाती, इसके कई कारण हैं. सर्वोपरि, वह अंदरखाने निगम पूंजीवाद का समर्थन करने के चलते आरएसएस/भाजपा के साथ खड़ा हो जाता है. इसके अलावा आरएसएस से निरंतर 'युद्ध' की स्थिति बनाए रखने की उसकी रणनीति भी आरएसएस/भाजपा को ही मजबूत बनाती है. भाजपेतर राजनीतिक पार्टियों और नेताओं के साथ उसका अवसरवादी व्यवहार निगम पूंजीवाद का निर्णायक विकल्प खड़ा करने के लिए प्रयत्नशील राजनीतिक धारा को बाधित करता है और इस तरह आरएसएस/भाजपा को स्थायी फायदा पहुंचता है. इस खेमे के ज्यादातर सामाजिक न्यायवादी-बहुजनवादी बुद्धिजीवी औए एक्टिविस्ट हिंदू धर्म और देवी-देवताओं को गाली देकर आरएसएस/भाजपा की राजनीतिक ताकत को बढ़ाते हैं. धर्मनिरपेक्ष-प्रगतिशील खेमे में ऐसे व्यक्ति और समूह भी हैं, जो भारतीय राज्य (इंडियन स्टेट) के प्रति हमेशा गुस्से से भरे होते हैं. गुस्से में वे राज्य में कायम सरकारों और राज्य के बीच का फर्क नहीं रख पाते. उनका गुस्सा उन्हें भारतीय राज्य के ही विरोध में ले जाता है. इसका फायदा आरएसएस/भाजपा को मिलता है. नागरिक समाज में एक विशेष समूह भारतीयतावादियों का भी होता है. वे अपने को गांधी से जोड़ते हैं. अक्सर देखा गया है कि उनमें से ज्यादातर गांधी को विकृत करते हैं और आरएसएस उनकी अंतिम शरणस्थली बनता है. इधर एक टोली, जो अपने को विचारधारा-निरपेक्ष बताती है, सीधे कारपोरेट पूंजीवाद की कोख से निकल कर आई है. उसकी भगवा से लेकर लाल तक लंबी रेंज है. हालांकि, देशभक्ति का ब्रांड उसने आरएसएस/भाजपा वाला ही रखा है.          

धर्मनिरपेक्ष प्रगतिशील खेमा पिछले तीन दशकों में देशभक्ति का आरएसएस/भाजपा से अलग आख्यान नहीं रच पाया है. अब उसकी यह इच्छा भी नहीं लगती. वह 'आईडिया ऑफ़ इंडिया' की ऐसे बात करता है गोया भारत किसी किताब में रहता हो. वह अपनी बुद्धि, जिस पर वह कभी शंका नहीं करता, का इस्तेमाल या तो कुछ अस्मितावादी विमर्शों और गठजोड़ों में करता नज़र आता है या पद-पुरस्कारों की छीना-झपटी में. सामने कोई प्रामाणिक विकल्प नहीं होने पर आरएसएस/भाजपा ब्रांड की नकली, खोखली और पाखंडी देशभक्ति का ही सिक्का चलना है. वही चल रहा है. जब तक यह सिक्का चलेगा, देश के सामने दरपेश वास्तविक संकट - आज़ादी पर कसा हुआ नवसाम्राज्यवादी शिकंजा - से मुक्ति नहीं पाई जा सकती. आरएसएस/भाजपा की यह बड़ी 'उपलब्धि' है कि उसने कारपोरेट पूंजीवाद के साथ गठजोड़ बना कर देश में एक बुजदिल और गुलाम दिमाग को प्रतिष्ठा दिला दी है.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के शिक्षक और सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष हैं)  

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