Wednesday, 8 November 2017

आचार्य नरेंद्रदेव, जिन्होंने कहा था वे पार्टी छोड़ सकते हैं, मार्क्सवाद नहीं

आचार्य नरेंद्रदेव: जीवन और राजनीति
डॉ. प्रेम सिंह 
भारतीय समाजवाद के पितामह कहे जाने वाले आचार्य नरेंद्रदेव का जन्म 31 अक्तूबर 1889 में उत्तर प्रदेश के सीतापुर शहर में हुआ था। आचार्य जी का असली नाम अविनाशी लाल था। बाद में संस्कृत के विद्वान माधव मिश्र ने उनका नाम नरेंद्रदेव रखा। उनके पूर्वज स्यालकोट से उत्तर प्रदेश आकर बसे थे। उनके पिता बलदेव दास सीतापुर में वकालत करते थे। फैजाबाद में उनके दादा कुंजबिहारी लाल का बर्तनों का व्यापार था।
आचार्य जी के जन्म के दो साल बाद दादा का निधन होने पर उनके पिता सीतापुर से फैजाबाद आ गए और वहीं वकालत करने लगे। उनकी स्कूली शिक्षा फैजाबाद में और इतिहास विषय लेकर उच्च शिक्षा इलाहाबाद और बनारस में हुई। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से उन्होंने वकालत की परीक्षा भी उत्तीर्ण की और कुछ समय वकालत की। लेकिन उनका अध्ययनशील मन वकालत में नहीं रमा और 1921 में काशी विद्यापीठ में इतिहास के शिक्षक हो गए। उन्होंने इतिहास, पुरातत्व, धर्म, दर्शन, संस्कृति का गहन अध्ययन किया। हिंदी, संस्कृत, प्राकृत, पाली, जर्मन, फ्रैंच और अंग्रेजी भाषाओं के ज्ञाता आचार्य जी का अध्ययन अत्यंत विशाल और अध्यापन शैली अत्यंत सरल थी।
ऐसा कहा जाता है कि आचार्य जी मूलतः शिक्षक थे। एक राजनेता की महत्वाकांक्षा और रणनीतिक कौशल उनमें नहीं था, न ही उन्होंने उस दिशा में अपनी प्रतिभा को लगाया। लेकिन भारतीय राजनीति में आचार्य जी की भूमिका और ख्याति राष्ट्रीय स्तर पर थी। वे समाजवादी सिद्धांत एवं विचारधारा के अंतर्राष्ट्रीय स्तर के विद्वान थे। हालाँकि उन्होंने अपनी शैक्षणिक और राजनीतिक सक्रियता उत्तर प्रदेश तक ही सीमित रखी। वे काशी विद्यापीठ में अध्यापन करने के बाद 1947 से 1951 तक लखनऊ विश्वविद्यालय के और 1951 से 1953 तक बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के कुलपति रहे। उनका अपना जीवन सादगीपूर्ण था और वे गरीब छात्रों की आर्थिक मदद करते थे।
छात्रों के साथ उनका रिश्ता बहुत ही प्रेरणादायी था। उनके शिष्यों में भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री, कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कमलापति त्रिपाठी और सोशलिस्ट नेता चंद्रशेखर थे।
चंद्रशेखर आचार्य जी की प्रेरणा से राजनीति में आए और अंत तक उन्हें अपना गुरु मानते रहे। एक अध्यापक, चिंतक और समाजवादी नेता के रूप में आजादी और राष्ट्र निर्माण में आचार्य जी का अप्रतिम योगदान है।
आचार्य जी राजनीतिक रूप से कांग्रेस, कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी और आजादी के बाद सोशलिस्ट पार्टी-प्रजा सोशलिस्ट पार्टी में सक्रिय रहे। 17 मई 1934 को पटना के अंजुमन इस्लामिया हाल में संपन्न हुए कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी (सीएसपी) के स्थापना सम्मेलन की अध्यक्षता उन्होंने की थी और वे पार्टी के पहले अध्यक्ष भी बनाए गए थे। भारत के समाजवादी आंदोलन में जिस तरह से डॉ. लोहिया की ‘पचमढ़ी थीसिस’ मशहूर है, उसी तरह आचार्य जी की ‘गया थीसिस’ मशहूर है।
आचार्य जी एक चिंतन-पद्धति के रूप में मार्क्सवाद को मानने वाले थे। एक मौके पर उन्होंने कहा कि वे पार्टी छोड़ सकते हैंमार्क्सवाद नहीं। लेकिन वे रूढ़ीवादी कम्युनिस्ट नहीं थे। यानी सर्वहारा के नाम पर कम्युनिस्ट पार्टी, उसमें भी एक व्यक्ति या गुट की तानाशाही, उन्हें अस्वीकार्य थी। आचार्य जी सोवियत रूस के प्रशासन के अलोतांत्रिक चरित्र और वहां राजनीतिक स्वतंत्रता के अभाव के आलोचक थे। लेकिन वे किसी भी तरह से अमेरिकी पूंजीवादी साम्राज्यवाद के समर्थक नहीं थे। वे मार्क्सवाद और भारत व बाकी पराधीन दुनिया के राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में कोई विरोध नहीं देखते थे। वैसे ही वे किसान और मजदूरों की क्रांतिकारी शक्ति के बीच विरोध नहीं, परस्पर पूरकता देखते थे। वे कृषि क्रांति को समाजवादी क्रांति से जोड़ने के पक्षधर थे। इसीलिए उन्होंने अपना ज्यादा समय किसान राजनीति को दिया। वे किसानों को जाति और धर्म के आधार पर संगठित करने के खतरों को समझते थे। भारत के क्रांतिकारी आंदोलन को भी आचार्य जी द्विभाजित नजरिए से नहीं, स्वतंत्रता संघर्ष के इतिहास की विकासमान धारा की संगति में देखते थे।
आचार्य जी भारत की प्राचीन संस्कृति में सब कुछ त्याज्य नहीं मानते थे। उन्होंने, विशेषकर बौद्ध धर्म व दर्शन का गंभीर अध्ययन किया था। उन्होंने हिंदी में ‘बौद्ध धर्म-दर्शन’ ग्रंथ की रचना की जिसे साहित्य अकादमी ने पुरस्कृत किया। उनके 1936 के एक भाषण का अंश है: ‘‘हमारा काम केवल साम्राज्यवाद के शोषण का ही अंत करना नहीं है किंतु साथ-साथ देश के उन सभी वर्गों के शोषण का अंत करना है जो आज जनता का शोषण कर रहे हैं। हम एक ऐसी नई सभ्यता का निर्माण करना चाहते हैं जिसका मूल प्राचीन सभ्यता में होगा, जिसका रूप-रंग देशी होगा, जिसमें पुरातन सभ्यता के उत्कृष्ट अंश सुरक्षित रहेंगे और साथ-साथ उसमें ऐसे नवीन अंशों का भी समावेश होगा जो आज जगत में प्रगतिशील हैं और संसार के सामने एक नवीन आदर्श उपस्थित करना चाहते हैं।’’ (आचार्य नरेंद्र देव वाड्ंमय, खंड 1)
आजादी के सभी महत्वपूर्ण नेताओं की तरह आचार्य जी का भी जेल आना-जाना लगातार बना रहा। दूसरे महायुद्ध और भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान वे 1940 से लेकर 1945 तक जेल में बंद रहे। सितंबर 1939 में दूसरा महायुद्ध छिड़ने पर अंग्रेजों की भारत को भी युद्ध में शामिल घोषित करने की एकतरफा घोषणा का कड़ा विरोध करते हुए कांग्रेस ने मंत्रिमंडलों से त्यागपत्र दे दिया। 1940 में गांधी जी द्वारा व्यक्तिगत सत्याग्रह शुरू किए जाने पर खराब स्वास्थ्य के बावजूद आचार्य जी उसमें सबसे आगे बढ़ कर शामिल हुए और जेल गए। उन्हें सितंबर 1941 में रिहा किया गया तो गांधी ने उन्हें सेवाग्राम आश्रम में अपने साथ रख कर उनके स्वास्थ्य की देखभाल की। भारत छोड़ो आंदोलन की घोषणा पर अन्य नेताओं के साथ आचार्य जी को भी गिरफ्तार कर लिया गया। वे 15 जून 1945 को रिहा किए गए।
जेल ने एक तरफ दमे से पीड़ित उनके स्वास्थ्य को काफी नुकसान पहुंचाया, वहीं उन्हें लिखने-पढ़ने का अवकाश भी दिया। मसलन, वसुबंधु के ‘अभिधम्म कोष’ का फ्रैंच से हिंदी अनुवाद उन्होंने 1932 में बनारस जेल में शुरू किया और 1945 में अहमद नगर जेल में पूरा किया, जहां वे जवाहरलाल नेहरू समेत कई नेताओं के साथ बंदी थे। अपनी पुस्तक ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ की भूमिका में में नेहरू जी ने कतिपय अन्य साथियों के साथ आचार्य नरेंद्रदेव की विद्वता का लाभ उठाने की बात लिखी है।   
आचार्य जी गांधी जी की तरह नैतिकता को जीवन और राजनीति दोनों की कसौटी मानते थे।
आचार्य नरेंद्रदेव के विचारों की सबसे बड़ी सार्थकता व्यक्ति के नैतिक मूल्यों का समाजिक परिवर्तन की क्रांतिकारी प्रक्रिया से साथ संवर्द्धन कऱने में है। उनका सामजिक परिवर्तन के नैतिक पक्ष पर आग्रह जहां भारतीय दृष्टि से जुड़ा है, सामाजिक शक्तियों के वैज्ञानिक विश्लेषण का आग्रह मार्क्सवादी दृष्टि से। वे निश्चित रूप से मार्क्सवाद की बोल्शेविक धारा में विकसित नैतिकता-निरपेक्ष प्रवृत्ति के विरोधी थे।
1948 में जब सोशलिस्ट कांग्रेस बाहर आ गए और स्वतंत्र सोशलिस्ट पार्टी का गठन कर लिया तो कांग्रेस के टिकट पर जीत कर यूपी विधानसभा के सदस्य बने आचार्य जी और अन्य सोशलिस्टों ने विधायकी से त्यागपत्र दे दिया। हालांकि उस समय न इसकी जरूरत थी, न किसी ने मांग की थी। लेकिन आचार्य जी का मानना था कि कांग्रेस से अलग पार्टी बना लेने के बाद विधानसभा का सदस्य बने रहना नैतिक रूप से उचित नहीं होगा। उपचुनाव में वे खुद और उनके साथी हार गए। सत्ता के मद में चूर कांग्रेस के नेताओं ने चुनाव में आचार्य जी के खिलाफ अत्यंत अशोभनीय प्रचार किया। अलबत्ता खुद नेहरू जी को उनकी चुनावी पराजय पर अचरज हुआ था। 19 फरवरी 1956 को 67 वर्ष की आयु में आचार्य जी का मद्रास में निधन हो गया।
जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कहा,
"आचार्य नरेंद्रदेव की मृत्यु का मायना हममें से बहुत लोगों के लिए और, मुझे लगता है कि देश के लिए, एक महत्वपूर्ण हस्ती के निधन से बहुत बड़ा है. वे दुर्लभ प्रतिभा के व्यक्ति थे - बहुक्षेत्रीय दुर्लभ प्रतिभा - चेतना में दुर्लभ, मन और बुद्धि में दुर्लभ, मस्तिष्क की अखंडता में दुर्लभ, और अन्यथा भी। केवल उनके शरीर का अवसान हुआ है. मुझे नहीं पता कि क्या इस सदन में मौजूद कोई भी व्यक्ति है जो मुझसे ज्यादा लंबी अवधि के लिए उनके जुड़ा था। 40 साल से पहले हम एक साथ आए और हमने असंख्य अनुभवों को आजादी के संघर्ष के दौरान धूल और गर्मी में और जेल-जीवन की लंबी चुप्पी में साझा किया - मैं अब भूलता हूं - चार या पांच साल विभिन्न स्थानों पर हमने एक साथ बिताए, और हमें एक-दूसरे को अच्छी तरह से जानने का मौका मिला; लिहाज़ा, हममें से बहुतों के लिए यह एक गंभीर आघात है, जैसा कि यह हमारे देश के लिए एक गंभीर क्षति है। सार्वजनिक और निजी - दोनों स्तरों पर खोने का एक साथ अहसास, और यह भावना कि एक दुर्लभ प्रतिभा चली गई है और उस जैसा फिर से मिलना बहुत कठिन होगा।"
आचार्य जी को उनकी 127वीं जयंती पर याद करते हुए भारत के वर्तमान राजनीतिक-बौद्धिक परिदृष्य पर अफसोस होता है। आजादी के संघर्ष के आंदोलन में जुटे हमारे नेता कितने विचारशील और गहरी अंतर्दृष्टि वाले थे!
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षक और सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष हैं।)

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