Sunday, 28 October 2018

सीबीआई विवाद : उच्चतम न्यायालय समुचित व्यवस्था देकर भरोसा बहाल करे

28 अक्तूबर 2018
प्रेस रिलीज़


      
केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) के भीतर जो कुछ हुआ और हो रहा है, वह मध्यकाल में होने वाले षड्यंत्रों या गेंगवार की याद दिलाता है। राजनैतिक इस्तेमाल के चलते सीबीआई की छीछालेदर पहले भी होती रही है। कांग्रेस सरकार ने किस तरह उसे राजनीतिक हितों के लिए इस्तेमाल किया, इसका प्रमाण बी आर लाल की किताब 'हू ओन्स सीबीआई : द नैकेड ट्रुथ' में स्पष्ट तरीके से वर्णित किया गया है। लेकिन मौजूदा सरकार ने सारी हदें पार कर दी हैं। सीबीआई ने व्यापम घोटाले में किस तरह से लीपापोती की है, यह सभी को मालूम है। विजय माल्या को भगाने में सीबीआई ने किस तरह अपने लुकआउट नोटिस को नरम किया, यह भी सभी को मालूम है। नीरव मोदी और मेहुल चौकसी के मामले में भी सीबीआई सहित केंद्रीय जांच एजेंसियों ने नरम रुख अपनाया। इतना ही नहीं, सीबीआई के विशेष निदेशक बनाये गए राकेश अस्थाना गोधरा कांड में तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को क्लीन चिट दिला कर उनके चहेते बन चुके थे। विडंबना यह है कि सरदार पटेल की सबसे ऊंची मूर्त बनाने वाली सरकार सरदार पटेल के सपनों की एजेंसी सीबीआई को तहस-नहस कर रही है। सरदार चाहते थे कि सीबीआई रियासतों में फैले भ्रष्टाचार की जांच करे और वहां एक निष्पक्ष और कानून सम्मत व्यवस्था लागू करने में मदद करे।

       यह राजनीतिक हस्तक्षेप की पराकाष्ठा है जब देश की सर्वोच्च समिति व्दारा नियुक्त होने वाले निदेशक (अलोक वर्मा) को विभाग में जबरन घुसाया गया विशेष निदेशक (राकेश अस्थाना) चुनौती दे; निदेशक विशेष निदेशक के विरुद्ध एफआईआऱ दर्ज करे; और अपने ही अधिकारियों को गिरफ्तार करने की पहल करे! निदेशक अपने जूनियर पर तीन करोड़ रुपए रिश्वत लेने का आरोप लगाए तो जूनियर उस पर दो करोड़ रुपए का। जबकि केस एक ही है। मीट निर्यातक मोइन कुरैशी के मामले की जांच को अलग-अलग दिशाओं में मोड़ने के लिए अगर रिश्वत ली गई है, और विशेष निदेशक पीएमओ, प्रवर्तन निदेशालय और रॉ के अधिकारियों से मिलकर फिरौती का रैकेट चला रहे थे तो इससे ज्यादा गंभीर मामला कुछ हो नहीं सकता! इस पूरे मामले के तार सीधे प्रधानमंत्री तक जाते हैं, क्योंकि विशेष निदेशक राकेश अस्थाना उनके खास बताए जाते हैं। यह अकारण नहीं लगता कि पूरी सरकार निदेशक का पक्ष लेने की बजाय उसके जूनियर के साथ खड़ी है। राकेश अस्थाना के एक के बाद एक कारनामे जनता के सामने आ रहे हैं।  

       यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश के राजनीतिक दल आलोक वर्मा बनाम राकेश अस्थाना के बीच बंट गए हैं। अगर भाजपा और उसके साथ की सत्तारूढ़ पार्टियां अस्थाना के समर्थन में हैं, तो कांग्रेस और दूसरे विपक्षी दल आलोक वर्मा के साथ। कांग्रेस पार्टी का आरोप है कि आलोक वर्मा रफाल सौदे की जांच की पहल कर रहे थे, इसलिए उन पर गाज गिरी है। उसका मानना है कि इसी वजह से रातोंरात तख्तापलट जैसी कार्रवाई करके सीबीआई का दफ्तर सील कर बड़े पैमाने पर अफसरों का तबादला कर दिया गया। कांग्रेस और वकील प्रशांत भूषण का रफाल संबंधी आरोप निदेशक के सुप्रीम कोर्ट में दिए गए इस हलफनामे से मिलता है कि वे कुछ विशेष जांच कर रहे थे, जिससे सरकार को परेशानी थी। इसीलिए उन्हें छुट्टी पर भेजा गया है।

       सुप्रीम कोर्ट मामले की सुनवाई कर रहा है। उसने शायद केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) पर पूरा भरोसा न करते हुए, उसके ऊपर जांच की निगरानी के लिए रिटायर जज एके पटनायक को बिठा दिया है, और दो हफ्तों में रपट मांगी है। साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने नंबर चार के अधिकारी नागेश्वर राव को कार्यकारी निदेशक बनाए जाने पर कार्रवाई की है और उनकी नीतिगत फैसला लेने की शक्तियां सीमित कर दी हैं। उन्होंने जो भी फैसले लिए हैं और लेंगे उसे अदालत के सामने पेश करना होगा।

       कोढ़ में खाज यह है कि नागेश्वर राव भी कदाचार के आरोपों से घिरे हुए हैं। उनकी सबसे बड़ी योग्यता यह है कि वे राम माधव के करीबी हैं और संघ के साम्प्रदायिक हिंदुत्व एजेंडे में शामिल हैं। वे गोमांस का निर्यात बंद कराने के उपाय ढूंढने और 'हिंदू गौरव का इतिहास' लिखवाने में सक्रिय हैं। इससे सरकार की नौकरशाही का साम्प्रदायीकरण करने की मंशा जाहिर होती है। इसीलिए नरेंद्र मोदी सरकार देश की नौकरशाही को गुजरात माडल पर चलाने के प्रयास कर रही है। गुजरात माडल पर ध्यान दें तो पता चलता है कि वहां कम से कम एक दर्जन आईपीएस अधिकारी या तो वीआरएस लेकर नौकरी से हट गए या फिर अभियुक्त बनाकर जेलों में ठूंस दिए गए। जिन्होंने कानून की अवपालना की स्वायत्त कोशिश की उन्हें इतना परेशान किया गया कि उन्होंने घरों से निकलना बंद कर दिया। मोदी सरकार वही स्थिति केंद्र में करना चाहती है। इस संविधान और राष्ट्र विरोधी काम में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के तथाकथित सेकुलर और सामाजिक न्यायवादी दल/नेता बराबर के जिम्मेदार हैं।   

       सोशलिस्ट पार्टी का मानना है कि देश की तमाम संस्थाओं को किसी नेता या पार्टी के प्रति नहीं, देश के संविधान और कानून के राज के प्रति उत्तरदायी होना चाहिए। सीबीआई के मौजूदा विवाद को देखते हुए सोशलिस्ट पार्टी की सुप्रीम कोर्ट से अपील है कि वह पूरे मामले में एक माकूल व्यवस्था दे। ताकि देश के नागरिकों का संवैधानिक संस्थाओं में भरोसा बहाल हो सके जिसे मौजूदा केंद्र सरकार ने हिला कर रख दिया है। सोशलिस्ट पार्टी मांग करती है कि इस केंद्रीय जांच एजेंसी का राजनीतिकरण बंद हो और उसे लोकपाल कानून के तहत पूर्ण स्वायत्तता दी जाए। सोशलिस्ट पार्टी भाजपा के एक वरिष्ठ नेता की 'देश किसी भी संस्था से बड़ा है' जैसी गैर-जिम्मेदाराना और गुमराह करने वाली जुमलेबाजी की कड़ी भर्त्सना करती है।

डॉ. प्रेम सिंह
अध्यक्ष  

CBI feud : Supreme Court must take steps to restore trust

28 October 2018
Press release


 Whatever happened and is happening within the Central Bureau of Investigation (CBI), is reminiscent of the conspiracies hatched in the middle ages or in a gang war. Due to its politicization, CBI has undergone tough times earlier too. The story as to how the Congress government used it for its political motives is clearly described in B. R. Lal's book 'Who Owns CBI: The Naked Truth'. But the current government has crossed all limits. It is known to all that the CBI has been white washing in the Vyapam scam. It is also known to everyone how the CBI softened its look-out notice in the case of Vijay Mallya. In the case of Neerav Modi and Mehul Choksi, central investigation agencies, including the CBI, took a soft stand. Not only this, Special Director of CBI Rakesh Asthana became a favorite of Narendra Modi by giving him a clean chit as chief minister in the Godhra carnage. Ironically, the government that is erecting the tallest statue of Sardar Patel is destroying his dream institution, the CBI. Sardar had wanted the CBI to investigate corruption in princely states and to help in the implementation of a fair and lawful order there.

The height of political intervention is when the director of CBI, who is appointed by the highest committee of the country, is challenged by the special director, who was thrust into the department. The director files an FIR against the special director and takes the initiative to arrest his own officials! If the director (Alok Verma) is accusing his junior (special director Rakesh Asthana) of taking Rs 3 core bribe, then the junior has accused him of taking Rs 2 crores. If a bribe had been taken to divert the investigation into a different direction in the case of the meat exporter Moin Qureshi, and the special director was running a racket for ransom along with the officers in the PMO, ED and RAW, then there could be no more serious matter than this! The connection of this entire feud leads straight to the Prime Minister, because special director Rakesh Asthana is said to be his favourite. It seems, not without reason, that the whole government is standing with the junior instead of taking the side of the director. One after the other, Rakesh Asthana's deeds are unfolding in front of the public.

Unfortunately, the political parties of the country have been divided between Alok Verma and Rakesh Asthana. If the BJP and its ruling allies are in support of Asthana, then the Congress and the other opposition parties are in support of  Alok Verma. The Congress alleges that Alok Verma was taking the initiative to investigate the Rafale deal, and, therefore, he was removed from his job. It believes that for the same reason, the CBI office was sealed overnight and officers have been transferred on a large and sudden scale, like a coup. The allegation of the Congress and the lawyer Prashant Bhushan related to Rafale deal, points to the affidavit given to the Supreme Court by the director, that he was conducting some special investigation which made the government uncomfortable. That's why he has been sent on leave.

The Supreme Court is hearing the case. While perhaps not trusting the Central Vigilance Commission (CVC), it has deputed retired Judge AK Patnaik for monitoring the investigation and has sought a report in two weeks. Along with this, the Supreme Court has taken action against Nageshwar Rao, the fourth number officer appointed as the executive director, by limiting his powers to take policy decisions. Whatever decisions he has taken or would take will be presented before the Court.

The scab of the dirt is that Nageshwar Rao is also surrounded by allegations of misconduct. His greatest qualification is that he is close to Ram Madhav and is involved in the Sangh's communal Hindutva agenda. He is active in finding ways to stop export of beef and in writing 'History of Hindu pride'. This shows the intention of the government to communalise the bureaucracy. That is why the Narendra Modi government is making efforts to run the country's bureaucracy on the lines of Gujarat model. If one pays attention to the Gujarat model then it is known that there were at least a dozen IPS officers either opted for VRS or were convicted and imprisoned in jails. Those who made an autonomous attempt to follow the law of the land were so disturbed that they stopped going out of their houses. Modi government wants to bring the same situation at the center. In this anti-Constitution and anti-national work, the so-called secular and social justice  parties/leaders of the National Democratic Alliance (NDA) are equally responsible.

The Socialist Party believes that all the institutions of the country should be answerable to the Constitution of the country and the rule of law, and not to any individual leader or party. Given the CBI's current feud, the Socialist Party makes an earnest appeal to the Honourable Supreme Court to give a firm order in the whole case. So that the confidence of the citizens of the country can be restored in the constitutional institutions, which have been badly shaken by the current central government. The Socialist Party demands that the politicization of the CBI should be stopped and it should be given full autonomy under the Lokpal. The Socialist Party further strongly condemns the irresponsible and misleading rhetoric such as  'no institution is bigger than country', made by a senior leader in the government.


Dr. Prem Singh
President

Saturday, 27 October 2018

सरकार हरियाणा रोडवेज के निजीकरण का फैसला रद्द करे

26 अक्तूबर 2018
प्रेस रिलीज़


      हरियाणा सरकार के हरियाणा रोडवेज का निजीकरण करने के फैसले के विरोध में हरियाणा रोडवेज के कर्मचारी 16 अक्तूबर से हड़ताल पर हैं. हरियाणा रोडवेज कर्मचारी यूनियनों के प्रतिनिधियों की परिवहन मंत्री और मुख्यमंत्री के प्रधान सचिव के साथ हुई वार्ताएं विफल रही हैं. वे किसी भी रूप में हरियाणा बस सेवा के निजीकरण के विरोध पर डटे हुए हैं और चक्काजाम को 29 अक्तूबर तक बाधा दिया है.  सोशलिस्ट पार्टी रोडवेज कर्मचारियों की हरियाणा रोडवेज का निजीकरण नहीं करने की मांग का पूर्ण समर्थन करती है.  
      हरियाणा रोडवेज अपनी समयबद्ध, सुविधाजनक, भरोसेमंद और किफायती सेवा के लिए जानी जाती है. अगर हरियाणा रोडवेज घाटे में है तो इसका समाधान निजीकरण नहीं है, बल्कि सरकार की नीतियाँ हैं. सरकार ने एस्मा लगा कर बड़ी संख्या में स्थायी, प्रोबेशन पीरियड वाले और अस्थायी कर्मचारियों को गिरफ्तार करने और बर्खास्त करने की कार्रवाई की है. यह हैरानी की बात है कि हरियाणा की प्रमुख राजनीतिक पार्टियों ने सरकार के इस बेजा और कठोर कदम के खिलाफ जोरदार आवाज़ नहीं उठाई है.
      सोशलिस्ट पार्टी का मानना है कि खट्टर सरकार का हरियाणा रोडवेज की कीमत पर बस-सेवा के निजीकरण का यह फैसला हरियाणा की पहचान को मिटाने वाला है. गौरतलब है कि हरियाणा रोडवेज राज्य के जन्म (1 नवम्बर 1966) से ही हरियाणा को भौगोलिक और सांस्कृतिक रूप से जोड़ने की सबसे मज़बूत कड़ी रही है. प्रदेश के हरियाणवी, मेवाती, ब्रज और पंजाबी लोकगीतों में हरियाणा रोडवेज का हरियाणा की पहचान के रूप में बखान मिलता है. मुख्यमंत्री खट्टर का हरियाणा की राजनीतिक और सांस्कृतिक विरासत से सरोकार नहीं है. वरना वे हरियाणा रोडवेज का निजीकरण और हड़ताल करने वाले रोडवेज कर्मचारियों पर इस कदर कठोर कार्रवाई नहीं करते.
      सोशलिस्ट पार्टी हरियाणा सरकार से रोडवेज के निजीकरण का फैसला वापस लेने, एस्मा हटाने और कर्मचारियों की बर्खास्तगी रद्द करने की मांग करती है.

डॉ. प्रेम सिंह
अध्यक्ष 

Thursday, 11 October 2018

आज लोहिया होते तो गैर भाजपावाद का आह्वान करते


रामस्वरूप मंत्री




जिंदा कौमें पांच साल इंतजार नहीं करतीं.’ गैर-कांग्रेसवाद के जनक और समाजवादी चिंतक डॉ. राम मनोहर लोहिया का यह कथन आज की सरकारों के लिए भी उतना ही प्रासंगिक है जितना 1960 के दशक में जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी की सरकारों के लिए था.लोहिया युग पुरुष थे और ऐसे लोगों का चिंतन किसी एक काल और स्थान के लिए नहीं हर युग और पूरी मानवता के लिए प्रासंगिक होता है. उनकी व्याख्या भी शाब्दिक नहीं भावार्थ के साथ होनी चाहिए. इसलिए अगर उन्होंने उस समय की कांग्रेस पार्टी का एकाधिकार समाप्त करने और उसके कारण समाज में फैल रही बुराइयों को खत्म करने के लिए गैर-कांग्रेसवाद का आह्वान किया था तो आज अगर वे होते तो निश्चित तौर पर गैर-भाजपावाद का आह्वान करते. दुर्भाग्य की बात यही है उनके तमाम शिष्य या अनुयायी उनकी राह पर चलने का साहस नहीं जुटा पाते.उनकी  पुण्य तिथि पर उन्हें स्मरण करने का सबसे बड़ा प्रयोजन यही होना चाहिए कि उनके चिंतनसाहसकल्पनाशीलता और रणकौशल को आज के संदर्भ में कैसे लागू किया जाए.

लोहिया का पूरा चिंतन बराबरी के मूल्यबोधों में डूबा हुआ चिंतन है। बराबरी का यह लोकतांत्रिक विचार और स्त्री-पुरुष के बीच असमानता के मूल कारणों की खोज की जिजीविषालोहिया को और पढ़ने और खंगालने के लिए उकसाती है।

डा लोहिया  कहते हैंभारतीय मर्द इतना पाजी है कि अपनी औरतों को वह पीटता है। सारी दुनिया में शायद औरतें पिटती हैंलेकिन जितनी हिंदुस्तान में पिटती हैंइतनी और कहीं नहीं। हिंदुस्तान का मर्द सड़क परखेत पर या दुकान पर इतनी ज़्यादा जिल्लत उठाता है और तू-तड़ाक सुनता हैजिसकी सीमा नहीं। इसका नतीजा होता है कि वह पलटकर जवाब तो दे नहीं पातादिल में ही यह सब भरे रहता है और शाम को जब घर लौटता हैतो घर की औरतों पर सारा गुस्सा उतारता है।

राम मनोहर लोहिया का स्त्री विषयक चिंतनस्त्री मात्र पर विचार नहीं करता है। यह भारतीय संस्कृति में द्रौपदी को आदर्श चरित्र में खोजता हैयह स्त्री को एक अलग इकाई के रूप में नहींवरन समाज के अभिन्न हिस्से के रूप में देखता है। उस समय जब बाबा साहब अंबेडकर के अलावा कोई भी इसे नहीं देख पा रहा था। गांधी जहां महिलाओं को एक इकाई मानते थेवहीं लोहिया उन्हें जातिग्रस्त समाज का हिस्सा मानते थे। ज़ाहिर है लोहिया महिलाओं के सन्दर्भ में पितृसत्ता के साथ-साथ जातिग्रस्त पितृसत्ता को भी पहचान रहे थे। इसलिए वो महिलाओं की आर्थिक भागीदारी के अवसरों की पैरवी भी कर रहे थे। लोहिया उस दौर में अंतरजातीय विवाहों पर अपनी सहमति जताते हैंक्योंकि इससे महिलाओं को खुद को अभिव्यक्त करने का मौका मिलेगा और वो तमाम वर्जित क्षेत्रों में पहुंच सकेगी।

डॉ. राम मनोहर लोहिया के संपूर्ण राजनीतिक जीवन का संदेश यही है कि व्यक्ति और समाज की स्वतंत्रता और तरक्की के लिए विवेकपूर्ण संघर्ष और रचना. उन्होंने 1963 के उपचुनाव में लोकसभा पहुंच कर जब धूम मचा दी थी तो उनके साथ संख्या बल नहीं था. उनका साथ देने के लिए पार्टी के कुल जमा दो और सांसद थे. किशन पटनायक और मनीराम बागड़ी. लेकिन जिसके पास नैतिक बल होता है उसे संख्या बल की चिंता नहीं रहती.

लोहिया ने तीन आने बनाम पंद्रह आने की बहस के माध्यम से पंडित जवाहर लाल नेहरू जैसे शक्तिशाली और विद्वान प्रधानमंत्री को निरुत्तर कर दिया था और उनकी बात का जवाब देने के लिए योजना आयोग के उपाध्यक्ष महालनोबिस समेत कई अर्थशास्त्रियों को लगना पड़ा था.डॉ. लोहिया अपने इस दावे को वापस लेने को तैयार नहीं थे कि किस तरह इस देश का आमआदमी तीन आने रोज पर गुजर करता है. जबकि प्रधानमंत्री के कुत्ते पर तीन आने रोज खर्च होता है और प्रधानमंत्री पर रोजाना पच्चीस हजार रुपए खर्च होता है.

सरकार दावा कर रही थी कि आम आदमी का खर्च तीन आने नहीं पंद्रह आने है. डॉ. लोहिया का कहना था कि अगर सरकार मेरे आंकड़ों को गलत साबित कर दे तो मैं सदन छोड़कर चला जाऊंगा. इस दौरान नेहरू जी से उनकी काफी नोंकझोंक हुई और पंडित नेहरू ने कहा कि डॉ. लोहिया का दिमाग सड़ गया है. इस पर उन्होंने उनसे माफी मांगने की अपील की.यहां सवाल कांग्रेस या पंडित जवाहर लाल नेहरू को चुनौती देने का नहीं सवाल व्यवस्था को चुनौती देने का है और लोहिया में उसका अदम्य साहस था. ऐसा इसलिए भी था कि वे साधारण व्यक्ति की तरह रहते थे और उनकी कोई निजी संपत्ति थी ही नहीं. वे जानते थे कि नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस एक चट्टान की तरह से है इसीलिए उससे टकराना ही होगा तभी उसमें दरार पड़ेगी.

उल्लेखनीय तथ्य यह है कि डॉ. लोहिया गांधी के नेतृत्व को स्वीकार करने के बावजूद भगत सिंह के प्रति असाधारण सम्मान रखते थे. संयोग से जिस 23 मार्च को भगत सिंह को फांसी हुई उसी दिन डॉ. लोहिया का जन्मदिन पड़ता था. इसी कारण डॉ. लोहिया अपना जन्मदिन नहीं मनाते थे.
समाज को बदलने और समता व समृद्धि पर आधारित समाज निर्मित करने के लिए लोहिया निरंतर संघर्षशील रहे और अगर गुलाम भारत में अंग्रेजों ने उन्हें एक दर्जन बार गिरफ्तार किया तो आजाद भारत की सरकार ने उन्हें उससे भी ज्यादा बार. अन्याय चाहे जर्मनी में होअमेरिका में हो या नेपाल में उनके रक्त में उसे सहने की फितरत नहीं थी.

वे पूरे साहस के साथ उसका प्रतिकार करते थे फिर कीमत चाहे जो चुकानी पड़े. वे कीमत की परवाह नहीं करते थे और अकेले ही बड़ी से बड़ी ताकतों से टकरा जाते थे. लेकिन उनका संघर्ष सिर्फ टकराने के लिए नहीं बल्कि नई रचना करने और उनका व्याख्यान नया विमर्श खड़ा करने के लिए होता था. इसीलिए उन्होंने अपने साथियों को राजनीति के लिए जेलफावड़ा और वोट जैसे प्रतीक दिए थे. इसमें जेल संघर्ष का प्रतीक थी तो फावड़ा रचना और वोट लोकतांत्रिक तरीके से सत्ता परिवर्तन का.

आज लोहिया के तमाम शिष्यों के पतन और जातिवादी राजनीति की चर्चा करते हुए या तो लोहिया के सिद्धांत को खारिज किया जाता है या गैर-कांग्रेसवादी राजनीति के कारण उन्हें फासीवाद का समर्थक बता दिया जाता है. कुछ लोग तो डॉ. लोहिया के जर्मनी प्रवास के दौरान उन पर नाजियों के सम्मेलन में जाने का आरोप भी लगाते हैं. लेकिन ऐसा वे लोग करते हैं जो न तो लोहिया के विचारों से अच्छी तरह वाकिफ हैं और न ही उनकी राजनीतिक बेचैनी से.

महात्मा गांधी के बारे में डॉ. लोहिया का यह कथन बेहद प्रासंगिक है कि बीसवीं सदी की बड़ी खोजें हैं एक महात्मा गांधी और दूसरा एटम बम. सदी के आखिर में एक ही जीतेगा. वे राजनीति को हिंसा और अनैतिकता से मुक्त करने के पक्ष में थे इसलिए धर्म के मूल्यों को राजनीति को संवारने के विरुद्ध नहीं थे,  ऐसा गांधी ने किया भी था.

वे धर्म और राजनीति को अलग अलग रखने के हिमायती थे. लेकिन उनकी इस बात को न समझने वाले कह देते हैं कि उनकी सांस्कृतिक नीति जनसंघ के नजदीक थी. डॉ. लोहिया रामकृष्ण और शिव की जिस तरह से व्याख्या करते हैं संभव है वह बात जनसंघ को अनुकूल लगे. लेकिन डॉ. लोहिया द्रौपदी बनाम सावित्री की जिस तरह से व्याख्या करते हैं वह बात जनसंघ और कट्टर हिंदुओं को कतई अच्छी नहीं लगेगी उनके लिए पांच पतियों की पत्नी और प्रश्नाकुल और बड़े से बड़े से शास्त्रार्थ करने वाली द्रौपदी आदर्श नारी थी न कि पति के हर आदेश का पालन करने वाली सावित्री या सीता. उनकी नजर में भारत गुलाम ही इसीलिए हुआ क्योंकि यहां का समाज जाति और यौनि के कटघरे में फंसा हुआ था.

   वे सबसे बड़ा खतरा कट्टरता को मानते हैं और कहते हैं कि अगर कट्टरता बढ़ेगी तो न सिर्फ यह स्त्रियों और शूद्रों और अछूतों और आदिवासियों के लिए खतरा पैदा करेगी बल्कि इससे अल्पसंख्यकों के साथ भी रिश्ते बिगड़ेंगे.
यही वजह है कि वे भारत की जाति व्यवस्था को हर कीमत पर तोड़ने के हिमायती थे. वे इसके लिए डॉ. आंबेडकर से हाथ मिला रहे थे लेकिन दुर्भाग्य से बाबा साहेब का 1956 में निधन हो गया. वे दक्षिण में रामास्वामी नाइकर से उस समय मिलने गए जब आंदोलन के दौरान वे गिरफ्तार थे और अस्पताल में थे. भारत की जाति व्यवस्था को खत्म करने के लिए उन्होंने ब्राह्मण बनिया राजनीति की कड़ी आलोचना की तो उन शूद्र जातियों की भी आलोचना की जो आगे बढ़ने के बाद ऊंची जातियों की ही नकल करने लगती हैं.

शूद्रों की राजनीति को बढ़ावा देने पर डॉ. लोहिया की आलोचना करने वालों को यह समझना चाहिए कि उन्होंने उन तमाम कमियों की ओर बहुत पहले सचेत किया था जो शूद्र जातियों के शासन में आ सकती हैं. आज के दौर में मंडल राजनीति से निकले जातिवादी और सांप्रदायिक राजनेताओं में उनकी चेतावनी की छाया देखी जा सकती है.

डॉ. लोहिया के संदर्भ में एक बात नहीं भूलनी चाहिए कि उन्होंने जाति तोड़ो के लिए न तो जलन की राजनीति का समर्थन किया था और न ही सत्ता पाने के लिए चापलूसी की राजनीति की एक तरह से डॉ. लोहिया गांधी और आंबेडकर के बीच सेतु हैं. वे स्वाधीनता संग्राम को भी उतना ही जरूरी मानते हैं जितना जाति व्यवस्था के विरुद्ध संग्राम. वे देशभक्त तो हैं ही सामाजिक न्याय के भी जबरदस्त समर्थक हैं. यहां यह भी नहीं भूलना चाहिए कि डॉ. लोहिया जातियों को तोड़ने का आह्वान करने के बाद वर्ग संघर्ष की बात भी करते हैं और चाहते हैं कि आखिर में वर्ग विहीन समाज का निर्माण हो. वे यह भी चाहते हैं कि मनुष्य इतिहास के उत्थान और पतन के चक्र से मुक्त हो और एक विश्व सरकार का गठन करके दुनिया में जातिलिंगराष्ट्र की गैर बराबरी मिटाकर लोकतंत्र कायम किया जाए.

 

रामस्वरूप मंत्री सोशलिस्ट पार्टी (इंडिया) के मध्‍यप्रदेश के अध्यक्ष हैं 

Wednesday, 10 October 2018

विपक्षी गठबंधन की गांठें और मुसलमान





प्रेम सिंह

             
   मोदी-शाह की जोड़ी की एक के बाद एक चुनावी जीत ने केंद्र और विभिन्न राज्यों में सत्ता के प्रमुख खिलाड़ियों के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा कर दिया था. घबराये विपक्षी दलों में भाजपा-विरोधी चुनावी गठबंधन बनाने की कोशिशें होने लगीं. लोकतंत्र पर फासीवादी संकट के मद्देनज़र सिविल सोसाइटी एक्टिविस्टों और बुद्धिजीवियों ने भी मुद्दों, नीतियों और पार्टियों/नेताओं के चरित्र को दरकिनार करके विपक्ष के चुनावी गठबंधन की जबरदस्त वकालत करना शुरू कर दी. सभी ने एक स्वर से गैर-भाजपावाद का नारा बुलंद कर दिया. उत्तर प्रदेश की तीन लोकसभा सीटों पर हुए मध्यावधि चुनावों में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, लोकदल और कांग्रेस के साझा उम्मीदवारों के जीतने और कर्नाटक विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस के समर्थन से जनता दल (सेकुलर) की सरकार बनने से यह लगा कि विपक्ष का चुनावी गठबंधन आगे भी चलेगा. यानी उत्तर प्रदेश और कर्नाटक के चुनावों के पांच महीने बाद होने वाले पांच राज्यों - राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, मिजोरम - के विधानसभा और अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव भाजपानीत राष्ट्रीय लोकतान्त्रिक गठबंधन (एनडीए) से इतर दल मज़बूत चुनावी गठबंधन बना कर लड़ेंगे.
      ऐसे माहौल में पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों के बीच गठबंधन की उम्मीद की जा रही थी. क्योंकि इन विधानसभा चुनावों को करीब 6 महीने बाद होने लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल बताया जा रहा था. लेकिन चुनावों की तारीख घोषित होने पर गठबंधन को लेकर जो स्थिति सामने आई है, उससे साफ़ लगता है कि लोकसभा चुनाव 2019 में भाजपानीत एनडीए के बरक्स विपक्षी दलों के गठबंधन के प्रयासों में गंभीरता नहीं आ पाई है. साथ ही यह भी स्पष्ट हो गया है कि सत्ता से जुड़े नेताओं, चाहे वे किसी भी राजनैतिक पार्टी के हों, को उस फासीवादी संकट की परवाह नहीं है, जिसकी दुहाई पिछले चार साल से लगातार दी जा रही है. देश के खजाने और लूट के धन की बदौलत असीमित सुविधाओं का भोग करते हुए सर्वोच्च सुरक्षा-घेरे में रहने वाले नेताओं को केवल अपनी सत्ता पर आया संकट ही असली संकट लगता है. देश, समाज, संविधान, साझा विरासत आदि पर संकट की उन्हें वास्तविक चिंता नहीं है.   
                हमें नहीं पता कि मायावती पर केंद्र सरकार ने सीबीआई का दबाव बनाया है या नहीं. लेकिन दिग्विजय सिंह पर भाजपा एजेंट होने का आरोप मायावती की पुरानी आदत को ही दर्शाता है. वे अक्सर इस या उस नेता को भाजपा का एजेंट बताती रहती हैं. कांग्रेस भ्रष्ट है, यह सही है, लेकिन सत्ता के गलियारों में कौन-सी पार्टी भ्रष्ट नहीं है? कांग्रेस का सोशल मीडिया सेल राहुल गांधी को अगले प्रधानमंत्री के दावेदार के रूप में जोर-शोर से प्रचारित कर रहा है. जनेऊ धारण कराने के बाद उन्हें मंदिरों, घाटों, तीर्थस्थलों, राम वनगमन पथ आदि पर घुमाया जा रहा है. बुद्धिजीवियों से मिलवाया जा रहा है. सोनिया के पुराने सेकुलर सिपाही सोशल मीडिया पर राहुल गांधी और कांग्रेस के गुण-गान में उतर आये हैं. इससे मायावती को लगा होगा कि कांग्रेस प्रधानमंत्री के पद के लिए उनकी दावेदारी स्वीकार नहीं करती है. नीतीश कुमार चाहते थे कि कांग्रेस उन्हें प्रधानमंत्री का उम्मीदवार स्वीकार करे. जब उन्होंने अच्छी तरह से जान लिया कि कांग्रेस वैसा नहीं करने जा रही है, तो वे वापस एनडीए में चले गए. मायावती ने नीतीश कुमार के पलायन को अपने लिए बढ़िया मौका माना होगा.  
                मायावती चाहेंगी कि उनके साथ गठबंधन न करने की सजा में कांग्रेस राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में चुनाव हार जाए. ऐसा होने पर लोकसभा चुनाव में वे कांग्रेस पर प्रधानमंत्री पद के लिए दबाव बना पाएंगी. शायद इसीलिए अभी उन्होंने सोनिया गांधी और राहुल गांधी के प्रति नरम रुख दिखाया है. कांग्रेस से कड़ी बारगेनिंग करके वे अपने मतदाताओं को यह संदेश देना चाहती हैं कि उत्तर प्रदेश में लोकसभा और विधानसभा चुनावों में बसपा की करारी हार ईवीएम में की गई गड़बड़ी के कारण थी. भले ही कुछ जानकार पत्रकार कहते हों कि मायावती जिस वोट बैंक के मुगालाते में कड़ा रुख अपना रही हैं, वह कभी का भाजपा की तरफ खिसक चुका है.   
                बहरहाल, बात अकेले मायावती और कांग्रेस की नहीं है. लोकसभा चुनाव में 6 महीने रह गए हैं. लेकिन गैर-एनडीए दलों के नेताओं में गठबंधन को लेकर ज़िम्मेदारी और गंभीरता का अभाव बना हुआ है. किसी मुकम्मल गठबंधन की बात छोड़िये, फुटकर गठबंधन की तस्वीर भी लोगों के सामने अभी तक साफ़ नहीं है. ऐसे में दो तरह की प्रतिक्रियाएं देखने में आ रही हैं. एक, जैसा कि व्यक्तिगत बातचीत में साथी रविकिरण जैन ने कहा, 'भाड़ में जाए यह देश, इसका कुछ नहीं हो सकता! इस तरह के आपसी अविश्वास के साथ ये लोग चुनाव में जीत भी जाते हैं, तो वह सरकार ज्यादा दिन नहीं चलेगी. भाजपा फिर पूरी ताकत से वापस आएगी.' दो, जैसा कि कुछ संजीदा नागरिकों ने सोशल मीडिया पर आक्रोश व्यक्त किया है, 'लड़ने दो नाकारा विपक्ष को आपस में, जिसे अपनी सत्ता के अलावा देश-समाज की ज़रा भी चिंता नहीं है. इनका विनाश होने पर ही नई राजनीति की संभावनाएं बनेंगी!'
                मैंने जून महीने में 'लोकसभा चुनाव 2019 : विपक्षी एकता के लिए एक नज़रिया' शीर्षक से एक विस्तृत लेख लिखा था, जो हस्तक्षेप डॉट कॉम सहित सोशल मीडिया की कई साइटों पर छपा था. यह लेख अंग्रेजी में 'मेनस्ट्रीम वीकली', 'जनता वीकली' पत्रिकाओं और काउंटर कर्रेंट डॉट कॉम पर भी प्रकाशित हुआ था. मैंने बहुत से साथियों को मेल से भी हिंदी और अंग्रेजी लेख भेजा था. एसपी शुक्ला, पुष्करराज, प्रो. अनिल सदगोपाल और रविकिरण जैन के अलावा किसी साथी ने लेख पर अपनी टिप्पणी नहीं भेजी. हालांकि लेख में विपक्षी गठबंधन के मुद्दे पर गंभीरता से विचार करने के लिए सभी विचारशील साथियों से आग्रह किया गया है. मैंने लेख में कहा है कि कैसी भी निराशा की स्थिति हो, एनडीए से इतर जो मुख्यधारा राजनीतिक दल हैं, उन्हीं का चुनावी गठबंधन बन सकता है.
                यह सही है कि विपक्षी नेताओं को संजीदा लोगों के हिसाब से जिम्मेदार और गंभीर नहीं बनाया जा सकता. लेकिन यह भी सही है कि उनकी जगह पर नई राजनीति रातों-रात खड़ी नहीं की जा सकती. मौजूदा राजनीतिक दल और उनके ऊपर सम्पूर्ण निगम-प्रतिष्ठान यह आसानी से नहीं होने देंगे. डेविड सी कार्टन का हवाला लें तो यह वह समय है जब दुनिया पर निगम (कार्पोरेशंस) राज कर रहे हैं. संविधान-विरोधी नई आर्थिक नीतियां थोपी जाने के साथ पूरे देश में जो स्वाभाविक तौर पर प्रतिरोध आंदोलन खड़े हुए थे, उन्हें अंतत: 'इंडिया अगेंस्ट करप्शन' (आईएसी) द्वारा आयोजित भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने नष्ट कर दिया. बताने की जरूरत नहीं कि उस आंदोलन में प्राय: समस्त सेकुलर और प्रगतिशील बुद्धिजीवी शामिल थे. उसी आंदोलन की पीठ पर सवार होकर नरेंद्र मोदी पूर्ण बहुमत के साथ देश के प्रधानमंत्री बने. उनके नेतृत्व में नवउदारवाद उग्र साम्प्रदायिकता के साथ गठजोड़ बना कर नए मज़बूत चरण में पहुंच गया. उस आंदोलन में अपनी उत्साहपूर्ण भूमिका के लिए आज तक एक भी बुद्धिजीवी ने खेद प्रकट नहीं किया है. उल्टा कार्पोरेट की सीधे कोख से निकली आम आदमी पार्टी (आप) के वे शुरू से आज तक अंध-समर्थक बने हुए हैं. आज देश में जो राजनीति फल-फूल रही है, उसमें बुद्धिजीवियों की बड़ी भूमिका है. इस सच्चाई से टकराए बगैर देश में संविधान-सम्मत राजनीति और नीतियां बहाल नहीं हो सकतीं. कारपोरेट-साम्प्रदायिक गठजोड़ के बरक्स नई अथवा वैकल्पिक राजनीति की तो बात ही छोड़ दीजिए. सचमुच संजीदा लोगों को यह समझना होगा कि निराशा में पल्ला झाड़ने से कुछ भी सार्थक हासिल नहीं हो सकता.  
                लोकसभा चुनाव के पहले एनडीए के खिलाफ गठबंधन बनेगा या नहीं; बनेगा तो उसका क्या स्वरूप  होगा, इसके बारे में पता अब पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजों के बाद ही चल पाएगा. गठबंधन में शामिल होने वाले दल इन विधानसभा चुनावों में एक-दूसरे के आमने-सामने होंगे. आरोप-प्रत्यारोप भी होंगे. परस्पर अविश्वास और कटुता बढ़ भी सकती है. भाजपा इस सबका ज्यादा से ज्यादा फायदा उठाने की कोशिश करेगी और उस लकीर को लोकसभा चुनाव तक खींचेगी. तब गठबंधन की गांठें सुलझेंगी या और ज्यादा उलझती जाएंगी यह देखने की बात है.   
      अलबत्ता आगामी चुनावी घमासान में एक बात पूरी तरह से स्पष्ट है - मुसलामानों की एक बार फिर बुरी गत बननी है. उन पर गैर-एनडीए दल/नेता ही नहीं, एनडीए में शामिल 'सेकुलर' दल/नेता भी चील की तरह झपटेंगे. मुसलमान, हमेशा की तरह, अंत तक 'महान भारतीय लोकतंत्र' का तमाशा देखेंगे और चुनाव के दिन अंतिम क्षण में जो भाजपा को हराता दिखेगा उसे वोट कर करेंगे! इस तरह वे कांग्रेस, सपा, बसपा, तृणमूल कांग्रेस, तरह-तरह के जनतादलों, डीएमके, एडीएमके, आप (जिसने हाल में दिल्ली को राज्य का दर्ज़ा देने के बदले में लोकसभा चुनाव में भाजपा का प्रचार करने का वादा किया है), और आधिकारिक कम्युनिस्ट पार्टियों (जो आप सुप्रीमो केजरीवाल का सदैव बिना शर्त समर्थन करती हैं) को एकमुश्त वोट करेंगे. देश के सेकुलर दलों/नेताओं/बुद्धिजीवियों ने उन्हें यही आदत डाली है. इसके बावजूद कि सांप्रदायिक आरएसएस/भाजपा और सेकुलर दलों की सम्मिलित साम्प्रदायिक राजनीति ने बहुसंख्यक हिंदू आबादी के मानस में मुस्लिम-घृणा का शायद कभी न नष्ट होने वाला बीज बो दिया है, अपनी अस्मिता और जान की खैर मनाते हुए वे अकेले धर्मनिरपेक्षता के धर्म का पालन करेंगे!
                साम्प्रदायिक राजनीति का जवाब स्वतंत्रता आंदोलन की विरासत और संविधान की धुरी पर स्थित राजनीतिक पार्टी ही हो सकती है. संवैधानिक रूप से अवैध निगम राजनीति (कारपोरेट पॉलिटिक्स) के वाहक नेता ऐसी किसी राजनैतिक पार्टी को पैर नहीं जमाने देंगे. बुद्धिजीवियों की स्थिति ऊपर बता दी गई है. विडम्बना यह है कि अपने ठहरे हुए राजनीतिक मानस के चलते मुसलमान भी कभी ऐसी राजनैतिक पार्टी का समर्थन नहीं करेंगे. मैंने 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले मुसलामानों के सामने एक सुझाव रखा था : "हमारा मानना है कि यह दुश्चक्र तभी तोड़ा जा सकता है जब देश के मुसलमान नागरिक कम से कम एक बार आम चुनाव और एक बार सभी विधानसभा चुनावों में वोट नहीं डालने का कड़ा फैसला लें. भारत की राजनीति में उससे बड़ा बदलाव हो सकता है. मुसलामानों के इस 'सत्याग्रह' से धर्मनिरपेक्षता के दावेदार और साम्प्रदायिकता के झंडाबरदार - दोनों संविधान की ओर लौटने के लिए मज़बूर होंगे. और तब देश का संविधान सांप्रदायिकता पर भारी पड़ेगा." (प्रेम सिंह, संविधान पर भारी सांप्रदायिकता, पृष्ठ 27, युवा संवाद प्रकाशन, नई दिल्ली, 2013)
                मैं फिर दोहराना चाहता हूं कि मुसलमान गठबंधन की गांठों की जकड़ अपने को बाहर रखते हुए लोकसभा 2019 के चुनाव की सविनय अवज्ञा कर दें.  पूरे मुस्लिम समाज के स्तर पर यह बड़ा काम आसान नहीं होगा. लेकिन सामाजिक, धार्मिक एवं नागरिक संगठन समझदारी और एका बना कर यह फैसला कर सकते हैं. इस 'शाक ट्रीटमेंट' से भारत की राजनीति में तो बड़ा बदलाव आ ही सकता है, मुस्लिम समुदाय में राजनीतिक मानस के ठहराव को तोड़ने और नागरिक-चेतना को मज़बूत करने में यह कदम क्रांतिकारी साबित हो सकता है.   
    

Friday, 5 October 2018

Under the yoke of neo-imperialism : A fake war of patriotism and treason



Prem Singh


1

        
  Civil life in India, especially during the last two decades, has been afflicted by the twin war cry of patriotism (rashtrabhakti) and  treason (rashtradroh). The three pillars of the Indian democracy - the legislative, the executive and the judiciary, including the fourth pillar - the press, the education and research institutions as well as independent and committed intellectuals of the civil society and activists working in different fields/peoples' movements have been witnessed participating in this war of words. Even the country's defense-establishment is often seen battling on the subject. It is not possible to accept the presumption that within the given power-structure, the lower and lower-middle strata of the society has not been affected by this phenomena.

          This war has picked up speed since the present government came to power. The reasons are obvious. The idea of patriotism and treason are closely linked with the idea of nationalism. Nationalism, on its part, is associated with capitalism. Aggressive capitalism, in order to flourish, needs aggressive nationalism. In such aggressive nationalism, a focused exploitation of the national identity and spirit of people is being conducted in order to secure the capitalist loot of the national resources. In this process, a fake enemy is constructed before the people to be given the role of a traitor. People forget about the real enemy of the nation, which is corporate capitalism in the present era, and start fighting against that imagined enemy. The emergence of aggressive nationalism in India and many other countries of the world is a manifestation of this very aggressive capitalism, in one or the other form.

          The ongoing war between patriotism and treason in India does not have at its core a well-thought-out and serious ideological content concerning the nation. There is no need to give extensive details of the various ideological-strategic contexts and dimensions of this war to prove its truth. The way the roles, characters, thoughts, narratives, issues, symbols, goals, strategies etc. change every moment, the futility as well as craftiness of the war of patriotism and treason is self explanatory. The absurd and ridiculous nature of this war becomes clear by looking at just three episodes related to it. One, the attempts to keep a military tank in Jawaharlal Nehru University (JNU) in check and the order to inculcate patriotism in the students and teachers and two, the binding of a citizen to the bonnet of military jeep by an army officer in Kashmir while confronting the protesters and thirdly the diktat to display a bizarre show of the national flag by the Muslim pilgrims of India at Mecca where they went to perform Hajj.

          Many scholars find different narratives of the nation and its conflicts contributing into the making of this war. I do not want to go further into that debate here. I would simply like to say that the concept of nation, in modern India, is essentially linked to anti-colonialism. If any narrative of the nation does not address today's neo-imperialism, then it itself accepts the truth of its fakeness. This is not to say that in the center of national life exists politics. Politics can be real, and fake too. When fake politics prevails collectively and with pomp and show, everything goes fake in the national life. This has been happening in India for the last nearly three decades. The arguments propagated by those who face the allegations of treason, the claimants of the Indian-Nation (bharatiy-rashtra), are often as shallow as of the claimants of Hindu-Nation (hindu-rashtra) theory, who are always happy in providing the certificate of patriotism to themselves.

          A recent example would be quite adequate to explain the point. There was a considerable debate about the former President, Shri Pranab Mukherjee agreeing to deliver a speech at the headquarters of the Rashtriya Swayamsevak Sangh (RSS). When his speech was over, those who opposed him for accepting the invitation, immediately changed the tune and began to build a monument of praise upon him. They explained that Shri Mukherjee has taught a good lesson on the idea of Indian-Nation to the RSS, right at its headquarters. They were elated to say that the idea of Indian-Nation and its mentors, which includes themselves, are so great.

          The important question, how the emergence of the Hindu-Nation, and that too on such a huge scale, became possible despite the presence of the solid idea of the Indian-Nation and its mentors, was not even touched while eulogizing the speech of Shri Mukherjee? The idea of a fanatic Hindu-Nation has been present in the country for the last 80 years, and, if one takes a reference from Dr. Lohia's essay 'Hindu versus Hindu', the idea has prevailed for thousands of years earlier in  a constant clash with the liberal stream of Hinduism. Notwithstanding the presence and influence of the claimants of the Indian-Nation in all the academic, educational, literary, artistic, cultural institutions and big NGOs of the country, it is natural to wonder as to how and why the educated and well-off Indians, in India and abroad, along with the ordinary masses, went on to support of the Hindus-fascist mindset?

           Actually, the claimants of the Indian-Nation do not want to question their own responsibility in the debate. The question of responsibility will naturally require introspection and maybe some self-criticism. But that can be done only when one does not consider himself/herself beyond criticism. Especially the Marxist, modernist and libertarian claimants of the Indian-Nation would not be ready for this kind of discussion that would lead to the open question of owning up responsibility.  This is so because they make just a strategic use of the idea of the Indian-Nation basically in order to oppose the Hindu-Nation of the RSS. This strategy is applied to portray the RSS as a lone enemy. Ironically, it applies to the RSS as well because it has the same strategy of using an idea.

          The idea of the modern Indian nation has been discussed and nurtured from the time of colonial domination to the time of  Independence. This idea, with its strengths and weaknesses, is still being discussed and taking shape. Unfortunately, many Marxists, modernists, libertarians and even liberals do not want to come clear about their faith in it. They seem to be more interested in intellectual manoeuvres so that the entanglement or debate of nationalism keeps going on, so as to allow the conflict between the claimants of the Indian-Nation and the claimants of the Hindu-Nation to drag on. Most of these English-language bred intellectual elites are not ready to understand that the toiling masses of India have paid a heavy price for such intellectual manoeuvres; and these masses have now become victims to a variety of misconceptions.

          In the context of Shri Mukherjee's speech, the claimants of the Indian-Nation did not make the remotest effort to raise the pertinent question about the fact that every camp seems to be joyfully sharing the yoke of neo-imperialism. The opponents of RSS may oppose fascism and plead for democracy. But the RSS knows that the BJP government will not always be there. It has invited Rahul Gandhi to its  headquarters to know his mind. With the support of the claimants of the Indian-Nation, when any other corporate pawn in political arena gathers adequate political strength, the RSS would  then invite him/her too. This is not an appropriation. This, to say the least, is a unity of two fake groups working in favor of neo-imperialism. The collaboration between the two has been strengthened since 1991, the year when the New Economic Policies were imposed.

2

          It is not without a reason. Both these ideas of nationalism are unrealistic in the context of modern India. The 'Golden Age', fetished by the claimants of Hindu-Nation is located in a distant time and age. The one created by communists, modernists and libertarians is situated somewhere in a remote 'place', which keeps changing according to their convenience. Not surprisingly, the journey of these two unrealistic ideas of the Indian nation essentially culminates at the doorsteps of corporate capitalism. As a result, 'Manuvad' is tagged on to the Hindu-Nation and, on the other hand, the claimants of Indian-Nation tag on a bizarre mix of many isms while aspiring to build the 'digital India'. In the process of the struggle and dialogue with colonialism, the historic enterprise of redefining, reinterpreting and reorganizing the spirit of Indian-ness (bharatiyatain the midst of global developments has come to almost a dead end. The stagnated idea of 'nation' often turns into a mentality, which can be simultaneously violent, conspiratorial and cowardly.  

          When capitalism persists incessantly, people ultimately rise to resist the resultant capitalist oppression. Usually people do not get involved in much direct resistance, for capitalist regimes have created a network of NGOs to dilute the struggle. But there is no end to capitalist catastrophe in India with its huge population. Here people cannot be cloistered for long  by putting NGO fences. If people do not fight a political battle as citizens, they fight in the name of religion, caste, region, and language. All conflicts between the Indian-Nation and the Hindu-Nation claimants are to exploit the resistance of people in their favor. They do not want to leave a middle path. It is not surprising if India is turning into a 'mob-nation'.

          It is a matter of concern that the Indian-Nation's claimants from civil society activists call upon the caste/religious communities (dalits, Muslims, tribals, OBCs etc.) to come together on one platform against the fascist attack of the RSS/BJP. They take them  for granted and treat them like how contractors treat construction workers. The intellectual claimants of the Indian-Nation think that all wisdom/ knowledge is their sole property. The strategy of the RSS has been to mobilize communities on identity lines in its favor since its inception and that makes RSS the biggest hurdle in the path of the modern sense of citizenship. Have the civil society activist claimants of the Indian-Nation also decided that the Hindu-Nation of the RSS is not contrary to the idea of a citizen-nation? There was a time when, with the imposition of the New Economic Policies in 1991, serious efforts were being made to create an alternative politics by bringing together various issue-based resistance movements of different areas in order to defeat the neo-imperialist attack. And now we witness a time when calls are given, by those ensconced in the lap of corporate politics, to various communities to either unite or even fight each other!

          At one time it was believed that the caste-equation (OBCs-dalits-Muslims) politics is an antidote to communalism in elections. It was cloaked in nomenclatures like 'politics of social justice'. However, the RSS went ahead and turned that idea to their own advantage, because the claimants of the Indian-Nation did not place the politics of social justice on the constitutional-ideological axis of socialism, secularism and democracy. Social justice politics became confined merely to 'social engineering' with a sole aim of winning elections. The rest of the 'task' was completed by the casteist-dynastic leaders! 

          There is no need to explain that the worst kind of misery in this 'mob-nation' is that of Muslims. Most of the Muslim society, being isolated from the process of politicization, is bound to become a lackey of this or that caste-equation under this or that political party/leader. There is no place for them in the Hindu-Nation, at least with equal status. Unfortunately, even in the Indian-Nation, they do not have equal status as Indian citizens. They are treated even by their so called saviours with a scornful charity mentality. Such behavior is accepted as secular and comes handy to en-cash for the posts, awards and grants from willing regimes.

3
          All narratives of the Indian-Nation have to together pay attention to their common hypocrisy. They are all against Gandhi. They sometimes beat Gandhi with the stick of Bhagat Singh, sometimes with that of Ambedkar, sometimes with the whip of Subhash Chandra Bose, sometimes under the pretext of Jawaharlal Nehru and sometimes with that of Jinnah as the potent weapon. But as soon as they confront the RSS, they all start to rail against the organization for its role in the assassination of Gandhi. I am not talking about a Gandhi here who blasted the evil face of capitalist industrial civilization even at the heights of its popularity charts worldwide; neither about a Gandhi, who gave a new meaning to politics and a new mode of protest against injustice/suppression in the violence-ridden world.  Gandhi was exalted as the father of the nation also but  there is no relevance to remembering him that way today since the claimants of the Indian-Nation and the Hindu-Nation both are unanimous on corporate capitalism and thus denying Gandhi's political philosophy and vision. Even if the claimants of the India-Nation would not declare it openly, like the Hindu-Nation claimants, the 'Father of the Nation' Gandhi too is not acceptable to them.  The claimants of the Indian-Nation, in fact, should immediately release Gandhi from the shackles of 'Father of the Nation' also. There will be no problem in making a consensus on this subject. The Hindutva-minded people, who still derive vicarious pleasure, however unexpressed, in the killing of Gandhi or cater a wish to kill him in place of Godse will readily accept the idea of removing Gandhi from that position. 

          I am referring to the Gandhi here who linked the collective consciousness of the vast Indian society, which had been divided into varna-caste for centuries and was weakened by the imperialist loot, with the anti-Imperialist spirit. Gandhi went further and forced the then various intellectual streams to  unite with the anti-imperialist spirit of the people. Gandhi's unique contribution to the independent modern Indian nation was that in this venture he did not have the sentiment of hostility towards the imperialist British rulers, and also tried to prepare fellow Indians for the sentiment of antipathy-less opposition. From Martin Luther King Jr. to Nelson Mandela, many activists world over  have been thankful to Gandhi for this teaching. If the claimants of the Indian-Nation do not want even that Gandhi, then they should immediately oust Gandhi from the discourse. This task of ousting Gandhi  can be fulfilled only by the intellectuals because they, as a group, are the most hypocritical about him. There is no such example in the world where a person who devoted his life to the freedom struggle and did not want or taken anything in exchange for his good or bad role from the new Independent nation, got boundless hatred and disregard from country's intellectuals.

          One of the major achievements of the Indian-Nation claimants by creating a Gandhi-free India will be that the ruling classes will not be able to use Gandhi as a pawn to strengthen their power over people because intellectuals' hypocrisy about Gandhi helps the rulers to use his name against those people whom he most advocated. On being a Gandhi-free India, the business of spuriously selling Gandhi to the world by the rulers can be terminated soon enough. Gandhi once stated that the purpose and goal of his active participation in politics was to attain salvation. Indian-Nation's claimants, in fact, will therefore truly liberate Gandhi by creating a Gandhi-free India!

4

          It is not unreasonable that almost all the claimants of the Indian-Nation do not even talk about any political alternative despite the intensity of the crisis posed by the corporate-communal nexus. Rather, they have successfully destroyed all the possibilities of an alternative politics built up after 1991 by forming  complete solidarity with the anti-corruption movement of India Against Corruption (ICA) and the resulting party of that movement. It may be noted that Bharat Mata and Tricolor were made brand-equipment of patriotism in the public domain by the mentors of the anti-corruption movement and Aam Aadmi Party. Intellectuals used to enjoy a huge reputation and praise in India from the very beginning. It is ironic that despite the deep crisis in front of the nation, these very intellectuals do not show any inclination for making efforts in the direction of a new path. It is a unique feature of this modern era that whatever is attempted here, the outline is prepared by these very intellectuals who include supposedly certain great leaders as well.

          When the Congress introduced New Economic Policies in 1991, Atal Bihari Vajpayee had said that now the Congress has adopted their ideology and work. When the BJP coalition government formed under the leadership of Atal Bihari Vajpayee in 1999 and he made corporate-friendly decisions one after the other through ordinances, the socialist thinker Kishan Patnaik had sought an answer from the 'nationalist' RSS. The reality of the RSS is now exposed thoroughly. All of its 'cultural' and 'nationalist' pomposity was meant to grab and capture the left-overs of capitalist markets.  The RSS's 'Hindu Lion' Mohan Bhagwat, who roared in Chicago recently, did not even grovel on the government's decision of 100 percent Foreign Direct Investment (FDI) in the defense sector. The small and medium traders gave their physical, mental and material resources to the RSS/Jana Sangh/BJP since their establishment. However, as soon as RSS became a crony with multinationals and corporate houses, it threw them down. Therefore, repeated disclosures and opposition to RSS's 'hidden agenda' by the claimants of the Indian-Nation does not have much meaning.

          There is no discussion among the claimants of the Indian-Nation about the phenomenon of neo-imperialism spreading in India and all over the world, of which communal fascism is a by-product, as if losing freedom, earned through huge sacrifices, is not a matter of concern. Their basic concern is only to defeat RSS's fascism. In this exercise, the claimant of the Indian-Nation do not hesitate to misguide the whole debate. They remove attention from the neo-imperialist attacks by presenting the debate as fascism versus democracy, Hindutva versus Hinduism, Brahminism versus Dalitism (dalitwad), Brahminism versus Backwardism (pichhdawad) etc. Their whole emphasis would be on making strategies to accelerate these conflicts. It is a fact that due to democracy, some caste-communities have got political power. They struggle to keep that power safe and consolidate it. Their struggle, however,  should be carried out on the democratic ground. Because that strength has been achieved through democracy and can be extended further through democratic methods only. But it is seen that some intellectuals, in their strategy, seek to find 'militant' elements in these communities and want to connect them with violent resistance against the Indian state. Is the intention behind this kind of strategy against fascism honest by any stretch of imagination?

5
          At the time of imposition of the New Economic Policies in 1991, Kishan Patnaik tried to provide and delineate a relevant perspective and direction to the debate of patriotism and treason. He based his thoughts on the experience of two centuries of colonial occupation of India while contemplating on this contentious issue. He linked the beginning of neo-liberalism in India with the beginning of slavery once again, and blamed the intellectuals of India for this. He argued that the minds of Indian intellectuals is unable to work freely against neo-liberalism and neo-imperialism. Kishan Patnaik proposes a formula of 'economic nationalism' (arthik rashtrawad) to counter the neo-liberal economic subjugation. According to him, those who  oppose the plunder and loot of the country's resources by domestic and foreign corporate houses fall into the category of patriots. However, he has not said it explicitly, but the supporters of neo-liberalism themselves come under the category of traitors. (His books - 'Bharat Shudron Ka Hoga', 'Vikalpheen Nahin Hai Duniya', 'Bharatiya Rajaniti Par Ek Drishti' and several articles published in the Hindi monthly 'Samayik Varta' and other periodicals/news papers can be seen for detailed discussion on this topic).

          To sum it up, aggressive capitalism is not only looting our resources and labor, but also hollowing our national spirit (bodh). It would be more appropriate to say that since our national spirit has become hollow, it has only facilitated the loot of the country's resources and labor. Our national life cannot be enriched if there is no national spirit. As we are witnessing, it is doomed to be superficial and quarrelsome. In fact, the ongoing aggressive nationalism is a futile exercise to fill the hollowness of the drying national spirit.  It seems that this phase of usurping whatever remains of the loot will go on like this for a while.  It is expected  that this situation will not prevail or remain forever. The time will come when there will be a hunger for genuine National spirit in a generation or two. If that time does not come in the national life of India, then it should be assumed that we are not worthy of becoming a nation, and slavery is our destiny in the modern world.

(The author teaches Hindi at Delhi University and is president of Socialist Party (India)

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