Thursday, 11 October 2018

आज लोहिया होते तो गैर भाजपावाद का आह्वान करते


रामस्वरूप मंत्री




जिंदा कौमें पांच साल इंतजार नहीं करतीं.’ गैर-कांग्रेसवाद के जनक और समाजवादी चिंतक डॉ. राम मनोहर लोहिया का यह कथन आज की सरकारों के लिए भी उतना ही प्रासंगिक है जितना 1960 के दशक में जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी की सरकारों के लिए था.लोहिया युग पुरुष थे और ऐसे लोगों का चिंतन किसी एक काल और स्थान के लिए नहीं हर युग और पूरी मानवता के लिए प्रासंगिक होता है. उनकी व्याख्या भी शाब्दिक नहीं भावार्थ के साथ होनी चाहिए. इसलिए अगर उन्होंने उस समय की कांग्रेस पार्टी का एकाधिकार समाप्त करने और उसके कारण समाज में फैल रही बुराइयों को खत्म करने के लिए गैर-कांग्रेसवाद का आह्वान किया था तो आज अगर वे होते तो निश्चित तौर पर गैर-भाजपावाद का आह्वान करते. दुर्भाग्य की बात यही है उनके तमाम शिष्य या अनुयायी उनकी राह पर चलने का साहस नहीं जुटा पाते.उनकी  पुण्य तिथि पर उन्हें स्मरण करने का सबसे बड़ा प्रयोजन यही होना चाहिए कि उनके चिंतनसाहसकल्पनाशीलता और रणकौशल को आज के संदर्भ में कैसे लागू किया जाए.

लोहिया का पूरा चिंतन बराबरी के मूल्यबोधों में डूबा हुआ चिंतन है। बराबरी का यह लोकतांत्रिक विचार और स्त्री-पुरुष के बीच असमानता के मूल कारणों की खोज की जिजीविषालोहिया को और पढ़ने और खंगालने के लिए उकसाती है।

डा लोहिया  कहते हैंभारतीय मर्द इतना पाजी है कि अपनी औरतों को वह पीटता है। सारी दुनिया में शायद औरतें पिटती हैंलेकिन जितनी हिंदुस्तान में पिटती हैंइतनी और कहीं नहीं। हिंदुस्तान का मर्द सड़क परखेत पर या दुकान पर इतनी ज़्यादा जिल्लत उठाता है और तू-तड़ाक सुनता हैजिसकी सीमा नहीं। इसका नतीजा होता है कि वह पलटकर जवाब तो दे नहीं पातादिल में ही यह सब भरे रहता है और शाम को जब घर लौटता हैतो घर की औरतों पर सारा गुस्सा उतारता है।

राम मनोहर लोहिया का स्त्री विषयक चिंतनस्त्री मात्र पर विचार नहीं करता है। यह भारतीय संस्कृति में द्रौपदी को आदर्श चरित्र में खोजता हैयह स्त्री को एक अलग इकाई के रूप में नहींवरन समाज के अभिन्न हिस्से के रूप में देखता है। उस समय जब बाबा साहब अंबेडकर के अलावा कोई भी इसे नहीं देख पा रहा था। गांधी जहां महिलाओं को एक इकाई मानते थेवहीं लोहिया उन्हें जातिग्रस्त समाज का हिस्सा मानते थे। ज़ाहिर है लोहिया महिलाओं के सन्दर्भ में पितृसत्ता के साथ-साथ जातिग्रस्त पितृसत्ता को भी पहचान रहे थे। इसलिए वो महिलाओं की आर्थिक भागीदारी के अवसरों की पैरवी भी कर रहे थे। लोहिया उस दौर में अंतरजातीय विवाहों पर अपनी सहमति जताते हैंक्योंकि इससे महिलाओं को खुद को अभिव्यक्त करने का मौका मिलेगा और वो तमाम वर्जित क्षेत्रों में पहुंच सकेगी।

डॉ. राम मनोहर लोहिया के संपूर्ण राजनीतिक जीवन का संदेश यही है कि व्यक्ति और समाज की स्वतंत्रता और तरक्की के लिए विवेकपूर्ण संघर्ष और रचना. उन्होंने 1963 के उपचुनाव में लोकसभा पहुंच कर जब धूम मचा दी थी तो उनके साथ संख्या बल नहीं था. उनका साथ देने के लिए पार्टी के कुल जमा दो और सांसद थे. किशन पटनायक और मनीराम बागड़ी. लेकिन जिसके पास नैतिक बल होता है उसे संख्या बल की चिंता नहीं रहती.

लोहिया ने तीन आने बनाम पंद्रह आने की बहस के माध्यम से पंडित जवाहर लाल नेहरू जैसे शक्तिशाली और विद्वान प्रधानमंत्री को निरुत्तर कर दिया था और उनकी बात का जवाब देने के लिए योजना आयोग के उपाध्यक्ष महालनोबिस समेत कई अर्थशास्त्रियों को लगना पड़ा था.डॉ. लोहिया अपने इस दावे को वापस लेने को तैयार नहीं थे कि किस तरह इस देश का आमआदमी तीन आने रोज पर गुजर करता है. जबकि प्रधानमंत्री के कुत्ते पर तीन आने रोज खर्च होता है और प्रधानमंत्री पर रोजाना पच्चीस हजार रुपए खर्च होता है.

सरकार दावा कर रही थी कि आम आदमी का खर्च तीन आने नहीं पंद्रह आने है. डॉ. लोहिया का कहना था कि अगर सरकार मेरे आंकड़ों को गलत साबित कर दे तो मैं सदन छोड़कर चला जाऊंगा. इस दौरान नेहरू जी से उनकी काफी नोंकझोंक हुई और पंडित नेहरू ने कहा कि डॉ. लोहिया का दिमाग सड़ गया है. इस पर उन्होंने उनसे माफी मांगने की अपील की.यहां सवाल कांग्रेस या पंडित जवाहर लाल नेहरू को चुनौती देने का नहीं सवाल व्यवस्था को चुनौती देने का है और लोहिया में उसका अदम्य साहस था. ऐसा इसलिए भी था कि वे साधारण व्यक्ति की तरह रहते थे और उनकी कोई निजी संपत्ति थी ही नहीं. वे जानते थे कि नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस एक चट्टान की तरह से है इसीलिए उससे टकराना ही होगा तभी उसमें दरार पड़ेगी.

उल्लेखनीय तथ्य यह है कि डॉ. लोहिया गांधी के नेतृत्व को स्वीकार करने के बावजूद भगत सिंह के प्रति असाधारण सम्मान रखते थे. संयोग से जिस 23 मार्च को भगत सिंह को फांसी हुई उसी दिन डॉ. लोहिया का जन्मदिन पड़ता था. इसी कारण डॉ. लोहिया अपना जन्मदिन नहीं मनाते थे.
समाज को बदलने और समता व समृद्धि पर आधारित समाज निर्मित करने के लिए लोहिया निरंतर संघर्षशील रहे और अगर गुलाम भारत में अंग्रेजों ने उन्हें एक दर्जन बार गिरफ्तार किया तो आजाद भारत की सरकार ने उन्हें उससे भी ज्यादा बार. अन्याय चाहे जर्मनी में होअमेरिका में हो या नेपाल में उनके रक्त में उसे सहने की फितरत नहीं थी.

वे पूरे साहस के साथ उसका प्रतिकार करते थे फिर कीमत चाहे जो चुकानी पड़े. वे कीमत की परवाह नहीं करते थे और अकेले ही बड़ी से बड़ी ताकतों से टकरा जाते थे. लेकिन उनका संघर्ष सिर्फ टकराने के लिए नहीं बल्कि नई रचना करने और उनका व्याख्यान नया विमर्श खड़ा करने के लिए होता था. इसीलिए उन्होंने अपने साथियों को राजनीति के लिए जेलफावड़ा और वोट जैसे प्रतीक दिए थे. इसमें जेल संघर्ष का प्रतीक थी तो फावड़ा रचना और वोट लोकतांत्रिक तरीके से सत्ता परिवर्तन का.

आज लोहिया के तमाम शिष्यों के पतन और जातिवादी राजनीति की चर्चा करते हुए या तो लोहिया के सिद्धांत को खारिज किया जाता है या गैर-कांग्रेसवादी राजनीति के कारण उन्हें फासीवाद का समर्थक बता दिया जाता है. कुछ लोग तो डॉ. लोहिया के जर्मनी प्रवास के दौरान उन पर नाजियों के सम्मेलन में जाने का आरोप भी लगाते हैं. लेकिन ऐसा वे लोग करते हैं जो न तो लोहिया के विचारों से अच्छी तरह वाकिफ हैं और न ही उनकी राजनीतिक बेचैनी से.

महात्मा गांधी के बारे में डॉ. लोहिया का यह कथन बेहद प्रासंगिक है कि बीसवीं सदी की बड़ी खोजें हैं एक महात्मा गांधी और दूसरा एटम बम. सदी के आखिर में एक ही जीतेगा. वे राजनीति को हिंसा और अनैतिकता से मुक्त करने के पक्ष में थे इसलिए धर्म के मूल्यों को राजनीति को संवारने के विरुद्ध नहीं थे,  ऐसा गांधी ने किया भी था.

वे धर्म और राजनीति को अलग अलग रखने के हिमायती थे. लेकिन उनकी इस बात को न समझने वाले कह देते हैं कि उनकी सांस्कृतिक नीति जनसंघ के नजदीक थी. डॉ. लोहिया रामकृष्ण और शिव की जिस तरह से व्याख्या करते हैं संभव है वह बात जनसंघ को अनुकूल लगे. लेकिन डॉ. लोहिया द्रौपदी बनाम सावित्री की जिस तरह से व्याख्या करते हैं वह बात जनसंघ और कट्टर हिंदुओं को कतई अच्छी नहीं लगेगी उनके लिए पांच पतियों की पत्नी और प्रश्नाकुल और बड़े से बड़े से शास्त्रार्थ करने वाली द्रौपदी आदर्श नारी थी न कि पति के हर आदेश का पालन करने वाली सावित्री या सीता. उनकी नजर में भारत गुलाम ही इसीलिए हुआ क्योंकि यहां का समाज जाति और यौनि के कटघरे में फंसा हुआ था.

   वे सबसे बड़ा खतरा कट्टरता को मानते हैं और कहते हैं कि अगर कट्टरता बढ़ेगी तो न सिर्फ यह स्त्रियों और शूद्रों और अछूतों और आदिवासियों के लिए खतरा पैदा करेगी बल्कि इससे अल्पसंख्यकों के साथ भी रिश्ते बिगड़ेंगे.
यही वजह है कि वे भारत की जाति व्यवस्था को हर कीमत पर तोड़ने के हिमायती थे. वे इसके लिए डॉ. आंबेडकर से हाथ मिला रहे थे लेकिन दुर्भाग्य से बाबा साहेब का 1956 में निधन हो गया. वे दक्षिण में रामास्वामी नाइकर से उस समय मिलने गए जब आंदोलन के दौरान वे गिरफ्तार थे और अस्पताल में थे. भारत की जाति व्यवस्था को खत्म करने के लिए उन्होंने ब्राह्मण बनिया राजनीति की कड़ी आलोचना की तो उन शूद्र जातियों की भी आलोचना की जो आगे बढ़ने के बाद ऊंची जातियों की ही नकल करने लगती हैं.

शूद्रों की राजनीति को बढ़ावा देने पर डॉ. लोहिया की आलोचना करने वालों को यह समझना चाहिए कि उन्होंने उन तमाम कमियों की ओर बहुत पहले सचेत किया था जो शूद्र जातियों के शासन में आ सकती हैं. आज के दौर में मंडल राजनीति से निकले जातिवादी और सांप्रदायिक राजनेताओं में उनकी चेतावनी की छाया देखी जा सकती है.

डॉ. लोहिया के संदर्भ में एक बात नहीं भूलनी चाहिए कि उन्होंने जाति तोड़ो के लिए न तो जलन की राजनीति का समर्थन किया था और न ही सत्ता पाने के लिए चापलूसी की राजनीति की एक तरह से डॉ. लोहिया गांधी और आंबेडकर के बीच सेतु हैं. वे स्वाधीनता संग्राम को भी उतना ही जरूरी मानते हैं जितना जाति व्यवस्था के विरुद्ध संग्राम. वे देशभक्त तो हैं ही सामाजिक न्याय के भी जबरदस्त समर्थक हैं. यहां यह भी नहीं भूलना चाहिए कि डॉ. लोहिया जातियों को तोड़ने का आह्वान करने के बाद वर्ग संघर्ष की बात भी करते हैं और चाहते हैं कि आखिर में वर्ग विहीन समाज का निर्माण हो. वे यह भी चाहते हैं कि मनुष्य इतिहास के उत्थान और पतन के चक्र से मुक्त हो और एक विश्व सरकार का गठन करके दुनिया में जातिलिंगराष्ट्र की गैर बराबरी मिटाकर लोकतंत्र कायम किया जाए.

 

रामस्वरूप मंत्री सोशलिस्ट पार्टी (इंडिया) के मध्‍यप्रदेश के अध्यक्ष हैं 

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