Sunday, 28 October 2018

सीबीआई विवाद : उच्चतम न्यायालय समुचित व्यवस्था देकर भरोसा बहाल करे

28 अक्तूबर 2018
प्रेस रिलीज़


      
केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) के भीतर जो कुछ हुआ और हो रहा है, वह मध्यकाल में होने वाले षड्यंत्रों या गेंगवार की याद दिलाता है। राजनैतिक इस्तेमाल के चलते सीबीआई की छीछालेदर पहले भी होती रही है। कांग्रेस सरकार ने किस तरह उसे राजनीतिक हितों के लिए इस्तेमाल किया, इसका प्रमाण बी आर लाल की किताब 'हू ओन्स सीबीआई : द नैकेड ट्रुथ' में स्पष्ट तरीके से वर्णित किया गया है। लेकिन मौजूदा सरकार ने सारी हदें पार कर दी हैं। सीबीआई ने व्यापम घोटाले में किस तरह से लीपापोती की है, यह सभी को मालूम है। विजय माल्या को भगाने में सीबीआई ने किस तरह अपने लुकआउट नोटिस को नरम किया, यह भी सभी को मालूम है। नीरव मोदी और मेहुल चौकसी के मामले में भी सीबीआई सहित केंद्रीय जांच एजेंसियों ने नरम रुख अपनाया। इतना ही नहीं, सीबीआई के विशेष निदेशक बनाये गए राकेश अस्थाना गोधरा कांड में तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को क्लीन चिट दिला कर उनके चहेते बन चुके थे। विडंबना यह है कि सरदार पटेल की सबसे ऊंची मूर्त बनाने वाली सरकार सरदार पटेल के सपनों की एजेंसी सीबीआई को तहस-नहस कर रही है। सरदार चाहते थे कि सीबीआई रियासतों में फैले भ्रष्टाचार की जांच करे और वहां एक निष्पक्ष और कानून सम्मत व्यवस्था लागू करने में मदद करे।

       यह राजनीतिक हस्तक्षेप की पराकाष्ठा है जब देश की सर्वोच्च समिति व्दारा नियुक्त होने वाले निदेशक (अलोक वर्मा) को विभाग में जबरन घुसाया गया विशेष निदेशक (राकेश अस्थाना) चुनौती दे; निदेशक विशेष निदेशक के विरुद्ध एफआईआऱ दर्ज करे; और अपने ही अधिकारियों को गिरफ्तार करने की पहल करे! निदेशक अपने जूनियर पर तीन करोड़ रुपए रिश्वत लेने का आरोप लगाए तो जूनियर उस पर दो करोड़ रुपए का। जबकि केस एक ही है। मीट निर्यातक मोइन कुरैशी के मामले की जांच को अलग-अलग दिशाओं में मोड़ने के लिए अगर रिश्वत ली गई है, और विशेष निदेशक पीएमओ, प्रवर्तन निदेशालय और रॉ के अधिकारियों से मिलकर फिरौती का रैकेट चला रहे थे तो इससे ज्यादा गंभीर मामला कुछ हो नहीं सकता! इस पूरे मामले के तार सीधे प्रधानमंत्री तक जाते हैं, क्योंकि विशेष निदेशक राकेश अस्थाना उनके खास बताए जाते हैं। यह अकारण नहीं लगता कि पूरी सरकार निदेशक का पक्ष लेने की बजाय उसके जूनियर के साथ खड़ी है। राकेश अस्थाना के एक के बाद एक कारनामे जनता के सामने आ रहे हैं।  

       यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश के राजनीतिक दल आलोक वर्मा बनाम राकेश अस्थाना के बीच बंट गए हैं। अगर भाजपा और उसके साथ की सत्तारूढ़ पार्टियां अस्थाना के समर्थन में हैं, तो कांग्रेस और दूसरे विपक्षी दल आलोक वर्मा के साथ। कांग्रेस पार्टी का आरोप है कि आलोक वर्मा रफाल सौदे की जांच की पहल कर रहे थे, इसलिए उन पर गाज गिरी है। उसका मानना है कि इसी वजह से रातोंरात तख्तापलट जैसी कार्रवाई करके सीबीआई का दफ्तर सील कर बड़े पैमाने पर अफसरों का तबादला कर दिया गया। कांग्रेस और वकील प्रशांत भूषण का रफाल संबंधी आरोप निदेशक के सुप्रीम कोर्ट में दिए गए इस हलफनामे से मिलता है कि वे कुछ विशेष जांच कर रहे थे, जिससे सरकार को परेशानी थी। इसीलिए उन्हें छुट्टी पर भेजा गया है।

       सुप्रीम कोर्ट मामले की सुनवाई कर रहा है। उसने शायद केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) पर पूरा भरोसा न करते हुए, उसके ऊपर जांच की निगरानी के लिए रिटायर जज एके पटनायक को बिठा दिया है, और दो हफ्तों में रपट मांगी है। साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने नंबर चार के अधिकारी नागेश्वर राव को कार्यकारी निदेशक बनाए जाने पर कार्रवाई की है और उनकी नीतिगत फैसला लेने की शक्तियां सीमित कर दी हैं। उन्होंने जो भी फैसले लिए हैं और लेंगे उसे अदालत के सामने पेश करना होगा।

       कोढ़ में खाज यह है कि नागेश्वर राव भी कदाचार के आरोपों से घिरे हुए हैं। उनकी सबसे बड़ी योग्यता यह है कि वे राम माधव के करीबी हैं और संघ के साम्प्रदायिक हिंदुत्व एजेंडे में शामिल हैं। वे गोमांस का निर्यात बंद कराने के उपाय ढूंढने और 'हिंदू गौरव का इतिहास' लिखवाने में सक्रिय हैं। इससे सरकार की नौकरशाही का साम्प्रदायीकरण करने की मंशा जाहिर होती है। इसीलिए नरेंद्र मोदी सरकार देश की नौकरशाही को गुजरात माडल पर चलाने के प्रयास कर रही है। गुजरात माडल पर ध्यान दें तो पता चलता है कि वहां कम से कम एक दर्जन आईपीएस अधिकारी या तो वीआरएस लेकर नौकरी से हट गए या फिर अभियुक्त बनाकर जेलों में ठूंस दिए गए। जिन्होंने कानून की अवपालना की स्वायत्त कोशिश की उन्हें इतना परेशान किया गया कि उन्होंने घरों से निकलना बंद कर दिया। मोदी सरकार वही स्थिति केंद्र में करना चाहती है। इस संविधान और राष्ट्र विरोधी काम में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के तथाकथित सेकुलर और सामाजिक न्यायवादी दल/नेता बराबर के जिम्मेदार हैं।   

       सोशलिस्ट पार्टी का मानना है कि देश की तमाम संस्थाओं को किसी नेता या पार्टी के प्रति नहीं, देश के संविधान और कानून के राज के प्रति उत्तरदायी होना चाहिए। सीबीआई के मौजूदा विवाद को देखते हुए सोशलिस्ट पार्टी की सुप्रीम कोर्ट से अपील है कि वह पूरे मामले में एक माकूल व्यवस्था दे। ताकि देश के नागरिकों का संवैधानिक संस्थाओं में भरोसा बहाल हो सके जिसे मौजूदा केंद्र सरकार ने हिला कर रख दिया है। सोशलिस्ट पार्टी मांग करती है कि इस केंद्रीय जांच एजेंसी का राजनीतिकरण बंद हो और उसे लोकपाल कानून के तहत पूर्ण स्वायत्तता दी जाए। सोशलिस्ट पार्टी भाजपा के एक वरिष्ठ नेता की 'देश किसी भी संस्था से बड़ा है' जैसी गैर-जिम्मेदाराना और गुमराह करने वाली जुमलेबाजी की कड़ी भर्त्सना करती है।

डॉ. प्रेम सिंह
अध्यक्ष  

No comments:

Post a Comment

New Posts on SP(I) Website

लड़खड़ाते लोकतंत्र में सोशलिस्ट नेता मधु लिमए को याद करने के मायने आरोग्य सेतु एप लोगों की निजता पर हमला Need for Immediate Nationalisation ...