उभरती शूद्र चेतना की सीमाएं
किशन पटनायक
उत्तर भारत और खासकर हिंदी
भाषी क्षेत्र हिन्दू साम्प्रदायिकता का गढ़ बनता जा रहा है | इसके बारे में कुछ सोचना और करना होगा | करने को दो स्तर
दिखायी देते हैं | हिंदी भाषी इलाकों में ऐसा शुद्र नेतृत्व विकसित हो जो न सिर्फ
यादवों का नेतृत्व करे, न सिर्फ पिछड़ो के लिए नौकरी मांगे बल्कि पुरे हिन्दू समाज
और हिन्दू धर्म को सुधारने की हिम्मत करे | दूसरा हिंदी साहित्य का एक
समाजशास्त्रिय समीक्षा करनी होगी, क्या हिंदी भाषी मनुष्य की सामाजिक दृष्टि और
धार्मिक भावनाओं को उदात्त बनाने में हिंदी साहित्य का पर्याप्त योगदान रहा |
हिंदी भाषी इलाके की अलग एक
वास्तविकता जरुर है - मुसलमानों की अधिक जनसंख्या यहाँ है, और यहाँ के हिन्दू अधिक
समय तक मुसलमान राजाओं द्वारा शासित रहे | लेकिन यह तो इतिहास है | इतिहास और अतीत
को आत्मसात करते हुए साहित्य किसी समाज के जीवन बोध और सामाजिक बोध को पुष्ट करता
है | क्या बंगला साहित्य का योगदान बेहतर है ? अगर हाँ, तो भी ज्यादा नहीं है | 7
दिसम्बर के कुछ प्रमुख बंगला अखबारों की सुर्ख़ियों में यह समाचार था कि कुछ जाने
माने साम्यवादी बुद्धिजीवी इस वक्त शंकराचार्य से लेकर स्वामी विवेकानंद तक के
अध्ययन में जुटे हुए हैं, क्योंकि बंगाल के धर्मनिरपेक्ष राजनैतिक दलों को धार्मिक
प्रचार का एक रणकौशल बनाना पड़ रहा है |
ज्योति बसु पिछले कुछ सालों
से सुभाष बोस को अपनाने की कोशिश कर रहे थे | अब शंकराचार्य नहीं तो विवेकानंद को
अवश्य अपनाएंगे | अगर चुनाव कौशल के स्तर पर यह समीक्षा अध्ययन आदि हो रहे हैं तो
इसका कोई दूरगामी प्रभाव नहीं होने वाला है | अगर राष्ट्र के संकट और भारतीय
बौद्धिक संकट को ईमानदारी से समझने की कोशिश हो रही है तो आधुनिकतावादियों के
द्वारा धर्म और इतिहास का यह नया अध्ययन सृजनात्मक साबित हो सकता है | अभी भी इसके
लिए समय है | बल्कि अभी एक विशेष समय आया है कि आधुनिकतावादी धर्मनिरपेक्ष लोग
अपने इतिहास की सकारात्मक और नकारात्मक तत्वों की नए सिरे से समीक्षा करें और
आधुनिकता की एक भारतीय दृष्टि विकसित करें | यह काम अगर गंभीरता पूर्वक होगा तो न
सिर्फ सांप्रदायिकता का मुकाबला होगा, बल्कि तीसरी दुनिया के लिए एक विश्व दृष्टि
का सृजन होगा | जिस बौद्धिक और सांस्कृतिक नवजागरण के अभाव के चलते हिन्दुस्तान का
मन और दिमाग सिकुड़ रहा है उसका उदय होगा |
जातिवाद की जड़ पर प्रहार
करने की लालू की दिखावटी घोषणा हो या बंगाल के बुद्धिजीवियों द्वारा विवेकानंद के
अध्ययन की जरुरत महसूस करना, इन सबके पीछे संघ परिवार के उस बर्बर करतूत का ही हाथ
है | उस घटना ने भारतीय मानस को झकझोरा है ; क्योंकि भारतीय मानस मूलतः ऐसा नहीं
है |
हिटलर के नाजीवाद की
शब्दावली से 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' लेकर लाल कृष्ण आडवाणी और उनकी मण्डली जो कुछ
हासिल करना चाहती है वह धार्मिक अल्पसंख्यकों के प्रति दुर्भावना जगाकर बहुसंख्यक
हिन्दुओं को एकजुट करना मात्र ही नहीं है | यह एकता भी असल में ब्राह्मणवादी व्यवस्था
को बरकरार रखने के उद्देश्य के लिए ही चाहिए | हिन्दू समाज कभी उतना अनुदार और जड़
नहीं था जितना भाजपा उसे बनाना चाहती है | पर झूठे प्रचार, दिखावा और नाटकबाजी में
भाजपा सबसे आगे बढ़ गई है |
हाल के वर्षो में उभरी
शुद्र चेतना ने जब संघ परिवार की तेज वृद्धि पर अंकुश लगा दिया तो हरिजनों, पिछड़ों
और आम्बेडकरवादियों को बहलाने- फुसलाने में संघ परिवार ने अपनी सारी ताकत झोंक दी
| बाबा साहेब की बरसी, जो संयोग से छह दिसम्बर को पड़ती है, को ही संघ परिवार ने
ज्यादा प्रमुखता दी |बाबरी मस्जिद गिराने की बरसी पर विजय दिवस मनाने का कार्यक्रम
थोड़ा पीछे कर दिया गया | जो नई रथयात्राएं निकाली गई वे भी शूद्रों को पटाने के
लिए ही थीं |
शुद्र नेतृत्व ने काफी बड़ा
काम किया है | राजनैतिक और सामाजिक जीवन में शूद्रों के उभार को एक निर्णायक दौर
बनाना महत्वपूर्ण काम है | पर वे नहीं समझ
पाते कि ब्राह्मण-बनिया नेतृत्व कितना चालाक है | उसके पास सबकुछ है | हर तरह की
ताकत है | फिर भी वे सावधान हैं, धर्म, संस्कृति और राष्ट्रीयता का सहारा ले रहा
हैं | चौतरफा रणनीति अपना रहे हैं | उसके विपरीत पिछड़ों के पास जनसंख्या के अलावा
और कोई ताकत नहीं है | फिर भी वे सोचते हैं कि सिर्फ जातिवाद को बढ़ाकर, गद्दी और
नौकरियों में हिस्सा मांगकर सामाजिक न्याय स्थापित कर देंगे | उनको यह बात सूझती
नहीं है कि शूद्रों को भी धर्म, संस्कृति और राष्ट्रीयता की रणनीति बनानी पड़ेगी |
शूद्रों ने अभी तक इस पर
ध्यान नहीं दिया है | या फिर सारे प्रचलित धर्म और संस्कृति को यहाँ तक कि
राष्ट्रवाद को भी ब्राह्मणवादी कहकर उससे छुट्टी लेने की कोशिश की है | इससे काम
नहीं चलने वाला है | सम्यक और गहरी दृष्टि के अभाव में जनसंख्या का बल किसी काम
में नहीं आएगा | विद्रोह अपेक्षाकृत सरल होता है | युद्ध और निर्माण जटिल होता है
| धर्मनिरपेक्षता और शुद्र चेतना के लोग इस वक्त जिसके आमने सामने खड़े हैं, वह
युद्ध है | आजादी के 45 साल बाद हिन्दुस्तान फिर से आर्थिक गुलामी, धार्मिक भेदभाव
और सामाजिक एकाधिकार की ओर लौट रहा है | उससे देश को बचाने के लिए एक युद्धनीति
यानी समग्र नीति चाहिए |
डंकेल प्रस्ताव पर
हस्ताक्षर हो जाने के बाद देश की राजनीति के प्रमुख समूहों के अन्दर विदेशी
स्वार्थों की घुसपैठ हो जाएगी | अगर भाजपा में नहीं हुई है तो हो जाएगी ; शुद्र
राजनीति में भी उसका अनुप्रवेश हो जाएगा | विदेशी स्वार्थ भारत को किन विघटनकारी
प्रवृतियों को कब तीव्र करना चाहेगा, इसका पता नहीं लगाया जा सकता है; कुल मिलाकर
वह अलगाववादी, सम्प्रदायिकवादी, जातिवादी तोड़-फोड़वादी प्रवृतियों को प्रोत्साहित
करने में लगा रहेगा | कभी वह क्षेत्रीय अलगाववाद को ज्यादा तीव्र करना चाहेगा; कभी
वह सांप्रदायिकता को बढ़ाना चाहेगा; कहीं-कहीं वह जातिवादी नेतृत्व को
सांप्रदायिकता का मददगार होने के लिए प्रेरित करेगा | यानी शुद्र राजनीति को
गुमराह करने का काम वह भी कर सकता है | विदेशी स्वार्थ अपने चहेतों के लिए मार्ग
प्रशस्त करते रहते हैं |
शुद्र राजनीति के बारे में
सिर्फ यह कहा गया है कि उसके उत्थान के प्रारंभिक काल में यह सांप्रदायिकता का काट
होगा | इसका मतलब यह नहीं है कि हमेशा और हर स्थिति में साम्प्रदायिकता का काट
करेगा | जहां और जब किसी प्रभावी शुद्र जाती की स्थिति दृढ हो जाती हैं, वहांराजनैतिक
फायदे के लिए वह सांप्रदायिकता का समर्थक हो सकता है या खुद दंगा करवा सकता है |
शुद्र राजनीति को कमजोर
करने के लिए एक अच्छा हथियार यह है कि जनतंत्र और वोट की राजनीति को नष्ट किया जाय
| भारत में तानाशाही की उपकारिता के बारे में अंतर्राष्ट्रीय दादागिरी करने वाले
गंभीरता से सोच रहे हैं (मत सर्वेक्षण भी हो रहे हैं) | भाजपा को इसी सोच में
शामिल होना पडेगा | तानाशाही से उसका वैचारिक विरोध नहीं है | शुद्र राजनीति की
चुनौती को रोकने के लिए अगर यह मददगार होगी तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हो रही इस
योजना में भाजपा शामिल हो सकती है | जिस अनुपात में शुद्र राजनीति के अन्दर विदेशी
स्वार्थ की घुसपैठ रहेगी, उसी अनुपात में शुद्र राजनीति के द्वारा भी ऐसे काम कराए
जा सकते हैं जिससे तानाशाही का पथ प्रशस्त होगा | शुद्र राजनीति कभी भी नहीं
चाहेगी कि वोट की राजनीति ख़तम हो, लेकिन कार्यतः वह तानाशाही के अनुकूल स्थितियां
बना सकती है | शुद्र नेतृत्व को इन सब खतरों के प्रति चौकन्ना रहना होगा |
शुद्र चेतना की एक अन्य
अभिव्यक्ति उग्र दलित राजनीति में है | बहुजन समाज पार्टी के नेता कांशीराम ने
नागपुर में अपनी पार्टी की एक विशाल रैली को सम्बोद्धित करते हुए कि अयोध्या में
मंदिर नहीं, सर्वसाधारण का शौचालय बनना चाहिए | अनुसूचित जातियों के प्रतिनिधि
होने के नाते कांशीराम को ऐसा कहने का पूरा नैतिक अधिकार है | यह अधिकार
ब्राह्मणों या यादवों के प्रतिनिधि को नहीं मिल सकता, क्योंकि ब्राह्मण-यादव के
लिए शौचालय एक कर्मक्षेत्र नहीं है |
धर्म का एक महत्वपूर्ण
उपादान पवित्रता है, पवित्रता का मतलब सफाई है | जो प्राथमिक सफाई भी नहीं जानता
है, सार्वजनिक स्थलों की सफाई का जिसको न व्यक्तिगत, न श्रेणीगत अनुभव है, वह
आत्मा और मन की सफाई तक कैसे पहुँच सकता हैं ? यह धर्मचर्चा का अवश्य एक विषय होना
चाहिए | अगर पवित्रता को मन या आत्मा से शुरू करते हैं तब भी यह सवाल उठता है कि
आत्मा की यह सफाई अपने तार्किक बिन्दुओं तक पहुंचती है या नहीं? सार्वजनिक स्थलों
की सफाई या अपने द्वारा पैदा की गयी गंदगी को साफ़ करने के लिए हाथ नहीं उठता हैं,
मन कुंठित हो जाता है, तो क्या आत्मा की पवित्रता प्रामाणिक मानी जायेगी ? सफाई
कार्य के प्रति जिसके मन में घृणा का संस्कार है उसकी पवित्रता ढोंगी है या नहीं |
यह मनोवैज्ञानिक तथा आध्यात्मिक चर्चा का विषय है |
कांशीराम कह सकते थे कि एक
महान धर्म के योग्य होने के लिए भारत के ब्राह्मणों और कायस्थों को शौचालय से अपना
प्रशिक्षण शुरू करना चाहिए | इस अर्थ में रामकृष्ण परमहंस और मोहनदास करमचंद गांधी
का रास्ता शुद्धिकरण का रास्ता था | हिन्दू समाज के इस शुद्धिकरण में दलितों को
गुरु बनाना पड़ेगा | हिन्दू धर्म की असली एकता उसी दिन शुरू होगी जब ब्राह्मण और
राजपूत और बनिया भंगी को अपना गुरु मान कर उससे शुद्धिकरण की विद्या प्राप्त करेगा
|
विडम्बना यह है जब कांशीराम
लालू प्रसाद उपरोक्त प्रकार के नाटकीय उदगार प्रकट करते हैं, उनमें यह भाव नहीं
रहता है कि भारतीय समाज का पुनर्निर्माण करना है | इसका संकल्प नहीं रहता है कि एक
परंपरा को रोकना है, दूसरी परंपरा शुरू करनी है | वे तो उसी पुरानी परंपरा की
गंदगी में प्रतिशोध और प्रतिहिंसा की उछल-कूद करना चाहते हैं | आज यहाँ ब्राह्मण
हैं कल वहां यादव को या परसों दलित को स्थापित करना चाहते हैं | प्रतिशोध के
सिद्धांत को अपना कर शुद्र और दलित उच्च जातियों के विरुद्ध उसी तरह का गुस्सा और
द्वेष जाहिर करते हैं जैसा कि साध्वी ऋतंभरा या सैकड़ों भाजपा समर्थक मुसलामानों के
खिलाफ अपने भाषण में करते हैं | भाजपा प्रचारित प्रतिरोध के सिद्धांत को वे अनजाने
मजबूत करते हैं | अगर शुद्र और दलित नेता भाजपा लहर का मुकाबला करना चाहते हैं तो
प्रतिशोध के सिद्धांत को नकारना पड़ेगा | प्रतिशोध के सिद्धांत का माहौल बना रहेगा
तो मस्जिद टूटेगी ही, क्योंकि वह ज्यादा आसान है और ज्यादा नाटकीय है | प्रतिशोध
के सिद्धांत के तहत शुद्र-दलित-अल्संख्यक गठबंधन कारगर नहीं हो सकता | यहाँ तक कि शुद्र
-दलित गठबंधन भी नहीं हो पायेगा |
आरक्षण की राजनीति करने
वाले समझ नहीं पा रहे हैं कि उनको कितना बड़ा हथियार मिला हुआ हैं | उसका इस्तेमाल
वे कर नहीं पा रहे हैं | इसका कारण बुद्धिहीनता नहीं है | शुद्र आन्दोलन भारत में
बहुत पुराना है | आधुनिक भारत में भी 60-70 साल पुराना है | इन आंदोलनों को बीच
बीच में सफलताएँ मिली हैं | इतने अनुभव से गुजरने के बाद बुद्धिहीनता ब्राह्मणों
का एक कुप्रचार है और दायित्व से भागनेवाले शूद्रों का एक कवच है | जहाँ भी शिक्षा
और शिक्षण का अवसर मिला है, वहां शूद्रों की बुद्धि प्रमाणित हुई है | उनके
नेतृत्व में बुद्धि की कमी नहीं है |
इस वक्त अगर वे अपनी
संभावित उंचाई तक नहीं पहुँच रहे हैं तो उसके दो कारण है (1) वे पुरे राष्ट्र और सारी
दुनिया के बारे में सोचने का या करने का दायित्व नहीं लेना चाहते | यह काम अभी भी
वे ब्राह्मणों-कायस्थों को सौंपना चाहते हैं; (2) तात्कालिक सत्ता का मोह उनमें
ब्राह्मण-बनिया से भी ज्यादा है |
पहला दोष ज्यादा बुनियादी है
| भारत की सामाजिक वस्तुस्थिति इतनी बदल चुकी है कि द्विज जातियों के नेतृत्व में
कोई सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन का कारगर आन्दोलन आगे होने वाला नहीं है | वह जमाना
बीत चूका है जब नेहरु और नम्बुदरीपाद, जयप्रकाश और पी.सी. जोशी, सुभाष बोस और
लोकमान्य तिलक न सिर्फ खुद द्विज जाती के थे, बल्कि अपनी-अपनी कमिटियों में सौ
फीसदी द्विजों को रखकर प्रगतिशील आन्दोलनों का नेतृत्व कर सकते थे | उनकी
विश्वसनीयता बनी रहती थी |
आगे के लिए सत्य यह है कि
या तो शूद्रों, पिछड़ों, दलितों के नेता अपनी-अपनी जाती और उपजाति का नेतृत्व करना
छोड़ कर पुरे राष्ट्र का नेतृत्व करने का दायित्व लें, या फिर सामाजिक-आर्थिक
परिवर्तन के आन्दोलनों का सिलसिला ही टूट जायेगा | उसके पीछे घटनाएं जो भी हो रही
हो लेकिन 1967 के बाद से यह स्थिति अधिक स्पष्ट हो रही है | विशुद्ध द्विज नेतृत्व
का तो सवाल ही नहीं उठता है | मिश्रित
टोलियों में भी द्विजों की संख्या कम होनी
चाहिए | बेहतर है कि सर्वोच्च पदों पर पिछड़ा या दलित ही रहे | केवल आरक्षण से यह
होने वाला नहीं | पिछड़ों को अयोग्यता के कवच को तोड़ कर बाहर निकलना होगा |
क्रन्तिकारी और समाज सुधारक
आन्दोलन के लिए द्विजों की क्षमता समाप्त हो चुकी है | अपना नेतृत्व बनाए रखने के
लिए उनको या तो कायस्थ बाल ठाकरे की तरह संकीर्ण भावनाओं का सहारा लेना पड़ेगा, या
जनतंत्र को सीमित करना पड़ेगा | खास कर समाज सुधारक आन्दोलन तो अब द्विजों के वश
में बिलकुल नहीं रह गया है | हिन्दू धर्म और हिन्दू समाज का कोई प्रभावी सुधार
करना है तो उसके लिए शुद्र की अगुआई जरुरी है |
लालू प्रसाद का पहला इलहाम
ठीक था; जब उन्होंने हरिजन पुजारियों के बारे में एलान किया | उसमें बड़ी बात यह थी कि पिछड़ो के इस नेता को आरक्षण के आगे
का एक कदम दिखाई दिया | बेचारे पुजारी को पूछता कौन है? फिर भी वह जाती और
बिचौलियावाद का प्रतीक है | अगर पिछड़े और हरिजन पुजारी हो जायेंगे तो मंदिर में
जाती और बिचौलियावाद कमजोर पड़ जाएगा |
लेकिन मुख्यमंत्री द्वारा
नियुक्ति से पुजारी नहीं बनते हैं -लोगों के द्वारा अपनाए जाने से ही बनते हैं |
जनसाधारण को, पिछड़ो को तैयार करना होगा कि वे हरिजनवाले मंदिरों में अपना धार्मिक
कार्य सम्पन्न करें | यह काम मंत्री का नहीं, नेता का होता है; वोट वाले नेता का
नहीं सामाजिक और राष्ट्रिय नेता का | इसकी कठिनाई समझ में आई तो लालू प्रसाद की
इच्छा सकती ढीली पड़ गयी; उन्होंने शंकराचार्यों को नामजद करना शुरू कर दिया |
पुजारी और शंकराचार्य में
गुणात्मक फर्क है | पुजारी धर्म का चपरासी
है; शंकराचार्य तो धर्माध्यक्ष जैसा पद है | हिन्दू धर्म में कहीं न कहीं एक
जबरदस्त चीज है, एक बुनियादी तत्व ऐसा है कि अभी तक धर्म में मुखियागिरी को जमने
नहीं दिया गया है | आदि शंकर के द्वरा डाली गयी शंकराचार्य परंपरा को देश के किसी
हिस्से में भी स्वीकृति नहीं मिली | शंकराचार्य का मतलब एक महान मठाधीश हो सकता है
जो शास्त्रों का ज्ञाता हो | जनसाधारण के लिए इससे अधिक कुछ नहीं है उस पद में |
हिन्दुओं के धार्मिक जीवन में उसका अभी तक कोई स्थान नहीं है | उसके दर्शन के लिए
भीड़ नहीं लगती है |
संघ-परिवार के बढ़ते प्रभाव
के साथ-साथ आज शंकराचार्य का महत्व जरुर बढ़ रहा है | राजनीति के माध्यम से भाजपा
शंकराचार्य और संगठित संतो का प्रभाव बढाने में लगी हुई है | अगर इस रफ़्तार से माहौल बदलता (बिगड़ता) जाएगा तो
वह दिन निकट है जब शंकराचार्य का स्थान संविधान से ऊँचा हो जाएगा | भ्रष्टाचार या
संविधान विरोधी अपराध के लिए किसी शंकराचार्य को गिरफ्तार करना प्रशासन के लिए
मुश्किल हो जायेगा | संसद में उस पर टिपण्णी करना मना हो जाएगा | जिस शंकराचार्य
को मठों के बाहर कोई पूछता नहीं था, जिसको गीता या भागवत या उपनिषद का अधिकृत
व्याख्याकार भी नहीं माना गया है; उसको संसद या संविधान के ऊपर स्थापित करना
हिन्दू धर्म की सबसे बुरी घटना होगी |
हिन्दू धर्म स्वाभाव से मठी
नहीं है | न संतों का कोई संगठित समूह होता है | हिन्दू धार्मिक दर्शन के साथ
जंगली, घुमक्कड़, निर्वस्त्र (अपरिग्रही) ऋषि मुनियों का ज्यादा मेल बैठता है |
हिंदू धर्म की यह मौलिकता और सुन्दरता रही है | इसलिए धर्म के तौर पर हिन्दू धर्म
की कोई केन्द्रीय सत्ता नहीं है | कोई भी हिन्दू अपने धर्म की व्याख्या खुद कर
सकता है | हिन्दू धर्म में जितने प्रकार
की व्याख्या और संस्करण प्रचलित है, अन्य किसी धर्म में वैसा नहीं है, लेकिन शुरू
से ही एक केन्द्रीय सत्ता बनाने का प्रयास ब्राह्मणवाद का रहा है | शंकराचार्य
परंपरा केन्द्रीयकरण का ही एक प्रयास है | संघ परिवार का वश चलेगा तो शंकराचार्य
को धर्माध्यक्ष बना दिया जाएगा | ऐसे समय में लालू प्रसाद का शंकराचार्य के प्रति
आकर्षण बुद्धिभ्रम का लक्षण है | लालू का शंकराचार्य कार्यक्रम सिर्फ तमाशा बनकर
नहीं रह गया | पर यह तमाशा शंकराचार्य के पद को महिमामंडित करने के लिए सहायक हो
जाएगा |
कृष्ण का प्रचारक
शंकराचार्य का प्रचारक कैसे हो गया ? इस असंतुलन के पीछे भाजपा लहर से घबराहट है |
कभी लालू प्रसाद अपने बेटे को कृष्ण बना कर उसको एक राजनैतिक मोहरे के तौर पर
इस्तेमाल करते हैं, कभी वो खुद कृष्ण कहलाने की कोशिश करते हैं | कृष्ण और
शंकराचार्य मिल जाएंगे तो मथुरा की मस्जिद खतरे में पड़ जायेगी | दरअसल कृष्ण और
शंकराचार्य की परंपरा परस्पर विरोधी हैं | लालू की राजनीति में गंभीरता होती तो
कोई विद्वान आदमी उन्हें सर्वपल्ली राधाकृष्णन की किताब से यह पढ़कर सुनाता,
"कृष्ण वैदिक धर्म के याजकवाद का विरोधी थे और उन सिद्धांतों का प्रचार करते
थे, जो उन्होंने (अपने गुरु) घोर आंगिरस से सीखे थे | वैदिक पूजा-पद्धति से उनका
विरोध उन स्थानों में प्रत्यक्ष दिखाई पड़ता है, जहां इंद्र पराजित होने के बाद
कृष्ण के सम्मुख झुक जाते हैं |" गोवर्धन के किस्से के पीछे यह बात छुपी हुई
है कि बालक कृष्ण ने माता यशोदा की इंद्र-पूजा रोकनी चाही और इंद्र का बैर मोल
लिया |
लालू की राजनीति का
विश्लेषण इसलिए जरुरी है कि आरक्षण की राजनीति का विश्लेषण करना है | लालू प्रसाद
की कमी कहाँ है ? विद्या, बुद्धि की कमी नहीं है | एक प्रभावी और कारगर नेता बनने
के लिए जितनी विद्या बुद्धि या सामाजिक पृष्ठभूमि चाहिए, वह सब लालू में है |
चन्द्रगुप्त भी नाक-नक़्शे में, सामाजिक पृष्ठभूमि में, उम्र में लालू प्रसाद जैसा
रहा होगा | जो फर्क है वह राजनैतिक चरित्र के अभाव में कभी-कभी लालू प्रसाद के
दिमाग में अच्छी बातें आती भी हैं तो फिसल जाती है | अन्यथा शुद्र चेतना को
साम्प्रदायिकता के विरुद्ध खड़ा करने का सोच सबसे पहले लालू के दिमाग में आया था |
राजनैतिक चरित्र के अभाव में अपने दिमाग की बातों को कार्यरूप देने में वह असमर्थ
हैं |
आरक्षण राजनीति का
नकारात्मक पहलू यह है कि यह एक सांप्रदायिक आन्दोलन का रूप ले रहा है जबकि इसको एक
देशव्यापी सामाजिक आन्दोलन के रूप में उभरना चाहिए था | इस राजनीति में एक समूह की
मांगें और अधिकार ही दिखायी पड़ता है | पुरे समाज को इससे क्या फायदा होने वाला,
राष्ट्र का भविष्य किस तरह मजबूत होने वाला, समाज कैसे गतिशील होने वाला है, यह
बिल्कुल नहीं दिखाई देता है | अगर आरक्षण की राजनीति सिर्फ एक समूह को अधिकार
दिलानेवाली है, तो जिनको यह अधिकार नहीं मिलने वाला है वे क्यों इसमें दिलचस्पी
लेंगे? अगर ट्रेड यूनियन के साथ समाजवादी आन्दोलन नहीं है तो जो कारखाना मजदूर
नहीं है वह क्यों उसका समर्थक होगा ? बोडो आन्दोलन में अगर सम्पूर्ण राष्ट्र या
उतर पूर्व भारत की भलाई नहीं है तो बंगाल-असम के लोग क्यों उससे सहयोग करेंगे ?
खंडों के अधिकारों के साथ समग्र के विकास का सूत्र प्रकट रूप से दिखाई पड़ना चाहिए,
मुखरित होना चाहिए | अन्यथा खंडों के अधिकार-आन्दोलन से समग्र को नुकसान दिखायी दे
सकता है | नुकसान हो भी सकता है | शायद इसी कारण वर्गों को सिर्फ अधिकारों के लिए
संगठित करने के पक्ष में गांधी नहीं थे | अधिकारों की राजनीति के साथ निर्माण की
राजनीति का संयोग न होने पर आन्दोलन की दिशा राष्ट्र के लिए नकारात्मक साबित हो
सकती है |
आरक्षण भारतीय समाज के लिए
एक बहुत बड़ी घटना है | आरक्षण आन्दोलन का तार्किक परिणाम एक व्यापक, पूर्णाग
राजनीति होनी चाहिए, जिसमें हिन्दू समाज और भारतीय राष्ट्र के पुनर्निर्माण के
कार्यक्रम दिखाई देने चाहिए | उदाहरणस्वरुप नयी आर्थिक नीति आरक्षण के सिद्धांत की
सबसे बड़ी शत्रु है | सुप्रीम कोर्ट ने प्रतिरक्षा, उच्चतर तकनीक आदि के क्षेत्र को
आरक्षण के कानून से अलग रखा है | यह गलत फैसला है | लेकिन नई आर्थिक नीति सम्पूर्ण
आर्थिक क्षेत्र को 'मेरिट' (वह भी अंतर्राष्ट्रीय मेरिट) के आधार पर चलाना चाहती
है | न सिर्फ उद्योग और व्यापार, कृषि को भी 'मेरिट' के आधार पर संचालित करने की
चर्चाएँ शुरू हो गयी हैं | कृषि भूमि का उपयोग उसी के हाथ में रहेगा जो सबसे अधिक पूंजी
लगाकर अधिकतम फसल उगा सकेगा | अगर कांशीराम या लालू प्रसाद इसके खिलाफ जेहाद नहीं
छेड़ रहे हैं तो शायद वे सोच रहे हैं कि यह राष्ट्र की गुलामी का प्रश्न है तो
राष्ट्र का सवाल है | राष्ट्र के सवाल से उनको क्या लेना देना है ? खंडों को
अधिकार चाहिए |
उनको यह समझना होगा कि नई
आर्थिक नीति के खिलाफ एक जेहाद छेड़े बगैर और जाति प्रथा के विरूद्ध एक
सामाजिक-सांस्कृतिक आन्दोलन खड़ा किये बिना आरक्षण की राजनीति खोखली हो जायेगी |
अगर जाति प्रथा विरोधी सामाजिक-सांस्कृतिक आन्दोलन नहीं रहेगा तो शंकराचार्यवाद और
मन्दिरवाद मजबूत होकर रहेगा | अगर मुद्राकोष और डंकेल विरोधी अभियान नहीं चलेगा तो
उच्च जातियों में भी बेरोजगारी बढ़ेगी, लेकिन जो भी आर्थिक लाभ निकलेगा वह सारा का
सारा उच्च जातियों के हाथ में जायेगा | आरक्षण की राजनीति से अभी तक जो फायदा
पिछड़ों और दलितों को मिला है भाजपा की सामाजिक नीति और उसके द्वारा समर्थित नयी
आर्थिक नीति के फलस्वरूप निस्सार हो जायेगा |
भाजपा की धर्मनीति असल में एक
सामाजिक-सांस्कृतिक नीति है | (आडवाणी ने समझ बूझ कर 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' शब्द
चुना है | आडवाणी को यह मालुम है कि इतिहास की किताबों में हिटलर की विचारधारा को
'आर्य राष्ट्रवाद' को समझने के लिए इसी शब्द का प्रयोग हुआ है |) संघ-परिवार के
नेतृत्व में इस वक्त सारे देश में सामाजिक-सांस्कृतिक आन्दोलन चल रहा है | लेकिन
यह बात संघ-परिवार के लिए सही नहीं है | रा. स्व. संघ के लिए बिलकुल सही नहीं है |
संघ राज सत्ता का जरुर इस्तेमाल करना चाहता है, लेकिन उसका उद्देश्य सत्ता और
चुनाव के परे है | एक खास प्रकार का समाज, एक खास तरह की भारतीय संस्कृति, घरातल पर एक ब्राह्मणवादी
हिन्दू व्यवस्था, उसका ध्येय है | आर्थिक राजनैतिक धरातल पर ब्राह्मण-बनिया गठबंधन
उसका निहित स्वार्थ है |
इसलिए भाजपा को आरक्षण के
खिलाफ एक अलग मोर्चा खोलने की कोई जरुरत नहीं है | अगर राजनीति पर संघ परिवार का
नियंत्रण रहेगा, अगर समाज में ब्राह्मण-बनिया काबिज हो जायेंगे, तो मंडल से लड़ने
की जरुरत नहीं रह जायेगी | मंदिर पर्याप्त है मंडल को काटने के लिए |
मंदिर का कार्यक्रम अकेले
नहीं चल सकता था | उसकी पूरी विचारधारा है- हर महत्वपूर्ण क्षेत्र में उसके पूरक
कार्यक्रम चल रहे हैं | संघ परिवार के नेतृत्व में एक धार्मिक-सामाजिक आन्दोलन देश
में चल रहा है | सिनेमा, संचार माध्यम, इतिहास लेखन से लेकर शिक्षा और संगीत के
क्षेत्र तक यह आन्दोलन व्याप्त है | अर्थनीति का प्रबल निजीकरण इसको गति दे रहा है
| इसके विपरीत आरक्षण के आन्दोलन का कोई समग्र विचार नहीं है | इसका कोई
सांस्कृतिक आन्दोलन नहीं है | इसका कोई आर्थिक आन्दोलन नहीं है | इसका कोई
शैक्षणिक आन्दोलन नहीं है; कोई इतिहास लेखन नहीं है | यह सिर्फ एक खंड का अधिकार
आन्दोलन है | ऐसे में यह मंदिर की काट नहीं हो सकता है |
भारत शूद्रों का होगा
किशन पटनायक
समता प्रकाशन
प्रकाशन वर्ष-1995
पृष्ठ संख्या- 76-86