Sunday, 19 June 2016

Letter to Chief Minister, Delhi:

Letter to Chief Minister, Delhi:

                                                            May 19, 2016 1:37 PM

Dear Chief Minister,

You must have read the atrocious statement of V. K. Singh minister of State in the Modi Government, namely that Akbar Road at New Delhi should instead be named Maharana Pratap Singh Road. Only a Warped communal mind could have suggested it , though Maharana Pratap Singh's  bravery is fully accepted.
Even the thought of renaming Akbar Road is totally unacceptable --as it is a product of an atrociously communal mind set up.  UN development report 2004 links Ashoka The Great, and Akbar The Great as epitomes of religious tolerance. Press reports have reported that the decision to change a name is done by a Sub- Committee of New Delhi Municipal Committee in which there are 2 or 3 of AAP MLA’s. I understand that this committee is headed by you as the Chief Minister of Delhi. I understand that the last time the change of name of Aurangzeb Road to Abdul Kalam Road, was done under your chairmanship. Of course Maharana Pratap Singh should have a road named after him. But to me changing the name of Akbar Road is trying to rewrite history, which to me is Blasphemy.
I would therefore suggest that in order to avoid further communal passions you should publically announce that your Government is against renaming of Akbar Road and will not accept any such recommendation even if it was received. I hope your Government will realize the urgency of issuing this statement.
Offhand as a suggestion, you could consider changing the name of “Raj Niwas Marg” to Maharana Pratap Singh Marg.

Your's
Rajindar Sachar

बजट : देश-प्रेम की तरह ही भ्रामक है मोदी का किसान-प्रेम

प्रैस रिलीज

बजट देश-प्रेम की तरह ही भ्रामक है मोदी का किसान-प्रेम

       जिस तरह मोदी सरकार का राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ प्रेरित देश-प्रेम भ्रामक है, उसी तरह उसका गांव और किसान-प्रेम भी भ्रामक है। जो सरकार पिछले दो सालों से खेती-किसानी को मारने पर तुली हुई थी, वर्ष 2016-2017 के बजट में वही सरकार अचानक खेती-किसानी और किसानों की उद्धारक होने का दावा कर रही है। यह मोदी किसानों का यकीन जीतने की फिल्मी रणनीति है - पहले गुंडे भेजकर हमला कराओ और फिर हीरो बन कर बचाओ। सामाजिक तनाव की फसल बोने वाली सरकार उसमें किसान-प्रेम का दिखावटी खाद-पानी डाल कर अपनी राजनीतिक पैदावार बढाने की मंशा से प्रेरित है। देश के किसानों को तो यह सच्‍चाई समझनी ही चाहिए, बजट को किसान समर्थक बताने वाले बुदि्धजीवियों को भी अपनी धारणा पर पुनर्विचार करने की जरूरत है। बडे कारपोरेट घरानों की समर्थक सरकार किसानों-मजदूरों-कारीगरों-खुदरा व्‍यापारियों-छोटे उद्यमियों की आर्थिक मजबूती का काम नहीं कर सकती।
       पिछले तीन सालों से लगातार पड़ रहे सूखे ने खेती की कमर तोड़ दी थी और उसकी विकास दर 1.1 प्रतिशत पर आ गई थी। इसी नाते चारों तरफ हाहाकार मचा हुआ था। उसकी आंच मोदी सरकार को तीन जगह खास तौर पर महसूस हुई। पहले गुजरात में पाटीदारों का उग्र आरक्षण आंदोलन, उसके बाद बिहार चुनाव की पराजय और फिर हरियाणा में आरक्षण की मांग करते हुए पूरे प्रदेश में आग लगाने वाला और जातीय दंगे करने वाला जाटों का आंदोलन। यानी खेती-किसानी करने वाली जातियों का मोदी सरकार से मोह भंग हो रहा था, इसलिए उसने पहले उड़ीसा, मध्यप्रदेश और बरेली में तीन बड़ी किसान रैलियां कीं और बाद में चिदंबरम जैसे शहरी और कारपोरेट समर्थक वित्तमंत्री के मुंह से गांव का गुणगान करने वाला मंत्र पढ़वा दिया।
       बजट में सरकार ने सन 2022 तक किसानों की आमदनी दो गुना करने का सपना दिखाया है। कारपोरेट समर्थक मोदी सरकार ने यह क्‍यों कहा है और वह इस लक्ष्‍य को कैसे हासिल करेगी? कृषि क्षेत्र की वृद्धि दर 2014-15 और 2015-16 के बीच -0.2 प्रतिशत से 1.1 प्रतिशत रही है। ऐसे में अगर छह सालों में किसानों की आय दोगुनी करनी है तो कृषि की वृद्धि दर 12 प्रतिशत तक ले जानी होगी। उसके लिए एक तरफ खेती की उत्पादकता बढ़ानी होगी और दूसरी तरफ न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने होंगे। इन दोनों मोर्चो पर कोई बड़ी पहल बजट में नहीं दिख रही है।
       प्रधानमंत्री सिंचाई योजना और प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना से कितना और कब तक लाभ होगा, यह स्पष्ट नहीं है। विशेषकर सिंचाई के लिए नहरों में पानी रहेगा या नहीं रहेगा, इसकी गारंटी नहीं है। दूसरी तरफ फसल बीमा योजना के लिए आवंटित किए गए 5500 करोड़ का ज्‍यादातर हिस्सा बीमा कंपनियों की जेब में नहीं जाएगा, इसकी भी कोई गारंटी नहीं है।
       सरकार खेती और किसानों के कल्याण के लिए जिस बजट को दोगुना करने पर सबसे ज्यादा शंख बजा रही है वह दरअसल एक चालाकी भरा खेल है। सबसे पहले तो सरकार ने किसानों के अल्पकालिक ब्याज ऋण सबसिडी को वित्तीय सेवाओं के विभाग से निकालकर कृषि और सहकारिता विभाग में डाल दिया है। उसके बाद कृषि कल्याण का जो बजट 2014-15 के 19,255 करोड़ रुपए से घटाकर 2015-16 में 15,809 करोड़ पर ले आई थी उसे फिर बढ़ा कर पहले की स्थिति यानी 20,984 करोड़ रुपए तक पहुंचा दिया है। इस तरह खेती के कल्याण का खर्च 15,809 करोड़ रुपए से बढ़कर 35,984 करोड़ रुपए तक पहुंच गया। खेती में निवेश बढ़ाने  के लिए कृषि आधारित उद्योगों में सौ प्रतिशत एफडीआई की छूट देकर सरकार ने नवउदारवादी आर्थिक सुधारों को गांवों की ओर मोड़ दिया है। देखना है कि इससे ग्रामीण उद्योग कितना संभल पाता है और कितना बरबाद होता है? इससे कितना धन ग्रामीणों के पास जाता है और कितना दलालों के पास?
       सबसे विडंबनापूर्ण स्थिति मनरेगा के साथ हुई। जिस योजना को प्रधानमंत्री ने स्वयं यूपीए सरकार की विफलताओं का स्मारक बताया था उसी का सहारा लेने सरकार पहुंची। लेकिन मनरेगा का बजट 38,500 करोड़ रुपए किए जाना अपने में कोई चमत्कार नहीं है। क्योंकि मनरेगा का बजट 2011 में 39,377 करोड़ तक पहुंच गया था जिसे एनडीए सरकार ने वित्त वर्ष 2015 में 29,436 करोड़ रुपए कर दिया था। अब फिर सरकार अगर पुरानी स्थिति को बहाल कर रही है तो इसमें नया कुछ नहीं, वह बल्कि अपनी ही गलतियों को ठीक करने का प्रयास कर रही है।
       यह बजट सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों से कर्ज लेकर हजम कर जाने वाले पूंजीपतियों पर कोई कार्रवाई करते हुए नहीं दिखाई दे रहा है। विडंबना देखिए कि वित्त मंत्री बातें ऊंची-ऊंची करते हैं लेकिन बैकों के दिवालिया होने के बारे में पिछले साल पेश विधेयक (इनसालवेंसी एंड बैंकरप्सी कोड बिल) अभी भी लंबित है और इस साल भी उसे पास कराने का महज आश्वासन दिया गया है। उस दिशा में कोई ठोस पहल नहीं है। वैश्विक मंदी के कारण निर्यात बुरी तरह प्रभावित हुआ है। वह इतना है कि रुपए की घटती कीमत से भी उसकी भरपाई नहीं होने वाली है।
       शहरी मोर्चे पर एक फैसला जरूर तारीफ के लायक है और वो है दस लाख से ऊपर का लाभांश कमाने वालों पर दस प्रतिशत से ऊपर का सरचार्ज। चुपके से की गई इस व्यवस्था से सरकार की आमदनी अच्छी होगी और राजस्व घाटे को भरने में सुविधा हो सकती है। लेकिन दूसरी तरफ विदेशों से हर व्यक्ति के खाते में 15 लाख रुपए काला धन लाने का दावा करने वाली सरकार ने देशी कालाबाजारियों को 45 प्रतिशत जमा कर काले धन को सफेद करने की छूट देकर वित्तीय नैतिकता को करारा झटका दिया है। उसी के साथ ईपीएफ के ब्याज पर कर लगाने से कामकाजी वर्ग परेशानी महसूस कर रहा है। यही वजह है कि लोगों ने टिप्पणी  भी की है कि अपराधियों को राहत और मेहनत करने वालों को चपत। इसकी चौतरफा आलोचना से ऊब कर सरकार इस पर कदम पीछे खींचने को तैयार हो रही है।  

अभिजीत वैद्य
महासचिव 

Budget: Modi’s new found love for farmers is as misleading as his nationalism

Press Release

Budget: Modi’s new found love for farmers is as misleading as his nationalism
         
New Delhi : Just as Modi’s RSS inspired nationalism is misleading, his love for villages and farmers is also misleading. The government, which since the past two years has been hell bent on killing farming, is claiming to be their saviour in the year 2016-17 budget. This is Modi’s filmy formula to win the faith of the farmers – ‘first send in the goons to attack and then pretend to be the hero and save the day’. This government which is trying to sow the crop of social tension, fertilize it with the make-believe love for farmers, is inspired by the intention of increasing its political harvest. The farmers need to understand this truth and the intellectuals who call this budget farmer-friendly also need to rethink their contentions. The government which primarily supports big corporate houses cannot work towards strengthening the farmers-labourers-artisans-small traders-small scale industrialists.
The draught since the last three years has broken the back of farming and its growth rate dropped to 1.1 percent. This is why there was a hue and cry everywhere. Its heat was felt by the Modi government in three places especially. First the violent reservation movement of the Patidars in Gujarat, after that the defeat in Bihar assembly elections and then the recent movement by Jats in Haryana demanding reservation which engulfed the whole state in its flames and lead to caste-based riots. This meant that the farming castes were getting disillusioned with the Modi government and that is why he did three huge rallies in Odisha, Madhya Pradesh and Bareilly and after this made an urbane and corporate supporting former finance minister Chidambaram to sing the paeans of the villages.
In the budget, the government has shown a dream of doubling the income of the farmers till the year 2022. Why has the corporate supporting Modi government said this and how are they going to achieve this target? The growth rate of the agricultural sector between 2014-15 and 2015-16 has been from -0.2% to 1.1%. In this scenario, if the income of the farmers is to be doubled, then the growth rate of the agricultural sector has to be taken to 12 percent. To achieve this, on the one hand, the productivity of farming will need to be increased and on the other hand, minimum support price will have to be increased. There seems to be no big initiatives on these two fronts in the budget.
It’s not clear how much and how long the gain from the Prime Minister’s irrigation scheme and the Prime Minister ‘s crop insurance scheme will be. Especially there is no guarantee whether there will be water in the canals for irrigation. On the other hand, there is no guarantee that a majority of the portion of the 5500 crore rupees allotted to the crop insurance scheme will not go into the pockets of the insurance companies.
The trumpeting of the government that they have doubled the allocation for farming and the farmer’s welfare is actually a clever game. First of all, the government has removed the short-term loan interest subsidy from the department of financial services to the agricultural and cooperative department. After this, the agricultural welfare budget, which was reduced from 19,255 crore rupees in 2014-15 to 15,809 crore rupees in 2015-16, has been increased again to its earlier state, i.e. 20,984 rupees. In this way the expenditure of agricultural welfare increased from 15,809 crore rupees to 35,984 crore rupees. By giving 100 percent FDI exemption in agriculture based industries, to increase the investment in farming, the government has directed the neo-liberal economic reforms towards the villages. It remains to be seen how much it helps the rural industry and how much it destroys it? How much money reaches the villagers and how much of it reaches the middlemen?   
MGNREGA is in the most ironic situation. The government reached out for help to the same scheme which the Prime Minister himself called an epitome  of  failure of the UPA government. But the budget of the MGNREGA being 38,500 crore rupees is not a miracle. This is because the budget of MGNREGA in 2011 reached 39,377 crore rupees which the NDA government reduced to 29,436 crore rupees in the financial year 2015. If the government is not returning to the status quo, it is nothing new, in fact, it is only trying to rectify its mistakes.
This budget does not seem to be taking any action against the capitalists who take loans from Public Sector Banks and devoured them. It is ironic that the finance minister says a lot of big things but the bill presented last year about the bankruptcy of banks (Insolvency and Bankruptcy Code Bill) is still pending and even this year, there is merely an assurance that it will be passed. There is no concrete initiative in that direction. Export has been adversely affected because of the global slowdown. It is so much that even the depreciating rupee cannot make up for it.
On the urban front, there is one decision which is certainly laudable and that is the levying of a surcharge of 10 percent on those earning more than 10 lakh rupees dividend. This noiselessly done arrangement will ensure good earnings for the government and will facilitate in reducing the revenue deficit. But on the other hand, the government which claimed to put in 15 lakh rupees in every citizen’s account by bringing in black money from overseas, has given a tight slap to fiscal prudence by giving the inland black marketeers the option of converting their black money into white by depositing 45 percent. Along with this, the working class is troubled by the taxation of the EPF interest. This is the reason why some have commented that this is a case of relaxation for the criminals and a slap to the hard workers. Due to the widespread criticism on this front, the government is getting ready to retract.

Abhijit Vaid
General Secretary

कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की विरासत


कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की विरासत 
प्रेम सिंह

                भारतीय समाजवादी आंदोलन के पितामह आचार्य नरेंद्रदेव की अध्यक्षता में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी (सीएसपी) के गठन (17 मई 1934,पटना) के समय दो लक्ष्य स्पष्‍ट थे: देश की आजादी हासिल करने और समाजवादी व्यवस्था कायम करने की दिशा में संगठित प्रयासों को तेज करना। इन दोनों लक्ष्यों को हासिल करने के लिए सच्ची साम्राज्यवाद विरोधी चेतना को मजबूत बनाना जरूरी था। 21-22 अक्तूबर 1934 को बंबई में हुए अखिल भारतीय कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के पहले सम्मेलन मेंजहां समाजवादी समाज बनाने की दिशा में विस्तृत कार्यक्रम की रूपरेखा स्वीकृत की गईजेपी ने कहा था ‘‘हमारा काम कांग्रेस के भीतर एक सच्ची साम्राज्यवाद विरोधी संस्था विकसित करने की नीति से अनुशासित है।’’ जैसा कि आगे चल कर देखने में आता हैसीएसपी के संस्थापक नेता मार्क्‍सवाद और गांधीवाद के साथ फलप्रद संवाद बना कर समाजवादी व्यवस्था की निर्मिती करने के पक्षधर थे। गांधी ने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के गठन का विरोध किया था। लेकिन संस्थापक नेताओं ने उलट कर गांधी पर हमला नहीं बोला। दोनों के बीच संबंध और संवाद गांधी की मृत्यु तक चलता रहा। उसके बाद भी यह सिलसिला रुका नहीं : कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना पर ‘‘गांधीवाद अपनी भूमिका पूरी कर चुका है’’ कहने वाले जेपी सर्वोदय में शामिल हुए और लोहिया ने गांधीवाद की क्रांतिकारी व्याख्या प्रस्तुत की। इस क्रम में आजादी के बाद डाॅ. अंबेडकर से भी संवाद कायम किया गयाहालांकि बीच में ही अंबेडकर की मृत्यु हो गई। सीएसपी के संस्थापक नेता मार्क्‍सवादी थेलेकिन अंतरराष्‍ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन के तहत कोरे कम्युनिस्ट नहीं थे। वे स्वतंत्रता आंदोलन के बीचों-बीच थेउन्होंने सविनय अवज्ञा आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन में लंबी जेलें काटी थीं। संस्थापक नेताओं के सामने यह स्पष्‍ट था कि स्वतंत्रता (देशसमाजव्यक्ति कीसच्ची साम्राज्यवाद विरोधी चेतना की पूर्व-शर्त है।
                बाह्य आदेशों पर चलने वाला समाजवादएक पार्टी की तानाशाही वाला क्रांतिकारी’ लोकतंत्र सीएसपी के संस्थापक नेताओं को काम्य नहीं था। आजादी के बाद कांग्रेस से अलग सोशलिस्ट पार्टी बनाने का निर्णय लोकतंत्र और संसदीय प्रणाली की मजबूती की दिशा में उठाया गया दूरगामी महत्व का निर्णय था। सोशलिस्ट नेताओं के लिए लोकतांत्रिक प्रक्रिया में हिस्सेदारी रणनीतिक नहीं थी। भारतीय सामाजिक और आर्थिक संरचना में हाशिए पर धकेले गए तबकों - दलितआदिवासीपिछड़ेमहिलाएंगरीब मुसलमान - की सक्रिय राजनीतिक-सांस्कृतिक-बौद्धिक हिस्सेदारी से समाजवाद की दिशा में बढ़ने की पेशकश में ऐसे स्वतंत्र राष्‍ट्र का स्वप्न निहित था जो फिर कभी गुलाम नहीं होगा। कांग्रेस के नेताओं ने गांधी के कहने बावजूद कांग्रेस को लक्ष्य-प्राप्ति के बाद विसर्जित नहीं कियालेकिन सोशलिस्ट नेताओं ने शुरुआती उहापोह के बाद कांग्रेस के बाहर आकर कांग्रेस को अपनी तरफ से तिलांजलि दे दी। दो दशक के लंबे संघर्ष के बाद वे कांग्रेस की सत्ता हिलाने में कुछ हद तक कामयाब हुए। सर्वोदय में चले गए जेपी के आपाताकल विरोधी आंदोलन की अन्य कोई उपलब्धि न भी स्वीकार की जाएलोकतंत्र की पुनर्बहाली उसकी एक स्थायी उपलब्धि हैजो आज तक हमारा साथ दे रही है। पिछले करीब तीन दशकों से चल रहे नवसाम्राज्यवादी हमले की चेतावनी सबसे पहले समाजवादी नेता/विचारक किशन पटनायक ने दी थी।
                वर्तमान भारतीय राजनीति के सामने भी दो लक्ष्य हैं : नवसाम्राज्यवादी हमले से आजादी की रक्षा और समाजवादी समाज की स्थापना। यह काम भारत के समाजवादी आंदोलन की विरासत से जुड़ कर ही हो सकता हैजिसकी बुनियाद 1934 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना के साथ पड़ी थी। इस संकल्प और पहलकदमी के बिना 82वें स्थापना दिवस का उत्सव रस्मअदायगी होगा। हालांकि रस्मअदायगी के लिए किए जाने वाले कार्यक्रमों के पीछे कुछ न कुछ भावना होती हैलेकिन इसका नुकसान बहुत होता है। कांग्रेस-भाजपा से लेकर अन्ना हजारेकेजरीवाल-सिसोदियारामदेव-श्रीश्रीवीके सिंह जैसों तक आवाजाही करने वाले सभी समाजवादी हैं - इसका नई पीढ़ी को केवल नकारात्मक संदेश जाता है। यही कारण है कि समाजवादी आंदोलन में नए युवक-युवतियां नहीं आते हैं। उन्हें यही लगता है कि समाजवाद के नाम पर ज्यादातर लोग निजी राजनीति का कारोबार चलाने वाले हैं। यह कारोबार वैश्विक स्तर पर जारी नवउदारवादी कारोबार के तहत चलता है।
                इस मंजर पर सर्वेश्‍वर दयाल सक्सेना की कविताजो उन्होंने लोहिया के निधन पर लिखी थीकी पहली पंक्तियां स्मरणीय हैं : लोऔर तेज हो गया उनका रोजगार/ जो कहते आ रहे/ पैसे लेकर उतार देंगे पार।   

The inheritance of the Congress Socialist Party

The inheritance of the Congress Socialist Party

Prem Singh

            At the time of the establishment of the Congress Socialist Party (CSP) on 17th May 1934, in Patna, under the chairmanship of the patriarch of the Indian Socialist Movement, Acharya Narendra Deva, two goals were clear : to achieve the Independence of the country and to enhance the pace of the organised efforts towards establishing a socialist system.  To achieve both of these goals, it was necessary to strengthen the true anti-imperialist spirit. In the first All India Congress Socialist Party meet on 21-22 October 1934 in Mumbai, where the outline of the detailed program in the direction of creating a socialist society were accepted, JP had said, “Our work within Congress is governed by the policy of developing into a true anti-imperialist body.” As was seen later on, the founders of the CSP were in favour of creating a socialist system through a fruitful dialogue with Marxism and Gandhism. Gandhi had opposed the formation of the Congress Socialist Party. But the founder leaders did not retaliate and attack Gandhi in return. The relationship and dailogue between the two continued till the death of Gandhi. This trend did not cease even afterwards : JP, who remarked on the establishment of the Congress Socialist Party that, “Gandhism has played its part. It cannot carry us further and hence we must march and be guided by the ideology of Socialism” joined the Sarvodaya movement, and Lohia presented a revolutionary interpretation of Gandhism. After the Independence, in the same spiritdialogue was establshed with Dr. Ambedkar, although he unfortunately passed away while the discussion was still on.
            The founder leaders of the CSP were Marxists, but they were not simply communists working under the International Communist movementThey were in the midst of the Freedom Struggle; they spent long terms in jails during the Civil Disobedience Movement and the Quit India Movement. The founder memebers were clear that freedom (of the country, society and individual) is a pre-requisite for true anti-imperialist spirit.  
                A socialism which follows external dictates, and a ‘revolutionary’ democracy born out of the dictatorship of one-party rule was not acceptable to the founder leaders of the CSP. The decision to create the Socialist Party separate from Congress after Independence, had  far-reaching consequences in the direction of democracy and the strengthening of parliamentary system. For the socialist leaders, participation in the democratic process was not a strategy. The dream of an indepenedent nation which was inherent in the premise of progress towards socialism was one which would never again be enslaved, via an active political-cultural-intellectual participation of the marginalized sections – Dalits, Adivasis, Backward, Women, poor Muslims - in the Indian social and economic milieu. Despite what Gandhi had said, the leaders of the Congress did not dissolve the Congress after it had achieved its goals; but the socialist leaders, after an initial hesitation, disassociated themselves from it. They succeededto some extent, in making a dent in the rule of the Congress after a sustained long struggle of two decades. Even if we do not accept any other achievementof the anti-Emergency struggle led by JPthe re-instatement of democracy is a lasting achievement, which is with us even till this day. The first warning of the attack of neo-imperialism, which has been continuing since the last three decades, was given by the socialist leader and thinker Kishen Patnaik.
            The current Indian politics also has two goals : the defence of our Independence from the onslaught of neo-imperialism and the establishment of a socialist society. This work can only be done by associating with the inheritence of the Indian Socialist Movement, the foundation of which was laid along with the establishment of the Congress Socialist Party in 1934. Without this determination and initiative the celebration of the 82nd foundation-day of the CSP will be merely ceremonial. Though there must be somereal sentiment behind such ceremonial program, it has many disadvantages. All those who have been hand-in-glove not only with the Congress and the BJP but with Anna Hazare, Kejriwal-Sisodia, Ramdev-Shree Shree, V. K. Singh etc. are socialists – this sends a totally negative message to the new generation. This is the reason why the youth is not coming out in clear support of the socialist movement. They are apprehensive that mostpoliticians conduct their personal political business in the name of socialism. This business, obviously, runsunder the all pervasive business of neo-liberalism thus strengthening the grip of neo-imperialism.
            At this juncture, the first lines of the poem written by Sarveshwar Dayal Saxena at the demise of Lohia, are worth remembering :

See, how their stock soars!
Those, who promise redemption
 for a fee .

संघर्ष और समाधान: गांधीवादी परिप्रेक्ष्य (Conflict and Conflict Resolution : A Gandhian Perspective)

डीएवी महिला कॉलेज, यमुना नगर, के गांधी अध्‍ययन केंद्र ने मार्च 2013 में Conflict & Conflict Resolution : A Gandhian Perspective विषय पर संगोष्‍ठी का आयोजन किया था। संगोष्‍ठी का बीज-भाषण डा. प्रेम सिंह ने दिया था। उनके कुछ पूर्व प्रकाशित लेखों को फिर से प्रकाशित करने की कडी में यह लेख दिया जा रहा है।

बीज भाषण
(Keynote)

संघर्ष और समाधान: गांधीवादी परिप्रेक्ष्य
(Conflict and Conflict Resolution : A Gandhian Perspective)


प्रेम सिंह

‘‘मेरा दावा उस वैज्ञानिक से जरा भी अधिक नहीं है जो अपने प्रयोग अत्यंत शुद्ध ढंग सेपहले अच्छी तरह सोच-समझ कर और पूरी बारीकी से करता है फिर भी उससे प्राप्त निष्कार्षों को अंतिम नहीं मानता बल्कि उनके बारे में अपना दिमाग खुला रखता है। मैं गहरी आत्म-निरीक्षण की प्रक्रिया से गुजरा हूंमैंने प्रत्येक मनोवैज्ञानिक स्थिति को परखा और उसका विश्‍लेषण किया है। इसके बावजूद मैं अपने निष्कर्षों के अंतिम और अचूक होने के दावे से बहुत दूर हूं।’’(‘आत्मकथा’ की प्रस्तावना से)

‘‘इस किताब (हिंद स्वराज’) में आधुनिक सभ्यता’ की सख्त टीका की गई है। यह 1909 में लिखी गई थी। इसमें मेरी जो मान्यता प्रगट की गई हैवह आज पहले से ज्यादा मजबूत बनी है। मुझे लगता है कि अगर हिंदुस्तान आधुनिक सभ्यता’ का त्याग करेगातो उससे उसे लाभ ही होगा।’’ (1921 में यंग इंडिया’ में लिखी टिप्पणी से)

      संघर्ष-समाधान (conflict resolution) अकादमिक अध्ययन के एक विषय के रूप में काफी अहमियत प्राप्त कर चुका है। विशेषकर अंतर्राष्ट्रीय संबंधों और सामान्य तौर पर राष्ट्रीय संबंधों के अध्ययन में यह विषय उपयोगी माना जाता है। कुछ विश्‍वविद्यालयों में इसके अलग से विभाग भी खुले हैं। शांति अध्ययनपर्यावरण अध्ययनहाशिए की अस्मिताओं का अध्ययन,नागरिक एवं मानवाधिकार अध्ययनजनांदोलनों का अध्ययन आदि के पाठ्यक्रम संघर्ष-समाधान की जरूरत के मद्देनजर बनाए और चलाए जाते हैं। संघर्ष से मुक्ति पाने के लिए सामाजिक,सांस्कृतिकधार्मिक एवं ध्यान व योग के स्तर पर भी काफी प्रयास देखने को मिलते हैं। बड़े नौकरशाहकंपनियों के सीईओनेताखिलाड़ीफिल्मी कलाकार और दिन-रात गला-काट प्रतिस्पर्धा में जीने वाला मध्यवर्ग/नागरिक समाज तरह-तरह के उपायों से संघर्ष के समाधान की तलाश में लगे रहते हैं।
      संघर्ष-समाधान के अकादमिक अध्ययन में गांधी के विचारोंरास्ते और उनके द्वारा किए गए कार्यों को प्रमुखता से शामिल किया जाता है। संघर्ष-समाधान के अन्य रूपों में भी गांधी की स्वीकृति कुछ न कुछ रहती है। मसलनयूएनओ द्वारा 2 अक्तूबर को शांति दिवस घोषित करने से लेकर एक फिल्म के माध्यम से चर्चा में रही गांधीगीरी तक यह देखा जा सकता है। इस तरह के परिदृश्‍य मेंजाहिर हैयह सेमिनार विशेष महत्व रखता है। मैं आयोजकों को इस महत्वपूर्ण और प्रासंगिक विषय के लिए बधाई देता हूं। लेकिन साथ ही यह हिदायत भी कि संघर्ष-समाधान का गांधीवादी चिंतन और रास्ता विचार और व्यवहारदोनों स्तरों पर आसान नहीं है। हम आगे देखेंगे कि गांधी ने आधुनिक औद्योगिक सभ्यता का एक मुकम्मल विकल्प प्रस्तुत किया था और जहां तक संभव हो पाया उसके अनुसार जीवन जीने का प्रयोग किया था। वे अपने को व्यावहारिक आदर्शवादी कहते थे। उनके लिए विचार अथवा अध्ययन की उपयोगिता व्यवहार की कसौटी पर ही मान्य होती थी।
      मानव सभ्यता के हर दौर में संघर्ष विद्यमान रहा है। आमतौर पर संघर्ष को सत्ता-संघर्ष यानी राजनीतिक क्षेत्र का विषय माना जाता है। लेकिन वह सामाजिकआर्थिकसांस्कृतिक,धार्मिक आदि स्तरों पर भी विविध रूपों में हमेशा से सक्रिय रहा है। प्राकृतिक और समाजविज्ञान के विद्वानों में यह बहस का विषय है कि मानव सभ्यता के निर्माण और विकास में सहयोग मूलभूत है या संघर्ष। वह एक लंबी चर्चा हैजो यहां नहीं की जा सकती। अलबत्ता गांधी की मान्यता इस मामले में स्पष्ट है। वे यूरोपीय आधुनिकता के बरक्स मनुष्य की प्रकृति को आवश्‍यक रूप से शांतिप्रिय और परस्पर सहयोगी मानते हैं।  उनके मुताबिक मनुष्य मूलतः अच्छाई की प्रेरणा से परिचालित होता है। 
      जहां तक आधुनिक औद्योगिक सभ्यता का संबंध हैसंघर्ष उसमें बद्धमूल है। विकासवाद,पूंजीवादमार्क्‍सवाद और मनोविश्‍लेषणवाद - आधुनिकता के चारों सिद्धांतों और उन पर आधारित विचारधारा/जीवनदर्शन के मूल में समाज और व्यक्ति की प्रगति के मूलभूत उत्प्रेरक कारक के रूप में संघर्ष अथवा द्वंद्व की स्वीकृति है। डार्विन के विकासवाद में ताकतवर और कमजोर का संघर्षपूंजीवाद में मनुष्य का मनुष्य के साथ और मनुष्य समाज का प्रकृति के साथ संघर्ष;मार्क्‍सवाद में वर्ग-संघर्ष यानी शोषित और शोषक का संघर्षऔर फ्रायड व जुंग आदि के मनोविश्‍लेषणवाद में मनुष्य के चेतन और अवचेतन का संघर्ष स्वीकृत है। जीवन और जगत केवैज्ञानिक सत्य’ संबंधी इन आधुनिक सिद्धांतों में आपस में मान्यताओं व वर्चस्व का संघर्ष भी चलता हैहालांकि इससे यह सच्चाई निरस्त नहीं होती कि इनकी पैदाइश एक ही कोख से हुई है। 
      आधुनिक ज्ञान और विज्ञान संघर्ष को बद्धमूल मानने वाले इन चार सिद्धांतों से होकर गुजरता है। आधुनिकता की अवधारणा की निर्मिति में मूलभूत मानी जाने वाली बुद्धि और तर्क (reason) की प्रकृति का निर्धारण भी इसी से होता है। यानी बुद्धि और तर्क का संघर्षमूलकता के साथ नाभि-नाल संबंध है। आधुनिक प्रगति की अवधारणा और विकास का माॅडल इसी बुद्धि से तय होता है और बदले में उसे ही पोषित करता है। इस तरह आधुनिकता और उस पर आधारित आधुनिक सभ्यता का प्रचलित स्वरूप अपनी प्रकृति में ही संघर्षमूलक है। मनुष्य और मानव सभ्यता के विकास की उत्प्रेरक शक्ति के रूप में संघर्ष की यह मान्यता आधुनिक ज्ञान-मीमांसा में सार्वभौम और सही मानी जाती है। जो ऐसा नहीं मानते उनके चिंतन को आधुनिकता के दायरे से बाहर रखा जाता है। 
      इसी अर्थ में हमने कहा है कि आधुनिक औद्योगिक सभ्यता में संघर्ष बद्धमूल है। यह परिघटना राष्ट्रों के संघर्ष से लेकर समाजोंसभ्यताओंसंस्कृतियोंधर्मोंव्यक्तियों और अस्मिताओं के संघर्ष में स्पष्ट तौर पर दिखाई देती है। आधुनिक औद्योगिक सभ्यता के अभी तक के विभिन्न चरणों में विभिन्न स्तरों पर विभिन्न रूपों में होने वाले संघर्ष के समाधान के प्रयास राजनैतिक और बौद्धिक नेतृत्व द्वारा लगातार किए जाते हैं। ये प्रयास अलग-अलग राष्ट्रों की सरकारों व संस्थाओं और समय-समय पर बनने वाली वैश्विक संस्थाओंमसलनमौजूदा दौर में यूएनओविश्‍व बैंकआईएमएफडब्ल्यूटीओ आदिके जिम्मे होते हैं। नागरिक स्तर पर संघर्ष के समाधान के स्वयंसेवी (एनजीओ) किस्म के प्रयास भी होते हैं। इस समय दुनिया में लाखों ऐसे एनजीओ का जाल फैला है। लेकिन पिछली करीब तीन शताब्दियों में देखा गया है कि संघर्ष-समाधान के निरंतर प्रयासों के बावजूद ऐसा समाधान नहीं निकलता कि संघर्ष आगे फिर सिर न उठाएं अथवा नए संघर्ष पैदा न हों।
      दरअसलसंघर्ष-समाधान के जो प्रयास होते हैंउनमें ज्यादा जोर इस बात पर रहता है कि आधुनिक बुद्धि और तर्क के स्वीकृत उपयोग के आधार पर हर तरह के संघर्ष का जल्दी ही समाधान हो जाएगा और सारी मानवता आगे चल कर सुख-शांति से रहने लगेगी। इस परिप्रेक्ष्य से संघर्ष-समाधान तो नहीं ही होतायुद्धों और नरंहारों से लेकर पर्यावरण विनाश तक की कार्रवाइयों को वैधता मिल जाती है। दूसरे शब्दों मेंसंघर्ष दूर करने के सारे उपाय आधुनिक औद्योगिक व्यवस्था और विकास के माॅडल के अंतर्गत खोजे और लागू किए जाते हैं। उसके विकल्प की तलाश और स्वीकृति का सच्चा प्रयास और इच्छा नहीं दिखाई जाती। उत्तर आधुनिक विमर्शों में आधुनिकता की ज्ञान-विज्ञान संबंधी धारणाओं और उन पर आधारित सार्वभौमिकता का दावा करने वाले महाख्यानों को चुनौती मिली है। लेकिन संघर्ष का समाधान वहां भी नजर नहीं आता है। उत्तर आधुनिक विमर्शों में बहुलता की स्वीकृति और हाशिए की अस्मिताओं को स्वर देने की जो बात होती हैआधुनिक ज्ञान-विज्ञान बुद्धि बहुलताओं और अस्मितावादी स्वरों को भी संघर्ष की धारा में समो  लेती है।   
      गांधी ने आधुनिक औद्योगिक सभ्यता (जिसे अपने समय में वे सौ-पचास वर्ष पुरानी मानते थे और यूरोप में उसके वैकल्पिक चिंतन की सशक्‍त उपस्थिति स्वीकार करते थे) का विकल्प प्रस्तुत किया है। उनके द्वारा प्रस्तुत विकल्प इस मायने में मुकम्मल है कि उसमें गांधी ने विकल्प की विचारधारा और अन्याय के प्रतिरोध की कार्यप्रणाली अथवा रास्ता दोनों बताए हैं;साधन और साध्य को परस्परावलंबित मानते हुए दोनों की एक-सी पवित्रता का स्वीकार किया है;और अपने जीवन में उन विचारों और रास्ते का पालन करने का निरंतर प्रयोग भी किया है। हालांकि वे यह स्वीकार नहीं करते कि उन्होंने पूर्ण सत्य पा लिया है। वे मानते हैं उनकी पहुंच केवल सापेक्ष सत्य तक हो पाई है। स्वराज्य के बारे में भी उनका कहना है कि आजादी के साथ जो मिलने जा रहा है वह उनके सपनों का स्वराज्य नहींइंग्लैंड के संसदीय लोकतंत्र का एक रूप होगा। लेकिन पूर्ण सत्य और स्वराज्य की दिशा में वे निरंतर प्रयासरत रहे।
      गांधी उन चिंतकों में हैं जो मनुष्य और सभ्यता के मूल में संघर्ष नहींसहयोग,सहअस्त्तिवपरस्परता को मानते हैं। सबसे पहले वे प्रकृति और मनुष्य की परस्परता का प्रतिपादन करते हैं। वे पश्चिमी सभ्यता को लालच और मुनाफे से परिचालित मानते हैं। लालच केवल ज्यादा से ज्यादा उपभोग करने का ही नहींज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने का भी होता है। गांधी मानते हैं कि धरती के पास सबका पेट भरने के लिए इफरात हैलेकिन एक के भी लोभ-संतुष्टि के लिए उसके संसाधन कम पड़ जाएंगे। वे बार-बार जोर देकर कहते हैं कि भारत को यूरोप और अमेरिका के विकास का रास्ता नहीं अपनाना चाहिए। साथ ही वे यूरोप और अमेरिका को भी आगाह करते हैं। गांधी ने कहा कि हथियारों के विशाल भंडार जमा करने से सुरक्षा और शांति नहीं बनाए रखे जा सकते। वही हुआ भी। दो महायुद्धों में यूरोप में कत्लोगारत का भयानकतम रूप देखने में आया। उसके पहले यूरोपवासी उपनिवेशित दुनिया में शोषण और दमन का लंबा सिलसिला चलाए हुए थे। 
      राजनीति संघर्ष का जटिल क्षेत्र मानी जाती है। इसीलिए अक्सर राजनीति को छोड़ कर संघर्ष-समाधान के प्रयास किए जाते हैं। राजनीति के विकल्प की भी बात होती है और विकल्प की राजनीति की भी। गांधी ने विकल्प की राजनीति की रचना करने की कोशिश की ताकि राजनीति संघर्ष नहींसहयोग और मानवीय उत्थान का माध्यम बन सके। जयप्रकाश नारायण ने उसे लोकनीति नाम दिया है। आजादी के संघर्ष के दौरान और आजादी मिलने के बाद उन्होंने एक पल के लिए भी खुद सत्ता पाने का विचार नहीं किया। आजादी मिलने पर उन्होंने कांग्रेस को राजनीतिक पार्टी के बजाय लोक सेवक संघ बनाने का सुझाव दिया था। हालांकि उनके राजनीतिक साथियों ने उनके साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया।
गांधी भारत की आजादी के संघर्ष के राष्ट्रीय नेता थे। उन्होंने सबको साथ लेकर वह संघर्ष चलाने का अभूतपूर्व उद्यम किया। गांधी के सामने यह स्पष्ट था कि आजादी के बाद उनकी मान्यता का स्वराज हासिल नहीं होने जा रहा हैवह पार्लियामेंटरी ढंग का स्वराज होगा। लेकिन वे अपनेआध्यात्मिक स्वराज’ के लिए अड़े नहीं। उसे वे अकेले नहींसभी देशवासियों के साथ पाने में सार्थकता समझते थे। लेकिन विभाजन के सवाल पर वे अकेले रह गए और आजादी मिलने के साढ़े पांच महीने बाद उनकी हत्या भी हो गई। ऐसा नहीं है कि जिन्ना ने ही उनकी बात नहीं सुनी। नेहरूजिन्हें उन्होंने अपना वारिस चुना थाने भी उनके सपनों का भारत बनाने की दिशा में काम करने से साफ इनकार कर दिया। लेकिन गांधी ने इसके बावजूद अपना सहयोग,सक्रियता और स्वराज्य पाने की दिशा में आग्रह अंत तक बनाए रखा। खासकर विभाजन के वे इसीलिए विरोधी थे कि धर्म से राष्ट्रीयता का निर्धारण नहीं होता। यह मान्यता वे हिंद स्वराजमें स्पष्टता के साथ व्यक्त कर चुके थे।    
      यह ध्यान देने की बात है कि गांधीवादी चिंतन पर आधारित भारत और दुनिया में एक भी पार्टी या सरकार नहीं रही है। फिर भी दुनिया में सबसे ज्यादा अध्ययन गांधी का हुआ है। यह संघर्ष में फंसी दुनिया में उनके चिंतन और रास्ते की सार्थकता को बताता है। लेकिन संघर्ष-समाधान के लिए उन्हें फुटकर तौर पर नहींपूर्णता में अपनाना होगा। गांधी ने कहा है कि उन्होंने ऐसी कोई नई बात नहीं कही है जो पहले लोगों ने नहीं कही हो। उन्होंने केवल उन बातों की सच्चाई को अनुभव किया है। हिंद स्वराज’ के अंत में दी गई संदर्भग्रंथ सूची में टाल्सटाॅय,शेरार्डकारपेंटरटेलरब्लाउंटथोरोरस्किनमेजिनीप्लेटोमैक्सनोरडोमेनदादाभाई नौरोजी और दत्त की पुस्तकों की सूची दी गई है। बाईबल’, ‘कुरान’, ‘गीता’ से लेकर मार्क्‍स और एंगेल्स तक का अध्ययन उन्होंने किया था। अपने विशाल अध्ययन और सार्वजनिक उद्यम के साथ गांधी आधुनिक औद्योगिक सभ्यता का साक्षात विकल्प बन गए थे। इस रूप में उन्होंने भरसक एक मुकम्मल राजनीतिकआर्थिकधार्मिकसांस्कृतिकशैक्षिक दर्शन प्रदान करने की कोशिश की है।
      गांधी संसार में मौजूद शोषण के विभिन्न रूपोंपरंपरागत और उपनिवेशवाद के कारण पैदा हुएको संजीदगी से देखते हैं और निरंतर उनका प्रतिकार करते हैं। लेकिन प्रतिकार का उनका तरीका हिंसा और हथियार पर नहींअहिंसा और आत्मबल पर आधारित है। असहयोग,सविनय अवज्ञासत्याग्रह और उपवास के जरिए वे संघर्ष को मूल से मिटाने की कोशिश करते हैं। गांधी के आलोचक अक्सर आरोप लगाते हैं कि गांधी का चिंतन और रास्ता भाववादी हैं। इस आरोप का जवाब अनिल नौरिया ने अपने एक महत्वपूर्ण लेख गांधी एंड ह्यूमनिज्म: सम नोट्स आॅन गांधी एंड रीजन’ (http:/www.academia.edu) में विस्तार से दिया है। 
      गांधी ने कहीं भी और कभी भी तर्क का तिरस्कार नहीं किया है। उन्होंने गीता’ समेत दुनिया के सभी धार्मिक शास्त्रों को तर्क की कसौटी पर कसने का आह्वान किया है। यह कहते हुए कि यह तर्क का युग है और हर धर्म के हर सूत्र को तर्क और सार्वभौम न्याय के एसिड टेस्ट से गुजरना होगा। जाहिर हैगांधी की अहिंसाउपवाससत्याग्रहप्रार्थनाअंतःकरण की आवाज जैसे सिद्धांत और मान्यताएं उनके समग्र चिंतन के मद्देनजर तर्क पर आधारित हैं। आमतौर पर हिंसा के पक्षधर अपने को तर्क पर चलने वाला मानते हैं और गांधी की अहिंसा को भाववाद पर आधारित बताते हैं। लेकिन गांधी स्पष्ट करते हैं कि जब आप तर्क से किसी को अपनी बात नहीं समझा पाते तो हिंसा का सहारा लेते हैं। लिहाजातर्क का साथ गांधी नहींउनके आलोचक छोड़ते हैं। गांधी ने तर्कबुद्धि को हृदय के विपरीत नहीं माना हैन ही नैतिकता के। बल्कि वे तर्क की कसौटी हृदय और नैतिकता को स्वीकार करते हैं।
      गांधी के बारे में यह भ्रांत धारणा काफी प्रचलित है कि वे गरीबी की पूजा करने वाले थे। गांधी ग्रामीण सभ्यता को आधुनिकतावादियों की तरह खारिज नहीं करते। बल्कि वे उसके उत्थान की बात करते हैं। उन्होंने गांवों में हर तरह के समूहों के लिएवे चाहे शाकाहारी हो या मांसाहारी,समुचित खाद्यान्न की व्यवस्था के साथ सफाईशिक्षास्वाथ्य और मनोरंजन की व्यवस्था जरूरी बताई है। स्थानीय संसाधनों पर स्थानीय लोगों के हक और प्रबंधन की भी वे वकालत करते हैं। विकेंद्रीकरण और विशाल उद्योगों की जगह लघु व कुटीर उद्योगों का समर्थन वे लोगों को गरीब नहींसंपन्न बनाने के लिए करते हैं। यह सही है कि गांधी समृद्धि को मनुष्य के लिए वर्चू नहीं मानते। वे ईसा मसीह के हवाले से कहते हैं कि सुई के छेद से हाथी भले निकल जाएपर एक समृद्ध व्यक्ति का ईश्‍वर के राज्य में प्रवेश असंभव है।
      भौतिक समृद्धि अगर आत्मबोध की कीमत पर आती है तो वह गांधी को पूरी तरह अमान्य है। आत्मबोध का विकास हो सकता हैआत्मबोध को खोकर विकास का मूल्य नहीं है। क्योंकि भौतिक अथवा किसी भी मूल्य की मीमांसा मनुष्य के आत्म अथवा चेतना में ही होती है। आत्म अथवा चेतना पर गांधी भौतिकता के नियम अथवा बंधन लागू करने के पक्ष में नहीं हैं। इस तरह वे आधुनिकता के पूरे प्रोजेक्ट को उलट देते हैं।  
      हालांकि गांधी के अपरिग्रह और सादगी के सिद्धांत में सामाजिक स्तर पर आर्थिक पक्ष जुड़ा है। उनका मानना है कि प्राकृतिक संसाधनों का उत्तरोत्तर समृद्धि के लिए अंधाधुंध दोहन से लाभ के बजाय आर्थिक हानि इतनी ज्यादा है कि उसकी भरपाई कभी नहीं हो सकती। आधुनिक सभ्यता में एक तर्क प्रकृति के रहस्यों को जानने और खोलने का दिया जाता है। लेकिन वह खोज प्रकृति के अधिकाधिक दोहन की नीयत से परिचालित होती है। गांधी इस तरह की खोजों को न मनुष्यों के लिए उचित मानते हैंन मानवेतर प्राणियों के लिएन ही प्रकृति के लिए।   
      वैश्‍वीकरण ने संघर्ष के नए रूप और आयाम पैदा किए हैं। एक तरफ पराराष्ट्रीय कंपनियां दुनिया के संसाधनों पर कब्जा और अपने बाजार का विस्तार कर रही हैं तो दूसरी तरफ आतंकवादी कार्रवाइयांआतंकवाद के खिलाफ युद्ध और गृहयुद्धों से हिंसा का फैलाव बढ़ता जा रहा है। जाहिर हैइसके साथ हथियारों का कारोबार गरीब देशों की अर्थव्यवस्था की कीमत पर तेजी से बढ़ रहा है। बच्चे तक एक तरफ बंदूकों से हत्याएं कर रहे हैं और दूसरी तरफ मानव बम के रूप में इस्तेमाल हो रहे हैं। यूं तो दूसरे विश्‍वयुद्ध के बाद से ही यूरोप और अमेरिका ने तय कर लिया था कि आगे वे आपस में नहीं लड़ेंगे। मारग्रेट थेचर और रोनाल्ड रीगन के बीच अस्सी के दशक में हुए नवउदारवादी क्रांति के करार के तहत आधुनिक सभ्यता के मौजूदा चरण कारपोरेट पूंजीवाद को बचाने और बढ़ाने के लिए संघर्ष को पूर्व-उपनिवेशों की ओर धकेल दिया गया है।
      ऐसे में गांधी की प्रासंगिकता और बढ़ जाती है। लेकिन गांधी को गंभीरता पूर्वक तभी समझा और अपनाया जा सकता है जब देश-विदेश में उनसे प्रभावित चिंतकों और अन्न्याय का अहिंसक प्रतिरोध करने वालों ने गांधी की जो व्याख्या और विस्तार किया हैउसे गंभीरता से समझा जाए। भारत में मुख्यतः जेपी और लोहिया ने गांधीवाद की उसके समस्त आयामों में गंभीर समीक्षा प्रस्तुत की है। अन्याय के प्रतिरोध के सविनय अवज्ञा - सिवलि नाफरमानी - के गांधी के तरीके के बारे में डा. लोहिया ने कहा है, ‘‘ ... इसलिए हमारे युग की सबसे बड़ी क्रांति कार्यप्रणाली की क्रांति हैएक ऐसे तरीके द्वारा अन्याय का प्रतिकार जिसकी प्रकृति न्यायसम्मत हो। यहां सवाल न्याय के स्वरूप का उतना नहीं है जितना उसे प्राप्त करने के उपाय का। वैधानिक और व्यवस्थित प्रक्रियाएं अक्सर काफी नहीं होती। तब हथियारों का इस्तेमाल उनका अक्रिमण करता है। ऐसा न होमनुष्य हमेशा वोट और गोली के बीच भटकता न रहेइसलिए सिविल नाफरमानी की कार्यप्रणाली संबंधी क्रांति सामने आई है। हमारे युग की क्रांतियों में सर्वप्रमुख है हथियारों के विरुद्ध सिविल नाफरमानी की क्रांतियद्यपि वास्तविक रूप में यह क्रांति अभी तक कमजोर रही है।’’ (‘मार्क्‍सगांधी एंड सोशलिज्म’, भूमिका)
      लोहिया ने पूंजीवाद और साम्यवाद के बरक्स जिस समाजवाद की प्रस्तावना की हैउसमें गांधीवाद का फिल्टर लगाने की बात की है। अपने बौद्धिक और राजनीतिक जीवन में लंबे समय तक मार्क्‍सवादी-समाजवादी रहे जेपी 1957 में सक्रिय राजनीति छोड़ कर सर्वोदय में शामिल हुए। तब गांधी जिंदा नहीं थे। लेकिन उन्होंने गांधी के सर्वोदय के विचार की वैश्विक संदर्भों में सुंदर विवेचना की है। उन्होंने कहा कि कोरा भौतिकवाद नैतिकता और अच्छाई की प्रेरणा नहीं देता। 
      यह भी ध्यान खींचने वाली बात है कि गांधी का प्रभाव और प्रेरणा भारत के बाहर के विद्वानों और नेताओं पर ज्यादा है। सरसरी नजर से देखें तो गांधी से प्रभावित लोगों और आंदोलनों की दुनिया में एक पूरी धारा मौजूद है। कई विद्वानकलाकारपत्रकार और आइंस्टीन जैसे वैज्ञानिक गांधी से गहराई से प्रभावित रहे हैं। नेताओं में अफ्रीका के नेल्‍शन मंडेलाडेस्मंड टूटूघाना के क्वामे न्क्रूमातंजानिया के जूलियस न्ययेरेजांबिया के केनेथ कोंडाअमेरिका के मार्टिन लूथर किंग जूनियरचैकोस्लोवाकिया के वैक्लाव हैवेलपोलैंड के लेश वैलेसाचीन के थ्येनमन चैक के सत्याग्रहीतिब्बत की स्वतंत्रता के अहिंसक आंदोलनकारी बहुत हद तक प्रतिरोध के गांधी द्वारा प्रवर्तित रास्ते पर चलने वाले रहे हैं। भारत में ईरोम शर्मीला पिछले 12सालों से अफ्सपा के विरोध में अनशन सहित सत्याग्रह कर रही हैं। वे बार-बार गांधी की प्रेरणा का हवाला देती हैं।     
      गांधीवाद की इस पूरी धारा को अक्सर नजरअंदाज करके गांधी के समर्थन या विरोध की बात की जाती है। ऐसे में होता यह है कि जो समर्थन होता हैवह उसी आधुनिक सभ्यता के दायरे में होता हैजिसका विकल्प गांधी ने प्रस्तुत किया है। जो विरोध होता हैवह तो आधुनिक सभ्यता की पक्षधरता के चलते होता ही है। दोनों ही मामलों में समग्र गांधी की अवहेलना होती है। समग्रता में ग्रहण किए और समझे बिना न गांधी की स्वीकृति फलप्रद हो सकती हैन अस्वीकृति से कोई अच्छा नतीजा निकल सकता है। 
      आशा है इस सेमिनार में गांधीवादी विकल्प को समग्र रूप में सामने रख कर संघर्ष-समाधान के उपायों पर चर्चा होगी। उस दिशा में अकादमिक काम की चाहे थोड़ी और धीमी प्रगति होलेकिन संघर्ष समाधान के लिए आने वाले समय में उसीसे अपेक्षित परिणाम हासिल हो सकेगा।  

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