Friday, 10 November 2017

स्वर्गीय लोहिया साहब


स्वर्गीय लोहिया साहब 

रामधारी सिंह 'दिनकर’
डॉक्टर राममनोहर लोहिया से मेरी पहली मुलाकात सन् 1934 या 35 में पटना के सुप्रसिद्घ समाजवादी नेता स्वर्गीय फूलन प्रसाद जी वर्मा के घर पर हुई थी और हम लोगों का परिचय मित्रवर श्री रामवृक्ष बेनीपुरी ने करवाया था। उस समय लोहिया साहब मुझे उद्वेगहीन, सीधे सादे नौजवान के समान लगे थे, क्योकि जितनी देर हम साथ रहे, उहोंने बातें कम और काफी विनम्रता से की थीं। उन दिनों पहली पंक्ति के नेता गांधी जी और जवाहरलाल, राजेन्द्र बाबू और सरदार पटेल, सुभाष चंद्र बोस और राजा जी तथा मौलाना आजाद और डॉक्टर अंसारी थे, मगर दूसरी पंक्ति के नेताओं का भी देश में बड़ा नाम था। आचार्य नरेन्द्र देव और जयप्रकाश जी, यूसुफ मेहर अली और अच्युत पटवर्धन, डॉक्टर लोहिया और पं. रामनंदन मिश्र तथा श्री गंगाशरण सिंह और श्री अशोक मेहता, इनमें से प्रत्येक की महिमा तेजस्वी और मेधावी देशसेवक की महिमा थी। आचार्य जी तो उम्र के लिहाज से दोनों पीढिय़ों के बीच की कड़ी के समान थे, मगर नवयुवकों के विचारदाता वे ही थे और हर समय साथ वे नवयुवक समाजवादियों का ही देते थे। लगभग यही भूमिका डॉक्टर सम्पूर्णानंद जी की भी थी। वे भारतीय संस्कृति के पूर्णता होने पर भी समर्थन समाजवाद का करते थे, इससे समाजवादी विचारधारा को बड़ा बल मिलता था। उन दिनों हम लोग विश्वासपूर्वक यह मानते थे कि नेतृत्व का जो बोझ जवाहरलाल जी की पीढ़ी के कंधों से उतरेगा, वह इसी समाजवादी दल के कंधों पर आयेगा। मगर विधि का विधान कुछ और था। यूसुफ मेहर अली तो असमय ही स्वर्गीय हो गये। बाकी जो लोग कायम रहे, उनके भीतर व्यक्तिवाद बहुत अधिक बढ़ गया और वे किसी एक दल के जुए के नीचे अपनी गर्दनें नहीं लगा सके। श्री रामनन्दन मिश्र और श्री अच्युत पटवर्धन को तो आश्रम ने खींच लिया, जयप्रकाश जी सर्वोदय की ओर चले गये और नरेन्द्र देव जी मुख्यत: शिक्षाशास्त्री बन गये। नवयुवकों के इस दल का कोई एक सदस्य अगर आजीवन विस्फोटक बना रहा, तो वे डॉक्टर राममनोहर लोहिया थे।

जिस लोहिया से मेरी मुलाकात सन् 1934 ई. में पटना में हुई थी और जो लोहिया संसद में आये, उन दोनों के बीच भेद था। सन् चौंतीस वाला लोहिया युवक होता हुआ भी विनयी और सुशील था, किन्तु संसद में आने वाले प्रौढ़ लोहिया के भीतर मुझे क्रांन्ति के स्फुलिंग दिखाई देते थे। राजनैतिक जीवन के अनुभवों ने उन्हे कठोर बना दिया था और बुढ़ापे के समीप पहुँचकर वे उग्रवादी बन गये थे। उनका विचार बन गया था कि जवाहरलाल जी से बढ़कर इस देश का अहित और किसी ने नहीं किया है तथा जब तक देश में कांग्रेस का राज है, तब तक देश की हालत बिगड़ती ही जायेगी। अतएव उन्होने अपनी राह बड़ी निर्दयता से तैयार कर ली थी और वह सीधी राह यह थी कि जवाहरलाल जी का जितना ही विरोध किया जाय, वह कम है और कांग्रेस को उखाड़ने के लिए जो भी रास्ते दिखाई पड़ें, उन्हे जरूर आजमाना चाहिए।

स्वराज्य होने पर भी लोहिया जी को कई बार जेल जाना पड़ा। एक बार वे उस जेल में कैद किये गये थे, जिसमें कभी जवाहरलाल जी को काफी दिनों तक कैद रहना पड़ा था। उस जेल में, स्वराज्य के बाद, जवाहरलाल जी की एक मूर्ति स्थापित की गयी थी। जेल से छूटने पर लोहिया जी के मित्रो ने उनसे पूछा, ''कहिए, इस बार का कारावास कैसा रहा?” लोहिया जी ने कहा, ''कुछ मत पूछो! मैं जिस कोठरी में कैद था, उसी के सामने जवाहरलाल जी की मूर्ति खड़ी थी और हर वक्त मेरी नजर उसी मूर्ति पर पड़ जाती थी। जल्दी रिहाई हो गयी, नहीं तो उस मूर्ति को देखते देखते मैं पागल हो जाता।“

वाणी, व्यवहार और कार्यक्रमों में इतनी कठोरता बरतने के बावजूद लोहिया साहब मानते थे कि वे गांधी जी की ही राह पर चल रहे हैं; बल्कि वे मानते थे कि वे गांधी जी के सबसे बड़े अनुयायी हैं। राजनीति की अन्य बातों में उनका यह विश्वास कहाँ तक सही माना जा सकता था, यह विषय चिंत्य है, मगर यह ठीक है कि देश में छाई हुई गरीबी को देखकर उनके हृदय में क्रोध भभकता रहता था और अंग्रेजी को वे एक क्षण भी बर्दाश्त करने को तैयार नहीं थे। जब से लोहिया साहब संसद के सदस्य हुए, संसद में हिन्दी के सबसे बड़े प्रवक्ता भी वे ही हो गये थे। उन्होने संसद में अपने सारे भाषण हिन्दी में दिये और राजनीति की पेचीदा से पेचीदा बातों का उल्लेख उन्होने हिन्दी में ही किया। उनकी विशेषता यह थी कि भारी से भारी विषयों पर भी वे बहुत सरल हिन्दी में बोलते थे। जहाँ तक मुझे याद है, वे सेना और फौज के बदले पलटन कहना ज्यादा पसन्द करते थे। दिल्ली में हिन्दी के विरोधी तरह-तरह के लोग हैं, मगर लोहिया साहब के भाषणो से उन सभी विरोधियों का यह भ्रम दूर हो गया था कि हिन्दी केवल कठिन ही हो सकती है और अंग्रेजी का सहारा लिये बिना हिन्दी में पेचीदा बातों का बखान नहीं किया जा सकता। मेरा ख्याल है, हम सभी हिन्दी प्रेमियों ने संसद में हिन्दी की जितनी सेवा बारह वर्षों में की थी, उतनी सेवा लोहिया साहब ने अपनी सदस्यता के कुछ ही वर्षों में कर दी। टंडन जी के बाद संसद में वे हिन्दी के सबसे बड़े योद्घा थे।

संसद में आते ही विरोधी नेता के रूप में लोहिया साहब ने जो अप्रतिम निर्भीकता दिखायी थी, उसकी बड़ाई खानगी तौर पर कांग्रेसी सदस्य भी करते थे और उस निर्भीकता के कारण लोहिया साहब पर मेरी भी बड़ी गहरी भक्ति थी। सन् 1962 ई. के अक्तूबर में, चीनी आक्रमण से पूर्व, मैंने 'एनार्की’ नामक जो व्यंग्य काव्य लिखा था, उसमें ये पंक्तियाँ आती हैं- 'तब कहो लोहिया महान है, एक ही तो वीर यहाँ सीना रहा तान है।‘ ये दो पंक्तियाँ लोहिया साहब को बहुत पसन्द थीं, गरचे कभी कभी वे पूछते थे कि ये पंक्तियाँ कहीं तुमने व्यंग्य में तो नहीं लिखी हैं। मैं कहता, ''वैसे तो पूरी कविता ही व्यंग्य की कविता है, मगर व्यंग्य होने पर भी आपके 'सीना तानने’ की तो बड़ाई ही होती है।“ एक दिन मजाक मजाक में उन्होने यह भी कहा था कि ''महाकवि, ये छिटपुट पंक्तियाँ काफी नहीं हैं। तुम्हें मुझ पर कोई वैसी कविता लिखनी चाहिए, जैसी तुमने मेरे दोस्त (जयप्रकाश जी) पर लिखी थी।“ मैंने भी हँसी हँसी में ही जवाब दिया था, ''जिस दिन आप मुझे उस तरह प्रेरित कर देंगे जिस तरह मैं जयप्रकाश जी से प्रेरित हुआ था, उस दिन कविता आपसे आप निकल पड़ेगी।“

लोहिया साहब जितने अच्छे वक्ता थे, उससे अधिक बड़े चिंतक थे, मगर उनकी चिंतन पद्घति का साथ देना अक्सर कठिन होता था, क्योकि उनके तर्क निर्मोही और कराल होते थे। कभी कभी ऐसा भी लगता था कि जिस शत्रु पर वे बाण चला रहे हैं, वह वास्तविक कम, काल्पनिक अधिक है। लोहिया साहब जब आखिरी बार अमरीका गये थे, उन्हे लेखकों ने कुछ किताबें भेंट की थीं। जब वे देश लौटे और मैं उनसे मिलने गया, उन्होने उनमें से दो किताबें मुझे उपहार के तौर पर दीं। उनमें से एक किताब कविता की है और उसकी कवयित्री हैं रूथ स्टीफेन। रूथ स्टीफेन ने यह पुस्तक लोहिया साहब को इस अभिलेख के साथ भेंट की थी-'फॉर राम, हूं रिप्स शेडोज इनटु रैंग्स’। अनुमान होता है कि कवयित्री के साथ लोहिया साहब की जो बातें हुईं, उनसे कवयित्री पर यह प्रभाव पड़ा कि यह आदमी बाल की खाल उधेड़ता है और काल्पनिक छायाओं के चिथड़े उड़ा देता है। अमरीका में लोहिया साहब ने एक ऐसा भी बयान दिया था, जिसका मकसद अमरीकी सभ्यता के खोखलेपन पर प्रहार था।

जब से नवीन जी गुजर गये, संसद का केन्द्रीय हाल मेरे लिए सूना हो गया। मगर जब डॉक्टर राममनोहर लोहिया सदस्य बन संसद में आये, मैं सेन्ट्रल हाल की ओर फिर से जाने लगा, क्योकि लोहिया साहब के साथ बातें करने में मुझे ताजगी महसूस होती थी और मजा आता था। वे अक्सर मुझसे पूछते थे, ''यह कैसी बात है कि कविता में तो तुम क्रांतिकारी हो, मगर संसद में कांग्रेस सदस्य?” इसका जो जवाब मैं दिया करता था उसका निचोड़ मेरी 'दिनचर्या’ नामक कविता में दर्ज है-

तब भी मां की कृपा, मित्र अब भी अनेक छाये हैं, 
बड़ी बात तो यह कि 'लोहिया’ संसद में आये हैं। 
मुझे पूछते हैं, ''दिनकर! कविता में जो लिखते हो, 
वह है सत्य या कि वह जो तुम संसद में दिखते हो?” 
मैं कहता हूँ, ''मित्र, सत्य का मैं भी अन्वेषी हूँ, 
सोशलिस्ट ही हूँ, लेकिन कुछ अधिक जरा देशी हूँ। 
बिल्कुल गलत कम्यून, सही स्वाधीन व्यक्ति का घर है, 
उपयोगी विज्ञान, मगर मालिक सब का ईश्वर है।“ 

इस कविता में एक जगह गरीबी की थोड़ी प्रशंसा सी है-

बेलगाम यदि रहा भोग, निश्चय संहार मचेगा, 
मात्र गरीबी छाप सभ्यता से संसार बचेगा। 

यह बात लोहिया जी को बिल्कुल पसन्द नहीं थी। वे निश्छल आदर्शवादी थे और गरीबी के साथ किसी भी प्रकार का समझौता करने को तैयार नहीं थे। ईश्वर का खंडन तो उन्होने मेरे समक्ष कभी नहीं किया, मगर भाग्यवाद या नियतिवाद के वे प्रबल विरोधी थे। बातचीत के प्रसंग में एक दिन मैंने उनसे कहा था कि ''काम और युवा की जिस समस्या से नयी सभ्यता उलझ रही है, उसका ज्ञान प्राचीनों को भी था। जिस मनुष्य के अस्तित्व से समाज का गौरव बढ़ता है, लोगों को ऊँचा उठने की प्रेरणा मिलती है, उसके साधनों के प्रति प्राचीन सभ्यता भी उदार थी। और नहीं तो पंच कन्याएँ पूजनीया कैसे मान ली गयीं?" और अगर क्षुधा की बात लीजिए तो गांधारी ने भगवान् श्री कृष्ण से कहा था- वासुदेव, जरा कष्टं, कष्टं निर्धन जीवनम् पुत्रशोकं महाकष्टं कष्टातिकष्टं क्षुधा

लोहिया साहब ने उसी समय इस श्लोक को कंठस्थ कर लिया और कई दिन बाद भेंट होने पर उन्होने यह श्लोक मुझे सुनाया, शायद यह बताने को कि श्लोक उन्हे भली भाँति याद है। उनके स्वर्ग गमन से कोई एक मास पूर्व मैंने एक दिन उनसे निवेदन किया था-''आप क्रोध को कम कीजिए, वही अच्छा है। देश आपसे बहुत प्रसन्न है। अब आपको छोटी छोटी बातों को लेकर कटुता नहीं पैदा करनी चाहिए। यह देश बड़ा ही कठिन देश है। कहीं ऐसा न हो कि भार जब आपके कन्धो पर आये, तब आपका अतीत आपकी राह का काँटा बन जाय।" उन्होने उदासी में भर कर कहा, ''तुम क्या समझते हो, उतने दिनों तक मैं जीने वाला हूँ? मेरी आयु बहुत कम है, इसलिए जो बोलता हूँ, उसे बोल लेने दो।" कितने आश्चर्य की बात है कि वे अपने अंत को समीप देख रहे थे।
रामधारी सिंह 'दिनकर’

Wednesday, 8 November 2017

विकास का वैकल्पिक मॉडल

विकास का वैकल्पिक मॉडल 

सच्चिदानंद सिन्हा 

वैकल्पिक विकास के मॉडल की बात करना आज उसी तरह अर्थहीन है जैसे कभी यूटोपिया की बात करना समाजवादी आंदोलन के प्रारंभिक काल में था। कोई भी व्यवस्था सामने की हकीकत के संदर्भ में ही बनती है, बनी-बनाई कल्पना के अनुरूप नहीं। ऐसे किसी भी मनचाही ब्लूप्रिंट को लागू करने का प्रयास या तो धर्मांधता को जन्म देता है या तानाशाही को। आज चूंकि पर्यावरण का संकट विविध रूपों में हमारे अस्तित्व के लिए सर्वाधिक महत्व का बन गया है, इसलिए हमें समाज निर्माण की वैसी दिशा अपनानी होगा जो पर्यावरण के लिए कम से कम नुकसानदेह हो। अगर ऐसे परिवर्तन हमारे बूते के बाहर दिखें तो हम स्वयं सामाजिक जीवन को बदली स्थिति के अनुकूल ढालें। एक बुनियादी बात ध्यान में रखना जरूरी है। शोषणमुक्त समाज में पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने की क्षमता गैरबराबर समाज से अधिक होती है, क्योंकि गैरबराबरी से ही दिखावे के लिए बेजरूरत तामझाम पर खर्च जरूरी होता है, और बाजार आश्रित पूंजीवादी समाज में तो बेजरूरी वस्तुओं के उत्पादन व उपभोग की भूमिका इतनी महत्वपूर्ण है कि इसे नियंत्रित करने से पूंजीवादी व्यवस्था ध्वस्त हो सकती है। इससे यह तो जरूर कहा जा सकता है कि प्रकृति से तालमेल बिठा कर चलनेवाली कोई भी व्यवस्था समता के मूल्यों पर ही आधारित हो सकती है। इन बातों को ध्यान में रख एक सीमित संदर्भ में ही विकल्प की बात की गयी है। कुछ सीमाओं व कुछ संभावनाओं का संकेत भर।
वैकल्पिक मॉडल की चर्चा करने से पहले वर्तमान में जो मॉडल चल रहा है, उसके मूल तत्व और उसकी दिशा को समझना जरूरी है और इसके उन परिणामों को भी, जिनसे विकल्प की तलाश जरूरी लगती है। विकल्प कैसा होगा, यह बहुत कुछ इन परिणामों की समझ पर ही निर्भर करेगा। आदमी विधाता की तरह मनमाने ढंग से सृष्टि कर नहीं सकता।
किसी भी समाज की मूल संरचना को समझने के लिए उसके आर्थिक पक्ष को यानी आदमी के भोजन, आवास, परिवहन, उनके आपसी आदान-प्रदान में सहयोग और तनाव के तत्व और इन्हें संचालित करनेवाले बलों की पहचान जरूरी है। लेकिन इसके आगे हर समाज का आदर्श लक्ष्य होता है, जो नियामक शक्ति का काम करता है। यहां एक तरह का खिंचाव (टेलियोलॉजी) होता है। सब कुछ वर्तमान बलों के दबाव और संतुलन से निर्धारित नहीं होता, बल्कि इन बलों के परिप्रेक्ष्य में एक काल्पनिक, पर अटल आकर्षक बिंदु होता है जो लगातार समाज को अपनी ओर खींचता रहता है, यूनानी मिथक के 'सायरनों' की तरह।
मार्क्स ने उत्पादन के साधन और इनसे जुड़े उत्पादन संबंधों को विकास की दिशा का नियामक बता कर एक तरह के तकनीकी निर्यातवाद को जन्म दिया। उन्होंने यह भी मान लिया कि एक स्तर पर तकनीक और इससे जुड़े उत्पादन संबंध में विरोध पैदा होता है और इससे क्रांतिकारी बदलाव की शुरुआत होती है। पूर्व काल में यानी पूंजीवादी व्यवस्था के पहले जैसा भी हुआ हो लेकिन पूंजीवादी व्यवस्था में उत्पादन की तकनीक के उत्पादन संबंध यानी पूंजीपति और मजदूरों के संबंध, उनके बीच के तनाव पर हावी होते दिखते हैं। मजदूर पूंजीपतियों से कुछ बिंदुओं पर तनाव के बावजूद समग्रता में व्यवस्था के मूल्यों को आत्मसात कर उसके विकास के साथ ही अपने हित को जोड़ने लगा है। प्रारंभिक बागी तेवर को छोड़, जिसे समायोजन की पीड़ा कहा जा सकता है, मजदूरों में पूंजीवादी व्यवस्था को पूरी तरह खत्म करने का संकल्प नहीं दिखा। प्रतिस्पर्द्धा आधारित पूंजीवाद मजदूर समेत हर नागरिक को एस्केलेटर की एक सीढ़ी पर खड़ा कर देता है, इस आश्वस्ति के साथ कि वह ऊपर-ऊपर उठता जाएगा। व्यवस्था की सुविधा के हिसाब से तकनीक के नए आयाम विकसित होते रहते हैं। रूस, चीन और वियतनाम, सभी जगह कम्युनिस्ट नेतृत्व में क्रांतियां हुईं; वे तो पूंजीवादी विकास के प्रारंभिक दौर में ही थे और अंत में पूंजीवाद के विरोध की जगह फिर इसे पूर्णता में कबूल कर लिया गया। यह विडंबना ही है कि रूस और चीन की क्रांतियों से अति कठोर तानाशाही राज्य व्यवस्था और अतिउदार पूंजीवादी व्यवस्था पैदा हुई। इस सब से यह जाहिर है कि बीसवीं सदी के शुरू में समतामूलक व्यवस्था की जो आशा जगी थी वह खत्म हो चुकी है। यही नहीं, तकनीकी स्वर्ग पर पहुंचने की राह पर नई बाधाएं खड़ी हो गई हैं। चिंता की बात यह है कि पूंजीवाद के आगे किसी अच्छे भविष्य की कल्पना जो दुनिया को मार्क्सवाद में दिखी थी, संदिग्ध है। इक्कीसवीं सदी के प्रारंभ में हम वैसे ही आश्वस्त नहीं हैं जैसे एक सदी पहले थे।
हम कहां जा रहे हैं, इसके सही आकलन के लिए उस खिंचाव के उद्गम और उसे ऊर्जा देने वाले तत्वों का, जिसका जिक्र पहले हुआ है, आकलन जरूरी है। हमें यह भी देखना है कि यह हमें किसी स्वर्णिम भविष्य की ओर ले जा रहा है या बरबादी के गर्त में।
वर्तमान औद्योगिक समाज के नियामक तत्व अठारहवीं-उन्नीसवीं सदी से परवान चढ़ी औद्योगिक क्रांति और इसके वे आदर्श हैं जो इसकी गति और अतियों को औचित्य प्रदान करते हैं। इसमें, जैसा कि समाजशास्त्री मैक्स वेबर का मानना था, ईसाई धर्म की प्रोटेस्टेंट धारा की इस स्थापना की विशेष भूमिका थी जो व्यावसायिक सफलता को ईश्वरीय अनुकंपा का प्रमाण मानती है। अपने विकास के क्रम में पूंजीवादी व्यवस्था ने तकनीकी दक्षता और इससे जुड़ी व्यावसायिक सफलता को ईश्वरीय अनुकंपा से आगे बढ़ मानव समाज का सर्वोच्च और सर्वजनीन आदर्श बना डाला। इस मान्यता के सार्वभौम होने से आर्थिक गतिविधियों का क्षेत्र एक वैश्विक अखाड़ा बन गया है, जहां सभी खिलाड़ी ऐसी मार-पछाड़ में लगे हैं जिसमें प्रतिस्पर्द्धा की मौत से ऊर्जा ग्रहण कर अधिक बलिष्ठ बना जाता है। इस प्रक्रिया को अंग्रेजी से उधार शब्दों में ''कॉरपोरेट कैनिबलिज्म'' कहा जा सकता है। फिर इससे प्राप्त बल से विजेता दूसरे प्रतिद्वंद्वियों से भिड़ते रहते हैं। अनेक व्यावसायिक कंपनियों के दिवालिया होते जाने और कुछ के बढ़ते जाने का सिलसिला जारी रहता है। शेयर बाजारों में हर रोज होने वाले उतार-चढ़ाव का खेल इस प्रतिस्पर्धा का एक सौम्य प्रतिबिंब है। जीवन के मैदान में इसका दूसरा पहलू दिखाई देता है, जिसमें कारखानों, खदानों तथा खेत-खलिहानों में मजदूर मालिकों से वेतन भत्ते के लिए या रोजगार की गारंटी के लिए युद्धरत हैं, किसान भुखमरी की कगार पर रहने को मजबूर हैं और समय-समय पर आत्महत्या कर अनवरत चलनेवाले जीवन संघर्ष से छुट्टी पा लेते हैं। समय-समय पर अन्न संकट और अकाल से असंख्य मौतें तब भी होती रहती हैं, जब गोदामों में अनाज इस इंतजार में पड़ा रहता है कि अधिक मुनाफे पर उसे बेचा जा सके। इस समग्र प्रक्रिया को एक सुंदर नाम 'उदारीकृत व्यवस्था' दिया गया है।
यह कहा जा सकता है कि व्यवस्था की ये कमजोरियां तो रही हैं और इनकी आलोचना भी होती रही है लेकिन हमें रहना तो है इसी व्यवस्था से तालमेल या संतुलन बना कर। कुछ सुधार के उपाय समझाए जा सकते हैं। कुछ समायोजन की तलाश हो सकती है। पर नयी उत्पादन तकनीक से जो ऊंचा जीवन स्तर इस व्यवस्था ने दिया है वह तो पुराने समय की किसी कल्पना से परे है। यह ठीक है कि ये सुविधाएं अभी थोड़े से लोगों तक सीमित हैं लेकिन आशा जगती है कि देर सबेर ये सुविधाएं सर्वजनीन हो जाएंगी। यही आशा है जो सारे संसार को एक तकनीकजनित स्वर्ग की आकांक्षा में मुग्ध रखती है और व्यवस्था को एक नियोजित पथ पर चलाती रहती है।
इस व्यवस्था के सुधार की दिशा में कुछ अलग उलझन है। इसके सुधार की तलाश व्यवस्था के उद्गम की ही ओर ले जाएगी और वहां बुनियादी सुधार का अर्थ होगा व्यवस्था की मौत। क्योंकि यह मनुष्य और प्रकृति दोनों के शोषण पर पूरी तरह आश्रित है। अर्थशास्त्र के क्षेत्र में कम्युनिस्ट विचारधारा के आदि स्रोत कार्ल मार्क्स ने पूंजी के विकास में (जो इस व्यवस्था का निर्धारक है) श्रम के शोषण की केंद्रीय भूमिका को रेखांकित किया और आदिम संचय (प्रिमिटिव एक्युमुलेशन) की क्रूर प्रक्रिया से लेकर परिष्कृत रूप से स्थापित पूंजीवादी प्रतिष्ठानों में अदृश्य रूप से होनेवाले श्रमिकों के शोषण के विविध रूपों का विशद वर्णन किया। उन्होंने यह भी स्थापित किया कि उत्पादन प्रक्रिया में श्रमिकों के शोषण से प्राप्त श्रम का अधिशेष ही पूंजीपति के मुनाफे का स्रोत है। उत्पादन एवं विपणन में मजदूरों से चुराए गए श्रम के अधिशेष के बराबर के उत्पाद की खरीदारी का टोटा बना रहता है। इसी से पूंजीवाद के अनिवार्य संकट की बात की गई। पर, बार-बार मंदी का संकट झेलकर भी पूंजीवादी व्यवस्था ध्वस्त नहीं हुई। यूरोप का 1968 का छात्र विद्रोह या 'ऑकुपाई वाल स्ट्रीट' जैसे सांकेतिक विद्रोह, व्यवस्था के लिए महज सेफ्टीवॉल्व साबित हुए हैं। पूंजीवादी व्यवस्था अपने अंतर्विरोध के साथ उदारीकरण के नाम से ज्यादा विस्तार पाती रही है। जैसा कि पहले कहा गया है, उलटे रूस, चीन आदि में क्रांति के बाद के काल में पूंजीवाद अधिक शक्तिशाली हो फिर स्थापित हो गया। क्यूबा एक अपवाद है और इसका कारण अपनी विशेष परिस्थितियों के अनुरूप विशालता को छोड़ लघुता की अर्थव्यवस्था की ओर मुड़ना था। पर, यह प्रचलित औद्योगिक विकास की मुख्यधारा के विपरीत आचरण है।
श्रमिकों के शोषण और इससे उपजे बाजार के संकट एवं ट्रेड साइकिल यानी उत्पादन की स्फीति और संकुचन के चक्र की समझ मार्क्स के अर्थशास्त्र में दूसरे विचारों से अधिक विश्वसनीय लगती है। लेकिन अनवरत औद्योगिक विकास की जो संभावना पूंजीवादी तकनीक में दिखाई देती थी उसके प्रति मार्क्स में एक सम्मोहन भी था जो 'कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो' में जाहिर होता है जहां पूंजीवाद की उपलब्धियों को इन शब्दों में गरिमा मंडित किया गया है : 'प्रकृति की शक्तियों को मनुष्य के मातहत करना, मशीन व रसायन शास्त्र को उद्योग और कृषि में लगाना, भाप से समुद्री जहाज, रेल और इलेक्ट्रिक टेलीग्राफ चलाना, पूरे महादेशों को खेती के लायक बनाना, नदियों से सिंचाई के लिए नहर, भूमि से हठात पूरी आबादी का उभर आना, किसी पूर्ववर्ती सदियों की कल्पना में भी सामाजिक श्रम की ऐसी उत्पादकता नहीं रही होगी।'
इस सोच में प्रकृति का निर्बाध दोहन दोषरहित दिखाई देता है और इसी से श्रम के मूल्य सिद्धांत में एक बुनियादी बात नजरअंदाज कर दी जाती है। पूंजी श्रम के दोहन से आती है, यह तो मूल्य के श्रम सिद्धांत से स्पष्ट हो जाता है। यह भी दिखाई देता है कि अंततः संचित पूंजी मजदूरों के श्रम के अधिशेष (सरप्लस लेबर) का संचय है। लेकिन इस बात को नजरअंदाज कर दिया गया है कि संचित श्रम सदा किसी उत्पाद का रूप लेता है और यह उत्पाद प्रकृति से प्राप्त कच्चे माल, खनिज आदि के रूपांतरण से एवं ऊर्जा प्रदान करने वाले कोयला, तेल आदि को जलाकर प्राप्त होता है। दरअसल, अत्याधुनिक उद्योगों में मानव श्रम - जो कि ऊर्जा का ही एक परिष्कृत और संचित रूप है - अपना महत्व खोता गया है और मशीन एवं रोबोट धीरे-धीरे इनका काम संभालने लगे हैं। इस कोण से देखने पर यह तुरंत जाहिर होता है कि चूंकि धरती के संसाधन - चाहे वे कच्चे उद्भिज पदार्थ हों, खनिज हों या ऊर्जा देनेवाले कोयला, पेट्रोलियम या प्राकृतिक गैस - इनके अतिदोहन से कुछ दिनों के बाद संकट पैदा होगा। एक तो इसलिए क्योंकि ये जीवाष्म ईंधन हैं और एक तरह से गड़े खजाने जो उतनी ही जल्दी खतम हो जाएंगे जितनी अधिक मात्रा में इनका दोहन होगा। आज का पर्यावरण संकट इन्हीं प्राकृतिक साधनों के अतिदोहन का परिणाम है और ज्यादा बुनियादी है। इसमें सबसे महत्वपूर्ण ऊर्जा का संकट है, जो ऊर्जा प्रदान करनेवाले साधनों के घटते जाने से और फिर इन्हें जलाने से पैदा कार्बन डाइऑक्साइड तथा अन्य गैसों के वायुमंडल में जमा होने से तथा कथित 'ग्रीन हाउस इफेक्ट' से, जिससे धरती का तापमान बढ़ता जा रहा है, पैदा हुआ है।
इसके परिणाम के बारे में इतना कुछ कहा जा रहा है कि यहां कुछ विस्तार से कहना जरूरी नहीं है। लेकिन प्रारंभिक चिंता के बाद अचानक औद्योगिक रूप से समृद्ध देशों में, जो प्रायः समशीतोष्ण या शीत कटिबंधों में पड़ते हैं, अब इस समस्या को नजरअंदाज किया जा रहा है। इससे यह आशंका पैदा होती है कि अब दो अलग-अलग दुनिया बनने जा रही है। एक संपन्न, प्रायः ऊंचे कटिबंध में पड़नेवाले देशों की और दूसरी गरीब व प्रायः विषुवत रेखा के पास के कटिबंधों में पड़नेवाले देशों की जिनमें हमारा देश भारत भी शामिल है।
यों तो ऊर्जा संकट और प्रदूषण के प्रभाव पर ई.एफ. शुमाखर के 'स्मॉल इज ब्यूटीफुल', और 'क्लब ऑफ रोम' के अध्ययन 'द लिमिट्स ऑफ ग्रोथ' के प्रकाशन के बाद से ही पिछली शताब्दी के उत्तरार्द्ध से चर्चा होने लगी थी। लेकिन इस पर दुनिया के राष्ट्रों द्वारा सक्रिय पहल 1992 के ब्राजील के रियोडीजेनेरो में होने वाले शिखर सम्मेलन से शुरू हुई। इसके बाद 1994 में क्योटो प्रोटोकॉल नाम से एक समझौता हुआ और तय हुआ कि औद्योगिक देश ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन 2012 तक 1990 के स्तर से 5.2 प्रतिशत घटा देंगे। इस पर 1905 में मान्यता की मुहर लगी, लेकिन दुनिया के सबसे बड़े औद्योगिक देश और प्रति व्यक्ति सबसे अधिक उत्सर्जन करने वाले अमेरिका ने इस पर अपनी स्वीकृति नहीं दी। कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन 1990 में 22.7 अरब टन था। क्योटो प्रोटोकॉल में इसे घटाकर 21.5 अरब टन करने का लक्ष्य था। लेकिन 2010 में यह बढ़कर 33 अरब टन हो गया। यानी घटने की बजाए डेढ़ गुना अधिक हो गया। दरअसल, औद्योगिक प्रगति के उन्माद में प्रदूषण फैलाने वाले गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लक्ष्य को सदा नजरअंदाज किया गया। अंततः यह सारा संकल्प गायब हो गया। चीन और भारत जैसे देश तेज विकास के लोभ में इसे नजरअंदाज करते रहे और विकसित देशों को अपने विकास का एक वैकल्पिक क्षेत्र दिखने लगा, जहां धरती का बढ़ता ताप नए भूभागों में विकास का दरवाजा खोलता नजर आने लगा है। अमेरिका तो पहले ही क्योटो समझौते से बाहर था। 2011 में कनाडा क्योटो समझौते से बाहर हो गया। सिर्फ यूरोप के देश कटौती करते रहे। कनाडा का बहाना था कि अमेरिका और चीन घटाने के बजाय उत्सर्जन बढ़ाते रहे हैं।
पर्यावरण की रक्षा से पश्चिमी देशों के पीछे हटने का असली कारण दूसरा लगता है। उत्तरी ध्रुव प्रदेश में विशाल पैमाने पर बर्फ के पिघलने से संसाधनों और यातायात का एक नया मार्ग खुल रहा है जो उनके लिए अधिक मुफीद है। अमेरिका और उत्तरी शीत कटिबंध में पड़ने वाले यूरोप के कुछ दूसरे संपन्न देशों को ध्रुव प्रदेश में बर्फ के पिघलने से खनिजों और प्राकृतिक गैसों का नया खजाना हासिल होने की संभावना है और रूस और दूसरे देश इस क्षेत्र में अपनी सामरिक उपस्थिति बढ़ाने में लगे हैं।
2010 के अगस्त महीने में रूस की एक प्राकृतिक गैस कंपनी 'नोवोटेक' ने एक लाख चौहत्तर हजार टन के एक टैंकर 'बाल्टिका' को उतरी ध्रुव प्रदेश के सागर के रास्ते चीन भेजा। उनका अनुमान है कि इस मार्ग के खुल जाने से यूरोपीय देशों के लिए एक छोटा और सस्ता व्यापारिक मार्ग खुलेगा जो प्रायः शीत कटिबंधों से होकर गुजरेगा। यह पथ मुरमास्क से शंघाई तक 10,600 कि.मी. लंबा है, जबकि स्वेज से होकर वहां पहुंचने का मार्ग 17,700 कि.मी. है। उत्तरी मार्ग के खुल जाने से कनाडा, अमेरिका, यूरोप के सभी देश चीन, जापान आदि भी यानी वे सभी देश जो आधुनिक व्यापार की दृष्टि से महत्वपूर्ण है तात्कालिक रूप से ग्लोबल वार्मिंग से लाभान्वित होंगे। आर्कटिक प्रदेश में खनिजों का विशाल भंडार होने का अंदाज है और इसलिए आर्कटिक के पास के देशों यथा - रूस, नार्वे, डेनमार्क, कनाडा, अमेरिका आदि में अभी ही इन खनिजों पर अधिकार जमाने के लिए राजनयिक होड़ शुरू हो गई है। उत्तर और दक्षिण का जो विभाजन पहले ही से उजागर होता आया है अब अधिक गहराएगा और उत्तर और दक्षिण के देश विकास की एक ही दिशा में आगे और पीछे, धीमे और तेज चलने वाले नहीं रह पाएंगे। तथाकथित विकासशील देशों को बिलकुल अलग राह अपनाने की मजबूरी होगी। शीत और समशीतोष्ण कटिबंधों के देश नए संसाधनों के चुकने तक इस अंधी दौड़ में ही रहेंगे। एक अर्थ में फिलहाल ऊंचे अक्षांशों में बसे देश एक ही तरह की 'एस्कॉर्च्ड अर्थ पॉलिसी' में संलग्न हैं और बाकी दुनिया को जलता छोड़ शीतल प्रदेशों की ओर पलायन की मुद्रा में हैं जहां से वे अपनी जरूरत के हिसाब से बाकी जगहों पर पांव पसारते रहेंगे। हम वैश्विक स्तर पर ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन और प्रदूषण पर कोई रोक नहीं लगा सकते और एक हद तक उससे प्रभावित होते रहेंगे।
लेकिन भारत और तथाकथित विकासशील देश अपने लिए एक अलग राह की तलाश तो कर ही सकते हैं जो प्रकृति पर विजय पाने के बजाय प्राकृतिक शक्तियों और परिवेश से सहयोग और प्रकृतिप्रदत्त जीवन की लय से जोड़ कर चलने के संकल्प पर आधारित हो।
जीवन का आधार पोषाहार है। प्रकृति में सहस्त्राब्दियों से एक ''फूड चेन'' (भोजन श्रृंखला) रही है जिसमें एक स्वाभाविक प्रक्रिया से असंख्य वनस्पतियां और जीव जीवन ग्रहण करते रहे हैं। इस फूड चेन का आधार सूरज से प्राप्त होने वाली ऊर्जा है जो अरबों वर्ष तक प्राप्त होती रहेगी, ऐसा वैज्ञानिकों का अनुमान है। शैवाल से लेकर, घास और विशाल वृक्षों के पत्तों तक सूरज की किरणों से प्रकाश-संश्लेषण की क्रिया होती है जिससे हवा के कार्बन डाइऑक्साइड से कार्बन ग्रहण कर वृक्षों और पौधों की डालियां और तने कार्बन ग्रहण कर सेलुलोज बनाते हैं, जिससे पत्तों और तनों का निर्माण होता है और ऑक्सीजन का उत्सर्जन होता है। इसी प्रक्रिया से असंख्य वनस्पतियों का विकास होता रहा है और इनमें अन्न, फल, मूल लगते रहे हैं। इन्हीं से मनुष्य और अनेक दूसरे जीव पोषण पाते हैं। इन वृक्षों के फूल और पत्तों से अनेक कीट और पतंगे भोजन पाते हैं। फिर इन कीट पतंगों को खाकर मेढ़क या दूसरे कई जीव अपना निरस्तार करते हैं। इनसे मेढ़क जैसे जीव भोजन पाते हैं और फिर इन जीवों से मछलियां आहार पाती हैं और स्वयं मनुष्य या दूसरे जीवों का आहार बनती हैं। वनस्पति से अनेक चौपाये खरगोश और भेड़-बकरियों से लेकर गाय, बैल और घोड़ा और ऊंट तक अपना आहार पाते हैं। फिर इनका शिकार कर शेर, भेड़िये आहार पाते हैं। जब से मनुष्य ने खेती और पशुपालन शुरू किया, कृषि कार्यों के अलावा ये पशु लंबे समय तक उनके भोजन में मांस, दूध आदि प्रदान करते रहे हैं। कुछ सीमित स्थानों पर जलनिकासी और सिंचाई के लिए स्वाभाविक रूप से बहने वाली जलधारा मसलन झरनों या हवा चक्की का भी प्रयोग हुआ, जैसे हॉलैंड में जलनिकासी के लिए। लेकिन ये सब सूरज की ऊर्जा के स्वाभाविक प्रभाव के ही प्रतिफल थे। सहस्राब्दियों से धरती सूरज के ताप की ऊर्जा से लाभान्वित होती रही है ।
फूलों के परागण की प्रक्रिया में सहयोग दे मधुमक्खियां शहद बनाती थीं और तितलियों में कुछ के प्रजनन चक्र द्वरा रेशमी धागों का प्रादुर्भाव हुआ। असंख्य पौधों और वृक्षों से सजावट के विविध रंग और स्वास्थ्य के लिए जरूरी औषध उपलब्ध होते थे। इन सब के पीछे सूरज की अक्षय ऊर्जा थी। इससे न सिर्फ (जैसा ऊपर कहा गया है) प्रकाश संश्लेषण के लिए ऊर्जा मिलती थी बल्कि समुद्र के वाष्पीकरण और हवा को गति देने के लिए ऊर्जा उपलब्ध होती थी।
यह सारी जीवन प्रक्रिया भौतिक शास्त्र के अटल माने गए ''इट्रोपी'' के सिद्धांत को पलटने जैसा चमत्कार रही है। इंट्रोपी का नियम है कि संसार भर में ऊर्जा अबाध रूप से सम स्तर की ओर बढ़ रही है, जहां ऊर्जा के संचरण का अंत हो जाएगा। इसे पूर्ण इंट्रोपी का नाम दिया गया है। लेकिन ''बायोस्फेयर'' में यानी धरती पर व्याप्त जीव जगत में असंख्य जीवों और वनस्पतियों के जीवन चक्र में इसके उलट ऊर्जा विविध स्तरों पर उपस्थित है और उसमें नीचे से ऊपर और ऊपर से नीचे दोनों ही तरफ से ऊर्जा का संचरण जारी रहता है। यह संभव इसलिए हुआ क्योंकि करोड़ों वर्ष से अनेक उथल-पुथल के बावजूद जैव जगत के आस्तित्व में आने के बाद से आज तक इंट्रोपी के नियम का उल्लंघन यानी एक तरह की सविनय अवज्ञा जारी रही है। इंट्रोपी के नियम को अपने छोटे से दायरे में पलटने के लिए जीव जगत को सूरज से ऊर्जा प्राप्त होती है। यह सूरज की ऊर्जा जीव जगत की लघुता के हिसाब से असीम है। जब मनुष्य जीवाश्मों या किसी दूसरे स्रोत से आज मशीन चलाता है तो इंट्रोपी बढ़ाने लगता है। अगर जीवन का कोई रहस्य है तो यही है। उसके पीछे एक व्यापक संवेदनशीलता है जो फूल के एक दल से लेकर मनुष्य तक में मौजूद है। आदमी फूल और तितलियों से लेकर पक्षियों तक पर काव्य की रचना कर सकता है तो इसलिए क्योंकि जीवन के इस रहस्य से सभी बंधे हैं। यह कहा जा सकता है कि मानव चेतना और संवेदना का सारा परिवेश इस फूड चेन पर आधारित है।
ऊपर वर्णित फूड चेन के ठीक उलटा एक दूसरा फूड चेन व्यापक होता जा रहा है। इस फूड चेन के प्रारंभिक सिरे पर अनेक तरह के गोश्त का, जिन्हें विशाल स्लॉटर हाउसों में या पॉल्ट्री फार्मों में कैद गाय, बैल, सूअर एवं मुर्गों को मारकर तैयार किया गया होता है, आयात किया जाता है। फिर यहां से अनेक तरह के वसा में तैयार तले-भुने पकवान, बिस्कुट आदि जिन्हें चटपट खाया जा सकता ह, - लोहे, टीन, एल्मुनियम एवं प्लास्टिक से तैयार डब्बों में भरा जाता है और खर्चीले वाहन से उपभोक्ताओं तक पहुंचाया जाता है। इस प्रक्रिया में व्यवहार में आने वाले हर आइटम को बिजली या गैस की भट्टियों से गुजारा गया होता है, या ऊर्जा गटकनेवाले फ्रिजों में रखा गया होता है। इस फूड चेन की शुरुआत खेत-खलिहान या बागानों से नहीं होती जहां पौधों में अन्न और वृक्षों में फल लगते हैं। बल्कि किसी ख्यात खाद्य व्यवसायी कंपनी जैसे वॉल मार्ट से होती है, और खर्चीले विज्ञापनों एवं परिवहन के माध्यम से इन्हें संसार के हर कोने में फैले उपभोक्ताओं तक पहुंचाया जाता है। इसमें ऊर्जा के अति व्यय से एक तरफ वैश्विक ताप बढ़ता है और दूसरी ओर संपन्न लोगों में मोटापा और उससे जुड़ी बीमारियां, जिनके लिए खर्चीले अस्पतालों की व्यवस्था करनी होती है। विशाल पैमाने पर कोयला, तेल और गैस से बिजली तैयार होती है या फिर बड़ी पनबिजली योजनाओं से जिनमें जंगल और आदमियों के आवास डूबते जाते हैं। डूबते जंगल जो कभी कार्बन डायक्साइड की मात्रा को घटाते थे, अब ऐसे गैसों का उत्सर्जन करते हैं, जिनसे धरती का ताप बढ़ता है।
सबसे चिंता की बात यह है कि नई कृषि व्यवस्था में रोजगार देने की क्षमता नगण्य है। 1885 में अमेरिका की आधी से अधिक आबादी खेती में लगी थी। 1985 में यह संख्या पूरी आबादी के 3 प्रतिशत से कम है। यह भी दिलचस्प है कि जिस चमत्कार से यानी मशीनीकरण से आबादी का सिर्फ 3 प्रतिशत विशाल मात्रा में अन्न उत्पन्न करता है उसी का फल यह भी है कि वहां का काश्तकार विभिन्न यंत्रों पर खर्च किए गए 5 कैलोरी ऊर्जा से सिर्फ 1 कैलोरी देने वाला अनाज पैदा करता है। यानी अपनी क्षमता में यह कृषि ऋणात्मक है। इससे हम समझ सकते हैं कि अमेरिकी कृषि काश्तकारों को भारी सब्सिडी दिए बगैर जिंदा क्यों नहीं रह सकती | इस सब्सिडी को लेकर विश्व व्यापार संगठन में विकासशील देशों से वार्ता में गतिरोध बना हुआ है।
एक और बात ध्यान देने योग्य है | प्रारंभिक कृषि एक प्राकृतिक चक्र से बंधी थी जिसमें घास, वृक्ष आदि का जो अवदान अन्न और मवेशियों को चारा देने में होता था वह काफी कुछ पत्तों, पुआल, भूसा आदि के सड़ने या पशुओं के मल-मूत्र से जमीन में लौट आता था और उत्पादन चक्र को बिना विशेष क्षति के जारी रखता था।
इसके उलट, आधुनिक खेती उर्वरकों विशेषकर नाइट्रोजन देने वाले उर्वरकों पर निर्भरता एक दूसरा संकट करीब ला रही है। नाइट्रोजन प्रदान करने वाले उर्वरक का मूल स्रोत प्राकृतिक गैस है जो परिवहन में खर्च होने वाले ईंधन का भी सबसे आकर्षक स्रोत है क्योंकि यह कोयला या पेट्रोल से कम प्रदूषण फैलाता है। इस तरह हम मोमबत्ती को दोनों छोर पर जला रहे हैं। हमें उर्वरकों के लिए ज्यादा से ज्यादा प्राकृतिक गैस चाहिए और फिर परिवहन के लिए भी। हम कैसे एक संकट से उबरने के लिए दूसरे संकट में फंस रहे हैं, इसका एक उदाहरण पेट्रोलियम के घटते भंडार की आपूर्ति के लिए मक्का, ईख, जेटरोफा आदि से एथानोल तैयार करने का प्रयास है। इन फसलों के लिए भी हमें प्राकृतिक गैस से नाइट्रोजन देनेवाले उर्वरक बनाने पड़ते हैं जो प्राकृतिक गैस की आपूर्ति पर नया बोझ डालता है। ये सब उपाय अंततः समस्याओं को अधिक मुश्किल बनाते हैं।
प्राकृतिक गैस के साथ-साथ दूसरे जीवाश्म ईंधन भी घटते जा रहे हैं। आज दुनिया भर की अनियंत्रित महंगाई के पीछे इन ईंधनों के भंडार का तेजी से घटते जाना है। 1960 के एक या दो डॉलर प्रति बैरल के मुकाबले आज कच्चे पेट्रोल (क्रूड) की कीमत सौ डॉलर के लगभग पहुंच गई है। इनके स्रोत जैसे-जैसे विरल होते जाएंगे ये अधिक महंगे होंगे और चूंकि ये परिवहन से लेकर सभी तरह के उद्योग-धंधों और बिजली उत्पादन के लिए महत्वपूर्ण हैं ये महंगे होते-होते कृषि समेत अधिकांश गतिविधियों के लिए दुर्लभ हो जाएंगे। आज की अनियंत्रित महंगाई भविष्य के ऐसे ही संकट का संकेत हैं, जहां जीवन के सारे व्यापार ठप हो जाएंगे।
इस समस्या का एक राजनीतिक आयाम भी है जो पार्श्वभूमि से व्यवस्था को टिकाये रखता है और इसको विकाराल बनाता है। यह है औद्योगिक क्रांति और पूंजीवाद के विकास के साथ राष्ट्र-राज्यों का आस्तित्व में आना और वृहत आकार ग्रहण करते जाना। औद्योगिक क्रांति के पहले के दिनों में राज्य व्यवस्थाएं या तो राजाओं की साम्राज्य विस्तार की लालसा का प्रतिफल होती थी या कबीलाई आस्मिता और इसके दायरे की पहचान। सत्ताशीन कबीलाई शिखर पुरुष की शक्ति का प्रतीक इनका फैला हुआ राज्य या इनकी शानो-शौकत का इजहार करने वाली सजावट की वस्तुएं होती थीं। लेकिन राज्य के विस्तार का इनकी समृद्धि से सीधा लगाव नहीं होता था। यूरोप में वर्तमान राष्ट्र-राज्यों की पृष्ठभूमि दूसरी से छठीं शताब्दी तक का वह कबीलाई संक्रमण काल है जिसे ''फॉल्केर वांडरूंग'' का नाम दिया गया है। इसके क्रम में विभिन्न हिस्सों से और विशेषकर उतर-पूर्वी हिस्से से फैक, अलिमानी ग्रोथ, विसी ग्रोथ, वांडल, एंग्लोसैक्सन आदि कबीलाई समूह यूरोप के विभिन्न भागों में आकर बस गए और पहले के निवासियों को या तो विस्थापित किया या उन पर वर्चस्व कायम किया।
यूरोप के ज्यादतर राष्ट्र-राज्यों का विकास इन्हीं के इर्द-गिर्द हुआ। औद्यौगिक क्रांति एवं पूंजीवाद के विकास के साथ इन राष्ट्र-राज्यों के दायरे को विस्तृत और सख्त बनाया गया है, जिससे छोटे-छोटे दायरे को तथा पूंजी या दूसरे अवरोधों को निरस्त कर व्यापारिक गतिविधियां बड़े दायरे में हो सकें । नेपोलियन के सैनिक अभियानों के बाद पूरे यूरोप में राष्ट्रवादी उभार आया और राष्ट्र-राज्यों की शक्ति का संकेंद्रीकरण हुआ। इस संपर्क से संसार भर में राष्ट्रीय भावना का उन्मेष हुआ। पूंजीवादी हित से इसका गहरा रिश्ता इस बात में दिखता है कि इधर, हाल के दिनों में राष्ट्र-राज्य के विखंडन की एक स्वाभाविक प्रक्रिया शुरु हुई है। यूरोपीय यूनियन के अस्तित्व में आने के बाद यूरोप के राष्ट्र-राज्यों का आर्थिक सामरिक महत्व नगण्य हो गया है। इससे इनमें कबीलाई आधार पर विखंडन की प्रक्रिया भी शुरू हुई है। सर्विया के वर्चस्व के विरोध में युगोस्लाविया के क्रोट आदि अलग हो गए हैं । चेकोस्लोवाकिया में चेक और स्लोवाक अलग राष्ट्र बन गए, ब्रिटेन में स्कॉट अलग होने के कगार पर हैं।
राष्ट्र-राज्यों का सबसे महत्वपूर्ण और भयावह पक्ष रहा है मिलिट्री इंडस्ट्रियल कॉम्प्लेक्स का अस्तित्व में आना। इससे राज्यों के सैनिक तंत्रों और औद्योगिक प्रतिष्ठानों का एक जबरदस्त गठजोड़ हुआ। 19वीं शताब्दी के अंत से लेकर आज तक राज्यों का स्वरूप चाहे जो रहा हो - राजशाही, तानाशाही या लोकशाही, फौज और इसकी जरूरतों को पूरा करनेवाले एक विशाल औद्योगिक तंत्र का गठजोड़ लगातार मजबूत हुआ है। फौज देश में व विदेश में जरूरत होने पर उद्योगों के हितों की रक्षा के लिए तत्पर रहती है और उद्योग उन्हें नवीनतम आयुध और दूसरी उपयोग की वस्तुएं मुहैया कराते रहते हैं। फौज के आयुधों की मांग औद्यौगिक व्यवस्था की मंदी के संकट से उबारने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। अत्याधुनिक उपकरण पाने की होड़ में हर पांच दस साल में हथियार पुराने पड़ते जाते हैं और कबाड़ का ढेर बन जाते हैं। पर, चूंकि इन्हें बाजार की जरूरत नहीं होती, इनके रहते हुए भी नित्य नए हथियारों का उत्पादन जारी रहता है। यह सुविधा उत्पादन के किसी दूसरे क्षेत्र में नहीं है क्योंकि स्टॉक का बिकना उत्पादन प्रक्रिया के चलते रहने के लिए जरूरी होता है।
आधुनिक औद्योगिक व्यवस्था में राष्ट्र-राज्य और फौज के इस गठजोड़ की चर्चाएं इसलिए की गईं क्योंकि शुमाखर के 'स्मॉल इज ब्यूटिफुल' या गांधी के ग्राम गणराज्य की अवधारणा, जो किसी वैकल्पिक मॉडल की निर्देशिका होगी, वर्तमान फौजी राष्ट्र-राज्य के किसी मॉडल के साथ तालमेल नहीं बैठा सकती। अंतरिक्ष यानों पर अनुसंधान या परमाणु हथियारों का विकास धरती के संसाधनों का सबसे खतरनाक और निरर्थक अपव्यय है। जरूरत वैसे विकास की है जहां प्रकृति के स्वाभाविक रुझान, प्राकृतिक ऊर्जा के प्रवाह और धरती की बनावट के साथ कम से कम छेड़छाड़ हो। यह बड़े राष्ट्रों के ढांचों के साथ नहीं हो सकता। इनमें समय-समय पर होने वाली चुनावी कवायद के बावजूद असली सत्ता एवं संसाधनों का नियंत्रण अपने को लगातार फैलाने वाली नौकरशाही के हाथ में होता है। इसका सहज रिश्ता औद्योगिक प्रतिष्ठानों के उस तंत्र से बैठता है, जिसे प्रख्यात अर्थशास्त्री गैलब्रेथ ने टेक्नोस्ट्रक्चर का नाम दिया था। ये राष्ट्र-राज्य कैसे टूटेंगे, यह अभी दिखाई नहीं देता। लेकिन इसके बगैर अतिलघु इकाइयों में जनता के स्वनिर्णय के अधिकार की बात करने का कोई अर्थ नहीं होता। अभी हम जरूरी कदमों की कल्पना ही कर सकते हैं।
सबसे पहले तो वन प्रदेशों या अन्य जगहों में रहने वाले आदिवासियों के परंपरागत जीवन से कोई छेड़छाड़ नहीं होगी। इन्हें सैलानियों के हस्तक्षेप से भी मुक्त रखना होगा। वनप्रदेशों और आदिवासी-बहुल क्षेत्रों में परिवेश से छेड़छाड़ प्रतिबंधित होगी। मसलन, वनों की कटाई, खनिजों के लिए खनन, उनके लिए असुविधाजनक रेल या रोड का विस्तार, क्षेत्र में बहने वाली जलधारा, झरनों, नदियों आदि के प्रवाह को रोकना आदि। ये सब तो उन लोगों की जीवन पद्धति को बचाने के लिए होंगे जो अब तक आधुनिक औद्योगिक सभ्यता की चपेट में नहीं आए हैं। लेकिन इससे आगे बाकी लोगों के जीवन में भी बड़े परिवर्तन की जरूरत होगी। शहरीकरण की प्रक्रिया को पलटना होगा और कृषि और दूसरे उद्यमों को इस तरह वितरित करना होगा कि कृषि और उद्योग एक दूसरे से जुड़े और करीब हों। गांव में ही, जहां खेती होती है, लोगों की जरूरतों को पूरा करने के लिए लघु और कुटीर उद्योग लगेंगे।
संपन्न देशों के ध्रुव प्रदेशों की ओर रुख करने और ऊर्जा स्रोतों पर उनकी कंपनियों की लगभग पूरी इजारेदारी का असर कुछ वैसा ही हो सकता है जैसा सेवियत यूनियन के विघटन के बाद क्यूबा की अर्थव्यवस्था पर हुआ था। अचानक सोवियत यूनियन से प्राप्त होने वाले सस्ते पेट्रोलियम पदार्थों का मिलना बंद होने और क्यूबाई चीनी के लिए बाजार खत्म हो जाने से उसे अपनी अर्थव्यवस्था को बिलकुल अलग तरह की दिशा देनी पड़ी। वहां के विशाल कृषि फार्मों को तोड़ छोटे सहयोगी फार्मों में बदल दिया गया। नियोजित ढंग से ट्रैक्टरों एवं पेट्रोल से चलने वाली खेती की दूसरी मशीनों की जगह बैलों से चलने वाले उपक्रम विकसित हुए। इसके लिए बैलों की वंशवृद्धि नियोजित ढंग से की गई। शहरों के इर्दगिर्द एवं शहरों में छोटी क्यारियों में साग-सब्जियों की खेती शुरू हुई जिससे लोगों की फल-सब्जी आदि की जरूरतें पूरी की जा सकें। कृषि और उद्योगों के साथ-साथ और आत्मनिर्भर विकास से परिवर्तन का खर्च बिलकुल कम हो गया।
आज के उन्नत औद्योगिक देशों के ध्रुव प्रदेश की ओर पलायन एवं जीवाश्म ऊर्जा के स्त्रोतों के विरल होने एवं उन पर संपन्न देशों की इजारेदारी के कारण अनुपलब्ध होने से आज के तथाकथित विकासशील देशों की भी वैसी ही स्थिति बनने वाली है, जैसी सोवियत यूनियन के विघटन के बाद क्यूबा की बनी थी। क्यूबा की तरह ही इन गरीब मुल्कों को भी यह सुविधा है कि ये अपेक्षाकृत गर्म प्रदेशों में हैं। इनकी ऊर्जा की जरूरत विकसित देशों की तुलना में काफी कम है। इन्हें अपने घरों को गर्म रखने की जरूरत नहीं होती। इन गर्म प्रदेशों में मौसम के हिसाब से जीवन को गर्मी और सर्दी की अतियों से बचाने की पारंपरिक परिपाटी रही है, जिससे हजारों वर्ष से ये लोग जीवनयापन करते रहे हैं। अति ठंडे संपन्न देशों में भी आधुनिक ढंग से सर्दी झेलने का प्रबंध आदर्श नहीं कहा जा सकता। आर्कटिक प्रदेश के एस्कीमो सैकड़ों या हजारों वर्ष से वहां की भीषण सर्दी में सुविधा से जीने की पद्धति विकसित करने में सफल हुए हैं। इसी से अब तक उनके नजदीक के नार्वे, स्वीडन आदि के आधुनिक लोग ग्रीनलैंड में आधुनिक उपक्रमों के आधार पर रिहाइश बना नहीं पाए हैं। आस्ट्रेलिया के मूल निवासी वहां के मुश्किल रेगिस्तानी इलाकों में अपने छोटे घुमंतू गिरोहों में आखेट और कंद-मूल पर आधारित जीवन जी रहे हैं, जहां आधुनिक उपक्रमों से लैस यूरोप वासियों के लिए जीवन असंभव बना हुआ है। मनुष्य की स्वाभाविक प्रतिभा ऐसी है कि वह कठिन से कठिन परिवेश के अनुरूप जीवन पद्धति विकसित कर हजारों वर्षों से अपना अस्तित्व बचाए रहा है। प्रदूषण व ऊर्जा का नया संकट झेलने की नई प्रविधि वे इसी तर्ज पर विकसित कर लेंगे। मानवजनित पर्यावरण के संकट के पहले मानव के पूर्वज ऊष्मता, सूखा और हिमयुग के कई काल झेल चुके हैं। आज पर्यावरण का संकट प्रलय जैसा इसलिए दिखाई देता है क्योंकि अल्पकालिक तकनीकी सफलता ने यह भ्रम पैदा कर दिया था कि मनुष्य प्रकृति की शक्तियों पर विजय प्राप्त कर सकता है और इसे अपने जीवन को इसके अनुकूल ढालने की कोई विवशता इसके सामने नहीं है। इस अहं से मुक्त हो मनुष्य अपने वैज्ञानिक ज्ञान का इस्तेमाल प्रकृति से सहज साहचर्य स्थापित करने में कर सकता है। अगर कोई विकल्प का मॉडल बनेगा तो उसकी वैचारिकी का यही सार तत्व होगा।
एक बात साफ दिखाई देती है। धरती के संसाधनों का संतुलित व जीवन के लिए जरूरी उपयोग तभी संभव है, जब आदमियों के बीच गैरबराबरी न हो और वे पारस्परिक सहयोग पर आधारित छोटी इकाइयों में रहें जैसे कृषि क्रांति के पहले के दिनों में रहते थे। तब जीवन का आधार फल-मूल जमा करना और आखेट था। आज हम उस अवस्था में नहीं जा सकते। उसका सबसे बड़ा कारण हमारी विशाल जनसंख्या है। इस भीड़ भरी दुनिया में खेती ही जीवन का आधार हो सकती है। कृषि छोटी व सहयोगी होगी। यह एक सोची-समझी बाध्यता होनी चाहिए, नहीं तो हम उन पुराने दिनों की तरफ लौट सकते हैं जब गुलामों व कृषकों का सहारा ले विशाल साम्राज्य कायम हुए। समाज में सब कुछ अनियंत्रित नहीं होता। काफी कुछ मूल्यों के आधार पर मनुष्यों की संस्कृति द्वारा निर्धारित होता है। दस हजार साल के इतिहास का सबक हमें ऐसे समाज के सांस्कृतिक निर्धारण में सहायक होगा और अंततः हममें यह विश्वास दृढ़ करेगा कि प्रकृति और समग्र जीव जगत की रक्षा के साथ ही हमारा अपना अस्तित्व भी जुड़ा है। 'स्काई इज द लिमिट' वाला विज्ञापन बकवास है। आदमी धरती से बंधा है और वह तभी तक जीवित रहेगा जब तक यह बंधन कायम है।

(महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के पंद्रहवें स्थापना दिवस (29 दिसंबर, 2012) पर आयोजित कार्यक्रम का उद्घाटन भाषण)

चंद्रशेखर को रिहा किया जाए - सोशलिस्ट पार्टी

6 नवम्बर 2017
प्रेस रिलीज़

चंद्रशेखर को रिहा किया जाए - सोशलिस्ट पार्टी   



      सोशलिस्ट पार्टी भीम आर्मी प्रमुख चंद्रशेखर आजाद 'रावण' की जेल से तुरंत रिहाई और उन पर थोपे गए राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (रासुका) को हटाने की मांग करती है. चंद्रशेखर 9 जून 2017 से सहारनपुर जेल में बंद हैं. वे 9 मई 2017 को सहारनपुर देहात कोतवाली की घटना में हिंसा भड़काने और संपत्ति को नुकसान पहुँचाने संबंधी चार मुकदमों में आरोपी हैं. इलाहाबाद उच्च न्यायलय ने अपने 2 नवम्बर 2017 के फैसले में उन्हें चारों मुकदमों में बेल पर रिहा करने के आदेश दिए. लेकिन इलाहाबाद उच्च न्यायलय से बेल मिलने के अगले ही दिन 3 नवम्बर को उत्तर प्रदेश सरकार ने उन पर (रासुका) थोप दिया. चंद्रशेखर को बेल पर रिहा करने के आदेश देते हुए उच्च न्यायलय ने माना है कि उन पर दायर मुक़दमा राजनीति से प्रेरित हैं. लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार ने न्यायलय की टिप्पणी को अनदेखा कर चंद्रशेखर पर रासुका थोप दिया है. इस कुख्यात कानून के मुताबिक वे एक साल तक जेल से बहार नहीं आ सकते. ज़ाहिर है, सरकार ने चंद्रशेखर को बंदी बनाये रखने की नीयत से रासुका लगाने का फैसला किया है. यह बताता है कि वर्तमान उत्तर प्रदेश सरकार की न्याय प्रणाली और नागरिक अधिकारों में आस्था नहीं है.
      सोशलिस्ट पार्टी का मानना है कि चंद्रशेखर पर रासुका थोपने का फैसला पूरी तरह से राजनीति से प्रेरित है. लिहाज़ा, पार्टी की मांग है कि उच्च उयायालय से मिली बेल के मुताबिक उन्हें तुरंत रिहा किया जाए और उन पर थोपा गया रासुका हटाया जाए.
      1980 में बना राष्ट्रीय सुरक्षा कानून संविधान द्वारा दिए गए नागरिक अधिकारों का सीधा उल्लंघन करता है. सरकारें इस कानून का बार-बार दुरूपयोग करती रही हैं. चंद्रशेखर के मामले में भी इस कानून का दुरूपयोग हुआ है. सोशलिस्ट पार्टी केंद्र सरकार से रासुका को रद्द करने की भी मांग करती है.
      सोशलिस्ट पार्टी इस मामले में चंद्रशेखर की कानूनी सहायता करने को तैयार है. यदि भीम आर्मी के कार्यकर्ता चाहते हैं तो पार्टी के वरिष्ठ सदस्य जस्टिस राजेंद्र सच्चर इलाहाबाद उच्च न्यायलय में वरिष्ठ अधिवक्ता रविकिरण जैन के सहयोग से मदद करेंगे.

जानकी प्रसाद गौड़  
अध्यक्ष
सोशलिस्ट पार्टी (इंडिया) उत्तर प्रदेश
मोबाइल : 9532024994        

Chandrasekhar should be released - Socialist Party

6 November 2017
Press release


 Chandrasekhar should be released - Socialist Party

            The Socialist Party demands immediate release of Chandrashekhar Azad 'Ravan', Bhim Army chief, from prison and removal of National Security Act (NSA) imposed on him. Chandrasekhar is lodged in Saharanpur jail from 9 June 2017. He is an accused in the four cases of inciting violence and property damage in the incident of Saharanpur Dehat Kotwali on 9 May 2017. The Allahabad High Court  ordered his release on bail on 2 November2017 in all the four cases. But on the next day of the bail orders of Allahabad High Court, the Uttar Pradesh Government imposed NSA on him. While ordering Chandrasekhar to be released on bail, the High Court has admitted that the cases filed against him are politically motivated. But the Uttar Pradesh government has imposed NSA on Chandrasekhar ignoring the remarks of the court. According to this draconian law, he cannot come out of jail for a year. The government has decided to slap NSA on Chandrashekhar to keep him in detention. This shows that the present Uttar Pradesh government has no faith in the justice system and citizen rights.

            The Socialist Party believes that the decision to impose the NSA on Chandrasekhar is entirely motivated by political reasons. Since Chandrashekhar  has been granted bail by the High Court, he should be released from the jail immediately and the NSA, imposed on him, should be removed.

            The National Security Act, enacted in 1980, is a direct violation of the civil rights granted by the Constitution. Governments have repeatedly abused this law. This law has also been misused in the case of Chandrasekhar. The Socialist Party urged the central government to repeal the NSA.

            The Socialist Party is ready to extend legal help to Chandrashekhar in this matter. If the activists of Bhim Army wish so, then senior member of the party, Justice Rajindar Sachar, will help in the Allahabad High Court with the support of Senior Advocate Ravikiran Jain.

Janki Prasad Gaur
President
Socialist Party (India) Uttar Pradesh
Mobile: 9532024994

आचार्य नरेंद्रदेव, जिन्होंने कहा था वे पार्टी छोड़ सकते हैं, मार्क्सवाद नहीं

आचार्य नरेंद्रदेव: जीवन और राजनीति
डॉ. प्रेम सिंह 
भारतीय समाजवाद के पितामह कहे जाने वाले आचार्य नरेंद्रदेव का जन्म 31 अक्तूबर 1889 में उत्तर प्रदेश के सीतापुर शहर में हुआ था। आचार्य जी का असली नाम अविनाशी लाल था। बाद में संस्कृत के विद्वान माधव मिश्र ने उनका नाम नरेंद्रदेव रखा। उनके पूर्वज स्यालकोट से उत्तर प्रदेश आकर बसे थे। उनके पिता बलदेव दास सीतापुर में वकालत करते थे। फैजाबाद में उनके दादा कुंजबिहारी लाल का बर्तनों का व्यापार था।
आचार्य जी के जन्म के दो साल बाद दादा का निधन होने पर उनके पिता सीतापुर से फैजाबाद आ गए और वहीं वकालत करने लगे। उनकी स्कूली शिक्षा फैजाबाद में और इतिहास विषय लेकर उच्च शिक्षा इलाहाबाद और बनारस में हुई। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से उन्होंने वकालत की परीक्षा भी उत्तीर्ण की और कुछ समय वकालत की। लेकिन उनका अध्ययनशील मन वकालत में नहीं रमा और 1921 में काशी विद्यापीठ में इतिहास के शिक्षक हो गए। उन्होंने इतिहास, पुरातत्व, धर्म, दर्शन, संस्कृति का गहन अध्ययन किया। हिंदी, संस्कृत, प्राकृत, पाली, जर्मन, फ्रैंच और अंग्रेजी भाषाओं के ज्ञाता आचार्य जी का अध्ययन अत्यंत विशाल और अध्यापन शैली अत्यंत सरल थी।
ऐसा कहा जाता है कि आचार्य जी मूलतः शिक्षक थे। एक राजनेता की महत्वाकांक्षा और रणनीतिक कौशल उनमें नहीं था, न ही उन्होंने उस दिशा में अपनी प्रतिभा को लगाया। लेकिन भारतीय राजनीति में आचार्य जी की भूमिका और ख्याति राष्ट्रीय स्तर पर थी। वे समाजवादी सिद्धांत एवं विचारधारा के अंतर्राष्ट्रीय स्तर के विद्वान थे। हालाँकि उन्होंने अपनी शैक्षणिक और राजनीतिक सक्रियता उत्तर प्रदेश तक ही सीमित रखी। वे काशी विद्यापीठ में अध्यापन करने के बाद 1947 से 1951 तक लखनऊ विश्वविद्यालय के और 1951 से 1953 तक बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के कुलपति रहे। उनका अपना जीवन सादगीपूर्ण था और वे गरीब छात्रों की आर्थिक मदद करते थे।
छात्रों के साथ उनका रिश्ता बहुत ही प्रेरणादायी था। उनके शिष्यों में भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री, कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कमलापति त्रिपाठी और सोशलिस्ट नेता चंद्रशेखर थे।
चंद्रशेखर आचार्य जी की प्रेरणा से राजनीति में आए और अंत तक उन्हें अपना गुरु मानते रहे। एक अध्यापक, चिंतक और समाजवादी नेता के रूप में आजादी और राष्ट्र निर्माण में आचार्य जी का अप्रतिम योगदान है।
आचार्य जी राजनीतिक रूप से कांग्रेस, कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी और आजादी के बाद सोशलिस्ट पार्टी-प्रजा सोशलिस्ट पार्टी में सक्रिय रहे। 17 मई 1934 को पटना के अंजुमन इस्लामिया हाल में संपन्न हुए कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी (सीएसपी) के स्थापना सम्मेलन की अध्यक्षता उन्होंने की थी और वे पार्टी के पहले अध्यक्ष भी बनाए गए थे। भारत के समाजवादी आंदोलन में जिस तरह से डॉ. लोहिया की ‘पचमढ़ी थीसिस’ मशहूर है, उसी तरह आचार्य जी की ‘गया थीसिस’ मशहूर है।
आचार्य जी एक चिंतन-पद्धति के रूप में मार्क्सवाद को मानने वाले थे। एक मौके पर उन्होंने कहा कि वे पार्टी छोड़ सकते हैंमार्क्सवाद नहीं। लेकिन वे रूढ़ीवादी कम्युनिस्ट नहीं थे। यानी सर्वहारा के नाम पर कम्युनिस्ट पार्टी, उसमें भी एक व्यक्ति या गुट की तानाशाही, उन्हें अस्वीकार्य थी। आचार्य जी सोवियत रूस के प्रशासन के अलोतांत्रिक चरित्र और वहां राजनीतिक स्वतंत्रता के अभाव के आलोचक थे। लेकिन वे किसी भी तरह से अमेरिकी पूंजीवादी साम्राज्यवाद के समर्थक नहीं थे। वे मार्क्सवाद और भारत व बाकी पराधीन दुनिया के राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में कोई विरोध नहीं देखते थे। वैसे ही वे किसान और मजदूरों की क्रांतिकारी शक्ति के बीच विरोध नहीं, परस्पर पूरकता देखते थे। वे कृषि क्रांति को समाजवादी क्रांति से जोड़ने के पक्षधर थे। इसीलिए उन्होंने अपना ज्यादा समय किसान राजनीति को दिया। वे किसानों को जाति और धर्म के आधार पर संगठित करने के खतरों को समझते थे। भारत के क्रांतिकारी आंदोलन को भी आचार्य जी द्विभाजित नजरिए से नहीं, स्वतंत्रता संघर्ष के इतिहास की विकासमान धारा की संगति में देखते थे।
आचार्य जी भारत की प्राचीन संस्कृति में सब कुछ त्याज्य नहीं मानते थे। उन्होंने, विशेषकर बौद्ध धर्म व दर्शन का गंभीर अध्ययन किया था। उन्होंने हिंदी में ‘बौद्ध धर्म-दर्शन’ ग्रंथ की रचना की जिसे साहित्य अकादमी ने पुरस्कृत किया। उनके 1936 के एक भाषण का अंश है: ‘‘हमारा काम केवल साम्राज्यवाद के शोषण का ही अंत करना नहीं है किंतु साथ-साथ देश के उन सभी वर्गों के शोषण का अंत करना है जो आज जनता का शोषण कर रहे हैं। हम एक ऐसी नई सभ्यता का निर्माण करना चाहते हैं जिसका मूल प्राचीन सभ्यता में होगा, जिसका रूप-रंग देशी होगा, जिसमें पुरातन सभ्यता के उत्कृष्ट अंश सुरक्षित रहेंगे और साथ-साथ उसमें ऐसे नवीन अंशों का भी समावेश होगा जो आज जगत में प्रगतिशील हैं और संसार के सामने एक नवीन आदर्श उपस्थित करना चाहते हैं।’’ (आचार्य नरेंद्र देव वाड्ंमय, खंड 1)
आजादी के सभी महत्वपूर्ण नेताओं की तरह आचार्य जी का भी जेल आना-जाना लगातार बना रहा। दूसरे महायुद्ध और भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान वे 1940 से लेकर 1945 तक जेल में बंद रहे। सितंबर 1939 में दूसरा महायुद्ध छिड़ने पर अंग्रेजों की भारत को भी युद्ध में शामिल घोषित करने की एकतरफा घोषणा का कड़ा विरोध करते हुए कांग्रेस ने मंत्रिमंडलों से त्यागपत्र दे दिया। 1940 में गांधी जी द्वारा व्यक्तिगत सत्याग्रह शुरू किए जाने पर खराब स्वास्थ्य के बावजूद आचार्य जी उसमें सबसे आगे बढ़ कर शामिल हुए और जेल गए। उन्हें सितंबर 1941 में रिहा किया गया तो गांधी ने उन्हें सेवाग्राम आश्रम में अपने साथ रख कर उनके स्वास्थ्य की देखभाल की। भारत छोड़ो आंदोलन की घोषणा पर अन्य नेताओं के साथ आचार्य जी को भी गिरफ्तार कर लिया गया। वे 15 जून 1945 को रिहा किए गए।
जेल ने एक तरफ दमे से पीड़ित उनके स्वास्थ्य को काफी नुकसान पहुंचाया, वहीं उन्हें लिखने-पढ़ने का अवकाश भी दिया। मसलन, वसुबंधु के ‘अभिधम्म कोष’ का फ्रैंच से हिंदी अनुवाद उन्होंने 1932 में बनारस जेल में शुरू किया और 1945 में अहमद नगर जेल में पूरा किया, जहां वे जवाहरलाल नेहरू समेत कई नेताओं के साथ बंदी थे। अपनी पुस्तक ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ की भूमिका में में नेहरू जी ने कतिपय अन्य साथियों के साथ आचार्य नरेंद्रदेव की विद्वता का लाभ उठाने की बात लिखी है।   
आचार्य जी गांधी जी की तरह नैतिकता को जीवन और राजनीति दोनों की कसौटी मानते थे।
आचार्य नरेंद्रदेव के विचारों की सबसे बड़ी सार्थकता व्यक्ति के नैतिक मूल्यों का समाजिक परिवर्तन की क्रांतिकारी प्रक्रिया से साथ संवर्द्धन कऱने में है। उनका सामजिक परिवर्तन के नैतिक पक्ष पर आग्रह जहां भारतीय दृष्टि से जुड़ा है, सामाजिक शक्तियों के वैज्ञानिक विश्लेषण का आग्रह मार्क्सवादी दृष्टि से। वे निश्चित रूप से मार्क्सवाद की बोल्शेविक धारा में विकसित नैतिकता-निरपेक्ष प्रवृत्ति के विरोधी थे।
1948 में जब सोशलिस्ट कांग्रेस बाहर आ गए और स्वतंत्र सोशलिस्ट पार्टी का गठन कर लिया तो कांग्रेस के टिकट पर जीत कर यूपी विधानसभा के सदस्य बने आचार्य जी और अन्य सोशलिस्टों ने विधायकी से त्यागपत्र दे दिया। हालांकि उस समय न इसकी जरूरत थी, न किसी ने मांग की थी। लेकिन आचार्य जी का मानना था कि कांग्रेस से अलग पार्टी बना लेने के बाद विधानसभा का सदस्य बने रहना नैतिक रूप से उचित नहीं होगा। उपचुनाव में वे खुद और उनके साथी हार गए। सत्ता के मद में चूर कांग्रेस के नेताओं ने चुनाव में आचार्य जी के खिलाफ अत्यंत अशोभनीय प्रचार किया। अलबत्ता खुद नेहरू जी को उनकी चुनावी पराजय पर अचरज हुआ था। 19 फरवरी 1956 को 67 वर्ष की आयु में आचार्य जी का मद्रास में निधन हो गया।
जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कहा,
"आचार्य नरेंद्रदेव की मृत्यु का मायना हममें से बहुत लोगों के लिए और, मुझे लगता है कि देश के लिए, एक महत्वपूर्ण हस्ती के निधन से बहुत बड़ा है. वे दुर्लभ प्रतिभा के व्यक्ति थे - बहुक्षेत्रीय दुर्लभ प्रतिभा - चेतना में दुर्लभ, मन और बुद्धि में दुर्लभ, मस्तिष्क की अखंडता में दुर्लभ, और अन्यथा भी। केवल उनके शरीर का अवसान हुआ है. मुझे नहीं पता कि क्या इस सदन में मौजूद कोई भी व्यक्ति है जो मुझसे ज्यादा लंबी अवधि के लिए उनके जुड़ा था। 40 साल से पहले हम एक साथ आए और हमने असंख्य अनुभवों को आजादी के संघर्ष के दौरान धूल और गर्मी में और जेल-जीवन की लंबी चुप्पी में साझा किया - मैं अब भूलता हूं - चार या पांच साल विभिन्न स्थानों पर हमने एक साथ बिताए, और हमें एक-दूसरे को अच्छी तरह से जानने का मौका मिला; लिहाज़ा, हममें से बहुतों के लिए यह एक गंभीर आघात है, जैसा कि यह हमारे देश के लिए एक गंभीर क्षति है। सार्वजनिक और निजी - दोनों स्तरों पर खोने का एक साथ अहसास, और यह भावना कि एक दुर्लभ प्रतिभा चली गई है और उस जैसा फिर से मिलना बहुत कठिन होगा।"
आचार्य जी को उनकी 127वीं जयंती पर याद करते हुए भारत के वर्तमान राजनीतिक-बौद्धिक परिदृष्य पर अफसोस होता है। आजादी के संघर्ष के आंदोलन में जुटे हमारे नेता कितने विचारशील और गहरी अंतर्दृष्टि वाले थे!
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षक और सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष हैं।)

Thursday, 12 October 2017

JUDICIARY EMBARASSED

JUDICIARY EMBARASSED

Justice Rajinder Sachar, Senior Member Socialist Party (India) 
The Supreme Court Collegium while taking understandable self pride for its open functioning when it put its Resolution dated, 8th October, 2017 on the website to the effect amongst other, “THAT the decisions henceforth taken by the Collegium indicating the reasons shall be put on the website of the Supreme Court, when the recommendations is/are sent to the government of India, with regard to the cases relating to.......elevation to the post of Chief Justice of High Court....”(emphasis supplied) would have still more enhanced its worth had it at the same time given the reasons for not appointing Justice Jayant Patel the senior most judge of Karnataka High Court as its permanent Chief Justice. To me this action of the collegium has with respect embarrassed the judiciary and reminds me of Urdu couplet, “The house got burnt with its own house lantern” is a loose colloquial translation of the Urdu couplet namely “Ghar Ko Aag Lag Gai , Ghar ke Chirag Se”, which shockingly hit me when I read of resignation of Justice Jayant Patel of Karnataka High Court.
Justice Jayant Patel, while he was the acting Chief Justice in the Gujarat High Court, directed CBI investigation in to Ishrat Jahan fake encounter case, which involved the name of Amit Shah, who was then the Home Minister of Gujarat and who is now the President of BJP. All of a sudden Justice Jayant Patel was transferred to High Court of Karnataka in February 2016.

The present Chief Justice of Karnataka High Court was due to retire on 09.10.2017. In usual course Justice Patel should have been made a permanent Chief Justice of Karnataka High Court. But suddenly the Supreme Court collegium orders his transfer to Mumbai High Court (where he would be 3rd in seniority) Hardly had this news made to the public, collegiums changed orders for his transfer to Allahabad High Court where he would be no 2.

One can appreciate Justice Patels anguish and even more his resentment at this unexplained action of the collegiums, so he sent in his resignation to the President. Both Karnataka High Court and Gujarat High Court Bar Associations held protest and boycotted the courts for a day. 

In order to justify the cancellation of transfer of Justice Patel to Mumbai High Court and then transfer to Allahabad High Court immediately thereafter a feeble explanation was got published in the newspaper that in Allahabad he would rank higher than he would have been in Mumbai High Court, (as if the injustice of being denied rightful claim to be the Chief Justice could in any way be lessened).

Justice Patel lived upto the reputation of sitting judges when notwithstanding this grave provocation he refused to answer questions as to the reason for his resignation, citing “institutional discipline”

We should be all praise for Justice Patels dignified response. But this question touches the serious issue of independence of the judiciary and the functioning of the collegiums system. Therefore uncomfortable questions must be asked by the legal fraternity, and those with all respect, must be answered by the collegium in detail because it is well established that the Bench and Bar are the two wheels of same chariot, and any deformity in either of them can only spell the ruin of administration and independence of the Judiciary. More so now that the collegium has decided to swing the pendulum to the other extreme of recording reasons why it has declined to promote the senior most judge to the office of Chief Justice and sharing it with the public.  

May I in this case make a wild guess – could it be that the executive which was bent on harming Justice Patel felt that (in case of Justice Patel agreeing to go to Mumbai) he will at least be in more familiar surroundings, as there is a strong link between Mumbai and Ahmadabad. But as the viciousness of Modi government was determined to keep Justice Patel isolated, which he would be if he were to be sent to Allahabad, a place probably where he may not have gone throughout his life. I feel sad that Executive could have been able to use such an influence on the collegium – may be I am mistaken. If so, a greater reason for the collegium to make those reasons known to public, especially to the Supreme Court Bar Association and other Bar Associations, (especially Karnataka High Court Bar Association.) and Bar Council of India.

This is not in any way provocation for confrontation with the collegium. It is only in recognition of the fact that this incident has shaken the whole Bar in India and all aspects of this case should be publically disclosed and discussed.

I would therefore suggest that Supreme Court Bar Association and Bar Council of India take the lead and jointly discuss out this matter with the Supreme Court collegium to prevent patent arbitrariness, which will make the Executive decision supreme thus harming irretrievably the independence of judiciary.

I hope the collegium does not take offence and make it a matter of undue superiority and take the stand that this matter, notwithstanding that it has disturbed the whole Bar of India, it will not discuss it with the Bar because it is its sole privilege. May I in all humility submit that this assumption proceeds on the belief that the judges are immune to human frailties even while making non-judicial decisions (such as appointments and transfers). This self-glorification is not accepted even by members of the judiciary itself vide expostulation of Justice Frankfurter of the US Supreme Court that “all power is of an encroaching nature. Judicial power is not immune to this human weakness. It must also be on guard against encroaching beyond its proper bounds and not the less so since the only restraint upon it is self-restraint”.

The former Chief Justice AS Anand, reminded the judges that though “our function is divine, the problem begins when we start thinking that we have become divine”.

If I sound a bit harsh, I can only invoke the caveat of Justice Holmes of the U.S. Supreme Court, who said, “I trust that no one will understand me to be speaking with disrespect of the law because I criticize it so freely.....But one may criticize even what one reveres.....And I should show less than devotion, if I did not do what in me lies to improve it.”
Rajindar Sachar
Dated : 09/10/2017
New Delhi


Thursday, 5 October 2017

A Plea for Justice – Women Reservation in Parliament and State Legislatures

Rajindar Sachar

         
Mrs. Sonia Gandhi has written to Prime Minister Modi to get the women Reservation Bill passed in the parliament and is reported to have promised full support. This has led to war of words between Congress and BJP as to whose fault is it that this Bill has not been passed inspite of both parties professing their support for it. One is reminded of a picture in newspaper in March 2010 flashed in all newspapers where, one saw fiercest political opponents Mrs. Sonia Gandhi and Mrs. Sushma Swaraj in a happy embrace in the precincts of the Parliament. What was the occasion for this un-precedent spectacle and close bonhomie.
          Though introduced by former Prime Minister Mr. Deve Gowda for the first time on 12 September 1996 in the Lok Sabha, no concrete action was taken by various governments to effectuate the legislation on Women’s Reservation Bill in Parliament and the state legislatures. Everyone expected the legislation to be passed immediately. In fact, Prime Minister I.K. Gujral promised his earliest priority in passing this Bill but nothing concrete happened.
          When the UPA government came to power in 2004, it announced that the Act would be its first priority. But instead one had total silence on the Bill in the President’s speech on the opening day of the Parliamentary session. This was an open and clear notice to the women activists that the Bill, which had been so proudly projected as a commitment to gender equality, has been quietly buried, and is not likely to be revived in conceivable future.
          Thereafter the Women Reservation Bill was referred to Parliamentary Standing Committee but nothing happened till 2010, when women reservation bill or the constitution (108 th Amendment Bill 2008) which was proposed to amend the Constitution of India to reserve 33% of all seats in the Lower House of Parliament of India, the Lok Sabha, and in all State Legislative Assemblies for women.
          The Rajya Sabha passed the Bill on 9 March 2010. It was this event that made Sushma Swaraj and Sonia Gandhi embrace each other so emotionally. However, the Lok Sabha never voted on the Bill. The Bill lapsed after the dissolution of the 15th Lok Sabha in 2014.
          Every time from 1998 to 2014, whenever Parliament met, women representatives were assured in all solemnity by each major political party that it hoped to pass the Bill in that very session. In reality, this was a tongue-in- cheek operation, because no further progress was made in the matter of women reservation.
          The reality is that male chauvinism will never reserve seats for women because it will take away 1/3 of the present strength of parliament for women. I therefore feel that way out can only be by increasing the strength of Lok Sabha to 750 and making 1/3 of seats to double member constituencies with one seat therein to be reserved for women. Of course the women will be eligible to contest from other than reserved seats and may therefore increase their number beyond 1/3 of the total parliament seats.
          Thus, Lok Sabha membership can be easily increased to 750, with a provision that one woman candidate will mandatorily be elected from those double-member constituencies, and, depending upon the votes received, it may be that even both elected candidate could be women. This law was laid down by the Supreme Court decades ago in former President V.V. Giri’s case. The same principle will apply in the case of elections to the state legislatures.
          Space in Parliament is not a problem. Shivraj Patil, once Union Home Minister, is on record in admitting that space is not a problem if Parliament decides to increase the number of seats.
          The alternative of double member constituencies can be done by amending Article 81(2) of the Constitution by increasing the present strength, which can be easily done if political parties are genuine in their commitment to the Bill.
          I know the Delimitation Commission has already marked the constituencies on the basis of single member seats. But I do not think it is necessary to redraw the constituencies to make it double.
          By a rule of thumb the top one third of the constituencies having the maximum voters in each state could be declared double-member. If the legislators are sincerely genuine they could even submit an agreed list.
At present, of course, a fresh process has again to be initiated in Parliament, because the previous Reservation Bill lapsed with the dissolution of the previous Lok Sabha in 2014.
          In the just finished election propaganda in Uttar Pradesh, not one party, including the so-called seculars, with the exception of the Socialist Party (India), included the item of reservation for women in their election manifestoes. Can such male chauvinism be allowed to exist in our country?
          With the 2019 Parliamentary elections coming, is it not time for the women leadership in both the Congress and BJP, through Sonia Gandhi and Sushma Swaraj to jointly clench their fists and warn all the parties that they will no longer tolerate this injustice and neglect to continue? They may legitimately continue their differences on other subjects in the light of their own respective programmes.
          Now that Sonia Gandhi has promised full support to the Bill, Modi who claims to stand for Swatch Bharat (which is a programme to enhance the dignity of the women in the country) cannot have any objection. His request to Mamata Banerjee and Mayawati should invoke immediate positive response from those leaders.
          Any suggestion by opponents of the bill by creating hurdle by suggesting that women quota be further sub divided by reserving proportionate number of seats for OBC and SC women. Dalits separately is cheap trick to deny women a real share in power.
          Let me point out that biggest supporter of Dalits and backward castes Dr. Lohia had opined that reservation for women was an instrument of social engineering – he could never have suggested splitting the strength of women’s quota by further splitting them in sub quotas.
          At present there are only 61 Women Members in Lok Sabha. The shame of discrimination against women and the masochist attitude of men can only be corrected by providing reservation for women’s share in the legislatures – both in Parliament and State Assemblies.

Rajindar Sachar

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