Thursday, 26 March 2020

राजनीति और धर्म



            मुख्य मुद्दा राजनीति और धर्म के रिश्ते का है | अकसर कहा जाता है कि धर्म को राजनीति से अलग रखना चाहिए । सबसे बड़े राजनेता महात्मा गांधी थे और समाजवादी आंदोलन के सबसे बड़े चिंतक डॉ॰ लोहिया । न महात्मा ने न लोहिया ने धर्म को राजनीति से अलग किया । जहां लोहिया ने “राजनीति को अल्पकालीन धर्म और धर्म को दीर्घकालीन राजनीति” कहा वहीं महात्मा गांधी प्रत्येक दिन प्रार्थना-सभा में जाते रहे और धर्म से अपने को अलग करने की कल्पना तक न करने की बात करते रहे । इन सबके बावजूद न गांधी ने न लोहिया ने देश और राष्ट्र को, भारतीयता को किसी धार्मिक समुदाय से जोड़ा ।
            गांधी थे जो कह सकते थे कि देश का राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री जिन्ना को बना दो, गांधी 1947 में कह सकते थे कि पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपया दे दो, लोहिया कह सकते थे कि जो मुसलमान से नफरत करता है वह पाकिस्तान का हितैषी है और अगर एक मुसलमान की जान बचाने के लिए दस हिंदुओं की जान देनी पड़े, तो दे देनी चाहिए ।
            धर्म तो अपना बनाना सिखलाता है, नफरत करना नहीं, धर्म तो मनुष्य के उन उद्वेगों, चिंताओं, जिज्ञासाओं तथा उलझनों को शांत करने का स्त्रोत है । जिन्हें हजार-हजार भौतिक साधन शांत करने में असफल रहते हैं । सारी संपन्नताओं के बावजूद मनुष्य कभी पूर्णतः तुष्ट नहीं हो पायेगा, उसकी कल्पनाएं छलांग लगाती रहेंगी और वह धर्म का सहारा लेगा ।
            जब तक धर्म संप्रदायवादी, अलगाववादी कट्टरपंथियों के हाथों में रहेगा, इसका गलत इस्तेमाल होता रहेगा । इसलिए धर्म को नकारने कि नहीं बल्कि उसे सहिष्णु रूप में रखने की जरूरत है । इसमें बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक का सवाल कहाँ उठता है ? क्या भारतीय मानस ने कभी विभिन्न पंथों को उस रूप में देखा ? आज जो लोग धर्म के नाम पर राजनीति कर रहे हैं वे न भारतीयता की सेवा कर रहे हैं, न राष्ट्रियता को मजबूत कर रहे हैं । भारतीयता का प्रतीक तो वह भावना थी कि स्वर्ण मंदिर का शिलान्यास एक मुसलमान ने किया था । क्या बिना वह दिन लाए भारत की राष्ट्रियता मजबूत होगी । जब राम मंदिर की नींव एक मुसलमान रखे और मस्जिद का शिलान्यास हिन्दू करे ?
नीरज कुमार

शहीद-ए-आजम भगत सिंह के स्मृति में विशेष



            23 मार्च 1931 को अमर शहीद भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को लाहौर जेल में, जेल के नियमों को ताक पर रखकर प्रातः काल की बजाय सांय 7.00 बजे फांसी दे दिया गया । भगत सिंह को फांसी तो दे दिया गया लेकिन उनके विचारों को नहीं कुचला जा सका । उनका नाम मौत को चुनौती देने वाले साहस, बलिदान, देशभक्ति और संकल्पशीलता का प्रतीक बन गया । ‘समाजवादी समाज की स्थापना’ का उनका सपना शिक्षित युवकों का सपना बन गया और ‘इंकलाब जिंदाबाद’ का उनका नारा समूचे राष्ट्र का युद्धनाद हो गया ।  
            भगत सिंह की यह निश्चित मान्यता थी कि “व्यक्तियों को नष्ट किया जा सकता है, पर क्रांतिकारी विचारों को नष्ट नहीं किया जा सकता । इतिहास इस बात का साक्षी है कि समाज में उठने वाले क्रांतिकारी विचारों को शासकों के दमन-चक्र से नहीं रोका जा सकता ।” विश्व-इतिहास से उदाहरण देते हुए भगत सिंह ने आगे कहा था कि “फ़्रांस के शासकों द्वारा बेस्टील जेल खाने में हजारों देशभक्त क्रांतिकारियों को ठूस देने के बाद भी फ्रांसीसी राज्यक्रांति को नहीं रोका जा सका । सभी देशभक्तों और क्रांतिकारियों को साइबेरिया की जेल में डालने के बाद भी रूसी राज्यक्रांति को नहीं रोका जा सका ।” उनका दृढ़ विश्वास था कि उनके फांसी पर चढ़ जाने के बाद, भारतीय क्रांति और आगे बढ़ेगी, नंगी-भूखी जनता अपनी मुक्ति के लिए अपनी रणभेरी अवश्य बजाएगी और अंततः पूंजीवादी समाज-व्यवस्था का विनाश करके राज्यसत्ता अपने हाथ में संभाल लेगी ।
            भगत सिंह गहन अध्ययन की आवश्यकता को समझते थे और इसलिए उन्होने अपनी पुस्तिका ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ’ में लिखा “अध्ययन यही एक शब्द था जो मेरे दिमाग में हमेशा गूँजता रहता था । अध्ययन, स्वयं को विपक्षियों द्वारा रखे गए तर्को का मुक़ाबला करने के काबिल बनाने के लिए; अध्ययन अपने विश्वास के समर्थन में तर्कों से स्वयं को सज्जित करने के लिए; मैंने अध्ययन शुरू कर दिया । मेरे पुराने विश्वास और धारणाओं में महत्वपूर्ण रूपांतर हुआ ।
            क्लासिकल, मार्क्सवादी साहित्य, राजनीति, अर्थशास्त्र, जीवनी, प्रगतिशील उपन्यास, कविता आदि उनका अध्ययन क्षेत्र और विषय था । भगत सिंह पूरी तरह इस बात के महत्व को समझते थे कि व्यक्तित्व के विकास के लिए ज्ञान की सिर्फ एक संकीर्ण शाखा का नहीं, बल्कि इसके विशाल क्षेत्र का गहन अध्ययन करना आवश्यक है । केवल इसी से एक सचमुच सुसंस्कृत व्यक्तित्व का सर्वतोमुखी विकास सुनिश्चित हो सकता हैं ।
नीरज कुमार

डॉ॰ राममनोहर लोहिया के जन्मदिवस पर विशेष



          
  डॉ॰ लोहिया का जीवन और चिंतन दोनों एक प्रयोग था । यदि महात्मा गांधी का जीवन सत्य के साथ प्रयोग था तो डॉ॰ लोहिया का जीवन और चिंतन समतामूलक समाज की स्थापना के लिए सामाजिक दर्शन और कार्यक्रमों के साथ एक प्रयोग था । वह प्रयोग आज भी अप्रासंगिक नहीं है, बल्कि शेक्सपियर की चतुष्ठपदी के फीनिक्स पक्षी के समान विस्मृतियों की राख से जाज्वल्यमान हो जाता है । वे भारतीय दर्शन के उदार दृष्टिकोण के साथ पाश्चात्य दर्शन की क्रियाशीलता के सम्मिश्रण के आकांक्षी थे । वे मार्क्स और गांधी के मिलन बिन्दु थे, जो सही अर्थ में भारतीय समाजवादी आंदोलन के जन्मदाता थे; जो मूल रूप से मार्क्सवादी दर्शन और पाश्चात्य देशों के समाजवादी आंदोलन से प्रभावित होने के बावजूद दोनों से भिन्न हैं । उनका समाजवादी आंदोलन पूर्णत: भारतीय संदर्भ में और राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन के गर्भ से उद्भूत था ।  जहां पूंजीवाद और साम्यवाद दोनों अप्रासंगिक हो जाते हैं क्योंकि इन दोनों की धारणाओं का नैहर यूरोप है, भारत नहीं ।
            पूंजीवाद के पास भारतीय आर्थिक एवम सामाजिक समस्याओं का निराकरण नहीं है तो उस संदर्भ में डॉ॰ लोहिया के विचार और दर्शन और भी अधिक प्रासंगिक हो जाते हैं । वैचारिक स्तर पर अब यह बात साफ हो जानी चाहिए कि यदि पूंजीवादी दर्शन हो या समाजवादी, पाश्चात्य विचारों में भारत की समस्याओं का निदान नहीं है | इसके लिए हमें डॉ॰ लोहिया की लौटना ही होगा । जब कभी भी और जो भी सरकार भारत में सही अर्थ में एक समता मूलक समाज की स्थापना का प्रयास करेगी, भारतीय समाज को जाति, धर्म और योनि के कटघरे से मुक्त करने का प्रयास करेगी, उनका आदर्श और प्रेरणा स्त्रोत डॉ॰ लोहिया की सप्तक्रांति ही होगी | भले ही कोई उसे महात्मा गांधी का राम राज्य कहे, कोई उसे जयप्रकाश की सम्पूर्ण क्रांति कहे, कोई उसे वर्गहीन और राजयहीन समाज की धारणा कहे, किंतु इन सभी आदर्शों के बीच डॉ॰ लोहिया की सप्तक्रांति की धारणा सर्वाधिक सशक्त और सगुण धारणा है | वक्ती तौर पर इसमें कुछ परिवर्तन और परिवर्द्धन न हो सकते हैं, किंतु आज भी चौखम्बा राज्य और सप्तक्रांति की धारणा मूल रूप से सिर्फ प्रासंगिक ही नहीं है बल्कि साम्यवाद की अप्रासंगिक और पूंजीवाद की असमर्थता सिद्ध हो जाने के बाद भारतीय संदर्भ में नए समाज के निर्माण का यही एक रास्ता है | जब तक जाती के आधार, धर्म के आधार पर, आर्थिक गैरबराबरी आधार पर भारत में शोषण की प्रक्रिया जारी है, इनके खिलाफ लड़ने वालों के प्रेरणा स्त्रोत डॉ॰ लोहिया के विचार और कार्य सदैव रहेंगे |
            डॉ॰ लोहिया एक वैकल्पिक व्यवस्था की खोज में थे | पंचमढ़ी में उन्होने कहा कि “पूंजीवाद उत्पादन तंत्र  तंत्र एशियाई देशों के लिए निरर्थक है क्योंकि यहाँ की जनसंख्या ज्यादा है और उत्पादन साधन कम और अविकसित हैं । यूरोप-अमेरिका की योग्यता के उत्पादन साधन यहाँ बनाने में और इसके लिए पूंजी का संचय करने में पूंजीवाद नाकामयाब साबित होगा ।” साम्यवाद भी दो कारणों से निकम्मा है । पहला, कम्युनिज्म का उत्पादन-तंत्र और जीवनशैली पूंजीवाद के ही समान है । वह भी केंद्रीकृत उत्पादन और उपभोगवादी जीवनशैली में विश्वास करता हैं । अविकसित देशों को विकेंद्रित उत्पादन व्यवस्था और सरल जीवनशैली चाहिए । और दूसरा, साम्यवाद सिर्फ पूंजीवादी उत्पादन के सम्बन्धों को बदलता है, उत्पादन की शक्तियों को बदलने की व्यवस्था नहीं है । तीसरी दुनिया के विकास के लिए न केवल उत्पादन के स्वामित्व में परिवर्तन लाना है बल्कि उत्पादन की शक्तियों को खास नीतियों के मार्फत योग्य भी बनाना है । लोहिया पूंजीवाद और साम्यवाद को एक ही सभ्यता के दो रूप मानते हैं ।
            आजाद भारत ने आर्थिक विकास की जो नीति अपनायी, डॉ॰ लोहिया उसके विरोधी थे । उन्होने यहाँ तक कहा था की हिंदुस्तान नया औद्योगिक नहीं प्राप्त कर रहा है, बल्कि यूरोप और अमेरिका की रद्दी मशीनों का अजायबघर बन रहा है । पश्चिम की नकल करके जिस उद्योगीकरण का इंतजाम हुआ है उससे न तो देश में सही औद्योगिक की नींव पड़ सकती है, न ही अर्थव्यवस्था में आंतरिक शक्ति और स्फूर्ति आ सकती है । सही उद्योगीकरण उसको कहते हैं जिसमें राष्ट्रीय उत्पादन के बढ़ने के साथ गरीबी का उन्मूलन होता जाता है । नकली उद्योगीकरण में असमानता और फिजूलखर्ची के कारण गरीबी भी बढ़ती जाती हैं । पूंजी निवेश की बढ़ती मात्रा, आर्थिक साधनों पर सरकारी स्वामित्व और विकास के लिए संभ्रांत वर्ग की अगुआयी, भारत के पुनरुत्थान के लिए पर्याप्त शर्त नहीं है । विकेंद्रित अर्थव्यवस्था,टेक्नालजी का नया स्वरूप और वैकल्पिक मानसिक रुझान से ही तीसरी दुनिया पूंजीवाद और साम्यवाद से बचते हुए आर्थिक विकास का रास्ता तय कर सकती है ।
            भारत यदि डॉ॰ लोहिया के बताये मॉडेल को अख़्तियार करता तो इसकी आर्थिक प्रगति तेज होती । देश आज मुद्रास्फीति की समस्या में नहीं उलझता यदि इसने ‘दाम बांधों’ की नीति का अनुसरण किया होता । यदि ‘छोटी मशीन’ द्वारा उद्योगीकरण होता तो आर्थिक असमानता, बेरोजगारी और विदेशी ऋण की समस्या खड़ी नहीं होती । यदि उपभोग की आधुनिकता पर छूट न दी गयी होती तो फिजूल खर्ची से देश को बचाया जा सकता था । सैद्धांतिक रूप से डॉ॰ लोहिया की नीति एक वैकल्पिक विकास पद्धति की रूपरेखा है । यदि भारत में डॉ॰ लोहिया की आर्थिक नीति का प्रयोग होता तो देश की आर्थिक व्यवस्था में आंतरिक स्फूर्ति आती जिससे यहाँ का विकास तेज होता, राष्ट्रियता गतिशील होती और यह प्रयोग दूसरे विकासशील देशों के लिए उदाहरण बनता ।
            लोहिया की आर्थिक विकास नीति एक वैकल्पिक आर्थिक व्यवस्था और सामाजिक सिद्धांत की खोज नीति है । इसका आधार छोटी मशीन, विकेंद्रित व्यवस्था और सरल जीवनशैली है । इसका लक्ष्य ऐसी व्यवस्था का निर्माण करना है जो लोगों में स्वतंत्रता और सृजनात्मकता को सुदृढ़ बना सके । यह सिर्फ गांधीवादी ही कर सकता है । लेकिन सरकारी गांधीवादी नहीं जो गांधी को सत्ता प्राप्ति के लिए बाजार में बेचता है । मठी गांधीवादी भी नहीं जो पूंजीवादी व्यवस्था के रहते भी चैन से सो सकता है । यह सिर्फ कुजात गांधीवादी ही कर सकता है जो पूंजीवाद से अनवरत लड़ने की इच्छा शक्ति रखता है और जो करुणा और क्रोध भरे दिलो-दिमाग से हिंसा का प्रतीकार मात्र अहिंसा के लिए नहीं बल्कि समता, संपन्नता और न्याय के लिए करता हैं ।     
नीरज कुमार

कोरोना क्रांति के बाद

अरुण कुमार त्रिपाठी

कोविड-19 अगले छह महीने में खत्म होगा या उससे भी जल्दी, कुछ ठीक ठीक कहा नहीं जा सकता। लेकिन एक बात जरूर है कि इसका प्रभाव खत्म होने के बाद दुनिया का आख्यान वह नहीं रहेगा जो आज है। बीसवीं सदी की महान उपलब्धियों पर गर्व करने वाले इजराइली इतिहासकार जुआल नोवा हरारी और उनसे प्रभावित बौद्धिकों को सोचना होगा कि हमारी अजेय वैज्ञानिक क्षमताएं वास्तव में कितनी अजेय हैं। कुदरत अभी भी हमसे ज्यादा ताकतवर है या हम उससे अधिक शक्तिशाली हो चुके हैं। लोकतंत्र ही सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था है या मनुष्य के लिए अधिनायकवाद की ओर लौटना लाजिमी होगा? आर्थिक वैश्वीकरण उचित है या इनसान को राष्ट्रवाद और क्षेत्रवाद के दायरे में सिमट जाना पड़ेगा? सोचना यह भी पड़ेगा कि हमारे इतिहासकार बीसवीं सदी में जिन समस्याओं का हल तय मान चुके हैं, वे नई सदी में किस रूप में प्रकट होंगी?
कोरोना ने हरारी के इस कथन को चुनौती दे दी है कि अब मानव सभ्यता युद्ध, अकाल और महामारी से तबाह नहीं होगी। उनका दावा था कि हमने इन लंबे समय से चली आ रही इन समस्याओं को जीत लिया है यानी होमो सेपियन्स अब होमो डियस बन चुका है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोरोना से निपटने के लिए जिस तरह 21 दिनों की अभूतपूर्व राष्ट्रीय तालाबंदी करते हुए लोगों के घर के बाहर लक्ष्मण रेखा खींचकर उन्हें अंधविश्वास से दूर रहने की सलाह दी है, लगता है इस समय में वही एक मात्र उपाय है। लेकिन यह उपाय हमारी स्वास्थ्य संबंधी तैयारी और सामान्य जन की आर्थिक जरूरतों की पूर्ति संबंधी सवाल भी खड़ा करते हैं। प्रधानमंत्री ने पहले सार्क देशों से वीडियो कांफ्रेंसिंग की थी और एक ऐसी पहल दिखाई थी जिसमें राष्ट्रवादी कटुता मिटती और मानवता का दायरा फैलता दिख रहा था। लेकिन इस बार उन्होंने स्पष्ट कर दिया है कि सबको अपना बचाव स्वयं ही करना होगा यानी वैश्वीकरण की भावना टिक नहीं पा रही है और उल्टे मीडिया के कुछ हिस्सों में पाकिस्तान द्वेष और अंधविश्वास की चर्चा चिंता पैदा करती है। संकुचित विचारों से संचालित होने वाली राजनीति और मीडिया यह समझ पाने में असमर्थ है कि यह समय सभ्यताओं के संघर्ष के सिद्धांत से बाहर निकलने का है। शायद कोरोना ने हमें यह सोचने का अवसर भी दिया है कि किसी एक समुदाय, देश या आतंकवाद से बड़ा खतरा एक अदृश्य संरचना है जो हमारी सारी प्रगति को नेस्तनाबूद कर सकती है।
लेकिन राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय भाईचारा कायम होने की फिलहाल जो आशा है वह बहुत दूर तक नहीं जाती। इसका सबसे बड़ा प्रमाण चीन और अमेरिका की उस बहस में दिखता है जिसमें अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप इसे चीनी वायरस बता रहे हैं तो चीन इसे अमेरिकी प्रयोग की चूक कह रहा है। चीन इस बात से नाराज है कि इस बायरस के साथ उसके देश का नाम जोड़ा जा रहा है। जबकि अमेरिकी अधिकारी कह रहे हैं कि 1918 में भी तो फ्लू को स्पैनिश फ्लू कहा गया था। इस तरह के आख्यान से राष्ट्रीय कट्टरता से नजदीकी और वैश्वीकरण की उदारता से भी दूरी बनती दिखाई दे रही है। इससे भी बड़ी बहस अमेरिका में जनता के स्वास्थ्य और अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य को लेकर छिड़ गई है। अमेरिकी राष्ट्रपति अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य के लिए चिंतित हैं तो विशेषज्ञ जनता के स्वास्थ्य के लिए।
भय और उम्मीद के इस विरोधाभास के बीच मशहूर दार्शनिक बर्ट्रेन्ड रसेल की `इन्फ्रा रेडियोस्कोप’ कहानी प्रासंगिक लगती है। उन्होंने इस कहानी में परमाणु युद्ध की आशंका के समक्ष मंगल ग्रह से आक्रमण का खतरा उपस्थित किया था। कहानी कहती है कि `इन्फ्रा रेडियोस्कोप’ नामक एक यंत्र से देखा गया है कि मंगल ग्रह के निवासी धरती पर कब्जा करने की योजना बनाते हुए वहां पहुंच गए हैं। वैज्ञानिकों के नाम पर फैलाई गई इस खबर से टकराव को आमादा महाशक्तियां एक हो जाती हैं। लेकिन सद्भाव के लिए तैयार किए गए इस षडयंत्र का भंडाफोड़ हो जाता है और फिर महाशक्तियां आपस में टकराकर नष्ट हो जाती हैं। यह कहानी मनुष्य जाति को एक सीख देने की कोशिश करती है और सचेत करती है कि उसके विनाश का खतरा सन्निकट है। अगर वह अपनी वफादारियों और प्राथमिकताओं को नए तरीके से परिभाषित नहीं करती तो उसे रोक पाना कठिन है। इसी तरह की चेतावनी राशेल कार्सन का उपन्यास `द साइलेंट स्प्रिंग’ भी देता है। वे कीटनाशकों के प्रभाव में हो रहे प्रकृति के विनाश की कल्पना करती हैं और कहती हैं कि एक दिन ऐसा बसंत आएगा जहां कोयल नहीं कूकेगी। नाभिकीय हथियारों से पैदा हो रहे ऐसे ही खतरे के प्रति जान हरसे अपनी रचना `हिरोशिमा’ में आगाह करते हैं। उनका मानना है कि नाभिकीय हथियार सिर्फ खतरा ही नहीं हैं बल्कि हमारे लिए नरक का द्वार खोलते हैं।
मानव निर्मित हथियारों, रसायनों या दूसरे ग्रह के आक्रमणों के इन खतरों की रोशनी में हम कोरोना के मौजूदा खतरे को देख सकते हैं। यूरोप जहां पर लोकतंत्र की मजबूत जड़े देखी जाती हैं और कहा जाता है कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद वह तानाशाही की आशंका से बहुत दूर चला गया है, वहां युवाओं और बूढ़ों के इलाज में भेदभाव मानवाधिकारों और राज्य के कल्याणकारी चरित्र की अलग ही कहानी कहता है। भारत में भी राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के अस्पताल के वार्ड से निकल कर भागने या कूद कर आत्महत्या करने की कहानी भी इलाज के नाम पर नागरिक अधिकारों के दमन और उससे विद्रोह की कहानी कहते हैं। कोरोना के खत्म होने के बाद यह बहस जरूर उठेगी कि राज्य को स्वास्थ्य के सवाल पर अपने नागरिकों को कितनी स्वतंत्रता देनी चाहिए और कहां तक उसे नियंत्रित करना चाहिए। यह भी बहस उठेगी कि इसे उन देशों ने ज्यादा अच्छी तरह नियंत्रित किया जहां तानाशाही व्यवस्था थी या उन देशों ने जहां लोकतंत्र था। निश्चित तौर पर इस दौरान इटली बनाम चीन और चीन बनाम ब्रिटेन बनाम रूस की बहस भी उठेगी। यह विवाद उस बहस को नया रूप देगा जो उदारीकरण की विफलता के साथ चल रही है और अर्थव्यवस्था के राज्य संरक्षण पर जोर दे रही है।
यही वजह है कि `हाउ डेमोक्रेसी इन्ड्स’ में डेविड रैन्सीमैन लोकतंत्र को खत्म करने के तीन कारणों में एक कारण विनाश को भी बताते हैं। बाकी दो कारण विद्रोह और तकनीकी अधिपत्य हैं। अभी यह कहना कठिन है कि कोराना प्रकृति प्रदत्त विनाश या महामारी है या मानव निर्मित। पर इस बारे में दोनों तरह के सिद्धांत चल रहे हैं। जाहिर है दुनिया की अर्थव्यवस्था को जितनी क्षति मंदी से हुई है उससे कहीं अधिक क्षति इस महामारी से होने जा रही है। इस बीमारी ने वैश्वीकरण के मानवविरोधी स्वरूप को उजागर करने के साथ वैधता प्रदान की है। अब वैश्वीकरण के क्रूर योजनाकारों के लिए यह कहना आसान हो जाएगा कि पूंजी और प्रौद्योगिकी का आदान प्रदान तो ठीक है लेकिन मनुष्यों का निर्बाध आवागमन निरापद नहीं है। यानी दुनिया का वैश्वीकरण फिर पूंजी और प्रौद्योगिकी का वैश्वीकरण होकर रह जाएगा और बीसा व पासपोर्ट के नियमों के कड़े बनाए जाने की ओर जाएगा।
इस बीच अगर अपने अपने देशों को बचाने में पूरी ताकत से जुटे और गुंजाइश मिलने पर दूसरे देशों की मदद करने की पहल से एक उम्मीद बनती है तो अपने को वायरस के वैक्सीन के परीक्षण के लिए प्रस्तुत करते वाशिंगटन राज्य के नील ब्राउनिंग के त्याग से और भी बड़ा संदेश जाता है। नील ब्राउनिंग पूरी दुनिया की चिंता करते हुए इस वायरस का जल्दी से जल्दी अंत चाहते हैं। यह दोनों उम्मीदें मानव सभ्यता की पिछली सदी के आविष्कारों से समृद्ध होती हैं। एक आविष्कार सूचना प्रौद्योगिकी का है और दूसरा आविष्कार है जैव प्रौद्योगिकी का। वे मानव प्रजाति के लिए कहर ला सकते हैं और उसके लिए अमरता की खोज भी कर सकते हैं।
इस दौरान मनुष्य अभय और सहकारिता के सिद्धांत में अटूट विश्वास भी विकसित कर सकता है और भय व संदेह का यकीन भी पुख्ता कर सकता है। कोरोना वायरस ने मानवता के समक्ष यह चुनौती प्रस्तुत की है कि वह साजिश की राजनीति से निकलकर सद्भाव और सहयोग का मजबूत आख्यान कैसे रचे। समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के मूल्य चुके नहीं हैं। दुनिया को उनकी जरूरत है और मानवता का कल्याण उसी रास्ते पर चलकर ही होगा। जरूरत उन्हें नए सिरे से परिभाषित करने की है। अगर हम वैसा कर पाएंगे तो बचे रहेंगे, वरना असमानता, गुलामी और शत्रुता के वायरस कोविड-19 से मिलकर हमला करने को तैयार बैठे हैं।


Published : Rashtriya sahara Newspaper

Friday, 20 December 2019

हिन्दू और मुसलमान

डॉ. राममनोहर लोहिया

(3 अक्टूबर 1963 को हैदराबाद में हिंदू और मुसलमान विषय पर डॉ. राम मनोहर लोहिया ने एक नए संदर्भ में इतिहास की व्याख्या की थी। नीचे दी गई यह व्याख्या आज भी वह प्रासंगिक है।) 

हिन्दू और मुसलमान हैदराबाद में करीब-करीब बराबर हैं। हिन्दू-मुसलमान और हिन्दुस्तान-पाकिस्तान, इन दो सवालों को लेकर दिमाग सुधर पाये, तो गजब हो सकता है। दिमाग सुधारने के लिए मेरी राय में सबसे जो बड़ी चीज है, वह नजर, जिससे इतिहास की तरफ देखा जाता है। वैसे तो हिन्दू-मुसलमान में फर्क धर्म का है, लेकिन उस पर मैं कुछ नहीं कहूंगा। हिन्दू चाहे जितना उदार हो जाए और फिर भी अपने राम और कृष्ण को मोहम्मद से थोड़ा अच्छा समझेगा ही और मुसलमान चाहे जितना उदार हो जाए, अपने मोहम्मद को राम और कृष्ण से थोड़ा अच्छा समझेगा ही। लेकिन इतना ज्यादा नहीं होना चाहिए। उन्नीस-बीस से ज्यादा का फर्क न रहे, तो दोनों का मन ठीक हो सकता है। इतना तो मुझे धर्म के बारे में कहना है, इससे ज्यादा नहीं। 
असल चीज है, इतिहास पर कौन -सी नजर रखें क्योंकि आखिर जब हम हिन्दू और मुसलमान की बात करते हैं, तो हवा में नहीं, अरब के मुसलमान की नहीं, हिन्दुस्तान के मुसलमान तो आखिरकार हिन्दू का भाई है, अरब का मुसलमान तो है नहीं। जब रिश्ता नहीं, तो समझ ही नहीं पायेगें। दो दिन रह जाएं, तो कुढ़न लग जायेगें, एक दूसरे को गाली नहीं दे पायेगें। आम तौर से जो भ्रम हिन्दू और मुसलमान, दोनों के मन में है, वह यह कि हिन्दू सोचता है, पिछले 700-800 बरस तो मुसलमानों का राज रहा, मुसलमानों ने जुल्म किया और अत्याचार किया, और मुसलमान सोचता है, चाहे वह गरीब-से-गरीब क्यों न हो, कि 700-800 बरस तक हमारा राज था, अब हमको बुरे दिन देखने पड़ रहे हैं। 
हिन्दू और मुसलमान दोनों के मन में गलतफहमी धंसी हुई है। यह सच्ची नहीं है। अगर सच्ची होती, तो इस पर मैं कुछ नहीं कहता। असलियत यह है कि पिछले 700-800 बरस से मुसलमान - ने - मुसलमान को मारा है। मारा है, कोई रूहानी अर्थ में नहीं, जिस्मानी अर्थ में मारा है। तैमूरलंग आता जब 4-5 लाख आदमियों का कतल करता है, तो उसमें से 3 लाख तो मुसलमान थे, पठान मुसलमान थे, जिनका कतल किया। कतल करने वाले मुगल मुसलमान था। यह चीज अगर मुसलमानों के घर-घर में पहुंच जाए कि कभी तो मुगल मुसलमान ने पठान मुसलमान काकतल किया और कभी अफ्रीकी मुसलमान ने मुगल मुसलमान का, तो पिछले 700 बरस का वाकया लोगों के सामने अच्छी तरह से आने लग जाएगा कि यह हिन्दू-मुसलमान का मामला नहीं है, यह तो देशी-परदेशी का है। सबसे पहले अरब के या और कहीं के मुसलमान आए। वे परदेशी थे। उन्होंने यहां के राज को खत्म किया। फिर वे धीरे-धीरे सौ-पचास बरस में देशी बने, लेकिन जब वे देशी बन गए तो, फिर एक दूसरी लहर परदेशियों की आई, जिसने इन देशी मुसलमानों को उसी तरह कतल किया जिस तरह से हिन्दूओं को। फिर वे परदेशी भी सौ-पचास बरस में देशी बन गए, और फिर दूसरी लहर आई। हमारे मुल्क की तकदीर इतनी खराब रही है, पिछले 700-800 बरस में कि देशी तो रहा है नपुसंक और परदेशी रहा है लुटेरा या समझो जंगली, और देशी रहा है नपुसंक। हमारे 700 बरस का इतिहास का नतीजा। 
इस बात को हिन्दू और मुसलमान दोनों समझ जाते हैं, तो फिर नतीजा निकलता है कि हर एक बच्चे को सिखाया जाए, हर स्कूल में, घर-घर में, क्या हिन्दू मुसलमान, बच्चे-बच्चे को कि रजिया, शेरशाह जायसी वगैरह हम सबके पुरखे हैं, हिन्दू और मुसलमान दोनों के। मैं यह कहना चाहता हूँ कि रजिया, शेरशाह और जायसी को मैं अपने मां-बाप में गिनता हॅूं। यह कोई मामूली बात इस वक्त मैंने नहीं कही है। लेकिन उसके साथ-साथ मैं चाहता हूँ कि हममें से हर एक आदमी, क्या हिन्दू, क्या मुसलमान दोनों के लिए कि गजनी, गोरी, और बाबर हमलावर और लुटेरे थे, सारे देश के लिए, परदेशी होते हुए देशी लोगों की स्वाधीनता को खत्म करने वाले थे और रजिया, शेरशाह और जायसी वगैरह हमारे सबके पुरखे थे। अगर 700 बरस को देखने की यह नजर बन जाये, तो फिर हिन्दू और मुसलमान दोनों पिछले 700 बरस को अलग-अलग निगाह से नहीं देखेगें, फिर वे देखने लग जायेगें जोड़ने वाली निगाह से कि हमारे इतिहास में यह तो मामला था देशी का, यह था परदेशी का, यह अपने, यह थे पराये और दोनों का नजरिया एक हो जायेगा। 
जब हम इतनी दूर पहुँच जाते हैं तो फिर मैं उससे आज के लिए कुछ नतीजा निकालना चाहता हूँ। आज हिन्दू और मुसलमान दोनों को बदलना पड़ेगा। दोनों के मन बिगड़े हुए हैं। सबसे पहले तो जो बात मैंने आपके सामने रखी, उस मामले में। कितने हिन्दू हैं, जो कहेगें कि शेरशाह उनके बाप दादों में हैं और कितने मुसलमान है जो कहेंगें कि गजनी, गोरी लुटेरे थे? मैं बोल रहा हूँ इसीलिए यह बात अच्छी लग रही है, लेकिन अभी जब आप घर लौटोगे, तो कोई न कोई शैतान आपको सुना देगा, देखो, कैसी वाहियात बातें सुन कर आये हो, अगर गजनी-गोरी न आए होते तो मुसलमान होते ही कहां से? देखो शैतान किस बोली में बोलता है? तो, इसका मतलब इस्लाम या मोहम्मद नहीं, वह गजनी-गोरी से कम है। जरा इसके नतीजे क्या होते हैं। और उसी तरह से, शैतान की बोली होगी, देखो कैसा वह बोलने वाला था, वह तुम हिन्दुओं के बाप-दादे शेरशाह को बना गया। अच्छी तरह से सोच-विचार करके, अपने मन को, खोपड़ी को एक तरह से तराश करके, उलट करके जो कुछ भी गंदगी उसमें पिछले 700-800 बरस की भरी हुई है, उसको साफ करके फिर उस जुमले पर आना और फिर सोचना कि हिन्दू और मुसलमान दोनों का मन बदलना बहुत जरूरी हो गया है। 
इस वक्त मन बिगड़ा हुआ है। मैं दो मिसाल देकर बताता हूँ। ऊपर से तो सब मामला ठीक है, ज्यादातर ठीक है। दंगे कहां होते हैं। कभी-कभी जरूर हो जाते हैं, पर ऊपर से मामला ठीक है। लेकिन अंदर क्या है, यह सबको मालूम है। जो ईमानदार आदमी है, वह छिपा नहीं सकता इस बात को कि अंदर दोनों का मन एक-दूसरे से फटा हुआ है। मुझे इस बात पर सबसे ज्यादा दुख इसीलिए होता है कि इससे हमारा देश बिगड़ता है। कोई भी देश तब तक सुखी नहीं हो सकता, जब जक उसके सभी अल्पसंख्यक सुखी नहीं हो जाते। मेरा मतलब सिर्फ मुसलमान से नहीं। वैसे तो सच पूछो तो मैं मुसलमान को अलग से अहमियत देता हूँ, पढ़ाई-लिखाई में, गरीबी में, हर मामले में। उसी तरह से और लोग भी हैं हरिजन, आदिवासी वगैरह। जब तक ये सुखी नहीं होते, तब तक हिन्दुस्तान सुखी नहीं हो सकता। यह पहला वसूल है। इसमें भी मन ठीक करना। 
एक और बड़ी बात है और वह यह है कि अगर हम किसी तरह से हिन्दू- मुसलमान के मन जोड़ पाएं, तो शायद हम हिन्दुस्तान -पाकिस्तान के जोड़ने का सिलसिला भी शुरू कर देगें। मैं यह मान कर नहीं चलता कि जब हिन्दुस्तान-पाकिस्तान का बंटवारा एक बार हो चुका है, वह हमेशा के लिए हुआ है। किसी भी भले आदमी को यह बात माननी नहीं चाहिए। 
मन को जोड़ने का क्या तरीका है? एक तरफ हिन्दुओं के मन में मुसलमानों के लिए बहुत संदेह है, शक है और इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि पिछले कुछ बरसों में पलटन में, और महकमे छोड़ भी दो और इसी ढंग के जो दिल्ली के महकमे हैं, उनमें बड़ी नौकरियों में मुसलमानों को जितना हिस्सा देना चाहिए, उतना नहीं दिया गया है। इसे बहुत कम आदमी कहते हैं, क्योंकि सच बोलने से आदमी जरा झिझका करते हैं। 
हिन्दू-मुसलमान दोनों को इस बात को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। मुसलमानों के अंदर यह गलतफहमी फैली हुई है कि नेहरू साहब उनके हाफिज हैं। वे कैसे हाफिज हैं, इस बात को समझ लेना चाहिए। हिन्दुओं के लिए भी जरूरी है कि नेहरू साहब जो भी करें, कांग्रेस जो भी करे, उसे समझ लें, क्योंकि कांग्रेस ने तो मालूम होता है, एक पट्टा लिखा रखा है किसी तरह हुकूमत चलाते रहो, चाहे देश का सत्यानाश हो जाए। इसीलिए हिन्दुओं को अपना मन अब साफ कर लेना चाहिए कि आखिर इस मुल्क के हम सब नागरिक हैं। अगर मान लो कि थोड़ा-बहुत मामला शक का है और कभी किसी टूट के मौके पर कुछ मुसलमानों का भरोसा नहीं किया जा सकता कि टूट के मौके पर वे यह या वह रूख अख्तियार करेगें तो एक बात अच्छी तरह समझ लेना कि जितना हिन्दू-मुसलमानों के लिए शक करेगें, मुसलमान उतना ही ज्यादा खतरनाक बनेगा और हिन्दू जितना ज्यादा सद्भावना या प्रेम के साथ मुसलमान के साथ बरताब करेगें, उतना कम खतरनाक मुसलमान बनेगा, हिन्दू लोग अगर इस सिद्धान्त को समझ जाएं, तो मामला कुछ अच्छा हो। 
यह चीज भी याद रखना कि जासूस साधारण नहीं हुआ करते। जासूस तो बड़े मजे के लोग होते हैं। उनके पीछे बड़ी ताकत रहती हैं। वे इधर-उधर थोडे़ ही भटकते रहते हैं। मैं इस संबंध में आपको एक बात बता दूं कि दोनों सरकारें निकम्मी हैं, हिन्दुस्तान -पाकिस्तान की। लोगों का आना जाना तो बहुत रहता ही है। मैं समझता हूँ 200-300 या 400 आदमी इधर-उधर आते जाते रहेगें। इनमें जरूादातर बेपढ़े होगें। अगर पढ़े-लिखे होगें वे, तो जानते हैं कि कितने दिन का वीसा मिला है, वह कब खत्म होने वाला है, उसके पहले ही वापस चले जाओ। और याद रखना कि खाली एक ही बंगाल में नहीं, अभी भी पाकिस्तान में एक करोड़ या 90 लाख के आसपास हिन्दू हैं, पाकिस्तान के हिन्दू जब यहां आते हैं, हिन्दुस्तान में या हिन्दुस्तान के मुसलमान जब पाकिस्तान में जाते हैं, उनमें ज्यादातर बेपढे़ हैं। वे ‘वीसा’ वगैरह के मामले में जानते नहीं और अगर 400 रोज जाते हों, तो 40-50 आदमी या 20 या 10 आदमी ऐसे जरूर हैं, जो अपने वीसा खत्म हो जाने के बाद भी ठहर जाते हैं। दोनों तरफ की सरकारें इतनी गंदी हैं कि हर एक को समझ लेती है कि वह जासूस है और किले में ले जा करके उसको तंग करती हैं। जासूस क्या वीसा की तारीखों को तोड़ करके रह जायेगें? वह तो अपना वीसा अलग से बनवा लेगा, अपना पासपोर्ट अलग से बनवा लेगा। उसके पास तो बहुत सी करामातें होती हैं, बहुत से साधन होते हैं। इसके बारे में हिन्दुस्तान और पाकिस्तान दोनों ही सरकारों को कुछ थोड़ा इन बेपढ़े मामूली इन्सानों पर रहम खानी चाहिए और इनको जासूस बना कर नाहक तंग नहीं करना चाहिए। जासूस तो कोई दूसरे ढंग के होते हैं। 
जिस तरह मैंने हिन्दू मन में बदलाव की बात कही, उसी तरह मुसलमान मन के बदलाव की बात कहता हूँ। जहां कहीं मैंने अंगरेजी हटाने की बात कही, जो मुसलमान बहुत दिनों मेरे साथ रहे, वे तो समझ लेते हैं, वरना दूसरों का माथा उसी दम ठनक जाता है कि यह क्या कह रहा है, यह तो हिन्दी लादना चाहता है। कितना शक है मुसलमान के दिमाग में। मैं तो अंगरेजी खत्म करने की बात कह रहा हूँ ताकि यह जबान जो 50 लाख बढ़े लोगों की है, हमारे ऊपर लदी न रहे, हम करोड़ों लोगों को राहत मिले, हम अपनी सरकार का कामकाज अपनी भाषा में चला सकें। जिस भाषा को मैं लाना चाहता हूँ वह तो मातृभाषा है। हिन्दी से उसका ताल्लुक है ही नहीं। तमिलनाडु में अपनी तमिल लाओ, बंगाल में बंगला। सच पूछो तो इस वक्त मेरे बारे में बहुत जोरों से, गलत ढंग से अखबारों ने गंदा प्रचार किया है कि जैसे मैं हिंदी लादना चाहता हूँ। यह बिलकुल झूठी बात है। सब भाषाओं के प्रांत बने, इसके लिए लोगों ने बड़ा हल्ला मचाया, मराठों ने मराठी के लिए हजारों की तादाद में अपनी जान दी, लेकिन जब महाराष्ट्र बन गया, तब मराठी विचारी अलग रह गई। मुझे तो सदमा इस बात का है। वहां अभी भी अंगरेजी रानी राज कर रही है। तमिलनाडू में भी यही अंगरेजी रानी राज कर रही है। आन्ध्र प्रदेश में भी अंगरेजी रानी राज कर रही है। मैंने तो उसी संबंध में कहा कि अंगरेजी रानी को हटाओ, अपनी-अपनी भाषाओं को लाओ। लेकिन लोगों को डर लगता है कि जब अपनी-अपनी मातृभाषा आयेगी, तो दिल्ली में हिन्दुस्तानी आ जायेगी। इसका मेरे पास क्या इलाज है? आप चाहो तो मैं इसके लिए तैयार हूँ हिंदी रानी न आए। अगर मान लो गैर हिंदी इलाके के लोग किसी एक भाषा पर राजी हो जाते हैं, तमिल या बंगला पर, तो मैं इस बात का ठेका लेता हूँ कि हिंदी इलाके के 20-22 करोड आदमियों को राजी कर लूंगा कि दिल्ली की भाषा तमिल बने या बंगला बने। 
खैर, इस बात को अभी आप छोड़ो। मुसलमानों वाली बात लो कि हिन्दुस्तानी और हिन्दी की बात होती है, तो झट से उनके मन में शक हो जाता है। जिस मुसलमान को समझना चाहिए कौन आदमी है, लेकिन फिर भी शक हो जाता है कि यह तो हिंदी लादना चाहता है। जो जब़ान मैं बोल रहा वह आखिर क्या है? मेरा तो ऐसा ख्याल है कि अगर फिर से यह देश एक हुआ तो उसकी भाषा यही होगी जो मैं इस वक्त बोल रहा हूँ, जो चालू भाषा है अपभ्रंश से निकली है। 
वैसे वह लंबा-चैड़ा किस्सा है। इतना ही मैं आपको बता दूं कि यह सही है कि वह पाली और संस्कृत की औलाद है, लेकिन अपभ्रंशवाली, जो जनता में टूट-टाट गई। मिला-जुला कर कोई चीज बनी है, लेकिन खाली इसीलिए नहीं कि मुझको फारसी या अरबी का इस्तेमाल करना है। दिखाना नहीं चाहूंगा, मुसलमान को खुश करने के लिए अपनी बात नहीं बदलूंगा। जो चालू भाषा है, ताकतवर भाषा है, उसमें लोग अपने ईमान और जान का एक ठोस भाषा में इस्तेमाल करते हैं। उसी से देश को बनाना है। इसी पर मुसलमान शक करते है, तो मैं कहता हूँ कि उसके दिमाग में कितना कूड़ा भर दिया है, यह क्या सोचता है। 
फिर बात उठ जाती है कि किस लिपि में, लिखावट में यह भाषा लिखी जाए? मुझे आज इस सवाल से मतलब नहीं। लेकिन अगर मान लो कोई आदमी यह प्रस्ताव रखता है कि हिन्दुस्तान की जितनी भाषाएं हैं, सब नागरी में लिखी जाएं, तो पहली बात तो यह कि नागरी के मानी हिंदी नहीं होते। यह गलती कभी मत कर बैठना। नागरी तो एक लिखावट है, जो हिन्दुस्तान में सभी भाषाओं के लिए चला करती थी, किसी न किसी रूप में। 
अब भी जितनी भी लिखावटें हैं, तेलुगु, तमिल इत्यादि ये सब एक ही चीज के रूप हैं। अगर कोई ऐसी बात कहता है तो फिर उसको बड़े ध्यान से और प्रेम से सुनना चाहिए। उससे धबराना नहीं चाहिए। 
असल में, आज हिंदू और मुसलमान दोनों का मन वोट के राज ने बिगाड़ दिया है। चुनाव के मौके पर जाते हैं, और मौकों पर जाते नहीं। सभाएं भी नहीं करते और वोट मांगते हैं। वोट मांगने वाले लोग हमेशा इस बात का ख्याल रखते हैं कि कोई ऐसी चीज न कह दें कि सुनने वाला नाराज़ हो जाए। नतीजा होता है कि हिन्दुस्तान में जितनी भी पार्टियां हैं, वे हिन्दू-मुसलमान को बदलने की बात बिलकुल नहीं कहतीं। मन में जो पुराना कूड़ा पड़ा हुआ है, जो गलतफहमी है, जो भ्रम हैं, उन्हीं को तसल्ली दे-दिला कर वोट ले लेना चाहते हैं। यह है आज हमारे राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी खराबी कि हम लोग वोट के राज में, नेता लोग खासकर से, सच्ची बात कहने से धबड़ा जाते हैं। इसकर नतीजा है कि हिन्दू और मुसलमान दोनों का मन खराब रह जाता है, बदल नहीं पाता। 
इसमें तो सुधार होना चाहिए। साफ सी बात है कि मुसलमान जैसी चीज नहीं रहनी चाहिए। टूट जाना चाहिए। जैसे हिंदू टूटते हैं अलग-अलग पार्टियों में, वैसे मुसलमान को भी टूटना चाहिए। लेकिन यह बात कुछ मानी हुई सी है कि मुसलमान जायेगा तो एक साथ जायेगा। हमेशा वह कोई-न-कोई इत्तेहाद बनाएगा। पहले कोई रहा है, वह इत्तेहादुल मुसलमीन था, रजाकार फिर अभी भी इत्तेहाद। हमेशा एक टुकड़ी बन कर सबके सब मुसलमान, जहां तक बन सके एक टुकड़ी में चले हैंे, यह बात तो ठीक नहीं। इसका नतीजा तो यह भी हो सकता है कि हिंदू लोग सबके सब एक टुकड़ी में चलने लगे, अपने ईमान से जो सही सियासत हो, उसको पकड़ कर चलो। अगर आज हैदराबाद में हिंदू और मुसलमान हजारों की नहीं बल्कि लाखों की कहूं तो ज्यादा न होगा, तायदाद में मिलकर इस चीज़ के लिए आगे बढ़ते हैं और शहर में दो-चार मील लंबे जुलूस निकालते हैं, तो न सिर्फ आन्ध्रप्रदेश में बल्कि सारे हिन्दुस्तान में बिजली दौड़ जाएगी कि यह क्या चीज हो रही है कि हिंदू-मुसलमान दोनों मिल करके किसी चीज को ले रहे हैं। वह मेल तब हो सकता है, जब लोग हिंदू और मुसलमान की हैसियत से इकट्ठा नहीं होगें बल्कि अपनी नजर से कि हमको कौन सी राजनीति करनी है, उसको ले कर इकट्ठा हों। 
इसी संबंध में मैं हिन्दुस्तान-पाकिस्तान की बात भी कह दूं। मुझे इस बात का बड़ा अफसोस है कि जब देश का बंटवारा हुआ, तब मुझ जैसे लोगों ने इसके खिलाफ कोई काम नहीं किया। हम शायद इसको रोक नहीं सकते थे। कुछ भी करते, लेकिन कम से कम उस वक्त जेल में बैठे होते तो मन में एक तसल्ली होती कि हमने इसका कोई मुकाबला तो किया। उस वक्त हम चूक गए। एक कारण महात्मा गांधी भी थे। इस बात को अब छोड़ दीजिए। अब सवाल उठता है कि इस देश का जो बंटवारा हो चुका है, क्या उसको स्थायी, मुकम्मिल मान कर चलें या कोई रास्ता निकल सकता है, जिससे फिर जोड़ शुरू हो। जिन लोगों ने सोचा था कि हिन्दुस्तान-पाकिस्तान बंटवारे के बाद आपस में प्रेम रहेगा, शान्ति रहेगी, हिंसा नहीं होगी, वह तो हो नहीं पाया। प्रेम तो हुआ नहीं, बल्कि द्वेष बढ़ गया। खाली फर्क इतना है कि जो द्वेष या मनमुटाव अंदर रहता था, वहां अब दो देशों के रूप में आ गया और हिन्दुस्तान और पाकिस्तान की दोनों सरकारों की ताकत का बहुत बड़ा हिस्सा यानी पैसा, प्रचार, विदेश नीति का बहुत बड़ा हिस्सा आज एक-दूसरे को बदनाम करने में खर्च हो रहा है। 
अखबारों को बहुत सूझ-बूझ से हमें पढ़ना सीखना चाहिए। ये दोनों सरकारें जब कभी चाहती हैं तो लोगों का मन गरमा देती हैं, फुला देती हैं, उसमें वैर ला देती हैं, चाहे तो कुछ नहीं, लेकिन सरहद की छिटपुट खबरें हिन्दुस्तान-पाकिस्तान दोनों की छाप देने से, पाकिस्तान के अखबार में हिन्दुस्तान के अखबार में, लोगों का मन बिगड़ जाता है। ये खबरें सरकारी महकमों से मिलती हैं। अच्छी तरह से अखबार पढ़ना चाहिए। हो सकता हैं कि हिन्दुस्तान की सरकार कई बार 44 करोड़ लोगों का मन चीन से हटा कर पाकिस्तान की तरफ मोड़ना चाहे। यह चाल हो सकती है। चीन तो बड़ा शत्रु है, मजबूत शत्रु है। लोग अगर मान लो गरमा रहे हैं चीन के खिलाफ, सरकार को डर लग रहा है, तो सरकार की तबीयत हो जाती है कि चीन से जरा मन हटा दो और एक छोटे दुश्मन की मरफ मन मोड़ो। इसीलिए उस तरह की खबरें दे देती है और हम लोग भी बेवकूफ बन जाते हैं। हम चीन की तरफ से मन हटा कर पाकिस्तान की तरफ ले जाते हैं। 
उसी तरह से पाकिस्तान की सरकार, जब कभी मुसीबत में पड़ती है अपने देश के किसी मसले को हल नहीं कर पाती है, तो हमेशा हिंदुस्तान की सरकार हमले की तैयारी कर रही है और चेत जाओ, हमारा मुल्क खतरे में पड़ा हुआ है, इससे पाकिस्तानियों का मन वह किसी तरह से गरमा देती है। इन दोनों सरकारों के हाथ में इस वक्त बहुत खतरनाक हथियार हैं, लेकिन जनता अगर चाहे तो मामला बदल सकता है। इसीलिए मैंने लोकसभा में विदेश नीति की बहस में एक ही जुमला कहा था। उस पर कांग्रेसी बड़े तिलमिला उठे। मैंने कहा था पाकिस्तान की सरकार उतनी ही गंदी है जितनी कि हिन्दुस्तान की सरकार। कितना सीधा, सही सच्चा जुमला है। इसमें कोई बात गलत नहीं थी लेकिन चारों तरफ से लोग तिलमिला उठे। 
हिंदुस्तान-पाकिस्तान का मामला, अगर सरकारों की तरफ देखो, तो सचमुच बहुत बिगड़ा हुआ है। इसमें शक नहीं है। और इसीलिए अब जो बात मैं कहने जा रहा हूँ, वह बड़ी अटपटी लगती है कि जरा-जरा सी बातों को तो बढ़ा दिया है, लड़ रहे हैं, अखबारों में दिन रात एक दूसरे को गरमा रहे हैं और चमड़ी या शरीर फुला रहे हैं ऐसी सूरत में मैं आपसे पाकिस्तान-हिंदुस्तान के महासंघ की बात करना चाहता हूँ। एक देश तो नहीं, एक राज नहीं, लेकिन दोनों कम-से-कम कुछ मामलों में शुरूआत करें एके की, वह निभ जाए तो अच्छा और नहीं निभे तो और कोई रास्ता देखा जाएगा। 
बातों में न सही, लेकिन नागरिकता के मामले में और अगर हो सके, तो थोड़ा-बहुत विदेश नीति के मामले में, थोड़ा बहुत पलटन के मामले में, एक महासंघ की बातचीत शुरू हो। मैं साफ कह देना चाहता हूँ जो विचार मैं आपके सामने रख रहा हूँ, वही मैंने लोकसभा में रखा था, यह कहते हुए कि यह विचार सरकार के पैमाने पर आज शायद अहमियत नहीं रखता, मतलब हिन्दुस्तान की सरकार और पाकिस्तान की सरकार से इससे कोई मतलब नहीं, क्योंकि वे सरकारें तो गंदी हैं। इसीलिए हिन्दुस्तान की और पाकिस्तान की जनता को चाहिए, अब इस ढंग से सोचना शुरू करें। अगर हिंदुस्तान -पाकिस्तान का महासंघ बनता है तो जब तक मुसलमानों को या पाकिस्तानियों को तसल्ली नहीं हो जाती, तब तक के लिए संविधान में कलम रख दी जाए कि इस महासंघ का राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री दो में से एक पाकिस्तानी रहेगा। इस पर से लोग कह सकते हैं कि तुम अंदर-अंदर रगड़ क्यों पैदा करना चाहते हो? जिस चीज को पुराने जमाने में कांग्रेस और मुस्लिम लीग वाले नहीं कर पाए, कभी-कभी कोशिश करते थे, रगड़ पैदा होती थी। अब तुम फिर से रगड़ पैदा करना चाहते हो? इसका और कोई जबाब नहीं तो मैं एक सीधा सा जबाब दूंगा कि एक बरस हमने बाहरवाली रगड़ करके देख लिया, अब फिर अंदर की रगड़ कैसी भी हो, इनसे तो कम-से-कम ज्यादा अच्छी ही होगी। यह बाहर वाली पाकिस्तान-हिंदुस्तान की रगड़ है, उसको हम निभा नहीं सकते। इसके चलते तो हम दुनिया में मोहताज रहेगें। हमेशा किसी-न-किसी के मोहताज या शिकार बनते रह जायेगें। इसी तरह से और भी नये ढंग की बात सोच सकते हो। 
फिर से मैं कहे देता हूँ कि यह सब सोचना बेमतलब होगा, जब तक कि किसी इलाके के हिन्दू और मुसलमान जानदार बनकर एक नई पलटन नहीं तैयार करते। इसीलिए मैंने हैदराबाद और लखनऊ की बात कही। हैदराबाद और लखनऊ में हिंदू और मुसलमान जानदार बन कर एक ताकत बनें और अपनी सभाओं से, अपने प्रचार से, अपने प्रदर्शन से दिखाएं कि एक नई लहर इस देश में उठी है, तब अलबत्ता इन चीजों में कोई ताकत आए। 
पाकिस्तान के बंगाल में कौन लोग हैं? उनकी कौन-सी जब़ान है? मुसलमान समझते होगें कि लिखावट, उर्दूवाली लिखावट, बाएं से दाएं चलने वाली, मुसलमानों की खास लिखावट है, और दूसरी बात यह कि इस्लाम की खास लिखावट है। दोनों बातें बिलकुल गलत हैं। पाकिस्तान के जो भी 8 करोड़ या 9 करोड़ मुसलमान हैं उनमें से आधे से ज्यादा बंगाल में हैं। उनकी लिखावट यही नागरी वाली लिखावट है क, ख, ग वाली। उनकी भाषा बंगला है और लिखावट नागरी। उसी तरह, बहुत से ईसाई समझते हैं कि उनकी लिखावट रोमन है और अंगरेजी उनकी भाषा। 
और यह जो रेडि़यो चलाता है हिंदुस्तान का उसमें सबरे के वक्त वंदना सुनते हैं। कभी गीता से कुछ सुना देते हैं, कुछ रामायण से, कुछ कुरान से और एकाध ईसाइयों की कविता या गाना सुनाते हैं। इसी वक्त तबीयत होती है कि रेडियो को तोड़ दिया जाए, क्योंकि हमेशा वह गाना मैंने अंगरेजी में सुना जैसे ईसू मसीह साहब अंगरेजी जब़ान बोलते थे। कोई ऑल-इण्डिया रेडियो को बताना जा करके कि ईसू मसीह साहब की जब़ान अरमैक जब़ान थी, जो शायद अपनी हिंदुस्तानी के ज्यादा नजदीक है, बनिस्वत अंगरेजी के। लेकिन न जाने क्यों बेवकूफ लोग यही सोचते हैं कि ईसू मसीह साहब की जब़ान अंगरेजी थी। तबीयत तो कई दफे होती है कि स्कूल खोला जाए जिसमें दुनिया के बारे में लोग जान जाएं। खैर ...। यह मैंने पूर्व पाकिस्तान या बंगाल की लिखावट के बारे में, भाषा के बारे में आपसे कहा कि वह कितनी मिली-जुली है। 
उसी तरह, पाकिस्तान के इधर वाले लाहौर, कराची वाले हिस्से को देखो। अभी भी जब लोग मिल जाया करते हैं, कम मिलते हैं लेकिन जब मिलते हैं, दीवार तो जरूर आ गयी है बीच में, लेकिन कभी-कभी जब दीवार टूटती है-तो मजा आता है। अभी कुछ दिनों पहले एक आदमी आया था। वह पाकिस्तानी सरकार का अफसर था। मैंने उससे एक बात कही, जो बिलकुल सही बात है कि हिंदुस्तान-पाकिस्तान में जैसे और दो मुल्कों में दोस्ती होती है वैसे तो दोस्ती हो नहीं सकती, क्योंकि जहां हमारी दोस्ती शुरू होगी, वह रूक नहीं सकती, दोस्ती बढ़ती ही चली जाएगी और बढ़ती चली जाएगी। कहीं-न-कहीं वह महासंघ या एके पर रूकेगी। उसके पहले नहीं। और अगर वह दोस्ती नहीं होती, तो दुश्मनी-युद्ध की जैसी स्थिति बनेगी, चाहे युद्ध हो न हो लेकिन युद्ध जैसी स्थिति रहेगी। हम दोनों एक ही जिस्म के दो टुकड़े हैं, इसीलिए हमारे बीच में मामूली दोस्ती के सवाल को मत उठाना। तब वह हंसा, कहने लगा, हाँ वह बात तो आपकी मैं जानता हूँ लेकिन इस वक्त आप मुझसे न करें तो अच्छा है। आप दूसरी बात करें। मैंने कहा, कभी-न-कभी तो तुमको इस बात का सामना करना पडे़गा कि दोस्ती होगी तो खुल कर होगी, नहीं तो फिर मामला रूक-रूका जायेगा। 
मैं आपसे यह बात क्यों कह रहा हूँ। कई दफा चीन वाले घमंड के साथ कहा करते हैं, हम 60 करोड़ हैं। 60 करोड़ का, 60 करोड़ का उनको घमंड है। हम भी थोड़ी अकल से काम लें, उदारता से दयानतदारी से, तो क्या जाने हमारी भी तकदीर खुल जाए तब हम भी घमंड से नहीं लेकिन ताकत से कह सकेगें कि हम भी 60 करोड़ हैं। दोनों एक हैं, हिंदुस्तान-पाकिस्तान अलग-अलग नहीं, हम दोनों 60 करोड़ हैं। इतनी ताकत हम हासिल करें उसके लिए कुछ अकल की जरूरत होती है। 
मैंने शुरू से आख्सिरी तक जो आपको बताया, हिंदू-मुसलमान वाली, हिन्दुस्तान-पाकिस्तान वाली बात, उस पर आप लोग छोटी-छोटी टोलियां बना कर सोच-विचार करना। अगर इसमें से आपने कुछ नतीजा निकाला जगह-जगह आपने मोहल्लों में टोलियां बनायीं, कहीं कोई सियासत खड़ी की मिली-जुली सियासत, जिसमें हिंदू और मुसलमान दोनों मिलकर आगे चलें, चाहे वह अंगरेजी जब़ान को मिटाने के लिए, चाहे मंहगी को खत्म करने के लिए तो अच्छा होगा। कितनी चीजें महंगी हो र्गइं। जैसे शक्कर है। मैंने ज्यादा इस पर जिक्र नहीं किया, लेकिन आप जानते हो शकर का दाम सवा रूपया, डेढ़ रूपया है, लेकिन हमारा जो वसूल है उसके मुताबिक शक्कर का दाम साढ़े 13 आने 14 आने सेर होना चाहिए। हालांकि नौ आने सेर में शक्कर बनती है और उसे सरकारी टैक्स, नफा-वगैरह लगा कर डेढ़ गुना तक साढ़े तेरह आने सेर में बेचो। उसके लिए आंदोलन करो। 
मैंने आज खासतौर से हिंदू-मुसलमान की बात कही, लेकिन आप याद रखना, यह बात इसी तरह से हरिजन, आदिवासी और पिछड़ी जातिवालों और औरतों के लिए भी समझ लेना, क्योंकि औरत तो जो कोई भी है, चाहे ऊंची जाति की, चाहे नीची जाति की, सबको मैं पिछड़ी समझता हूँ। और मैं क्या समझता हूँ, आप जानते हो औरत को हिन्दुस्तान में, दुनिया में दबा करके रखा गया है। उसे यहाँ बहुत ज्यादा दबा कर रखा गया है। मर्द ही मर्द सुन रहे हैं मेरी बात को। औरतें कितनी सुनने वाली हैं, तो ये जितने पिछड़े हैं, इनको विशेष अवसर देना होगा। ज्यादा मौका देना होगा तब ये ऊंचा उठेगें। जब मैंने तीन आने वालों की बात कही या जब मैं इन पिछड़ों की बात कहता हूँ तो मेरा मकसद खाली एक होता है कि जो सबसे नीचे है, उसके ऊपर अपनी आंख रखोगे और उसको उठाओगे तो जो उसके ऊपर है, वह खुद-ब-खुद ऊंचा उठेगा। सबसे नीचे है उस पर अपनी आंख रखो। मैं आपसे आखिरी में यही प्रार्थना करता हूँ कि इन सब चीजों पर खूब गंभीरता से सोच-विचार करना और बन पड़े तो हैदराबाद मे एक नई जान पैदा करने की कोशिश करना ।

Monday, 30 September 2019

लोक परिसम्पत्तियां बेचने को उतावली सरकार

16वीं लोक सभा की 2017-18 की संसदीय रक्षा समिति ने भारत में ही अभिकल्पित, विकसित व निर्मित की अवधारणा पर जोर दिया। समिति ने रक्षा अनुसंधान एवं विकास संस्थान, आर्डनेंस कारखाने व रक्षा विभाग से सम्बद्ध सार्वजनिक उपक्रमों में निर्मित एवं विकसित उपकरणों  में आयात के अंश पर चिंता प्रकट की जिसकी वजह से सेना के उपकरणों के लिए हमें विदेशी कम्पनियों पर निर्भर रहना पड़ता है। 2013-14 में आर्डनेंस कारखानों का आयात अंश 15.15 प्रतिशत था जो 2016-17 में घट कर 11.79 प्रतिशत पर आ गया। रक्षा विभाग के अन्य बड़े सार्वजनिक उपक्रमों जैसे हिन्दुस्तान एरोनाॅटिक्स लिमिटेड, भारत इलेक्ट्राॅनिक्स लिमिटेड व भारत डायनामिक्स लिमिटेड की तुलना में आर्डनेंस कारखानों का आयात अंश कम है जो दर्शाता है कि उसने प्रयासपूर्वक उपकरणों के निर्माण में लगने वाले पुर्जों को खुद विकसित किया है और यह स्थिति बरकरार रखी है।
       आर्डनेंस कारखाने विभिन्न किस्म के टैंक, लड़ाकू वाहन, बंदूकें, राॅकेट लांचर, आदि चीजों का उत्पादन करते हैं। पाकिस्तान के साथ 1947, 1965, 1971 व 1999 के युद्धों में तथा चीन के साथ 1962 के युद्ध में आर्डनेंस कारखानों ने भारतीय सेना के लिए अच्छी सहयोगी भूमिका निभाई। रक्षा मंत्रालय की सभी ईकाइयों में आर्डनेंस कारखानों का बजट 2019-20 में कुल रु. 2,01,901.76 करोड़ में से सिर्फ रु. 50.58 करोड़ था क्योंकि आर्डनेंस कारखाने अपने खर्च का बड़ा हिस्सा सामान बना कर उसे थल सेना, नौ सेना व वायु सेना को बेच कर पूरा कर लेते हैं। ये आर्डनेंस कारखानों की कार्यकुशलता का अच्छा प्रमाण है। भूतपूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वी.पी. मलिक इस बात के लिए आर्डनेंस कारखानों की तारीफ कर चुके हैं कि कारगिल युद्ध में उन्होंने अपनी क्षमता से दोगुणा उत्पादन कर जरूरी हथियार व उपकरण उपलब्ध कराए जबकि निजी कम्पनियों से जो सामान मांगा गया था उसकी समय से आपूर्ति नहीं हुई।
       नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार के मुताबिक दूसरी नरेन्द्र मोदी की सरकार में एक सौ दिनों का तेजी से आर्थिक सुधारों का कार्यक्रम लिया गया है जिसके तहत सार्वजनिक उपक्रमों का विनिवेश किया जाएगा व जिन विभागों को अभी तक नहीं छुआ गया है जैसे आर्डनेंस कााखाने को कम्पनी के रूप में तब्दील किया जाएगा। वे इस बात को छुपाते नहीं कि विदेशी कम्पनियां इस बात से बहुत खुश होंगी कि सरकार के पास जो अतिरिक्त जमीनें हैं उन्हें वे खरीद सकती हैं क्योंकि इनमें उन्हें किसानों के विरोध का सामना नहीं करना पड़ेगा। आर्डनेंस कारखानों के पास ही सिर्फ 60,000 एकड़ जमीन है। इसी अवधि में 40 से ऊपर सार्वजनिक उपक्रमों का निजीकरण हो जाएगा अथवा वे बंद हो जाएंगे। विदेशी पूंजी निवेश हेतु सीमा हटा ली जाएगी ताकि एअर इण्डिया जैसे ईकाइयों को बेचा जा सके जिसे पिछली सरकार के दौरान तमाम कोशिशों के बावजूद बेचा न जा सका।
       आर्डनेंस कारखाने अपनी क्षमता से कम पर काम करते हैं ताकि युद्ध के समय जरूरत पड़ने पर उत्पादन तीन गुणा बढ़ाया जा सके। किंतु कोई निजी कम्पनी यह नहीं कर पाएगी। बल्कि ऐसे बाजार में जहां खरीदार सिर्फ सरकार है, सरकार को इन्हें चलाने के लिए इनसें अनावश्यक सामान बनवाने पड़ेंगे, या इन कम्पनियों को जिंदा रखने के लिए सीधे पैसा देना पड़ेगा अथवा एक कृत्रिम युद्ध की स्थिति का निर्माण करना पड़ेगा, जो तीनों ही स्थितियां देश हित में नहीं हैं।
,      काॅम्पट्रोलर व आॅडिटर जनरल की कारगिल युद्ध की आख्या बताती है कि रु. 2,150 करोड़ का सामान जो देशी-विदेशी कम्पनियों से मंगाया गया था, जुलाई 1999 में युद्ध खत्म होने के बाद आया, बल्कि इसमें से रु. 1,762.21 का सामान तो युद्ध खत्म होने के छह माह बाद आया। आपातकाल जैसी स्थिति में नियमों को शिथिल करने से सरकार को रु. 44.21 करोड़ का नुकसान हुआ, रु. 260.55 करोड़ का सामान गुणवत्ता के मानकों को पूरा नहीं कर रहा था, रु. 91.86 करोड़ का गोली-बारूद पुराना हो चुका था, रु. 107.97 करोड़ की खरीद अनुमति से ऊपर हुई थी और रु. 342.47 करोड़ का गोली-बारूद जो आयात किया गया था वह आर्डनेंस कारखानों के भण्डार में था। इससे निजी कम्पनियों के बारे में गुणवत्ता व कार्यकुशलता को लेकर जो छवि बनी हुई है उसकी पोल खुलती है।
       उपर्युक्त से यह भी संकेत मिलता है कि निजीकरण से भ्रष्टाचार की नई सम्भावनाएं खुल जाती हंै। केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो ने इंग्लैण्ड की कम्पनी रोल्स-रायस के खिलाफ हिन्दुस्तान एरोनाॅटिक्स लिमिटेड से सौ सौदों में निदेशक अशोक पटनी के माध्यम से सिंगापुर की आशमोर कम्पनी, जो वाणिज्यिक सलाहकार नियुक्त की गई थी, को रु. 18.87 करोड़ घूस देने का मुकदमा दर्ज किया है जबकि रोल्स-रायस व हिन्दुस्तान एरोनाॅटिक्स लिमिटेड के बीच ईमानदारी से व्यापार करने का एक करार हुआ था।
       सरकार के निवेश एवं लोक परिसम्पत्ति प्रबंधन विभाग, जिसका नाम भ्रमित करने वाला है, का काम है सार्वजनिक परिसम्पत्तियां बेचना। जब परिसम्पत्तियां बिक ही जाएंगी तो प्रबंधन किस चीज का होगा? किसान से जो जमीन बहुत पहले किसी सार्वजनिक उद्देश्य के लिए ली गई थी, कई बार बिना कोई मुआवजा दिए सिवाए खेत में खड़ी फसल का, वह अब विनिवेश के नाम पर निजी कम्पनियों को कौड़ियों के दाम बेची जाएगी।
       इस वर्ष के शुरू में हिन्दुस्तान एरोनाॅटिक्स लिमिटेड से सरकार ने कुल रु. 2,423 के दो भुगतान कराए जिससे अपने इतिहास में पहली दफा इस उपक्रम को अपने कर्मचारियों को वेतन देने के लिए कर्ज लेना पड़ा। जीवन बीमा निगम, जिसके पास भारत में जीवन बीमा का दो तिहाई हिस्सा है और जिसे अब सार्वजनिक कम्पनी बनाया जा रहा है, को 2014-18 के दौरान केन्द्र सरकार द्वारा अपना विनिवेश का लक्ष्य पूरा करने के लिए रु. 48,000 करोड़ खर्च करने के लिए मजबूर किया गया। 2018-19 में अपने लक्ष्य रु. 80,000 के सापेक्ष सरकार ने रु. 84,972.16 करोड़ एकत्र किया। 2018-19 में सरकार द्वारा रु. 90,000 का विनिवेश लक्ष्य तय किया गया है। जीवन बीमा निगम को सरकार द्वारा घाटे में चल रहे समूचे बैंक इण्डस्ट्रियल डेवलेपमेण्ट बैंक आॅफ इण्डिया को खरीदने के लिए मजबूर किया गया जिसके पास 28 प्रतिशत ऐसा ऋण था जो माफ किया जा चुका था। अतः स्पष्ट है कि जब सरकार को कोई विदेशी पूंजी निवेश आता दिखाई नहीं पड़ता तो वह सरकारी कम्पनियों को ही विभिन्न उपक्रमों में निवेश करने के लिए कहती है। नरेन्द्र मोदी ने एक से ज्यादा बार यह कहा है कि वे एक गुजराती होने के नाते पैसे का प्रबंधन कैसे करना है उसे बखूबी जानते हैं। जब वे गुजरात के मुख्य मंत्री थे तो सरकारी बैंक से रु. 20,000 करोड़ ऋण लेकर गुजरात राज्य पेट्रोलियम कार्पोरेशन नामक कम्पनी का गठन हुआ। जब वे प्रघान मंत्री बने तो इस कम्पनी का ऋण भुगतान करने के लिए उसे आयल एण्ड नैचुरल गैस कमीशन से रु. 8,000 करोड़ में क्रय करवाया और अब ऋण भुगतान की जिम्मेदारी ओ.एन.जी.सी. की हो गई।
       सरकार एक ऐसी स्वायत्त कम्पनी बनाने की सोच रही है जिसके अंतर्गत सभी सार्वजनिक उपक्रम आ जाएंगे और परिसम्पत्तियां बेचने के मामले में वह नौकरशाही के प्रति जवाबदेह नहीं रहेगी। तब सरकार पूरी निर्लज्जता से लोक परिसम्पत्तियां बेचने के लिए स्वतंत्र हो जाएगी।
       अब जबकि प्रसिद्ध अर्थशास्त्री ज्यां डेªज ने प्रधान मंत्री की यह बात झूठी साबित कर दी है कि जम्मू व कश्मीर से अनुच्छेद 370 व 35ए हटाने से वहां विकास होगा, क्योंकि मानव विकास मानदण्डों में जम्मू-कश्मीर भारत के कई राज्यों, जिनमें गुजरात भी शामिल है, से कहीं आगे है, ऐसा प्रतीत होता है कि जम्मू व कश्मीर का दर्जा राज्य से कम कर केन्द्र शासित क्षेत्र बना देने के पीछे दो गुजराती दिमागों में यह बात जरूर रही होगी कि उनके कदम से जम्मू-कश्मीर की 2.2 करोड़ हेक्टेअर जमीन उनके गुजराती व अन्य पूंजीपति मित्रों के खरीदने के लिए खुली हो जाएगी।
 
संदीप पाण्डेय, उपाध्यक्ष, सोशलिस्ट पार्टी (इण्डिया)
ए-893, इंदिरा नगर, लखनऊ-226016
फोनः 0522 2355978,  e-mail: ashaashram@yahoo.com

Belated effort at justifying repression

Date: 28.9.2019



     " Subject (meaning there by Faruq Abdulla) has tremendous pote for creating an environment of public disorder within shrinagar district and other parts of the valley. The conduct of the is seen as fanning the emotions of general masses against the Union of uIndia and instigating the public with statement against the unity and integrity of India".

     Shaikh Abdulla ,three times chief minister of j & k and sitting member of Loksabha was detained on 4th Aug  2019 in his residence was v put under house arrest on 14/9/19 by an order passed by Shrinagar district magistrates his residence it self is declare a subjail.
The dossier ,accompanying arrest order runs into 21pages and lists 27 charges,16 polies Police reports and three firs and 13 statements in favour the abrogated 35A.

       In  One of the statements,made in 2016  at naseembagh hajaratbal Faruq is said to have invited Separatist Hurriyst Conference to join his NC .Another statements ,post Fubru Pulwama attack in which he is purported to have said I doubt 40 crpf men were killed His July 2019 statements is said to be saying thatMiir ties are also tporary.

          One wonders are these words likely to incite violence ?Official dossier states that Faruq had also asked people not to hoist Indian National flag and further that people should rise in rebellion against India.

    If true, such words are not desirable .One may even say condemnable .But all those are words of mouth .The authorities have not cited any evidence to f having procured arms or led violent action.

   Acrobatics of the authorities ,either Shrinagar or Delhi show up hem in poor color.On the one hand they say that people of JK have welcome d two resolutions passed in Parliament on 5 Aug.and that there is peace in the State and yet they cannot release 4000 activists who are detained for 53 days nor lift bans imposed on the Press.Many of the person's had stood firmly in favour of Union of India and against Pakistan.The authorities are hurling wild allegations against them without giving them chance to defend themselves in a court of law.
      And the authorities are clever ly maintaining studied silence about their wicked assault on the federal structure which is one of the basic structures of our Constitution,

        I call upon all democracy loving people to continue sustain Ed campaign demanding democracatic normalcy in Jammu Kashmir State.

      Pannalal Surana ,president, Socialist Party of India.28.9.2019 if Art 370 is temporary then Jammu Kash Miir ties are also tporary.

          One wonders are these words likely to incite violence ?    ; Official dossier states that Faruq had also asked people not to hoist Indian National flag and further that people should rise in rebellion against India.

    If true, such words are not desirable .One may even say condemnable .But all those are words of mouth .The authorities have not cited any evidence to  having procured arms or led violent action.

Right to freedom of speech and expression logically allows expressing words right,false or anti constitutional some eminent person's close to the rulers of today have been saying that the present Constitution be scrapped All those are issues to be debated and not to be labelled as antinational Whatever words are uttered cannot be used as basis for suppression of fundamental rights of the citizens What is required is to seal our borders effectively and financial flow to the terrorists plugged.

   Acrobatics of the authorities ,either Shrinagar or Delhi show up hem in poor color.On the one hand they say that people of JK have welcome d two resolutions passed in Parliament on 5 Aug.and that there is peace in the State and yet they cannot release 4000 activists who are detained for 53 days nor lift bans imposed on the Press.Many of the person's had stood firmly in favour of Union of India and against Pakistan.The authorities are hurling wild allegations against them without giving them chance to defend themselves in a court of law.
      And the authorities are clever ly maintaining studied silence about their wicked assault on the federal structure which is one of the basic structures of our Constitution.

        I call upon all democracy loving people to continue sustain Ed campaign demanding democracatic normalcy in Jammu Kashmir State.

       President, Socialist Party (India)

New Posts on SP(I) Website

लड़खड़ाते लोकतंत्र में सोशलिस्ट नेता मधु लिमए को याद करने के मायने आरोग्य सेतु एप लोगों की निजता पर हमला Need for Immediate Nationalisation ...