(यह लेख संभवत: 2001-2 के आस-पास 'जनसत्ता' में छपा था और 'कट्टरता जीतेगी
या उदारता' (राजकमल प्रकाशन, 2004) पुस्तक में संकलित है. इस बीच सारे दावों के
बावजूद साम्प्रदायिकता के मोर्चे पर स्थिति खराब ही होती गयी है. आपके पढ़ने के लिए
लेख फिर से दिया जा रहा है. शायद इसका कुछ औचित्य हो!)
उनके राम और अपने राम
प्रेम सिंह
संघ संप्रदाय अपनी यह घोषणा
दोहराता रहता है कि अयोध्या में जल्दी ही श्रीराम का भव्य मंदिर बनाया जाएगा।
बीच-बीच में यह खबर भी आती रहती है कि अयोध्या के बाहर मंदिर के लिए पत्थर तराशने
का काम तेजी से चल रहा है। निर्माणाधीन मंदिर के मॉडल की पूरे देश में झाँकी
निकालने की योजना की भी खबर है। संघ संप्रदाय के लिए मंदिर-निर्माण का कार्य जारी
रखना और उसका प्रचार करते रहना जरूरी हैः राममंदिर आंदोलन को जीवित बनाए रखने के
लिए और लोगों के बीच अपनी साख बनाए रखने के लिए, कि जो धन उनसे लिया गया है वह मंदिर-निर्माण के कार्य में लगाया जा रहा है।
राममंदिर आंदोलन जीवित बना रहता है तो अयोध्या में मंदिर के निर्माण को रोक पाना
असंभव ही होगा। जैसी कि संघ संप्रदाय की शपथ है, ज्यादा संभावना यही है कि मंदिर ‘वहीं’ बनेगा। निर्माण-स्थल के थोड़ा बहुत ही इधर-उधर होने की
गुंजाइश है। इस तरह राम का संघावतार हो जाएगा।
सोचने की बात अब यह है कि
संघ संप्रदाय के मंदिर में जो राम विराजेंगे, उसके प्रतीकार्थ क्या वही होंगे जो जनमानस में आमतौर पर बने हुए हैं? यह सवाल धार्मिक उतना नहीं, जितना हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन से जुड़ा है। ‘राम-राम’ या ‘सिया-राम’ में जो सहजता और आत्मीयता
होती है, वह संघ के ‘जैश्रीराम’ में नहीं है। राममंदिर
आंदोलन के चलते राम के प्रतीकार्थ का न केवल अर्थ-संकोच हुआ है, अवमूल्यन भी हुआ है। इस पर आगे चर्चा करने के पहले यह जान
लें कि हिंदुस्तान और दुनिया में राम का किस्सा बहुत पुराना है और उसका रूप हमेशा
एक जैसा नहीं रहा है। वैदिक काल में ही राम की चर्चा मिल जाती है। तदनंतर रामकथा
की पहली महत्त्वपूर्ण कृति वाल्मीकि द्वारा रचित ‘रामायण’ में वर्णित दशरथ पुत्र राम
परमब्रह्म नहीं हैं। परमब्रह्म के अवतार के रूप में उनकी प्रतिष्ठा पौराणिक काल
में होती है और उनकी वाल्मीकि के राम से अभिन्नता प्रतिपादित की जाने लगती है।
धीरे-धीरे राम और उनके पूरे चरित का पूर्ण अलौकिकीकरण होता गया है। साथ ही उसकी
व्याप्ति जैन और बौद्ध धर्मों से लेकर दक्षिण भारत और निकटवर्ती एशियाई देशों तक
होती गई है। वाल्मीकि कृत ‘रामायण’ की आधिकारिक कथा से लेकर गोस्वामी तुलसीदास कृत ‘रामचरितमानस’ की कल्पना और भक्ति
भावित कथा तक राम के चरित ने एक लौकिक महानायक से भक्तवत्सल भगवान तक की लंबी
यात्रा तय की है। यह सही है कि जैन और बौद्ध ग्रंथों में राम और उनके चरित का वैसा
ही वर्णन नहीं मिलता जैसा ब्राह्मण ग्रंथों में - विष्णु के अवतार के रूप में - मिलता
है। फिर भी उन्होंने रामकथा की लोकप्रियता के बहाव में उन्हें अपने धर्म में
महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है। बौद्धों ने राम को बोधिसत्व के रूप में और जैनियों ने
त्रिषष्टि महापुरूषों में से एक बलदेव के रूप में चित्रित किया है। बौद्ध धर्म के
माध्यम से रामकथा निकटवर्ती एशियाई देशों में भी फैली और वहाँ की संस्कृति का
हिस्सा बन गई। हालाँकि उन देशों में रामकथा के प्रति आकर्षण यहाँ की तरह राम के
प्रति किसी तरह की भक्ति-भावना नहीं है। अलबत्ता आठवें दशक में प्रभुपाद के नाम से
प्रसिद्ध भक्तिवेदांत स्वामी अभयाचरण ने अमरीका में ‘इस्कान’ की स्थापना कर कृष्ण के साथ
राम के प्रति भी अपने अमरीकी और यूरोपवासी शिष्यों में भक्ति-भावना जगाई। प्रभुपाद
के अमरीकी शिष्य कीर्तनानंद स्वामी भक्तिपाद ने अमरीकी पाठकों के लिए भक्ति की
दृष्टि से ‘रामायण’ लिखी है, जिसका हिंदी अनुवाद भारत में उनके शिष्य भक्तियोग स्वामी ने
नवमधुवन आश्रम, ऋषिकेष की ओर से प्रकाशित
किया है।
राम के चरित्र और कथा के
देशी-विदेशी विविध रूपों के विवरणों का आज महज ऐतिहासिक या साहित्यिक महत्त्व ही
है। कम से कम उत्तर भारत की सवर्ण और मध्यवर्ती जातियों की आबादी की भक्ति-भावना
का आधार तुलसी के राम हैं, जिन्हें उन्होंने राजा दशरथ
के राजकुमार पुत्र से ऊपर उठा कर, पूरे चरित सहित भक्ति और
प्रेम की भावना में सराबोर कर दिया। ‘मानस’ में रावण भी सीता का हरण बदले या काम-वासना से प्रेरित होकर
नहीं, मोक्ष पाने के उद्देश्य से करता है और राम के
हाथों मारा जाकर सायुज्य मुक्ति प्राप्त कर लेता है। तुलसी ने सभी खल पात्रों की
कुटिलता, उग्रता और छल जैसे दुर्गुणों को राम-भक्ति का
अंग बना दिया है। तुलसी के इस उद्यम का उनकी जीवन-दृष्टि के संदर्भ में अध्ययन
होना अभी बाकी है। कबीर ने दशरथ सुत से अलग राम की रचना की, लेकिन डॉ. धर्मवीर के मतानुसार ब्राह्मणवाद ने उसे अपने भीतर ही जज्ब कर लिया।
लोगों के हृदय में तुलसी के राम की प्रतिष्ठा ही बनी हुई है। तुलसी के प्रति
दलितों के आक्रोश को वाजिब कहा जा सकता है, लेकिन वे हिंदू धर्म की उदारवादी धारा के अंतर्गत ही आएँगे। यह अकारण नहीं हो
सकता कि ‘मानस’ में सीता-त्याग और
शंबूक-वध के किस्सों को जगह नहीं दी गई है। तुलसी ने रामचरित के माध्यम से जीवन के
कुछ ऐसे व्यावहारिक आदर्शों की प्रतिष्ठा भी की जिनके चलते जनमानस में उनके राम को
इस कदर लोकप्रियता हासिल हुई है। डॉ. लोहिया ने यह माना है कि ‘‘शूद्र और पिछड़े वर्गों के मामले में (तुलसी कृत) रामायण में
काफी अविवेक है।’’ लेकिन निषाद-प्रसंग को
उन्होंने ‘‘जाति-प्रथा के इस बीहड़ और सड़े जंगल में एक
छोटी-सी चमकती पगडंडी’’ स्वीकार किया है। ‘भरत अवधि सनेह ममता की, जदपि रामु सीम समता की’ चैपाई को उद्धृत कर लोहिया
ने लिखा है : ‘‘राम समता की सीमा है,
उनसे बढ़ कर समता और कहीं नहीं है। इस समता का ज्यादा
निर्देश मन की समता की ओर है, जैसे ठंडे और गरम, अथवा हर्ष और विषाद अथवा जय और पराजय की दोनों स्थितियों
में मन की समान भावना। मन की ऐसी भावना अगर सच है तो बाहरी जगत के प्राणियों के
लिए भी छलकेगी। जिस तरह राम की समता छलकती है, उसी तरह भरत का स्नेह भी छलकता है। दोनों निषाद को गले लगाते हैं। यह सही है
कि अब पालागी और गलमिलौवल को साथ-साथ चलाना प्रवंचना होगी। पालागी खतम हो और गलमिलौवल
रहे।’’ लोहिया ने ‘‘द्विज और विप्र को हर मौके पर इतना ऊँचा’’ उठाने तथा ‘‘शूद्र और वनवासी को बहुत
नीचे’’ गिराने के लिए तुलसी के समय को दोष दिया है।
लोहिया यह तर्क देते वक्त भूल जाते हैं कि राम के एक अन्य दलित भक्त कबीर
क्रांतिकारी रूप मे सामने आते हैं। जाहिर है, तुलसी की सीमा समय के साथ उनके वर्ण और जाति की सीमा भी है।
जो भी हो, तुलसी के राम परमब्रह्म, होने के साथ मर्यादा
पुरूषोत्तम हैं, उदात्त हैं, उदार हैं, गरीब निवाज हैं, निर्बल के बल हैं, समता की सीमा है। और
सीता के साथ जगत में व्याप्त हैं। उन्हें राजनीति और राजमद नहीं व्यापते। रामलीला
के एक प्रसंग में जामवंत शरणागत विभीषण को लंका का राज देने का वादा करने पर राम
से कहते हैं कि अगर कल को रावण भी शरण में आ जाए तो आप उसे कहाँ का राज देंगें?
राम कहते हैं अयोध्या का। यह पूछने पर कि फिर आप कहाँ का
राज करेंगे, राम जवाब देते हैं कि वे वन
का राज करेंगे। तुलसी के राम शत्रुहंता नहीं हैं। रावण से उन्हें युद्ध करना पड़ता
है, लेकिन युद्ध के पहले वे रावण को अपनी गलती
सुधारने का पूरा मौका देते हैं। युद्ध के बीच में भी रावण को पूरा मौका दिया जाता
है कि वह सीता को लौटा दे और अपने कुल सहित लंका का राज करे। जैसा कि ऊपर कहा गया
है, तुलसी ने राम द्वारा शंबूक की हत्या और सीता के
त्याग की घटनाओं को ‘मानस’ में जगह नहीं दी है। लिहाजा, तुलसी के राम अगर जन-जन की आस्था के प्रतीक बने हैं, जिसका कि संघ संप्रदाय ने राममंदिर आंदोलन में इस्तेमाल किया है, तो उसके पीछे राम का देवत्व उतना कारण नहीं है, जितना उनका मर्यादित और मानवीय चरित्र। राम के चरित्र के ये
गुण ही उन्हें समाज में लोगों के बीच परस्पर आदर और अभिवादन प्रकट करने का
सर्वव्यापी माध्यम बनाते हैं। संबोधन और भी हैं, लेकिन वे संप्रदाय या धर्म-विशेष के लोगों के बीच ही होते हैं, जबकि लोग अपने संप्रदाय या धर्म के परे जाकर एक-दूसरे से ‘राम-राम’ करते हैं। यह ‘राम-राम’ गरीब और अमीर के बीच भी
होती है।
तुलसी ने इंद्र से होड़ लेने
वाले दशरथ के भव्य भवनों का वर्णन किया है। लेकिन उनके राम लोगों के मन-मंदिर में
ही बसते हैं। संघ संप्रदाय का आंदोलन अयोध्या में भव्य राम मंदिर के निर्माण के
आह्वान पर टिका है, जिसे बनाने के लिए उन्होंने
पहले ही छोटे-छोटे मंदिरों और पुजारियों का सफाया कर दिया था। यह विविध आस्थाओं
वाले धर्म को सामीकृत करने की संघ संप्रदाय की जानी-मानी कोशिश तो है ही, हृदय के मंदिर को नष्ट करने की कोशिश भी है। आस्था यही है
कि राम ने अयोध्या में जन्म लिया था। लेकिन उनके भक्तों की आस्था यह भी है कि
अयोध्या वहीं है, जहाँ राम का निवास हैं राम
के वन-गमन पर पुरवासी ‘अवध तहाँ जहाँ राम निवासु’
कहते हुए उनके साथ चलते हैं। राम उन्हें तमसा नदी के किनारे
रात को सोता हुआ छोड़ कर आगे चले जाते हैं। पुरवासियों के पास इसका कोई विकल्प नहीं
बचता कि वे राम को अपने हृदय के मंदिर में धारण करके आगे का जीवन जिएँ। तुलसी ने
लिखा है, ‘सियाराममय सब जग जानी’। उन्होंने एक पल के लिए भी सीता और राम को अलग नहीं होने दिया है। रावण की
कैद में रहते हुए भी सीता हमेशा राम के पास ही रहीं। लेकिन संघ संप्रदाय ने राम को
सीता से काट कर निपट अकेला कर दिया है। सीता सहित राम के जीवन से जुड़े अन्य अनेक
पात्रों से उनका विच्छेद अंततः उनके भक्तों से ही विच्छेद है। और विच्छेद है
सामाजिक-सांस्कृतिक परस्परता और भाइचारे का। ‘जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी’
लिख कर तुलसी राम की अनंत महिमा और छवियों का बखान करते
हैं। लेकिन संघ संप्रदाय ने, जिसकी उद्दाम लालसाएँ कहने
को धार्मिक-सांस्कृतिक और असलियत में सांप्रदायिक-राजनैतिक हैं, राम को महज एक शत्रुहंता के रूप में घटित (reduce) कर दिया है। संघ
संप्रदाय के राम धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाए एक आम बादशाह बाबर, जो कई सदी पहले मर चुका है, और उसकी ‘औलादों’ का वध करने को सन्नद्ध हैं।
संघ संप्रदाय के मंदिर में राम की यही ‘मूरत’ विराजेगी। भेद-नीति का सहारा लेकर अंगद को फोड़ने की चाल
चलने वाले रावण को अंगद जवाब देते हैं कि भेद उसी के मन में होता है, जिसके मन में रघुवीर नहीं होते। राम का राजनैतिक इस्तेमाल
करने वाले संघ संप्रदाय का सबसे बड़ा हथियार भेद-बुद्धि ही है और वह राम को भी उसी
का प्रतीक बनाने पर तुला है। बल्कि उसने बना दिया है। हम धर्मनिरपेक्षतावादियों को
ध्यान देना चाहिए कि मस्जिद-ध्वंस के लिए अयोध्या पहुँचा राम भक्तों के विशाल
हुजूम में संघ संप्रदाय के सदस्य गिने-चुने ही होंगे।
संघ संप्रदाय का दावा हमेशा
यही रहा है कि हिंदू आस्था के प्रतीक-पुरूष का मंदिर बनाने से कोई भी ताकत उसे रोक
नहीं सकती। उसके दावे में दम है। मुस्लिम समुदाय को उसका साफ आदेश है कि वह रास्ते
से हट जाए, वरना जो ‘राम-भक्त’ बाबरी मस्जिद को ढाह सकते
हैं, वे जबरदस्ती वहाँ मंदिर भी बना सकते हैं। प्रशासन,
कानून और न्यायपालिका को वह न पहले खातिर में लाता था,
न आगे लाएगा। समाज के एक अच्छे-खासे हिस्से में ‘राम-लहर’ उठा कर
धर्मनिरपेक्षतावादियों की बोलती वह पहले ही बंद कर चुका है। धर्मनिरपेक्ष राज्य को
भी उसने काफी कुछ अपने कब्जे में कर लिया है। जातिवादी राजनीति सांप्रदायिक
राजनीति का दीर्घावधि और सकारात्मक जवाब नहीं है। हिंदू धर्म की कट्टरतावादी धारा
के वाहक संघ पर हिटलरी फासीवाद का रंग भी चढ़ा हुआ है। कट्टरता की इस दोहरी शक्ति
से युक्त राम के संघावतार को रोकना है, तो
धर्मनिरपेक्षतावादी नेताओं और विद्वानों को धर्म की गंभीर समझ विकसित करनी होगी।
केवल संवैधानिक धर्मनिरपेक्षता भर से काम नहीं चलने वाला है। मार्क्सवादी और
आधुनिकतावादी नेता और विचारक जहाँ संवैधानिक धर्मनिरपेक्षता के प्रति समझ और
निष्ठा रखते हैं, वहीं उसके जटिल
सामाजिक-सांस्कृतिक आयामों की ओर से या तो विमुख होते हैं या भटकावग्रस्त।
धर्म जब तक जनता के जीवन
में पैठा है तब तक उसमें निहित उदार अंतर्वस्तु को स्वीकार करते हुए उसका उपयोग
आधुनिक जीवन को वैचारिक-दार्शनिक रूप से समृद्ध बनाने के कोई विकल्प नहीं है। कम
से कम उसके मानवीय और सांस्कृतिक पक्ष को कुछ प्रेरणा देने के लिए धर्म को आधुनिक
विमर्श का हिस्सा बनाया जाना चाहिए। कहने की जरूरत नहीं कि प्राचीन काल से आज तक
दर्शन, काव्य और दूसरी ललित कलाएँ धर्म-विद्ध रही हैं।
लेकिन धर्मनिरपेक्ष विचारक धर्म को महज निजी जीवन की चीज मानने से ज्यादा महत्व देने
को तैयार नहीं हैं। ‘धर्म निजी मामला है’
यह मान्यता केवल एक-दूसरे के धर्म का सम्मान करने तक ही
उपयोगी है। सामाजिक इतिहास बताता है कि धर्म वैसा निजी कभी नहीं रहा और न आज की
आधुनिक दुनिया में है। भारत का ही उदाहण लें तो यहाँ सभी धार्मिक उत्सव सामूहिक
होते हैं।
धर्म का भले ही एक अलौकिक
आकाश हमेशा बना रहा हो, जमीन पर उसमें सभ्यता के
प्रत्येक चरण में अस्तित्ववान विचारधराओं का ही संघात मिलता है। उससे मुठभेंड़ किए
बगैर आधुनिकता और प्रगतिशीलता की सम्यक विचारधारा तैयार नहीं की जा सकती।
धार्मिकता का घेरा अमीर तबकों के बजाय उन गरीब तबकों के गिर्द ज्यादा सघन रूप में
बुना होता है, जिन्हें आधुनिक और
प्रगतिशील बनाने के लिए धर्मनिरपेक्षतावादी हलकान रहते हैं।
राजेन्द्र यादव ने ‘हंस’ के अपने एक संपादकीय में
आधुनिक भारत के छह मौलिक चिंतकों का उल्लेख किया था: विवेकानन्द, अरविन्द, गांधी, आचार्य नरेन्द्रदेव, राममनोहर लोहिया और (शायद) अंबेडकर। इनमें विवेकानन्द और अरविंद नव्यवेदांत के
प्रणेता माने जाते हैं। गांधी निजी जीवन में तो धार्मिक व आस्तिक थे ही, उन्होंने हिंदू धर्म सहित दुनिया के प्रायः सभी प्रमुख
धर्मों पर विचार किया था। राजनीति में धार्मिक प्रतीकों का प्रयोग करने के लिए
धर्मनिरपेक्षतावादी उनकी आलोचना भी करते हैं। अपने को पचहत्तर प्रतिशत मार्क्सवादी
मानने वाले आचार्य नरेन्द्रदेव बौद्ध धर्म के निष्णात विद्वान थे। लोहिया नास्तिक
थे, लेकिन उन्होंने न केवल धार्मिक प्रतीकों-प्रसंगों पर विस्तृत विचार किया है,
धर्म और राजनीति के संबंध की भी विवेचना की है। उनका कहना
है, ‘‘हिन्दू धर्म में उदारता और कट्टरता की इस लड़ाई
को खत्म करने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि धर्म से ही लड़ा जाए।’’ अंबेडकर ने न केवल धर्म पर पर्याप्त चिंतन किया है, उन्होंने हिंदू धर्म को त्यागकर बौद्ध धर्म ग्रहण किया।
धर्म को वैचारिक दुनिया से दुत्कार कर धर्मनिरपेक्षता की न तो कोई सम्यक विचारधारा
गढ़ी जा सकती है, न ही कट्टरतावादी शक्तियों
के खिलाफ कारगर संघर्ष किया जा सकता है। तुलसी के उदार राम को आज अगर नहीं बचाया
गया, तो कल की पीढ़ियों के लिए संघ के संकीर्ण राम ही
बच रहेंगे। बाकी आस्था प्रतीकों का भी वही हाल होना है। संघ की सूची में मथुरा में
कृष्ण और काशी में शिव का नंबर राम के पीछे-पीछे चल रहा है।
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