'मोदी युग' की दो परिघटनाएं
प्रेम सिंह
वास्तविक मुद्दों पर ज़मीनी राजनीति और बहस नवसाम्राज्यवादी दखल और लूट से टकराती है. इसीलिए देश आभासी दुनिया में तब्दील किया जा रहा है. मुख्यधारा मीडिया के बरक्स सोशल मीडिया जो भी फायदे हों, अंतत: वह भी आभासी दुनिया की सेवा में लगा होता है. ऐसा नहीं है कि कभी-कभार वास्तविक मुद्दों की बात बुद्धिजीवियों और भाजपेतर नेताओं की और से नहीं होती है. चूंकि वे सभी नवउदारवादी नीतियों पर भाजपा और कांग्रेस के साथ हैं, इसलिए इस आभासी दुनिया पर उसका प्रभाव नहीं पड़ता. आभासी दुनिया का यह तिलस्म टूटना आसान नहीं है. लिहाज़ा, आगे जो भी सरकार बनेगी वह इसी आभासी दुनियां में स्थित सरकार होगी. ज़मीन पर भीड़ लोगों को दौड़ाती और हत्या करती रहेगी और समाज आभासी दुनिया के नशे में गर्क बना रहेगा. मारे जाने वाले केवल और हमेशा मुलसमान या अन्य अल्पसंख्यक होंगे, यह जरूरी नहीं है. कोई भी, पुलिस वाले तक, भीड़तंत्र का शिकार हो सकता है.
भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन और विचारधाराहीनता की वकालत करके सत्ता में आने वाली आम आदमी पार्टी के प्रसंग में इस परिघटना का ट्रेलर देखने को मिला था, जिसे टीम नरेंद्र मोदी ने पूरी फिल्म में तब्दील कर दिया. भ्रष्टाचार विरोध के उन्माद पर सवार होकर हिंदू राष्ट्रवाद का उन्माद परवान चढ़ा है. जिस तरह भ्रष्टाचार विरोध का आंदोलन चलाने वाले सदाचारी नहीं थे, उसी तरह हिंदू राष्ट्रवाद के सिपाही, हिंदू धर्म की बुरी से बुरी व्याख्या के हिसाब से, धार्मिक नहीं हैं. दोनों नवसाम्राज्यवाद की राजनीति के खिलौने हैं, जिन्होंने देश की संवैधानिक धारा के बरक्स हमेशा के लिए नवसाम्राज्यवाद को देश की नियति बना दिया.
दूसरी परिघटना पर बात करें. वाजपेयी काल में सरकार को डर होता था कि एक सीमा के बाद सांप्रदायिक उन्माद फ़ैलाने से विदेशी निवेश आने में बाधा हो सकती है. क्योंकि देशी-विदेशी निवेशकर्ता अपनी पूँजी लगाने के लिए देश में सुरक्षित माहौल की अपेक्षा करते थे. वाजपेयी आरएसएस को धमकाते रहते थे कि वह एक सीमा के बाद सांप्रदायिक उन्माद न फैलाये. वे उसे प्राइवेट पूँजी का सीधा विरोध, जो आरएसएस उस दौर में दिखावे के लिए करता था, करने पर भी धमकी देते थे. 'मोदी युग' में सिक्का बदल गया है. अब देशी-विदेशी प्राइवेट पूँजी के निवेशकार खुद मानते हैं कि समाज में जितना सांप्रदायिक और सामाजिक टकराव (कनफ्लिक्ट) होगा, वे उतना ही सुरक्षित रहेंगे. विदेशी पूँजी और आरएसएस के बीच यह उसी दिन तय हो गया था जब यूरोप-अमेरिका के देशों के कूटनीतिक और बिज़नेस प्रतिनिधि आरएसएस/भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी से दिल्ली में आकर मिले थे. उन्होंने गुजरात दंगों में नरेंद्र मोदी की भूमिका के चलते अपने देशों में उनके प्रवेश पर लगाया प्रतिबन्ध खुद ही रद्द कर दिया था.
मोदी ने देशी-विदेशी निवेशकर्ताओं को निराश नहीं किया. उन्होंने यह कर दिखाया है कि सांप्रदायिक और जातीय उन्माद जितना फैलेगा, देशी कारपोरेट घरानों और विदेशी निवेश के लिए उतना ही अच्छा है. मोदी के कुशल नेतृत्व में हिंदू समाज एक तरफ मुसलमानों के और दूसरी तरफ 'मनुवादियों' के छक्के छुड़ाने में मुस्तैदी से लगा हुआ है. मोदी यह इसलिए कर पाए हैं कि वाजपेयी के बाद कांग्रेस के 10 साल के शासन में धर्मनिरपेक्ष-प्रगतिशील बुद्धिजीवी संस्थाओं के पद-पुरस्कार लेने-देने में मशगूल रहे. जबकि जो अब हो रहा है उसकी ज़मीन वाजपेयी के शासन में अच्छी तरह से तैयार हो गयी थी. उस समय खुशवंत सिंह ने अपने सप्ताहवार कॉलम 'बुरा मानो या भला' में 'आ चुका है फासीवाद' शीर्षक से एक टिप्पणी लिखी थी. उसमें उन्होंने लिखा, "हिन्दुस्तानी ब्रांड का फासीवाद हमारे दरवाज़े पर खड़ा है. इस हिन्दुस्तानी फासीवाद के सबसे बड़े पैरोकार हमारे उप-प्रधानमन्त्री लालकृष्ण अडवाणी हैं. इमरजेंसी के दौरान जेल में उन्होंने हिटलर की 'मेई कैंफ' पढ़ी थी. शिवसेना के सुप्रीमो हिटलर को सुपरमैन कहते नहीं अघाते. उसे लागू करने वाले सबसे ख़ास गुजरात के नरेन्द्र मोदी हैं. इनके अलावा सिंघल, गिरिराज किशोर, तोगड़िया वगैरह तो झंडा उठाये ही हुए हैं." मैंने उस समय 'फासीवादी मुहिम के नायक' शीर्षक से 'जनसत्ता' में लेख लिखा था. तब तक वाजपेयी सरकार के 4 साल पूरे हो चुके थे. मैंने खुशवंत सिंह की टिप्पणी पर सवाल उठाया था कि फासीवाद की मुहिम किसके नेतृत्व में चल रही है? क्योंकि उन्होंने प्रधानमंत्री वाजपेयी को फासीवादी मुहिम से बाहर रखा था. बुद्धिजीवियों की यह खासियत होती है कि वे अपने लिए कोई न कोई कोना तलाश लेते हैं. जैसे खुशवंत सिंह सरीखों ने वाजपेयी का कोना तलाश लिया था.
अभी भी फासीवाद-फासीवाद का शोर मचाने वाले ज्यादातर धर्मनिरपेक्ष-प्रगतिशील बुद्धिजीवियों को इस परिघटना का दंश झेलने वाली आबादी की नहीं, उसके बहाने अपने हितों की चिंता है. इसलिए आगामी चुनाव में सरकार बदलने के बावजूद वे बिना किसी दुविधा के अपने-अपने कोने पकड़ कर व्यस्त हो जायेंगे. लिहाज़ा, 'मोदी युग' में परवान चढ़ी ये दोनों परिघटनाएं भविष्य में दबने वाली नहीं हैं. यह सच्चाई देश के अल्पसंख्यकों को अच्छी तरह समझ लेने की जरूरत है. उन्हें भी जो अस्मितावाद की राजनीति में अपनी शिक्षा और रोजगार की गारंटी मान कर संघर्ष में लगे होते हैं.
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