पिछले करीब चार महीने की अटकलों के बाद दिल्ली में सरकार गठन की दिशा में आधिकारिक पहल हो गई है। उपराज्यपाल नजीब जंग ने राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से सबसे बड़े दल को सरकार बनाने का मौका देने की अनुमति मांगी है। राष्ट्रपति ने उपराज्यपाल का अनुरोध तत्काल गृहमंत्रालय को भेज दिया। विधानसभा में सबसे बड़ा दल भाजपा है। 70 सदस्यीय विधानसभा की संख्या फिलहाल 67 है। लोकसभा चुनाव में भाजपा के तीन विधायक सांसद चुन लिए गए थे। अब 67 सदस्यीय विधानसभा में सहयोगी अकाली दल को मिला कर भाजपा के 29 विधायक हैं। विधानसभा चुनाव में भी भाजपा 32 सीटें जीत कर पहले स्थान पर थीं। हालांकि उस समय उसने सरकार बनाने का दावा पेष नहीं किया था।
उपराज्यपाल ने कहा है कि हालांकि भाजपा ने सरकार बनाने का दावा पेश नहीं किया है, उसे सरकार बनाने को आमंत्रित किया जा सकता है। दिल्ली भाजपा के अध्यक्ष ने कहा है कि सरकार बनाने का प्रस्ताव आने पर उनकी पार्टी विचार करेगी। वे इस बीच दो बार गृहमंत्री से मुलाकात कर चुके हैं। दिल्ली में पार्टी मामलों के प्रभारी केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने इस बाबत गृहमंत्री राजनाथ सिंह से मुलाकात की है। खबर है कि केंद्रीय पार्टी भी दिल्ली में भाजपा सरकार बनाने के प्रस्ताव पर गंभीरतापूर्वक विचार करेगी। हालांकि एक अटकल यह सामने आई है कि भाजपा ने 9 सितंबर को अदालत की तारीख पार करने के लिए यह कवायद की है; असल में उसका इरादा चार राज्यों के चुनाव नतीजे आने के बाद दिल्ली में चुनाव कराने का है। यह भी कहा जा रहा है कि भाजपा के कतिपय बड़े नेताओं को इसलिए अल्पमत सरकार बनाने में आपत्ति है कि बहुमत साबित न हो पाने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की स्थिति पर नकारात्मक असर पड़ेगा।
लेकिन जिस तरह से उच्च स्तर पर सारी कार्रवाई हो रही है, निकट भविष्य में दिल्ली में भाजपा की सरकार बनने की संभावना है। कहना न होगा कि भाजपा और केंद्र सरकार के षिखर नेतृत्व ने दिल्ली में सरकार बनाने का फैसला करके यह कवायद शुरू की है। उपराज्यपाल सबसे बड़े दल के नेता को मुख्यमंत्री की शपथ दिला कर उन्हें अगले छह महीने में बहुमत सिद्ध करने को कहेंगे। भाजपा को दो निर्दलियों और आम आदमी पार्टी (आप) से निष्कासित एक विधायक का समर्थन बताया जाता है। उसे बहुमत के लिए जरूरी 34 का आंकड़ा छूने के लिए दो और विधायकों की जरूरत होगी। जिस तरह से मुख्यतः आप और कुछ हद तक कांग्रेस की ओर से विधायकों की खरीद-फरोख्त के आरोप-प्रत्यारोप लगाए गए हैं, सरकार गठन के बाद भाजपा के लिए बहुमत जुटा लेना मुश्किल नहीं होगा। बल्कि संभावना है कि दल बदल विरोधी कानून की जद से बचने के लिए दरकार संख्या के साथ आप का एक गुट टूट कर भाजपा का समर्थन कर दे।
कांग्रेस के मुकाबले आप के विधायकों की मोलभाव की ताकत ज्यादा होगी। ऐसी खबरें आई थीं कि भाजपा ने कांग्रेस के आठ में से चार विधायकों को अपने पाले में लाने की कोशिश की थी। लेकिन कांग्रेस ने किसी तरह वह नुकसान होने से बचा लिया। अरविंद केजरीवाल के इस्तीफे के बाद से ही चर्चा गरम रही है कि आप के विधायक भाजपा में जाने को तैयार बैठे हैं। विधायकों के टूटने का अंदेषा नहीं होता तो आप नेतृत्व उन्हें भाजपा द्वारा लालच देकर तोड़ने की कोशिशों का हल्ला बार-बार नहीं मचाता। इधर उन्होंने इस बाबत राष्ट्रपति से भी गुहार लगाई है। आम चर्चा है और केजरीवाल भी कहते हैं कि भाजपा ने एक विधायक की कीमत 20 करोड़ लगाई है। हालांकि ताजा स्टिंग आपरेशन में केवल 4 करोड़ की पेशकश की गई है। हो सकता है यह पेशगी हो। जाहिर है, बोली वहीं लगती है जहां बिकाऊ माल होता है। आप के जो नेता आज भाजपा के सरकार गठन के विरोध में बयान दे रहे हैं, हो सकता है कल बड़ा ओहदा लेकर सरकार में बैठे नजर आएं!एक संगठनहीन और विचारधाराहीन पार्टी के विधायकों से प्रतिबद्धता की ज्यादा उम्मीद, वह भी ज्यादा दिनों तक, नहीं की जा सकती। आप का भानुमति का कुनबा बिखर रहा है। भ्रष्टाचार विरोध की लहर पर चुन कर आए आप के ज्यादातर अराजनीतिक विधायक फिलहाल कांग्रेस में तो जाएंगे नहीं। उनकी मंजिल भाजपा ही हो सकती है। ऐसे में यह कयास कि आगे चल कर भाजपा बहुमत साबित नहीं कर पाएगी, मजबूत नहीं लगता।
दिल्ली विधानसभा के चुनाव में 28 सदस्यों के साथ दूसरे स्थान पर रही आप ने कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाई थी। वह सरकार महज 49 दिन चली। मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने जनलोकपाल विधेयक के बहाने अपना इस्तीफा देकर उपराज्यपाल से विधानसभा को स्थगित करने का अनुरोध किया था। कांग्रेस ने समर्थन वापस नहीं लिया था। दरअसल,आप सुप्रीमो की नीयत दिल्ली की जनता का काम करने की नहीं, ‘ इतिहास’ बनाने की थी, जिसे दिल्ली में बनाकर वे बनारस निकल गए! इस सारी कवायद में भाजपा और आप को समर्थन देने वाले दिल्ली के मतदाताओं के साथ खिलवाड़ ही हुआ है।
लिहाजा, दिल्ली में भाजपा और आप को मिल कर दिल्ली की जनता की सेवा के लिए एक मजबूत और स्थायी सरकार बनानी चाहिए। भाजपा और आप के मिल कर सरकार बनाने में कोई विचारधारात्मक या नीतिगत बाधा नहीं है, क्योंकि दोनों नवउदारवादी घराने की पार्टियां हैं। आप सुप्रीमों ने भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआईआई) की बैठक में साफ तौर पर कहा था कि वे पूंजीवाद के पक्षधर हैं। कांग्रेस विरोध भी दोनों का साझा है। दोनों ने विधानसभा चुनाव में कांग्रेस विरोध का झंडा बुलंद करके जीत हासिल की। थोड़ा पीछे लौटें तो देख सकते हैं कि इंडिया अगेंस्ट करप्शन (आईएसी) और भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन, जिससे आप निकली है, में दोनों साथ थे। वह पूरा आंदोलन आरएसएस के अनुषासन में हुआ था। आईएसी और भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की वरिष्ठ और सक्रिय हस्ती किरन बेदी कह चुकी हैं कि भाजपा और आप की विचारधारा में कोई अंतर नहीं है। इसीलिए वे आप के गठन के खिलाफ थीं। आप के ‘सेकुलर’ चेहरे प्रषांत भूषण ने कांग्रेस के समर्थन से आप की सरकार बनाने का विरोध करते हुए कहा था कि वह भाजपा के समर्थन से बनाई जानी चाहिए। आप और भाजपा-आरएसएस के संबंध का सबसे पुख्ता आधार आप सुप्रीमो केजरीवाल का बनारस से नरेंद्र मोदी को चुनाव जितवाना है।
दोनों में परस्परता का एक और आयाम है। दोनों भारतीय संविधान और संस्थाओं के बजाय ‘नैतिक ताकत’ में विश्वासस करती हैं। प्रभात पटनायक ने अपने लेख ‘रूल बाई मसीहाज’ में यह स्पष्ट किया है। एसपी शुक्ला ने भी अपने लेख ‘मायोपिया, डिसटोर्संस एंड ब्लाइंड स्पोट्स इन दि विजन डाक्युमेंट ऑफ आप’ में आप के संविधान पर आधारित संस्थाओं के प्रति नकारात्मक सोच का खुलासा किया है। यह सर्वविदित है कि सरकार गठन के बाद आप के नेताओं ने नई दिल्ली के मालवीय नगर इलाके में विदेशी महिलाओं का रात के वक्त सरेराह ‘न्याय’ करके अपना ‘बजरंगी’ तेवर दिखा दिया था।
जब दोनों पार्टियों की सोच और कार्यशैली में अंतर नहीं है तो उचित यही होगा कि दोनों पार्टियां मिल कर सरकार बनाएं।इससे होर्स ट्रेडिंग नहीं होगी, दोबारा भारी-भरकम चुनाव खर्च नहीं होगा, सरकारी कर्मचारियों का कीमती समय बरबाद नहीं होगा और कांग्रेस के विरुद्ध उन्हें समर्थन देने वाले दिल्ली के मतदाताओं को राहत मिलेगी।
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