सोशलिस्ट पार्टी के 14-15 नवंबर को लखनऊ में आयोजित चौथे राष्ट्रीय
सम्मेलन में पारित आर्थिक प्रस्ताव
वैश्विक आर्थिक संस्थाओं के डिक्टेट
पर उदारीकरण और भूमंडलीकरण/वैश्वीकरण नाम से चल रही नवउदारवादी आर्थिक
नीतियाँ दुनिया भर में, खास तौर से गरीब और कमजोर लोगोँ की भारी तबाही कर रही हैँ।
भारत और विश्व में इन नीतियों की कमियां और कमजोरियाँ बार-बार जाहिर होने के
बावजूद आज का शासक वर्ग बडी बेशर्मी से इन्हें ही चलाते जा रहा है. इन नीतियोँ से
अमीर और गरीब लोगों के बीच की खाई बेतहासा बढती जा रही है। विषमता की यह खाई
विकसित कहे जाने वाले अमीर देशों और अविकसित व विकासशील कहे जाने वाले गरीब देशोँ
के बीच भी तेजी से बढी है। अमीर देश और लोग जहाँ अधिकाधिक अमीरी और ऐशो-आराम का
जीवन जी रहे हैँ, वहीँ गरीब देश और गरीब लोग रोज महामारियोँ, प्राकृतिक आपदाओँ और सम्मानपूर्वक जीने लायक बुनियादी चीजोँ का अभाव झेलने को
मजबूर हैँ. नवउदारवादी नीतियों के चलते पिछले तीन दशकों में असमानता और भ्रष्टाचार
में बेहिसाब बढोत्तरी हुई.
लेकिन सरकारें इन नीतियों के
खिलाफ कुछ भी सुनने/सोचने को तैयार नहीं हैं। वे
केवल विकास दर का आंकडा सामने रखती हैं। युरोप के एक विकसित देश ने अपने यहाँ
कानूनी घोषित वेश्यावृत्ति से होने वाली कमाई को अपनी जीडीपी मेँ जोड कर तेज विकास
का दावा किया तो मौजूदा मोदी सरकार महंगाई और जीडीपी समेत सारे आंकडोँ का आधार बदल
कर दुनिया मेँ सबसे तेज विकास का दावा करने की बेशर्मी कर रही है. जीडीपी मेँ
उत्पादन और खर्च का फासला इस बार एक लाख तीस हजार करोड रुपए से ज्यादा का रखा गया
है और इसे निकाल देने से विकास दर सीधे दो फीसदी कम हो जाता है.
सस्ते आयात, खासकर चीन जैसे देश से,
देशी कारीगरोँ के हुनर को ही खत्म कर रहे हैँ, क्योंकि उनका हाथ
का काम महंगा पडता है. बडे उद्योग भी सस्ते आयात से पीडित हैँ और कपडा, इंजीनियरिंग, मशीनरी और निर्माण जैसे क्षेत्र तो बैठ-से गए हैँ। आटो, मोबाइल, कम्प्यूटर जैसे क्षेत्रोँ
मेँ विदेशी कम्पनियाँ मालामाल हो रही हैँ. पेट्रोलियम क्षेत्र मेँ आत्मनिर्भरता या
कम से कम आयात की नीति को तिलांजलि दे दी गई है. नतीजा है कि लाखों किसानों ने आत्महत्या
कर ली है, करोडों लोग विस्थापित हुए हैं, करोडों लोग बरोजगार हैं, पर्यावरण का विनाश
हो रहा।
पूंजीवादी विकास के इस मॉडल और
अर्थनीति की सबसे सीधी और बुरी मार खेती-किसानी यानी किसानों और आदिवासियों पर पड
रही है. मानसून की अच्छी बरसात के बावजूद खाद की उठान कम होना और किसानों की
आत्महत्या मेँ बढोत्तरी होना यह बताता है कि पिछले पच्चीस-तीस सालों में
नवउदारवादी नीतियों ने खेती-किसानी की कमर तोड दी है। यही कारण इन नीतियों के लागू
होने के बाद से लाखों किसान आत्महत्या कर चुके हैं। खेती मेँ भी सिर्फ विदेशी
जरूरतोँ के लिए सोयाबीन तथा दूसरी व्यावसायिक फसलोँ का जोर बढ रहा है और मुल्क
तेलहन और दलहन जैसी बुनियादी जरूरत की चीजोँ के लिए विदेशी आयात पर निर्भर हो गया
है. गरीब को आज दाल नसीब होना बंद हो गया है जो उसके भेजन मेँ प्रोटीन का एकमात्र
स्रोत है. पूरी की पूरी खेती विदेशी कम्पनियोँ के बीज, कीटनाशक, खाद और खरपतवार नाशक पर निर्भर होती जा रही है और सरकार स्वास्थ और पर्यावरण
के लिए नुकसानदेह जीएम फसलेँ लाने की जिद पाले हुई है. नस्ल सुधार के नाम पर देसी
पशुओँ ही नहीँ, मछलियोँ और मुर्गियोँ समेत हर कहीँ विदेशी कम्पनियोँ का
धंधा बढाया जा रहा है. फसलोँ, फलोँ और पशुओँ की देसी किस्मेँ ही गायब होती जा
रही हैँ. और कभी बर्ड फ्लू तो कभी मैड काउ डिजीज जैसे रोग क्या कहर ढा रहे हैँ
इससे कोई सबक सीखने को तैयार नहीँ है.
मोदी सरकार ने आने के साथ ही
किसानोँ की जमीन हडपने का जो अभियान चलाया था वह तो किसानोँ के प्रतिरोध और विपक्ष
की एकजुटता से कुछ हद तक रुक गया पर सरकार और उसके पीछे खडी विदेशी ताकतोँ की नजर
किसानोँ और आदिवासियोँ की जमीन पर लगी हुई है. सोशलिस्ट पार्टी की शुरू से मांग
रही है कि देश की संपूर्ण भूमि के समान और समुचित उपयोग के लिए राष्ट्रीय भूमि
उपयोग आयोग बनाया जाए जिसमें किसानों, आदिवासियों और दलितों का प्रतिनिधित्व रहे।
सिर्फ जमीन का मामला नहीँ है. अब
तो नदियोँ के पानी को भी बडी कम्पनियोँ और बडे उद्योगोँ के हवाले करने की मुहिम
बडी तेजी से चल रही है. और सारी सरकार और इसकी नीतियाँ विदेशी पूंजी और विदेश
व्यापार समेत उद्योग जगत के लिए बिछी जा रही हैँ। हालांकि इनमेँ कहीँ कोई विकास नहीँ दिखता। न तो औद्योगिक उत्पादन मेँ कोई सुधार है, न विदेश व्यापार मेँ। सरकार बस तेल की कीमतोँ मेँ आई कमी से अपना खजाना भरने
और उद्योग जगत पर हर साल लाखोँ करोड रुपए लुटाने मेँ लगी है। शेयर बाजार और वायदा
बाजार आम निवेशक और किसान के लिए कत्लगाह बन गए हैँ। तीन साल मेँ इनमेँ कोई बदलाव
नहीँ दिखता है। इन नीतियों के चलते नीम की कोटिंग वाली खाद तथा इजरायल की नकल पर
बूंद सिंचाई जैसी बकवास से किसानोँ का कोई भला नहीँ होगा।
नवउदारवादी आर्थिक नीतियोँ ने
आदिवासियोँ का जीवन तहस-नहस कर दिया है। कथित विकास कार्यक्रमोँ के नाम पर करोडोँ
आदिवासियोँ को उनके घरों से विस्थापित किया गया है। उनकी जमीन, जमीन के नीचे का खनिज, नदियोँ का पानी, जंगल के उत्पाद ही नहीँ, रेत और पत्थर तक बेचे जा
रहे हैँ जिसमेँ व्यवसायियोँ के साथ नेता और अधिकारी मालामाल हुए हैँ। दलितोँ के
पास संसाधन के नाम पर पहले से कुछ नहीँ था, नवउदारवादी नीतियों के तहत जल, जंगल, जमीन की लूट
के चलते उन्हें आगे कुछ मिलने की गुंजाइश भी
समाप्त हो रही है। गांवों में रहने की जगह तक की किल्लत हो गई है। कृषि के साथ अर्थव्यवस्था
की रीढ रहे खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश की छूट और वालमार्ट, टेस्को, कारफुर सरीखी बहुराष्ट्रीय
रिटेल चेन कंपनियों को अनुमति देकर पहले ही संकट में डाला जा चुका है।
रोजगार की स्थिति बद से बदतर होती
जा रही है। सरकार का मानना है कि तेज विकास के लिए विदेशी पूंजी निवेश ही
एकमात्र रास्ता है। इसके लिए विदेशी पूंजी निवेशकों को विशेष सहूलियतें दी जाती हैं।
लेकिन उनके द्वारा स्वंयचलित प्रौद्यिगीकी का इस्तेमाल किए जाने के चलते रोजगार-विहीन
विकास (जॉबलेस ग्रोथ) होता है। देश में आठ-दस करोड डिग्रीधारी युवा काम की तलाश मे
दर-दर भटक रहे हैं। जबकि मोदी ने अपने चुनाव पूर्व भाषणों में प्रति वर्ष एक करोड
रोजगार मुहैय्या कराने का वादा किया था। लिहाजा, सोशलिस्ट पार्टी का मानना है कि पूर्ण रोजगार का लक्ष्य
सामने रखकर सहकारिता आधारित स्वरोजगार, कृषि आधारित उद्योग, पशुपालन, वनसंवर्धन, छोटे उद्योग आदि क्षेत्रों में स्वदेशी पूंजी आधारित योजनाएं
क्रियान्वित की जाएं। खेती की जमीन का अधिग्रहण न किया जाए, किसानों को सिंचाई तथा कर्ज की समुचित
सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएं और उपज के किफायती
दामों की गारंटी की जाय।
हाल के दिनों पांच सौ और हजार के नोट अचानक
बंद करके सरकार और समर्थक दावे कर रहे हैं कि इस कदम से भ्रष्टाचार, कालाधन, कालाबाजारी, टैक्स चोरी, प्रोपर्टी की
कीमतों में बनावटी उछाल के साथ सीमा-पार के आतंकवाद की समस्या पर भी लगाम लग
जाएगी। ये बडबोले दावे ही इस कदम के खोखलेपन को जाहिर कर देते हैं। यह फैसला दरअसल, विदेशों में
जमा काला धन नहीं लाने की सरकार की नाकामी को लोगों की निगाह से हटाने की कवायद
है। इसी काले धन से नरेंद्र मोदी ने प्रत्येक भारतीय के बैंक खाते में 15 लाख
रुपया जमा कराने की बात की थी। इस अचानक की गई घोषणा से परेशानी गरीबों को उठानी
पड रही है। वे अपना काम-धंधा छोड कर मुद्रा बदलने के लिए लाइनों में लगे हैं। सोशलिस्ट पार्टी का मानना है कि काला धन पूंजीवादी-नवउदारवादी
नीतियों का अनिवार्य नतीजा है। पूरी दुनिया के स्तर पर यह देखा जा सकता है। जो सरकार
नवउदारवादी नीतियों को पिछली सरकारों से ज्यादा तेजी से चला रही है, उसका काला धन खत्म करने का दावा सिद्धांतत: गलत है। सोशलिस्ट पार्टी नवउदारवादी अर्थनीति को खारिज
करने और स्वावलम्बन के लिए जरूरी विकेन्द्रित और स्थानीय पारिस्थितिकी से मेल खाती
विविधतापूर्ण तथा टिकाऊ विकास नीति लाने की मांग करती है। इसी से सभी लोगोँ को काम
मिलने के साथ देश के प्राकृतिक संसाधनोँ का सही इस्तेमाल होगा। मुल्क अपने
संसाधनोँ और लोगोँ से ही समृद्ध होता है. विकेन्द्रित, विविधतापूर्ण और टिकाऊ
विकास की साफ-सुथरी अवधारणा गांधी, लोहिया, जयप्रकाश नारायण और किशन
पटनायक के चिंतन में मिलती है.
सोशलिस्ट पार्टी का
नारा
समता और भाईचारा
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