हिन्दी के सरलीकरण की नीति
डॉ. राममनोहर लोहिया
सरल भाषा के दो अर्थ हो सकते हैं
| एक यह है कि भाषा हजार-पांच सौ शब्दों तक सीमित कर दी जाए, जो प्रयास 'बेसिक'
इंगलिश के संबंध में किया गया है | दूसरा अर्थ है कि भाषा भाषा सरस हो और बहुजन
समुदाय कि समझ में आए | मैंने मालवीय जी की हिन्दी सुनी है | उससे ज्यादा सरस और
आसान हिन्दुस्तानी मैंने कहीं नहीं सुनी | उनके शब्द ज्यादातर दो या तीन अक्षरों
के होते थे | अगर उनकी भाषा को इसी कसौटी पर कसा जाए कि उसमें अरबी अथवा अंग्रेजी
से उपजे कितने शब्द होते थे, तो वह कड़ी भाषा थी | लेकिन यह नासमझ कसौटी होगी |
बहुजन समुदाय और शायद मुसलमानों की भी समझ के लायक जितनी वह भाषा थी, उससे ज्यादा
और कोई नहीं | आखिर रहीम और जायसी मुसलमान थे या नहीं |
राडियो के समाचार में मुझे एक बार
दो शब्द बार-बार सुनने को मिले, 'फैक्ट्री' और 'बिल' | 'राडियो' का इस्तेमाल मैंने
जान बुझकर किया है, न कि 'रेडियो' | जब भारतीय विद्वान और सरकारी लोग अंतर्राष्ट्रीय
शब्दों की बात करते हैं, तब वे भूल जाते हैं कि इन शब्दों के अनेक रूप हैं | वे
अंग्रेजी रूप को ही अंतर्राष्ट्रीय रूप मान बैठते हैं, जो बड़ी नासमझी है | बर्लिन
में मुझे पहले दिन विश्वविद्दालय यानि यूनिवर्सिटी का रास्ता करीब बीस बार पूछना
पड़ा, क्योंकि उसका जर्मन रूप 'ऊनीवेयरसिटेट' है, जैसे फ्रांसीसी रूप 'ऊनीवरसिते' |
एक बात शासक और विद्वान नहीं समझ रहे हैं कि जिन बाहरी शब्दों को भाषा आत्मसात
किया करती है, उनके रूप और ध्वनी को अपने अनुरूप तोड़ लिया करती है | मैं जब 'रपट'
या 'मजिस्टर' जैसे शब्दों का प्रयोग करता हूँ तो कुछ लोग सोचते हैं कि मैं मनमानी
कर रहा हूँ अथवा विशेष प्रतिभा दिखा रहा हूँ | मैं ऐसा स्त्रष्टा कहाँ ? गंवारों को
ही यह सृजनशक्ति हासिल है | करोड़ों के रंद्दे से 'लालटेन', 'रपट', 'लाटफारम' जैसे
शब्द बने | 60-70 वर्ष पहले के हिंदी उपन्यासों में 'रपट', 'मजिस्टर' जैसे शब्द
मिलते हैं | आज के हिंदी लेखक और विद्वान इन पुरानों की तुलना में समझदार बनने के
बजाय नासमझ बने हैं | बाहरी शब्दों की आमद के बारे में दो नियम पालने चाहिए और
कालांतर में पलेंगे ही | एक नियम यह कि जब अपनी भाषा का कोई शब्द मिल नहीं रहा हो
या गढ़ न पा रहा हो, तभी बाहरी शब्द लेना चाहिए | दूसरा नियम यह कि बाहरी शब्द को
अपनी ध्वनि और रूप के मुताबिक तोड़ते रहना चाहिए और इस सम्बन्ध में गंवारों की जीभ
से सीखना चाहिए |
थोड़ा-सा अपवाद मैं बता दूँ | आजकल
अध्यापक या प्रशासक अक्सर यह कह देते हैं कि हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं में
उन्हें उपयुक्त शब्द नहीं मिलते, तब उनके मुर्खता से झगड़ने के बजाय उन्हें उतर
देना चाहिए कि वे रुसी या अंग्रेजी, जिस किसी शब्दों को जानते हैं, उसका प्रयोग कर
लें और कालांतर में में सब ठीक हो जाएगा | और भी, हिंदी लेखकों को और विद्वानों को
याद रखना चाहिए कि अंतर्राष्ट्रीय के मतलब अंग्रेजी नहीं | और जब वे किसी दूसरी
भाषा से उद्धरण दें तो सर्वदा अंग्रेजी में देकर अपने अज्ञान का परिचय न दें |
मार्क्स अथवा टालस्टाय अथवा सुकरात या ईसू मसीह से उद्धरण अंग्रेजी में कोई
अज्ञानी ही देगा | हिंदी में रोमी लिपि का जहां-तहां लिखना बंद हो जाए तो यह
कुप्रवृति भी धीमी पड़े | इसके अलावा जब तरजुमा करना ही है, तब यूनानी अथवा रूसी से
सीधे हिंदी में क्यूँ न किया जाए, बीच में अंग्रेजी को गैरजरूरी दलाल क्यूँ बनाया
जाए ? दकियानूसी में भी कुछ कमी की जाए तो अच्छा | उतर-पूर्व सीमांत अंचल को जिसे
प्रशासक और उनके नक्काल 'नेफा' कहते हैं, मैंने उर्वसीअम कहा, पूर्व का आखिरी
अक्षर लेकर और बाकी तीन शब्दों का पहला | क्या बढ़िया नाम हो जाता है अपने पूर्वोतर
प्रदेश का |
मैं 'नवभारत टाइम्स' की तारीफ़
करता हूँ कि उसने इस सुझाव को अपनाया लेकिन उसे इस बात में असंगति लगी कि पूर्व का
पहला अक्षर न लेकर आखिरी अक्षर लिया जाए | उसने 'उपूसी' शब्द गढ़ा | उर्वसीअम के मुकाबले में यह शब्द भोंडा तो है
ही, ज्यादा शास्त्रीय भी नहीं है | पड़ोसी असाम में ही एंड नाम का एक सरकारी महकमा
है जिसका 'एन' अक्षर आरंभ से नहीं, बल्कि बीच से लिया गया है | शब्द अगर सुन्दर बन
सकता है तो एक आधा अक्षर बीच से या आखिरी से लिया जा सकता है | ऐसा सब जगह होता है
| और, जो चीज और नियम दूसरी भाषाओं में न भी होते रहे हों, उनके बारे में हिंदी को
कुढ़मगजी न करके अपना रास्ता अपनाना चाहिए | अगर अब भी 'नवभारत टाइम्स' ' उर्वसीअम'
को अपना ले तो कम से कम हिंदीभाषियों में वह वीभत्स शब्द 'नेफा' ख़त्म हो जाए | बात
चली थी 'फैक्ट्रियों' और 'बिल' से और कहाँ जाकर निकली | लेकिन बीच में बहुत कुछ
साफ कर दी गई | मैं समझता हूँ कि 'बिल' शब्द का कानून के प्रारूप के अर्थ में
हिंदी में प्रयोग करना सर्वथा बेवकूफी है | बहुजन समुदाय उसे चूहे या सांप का बिल
समझेगा | यदि विधेयक शब्द ठीक नहीं जंचता तो दूसरा शब्द गढ़ों, हालाँकि मैं जनता
हूँ कि बहुत से शब्द चलते-चलते सरल और कर्णप्रिय हो जाते हैं | रह गई 'फैक्ट्री'
की बात | कोई मुर्ख ही कारखाने से उसे बेहतर समझेगा |
मैं सरल और सरस को प्रायः समअर्थ
समझता हूँ, पूरा नहीं | भाषा को सरल या सरस प्रशासन और विद्वान नहीं बनाया करते |
जैसे और मामलों में वैसे इनमें, समय बलवान है | समय के साथ-साथ कोई अद्वितीय
प्रतिभा वाला गायक, लेखक या भाषक अपना रस-रत्न डालता है | इसीलिए सरकार की शब्दकोष-नीति
मुझे न सिर्फ अटपटी लगी, बल्कि बदनीयत | अगर सरकार विद्वानों की मंडलियां बिठाती,
डोक्टरी, अंजनियरी, विज्ञान वगैरह के शब्द हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के
इस्तेमाल के लिए, एक सहायक कार्य के रूप में, तो मुझे एतराज न होता लेकिन, यह सहायक
कार्य न होकर आवश्यक कार्य हो गया | पहले शब्द निर्माण हो, तब अंग्रेजी हटे |
दुनिया में ऐसा न कभी हुआ और न कभी होगा | भाषा की पहले प्रतिष्ठा होती है, तब
उसका विकास हुआ करता है | मुर्ख अथवा देशद्रोही ही चाह सकता है कि भाषा का पहले
विकास हो तब उसकी प्रतिष्ठा की जाए | इस्तेमाल और समय विकास किया करते हैं |
हिन्दुस्तानी में सात लाख के करीब
शब्द हैं, जबकि अंग्रेजी में अढाई लाख के आसपास | इसके अलावा, अंग्रेजी की शब्द
गढ़ने की शक्ति नष्ट हो चुकी है, जबकि हिंदी की अभी अपनी जवानी पर ही नहीं चढ़ी |
संसार की सबसे धनी भाषा है, हिंदी | लेकिन बर्तनों पर धरे-धरे काई जम गई है | यह
बर्तन मांजने पर ही चमकेंगे | किसी रसायनशाला के अनुसंधान से नहीं | जब कोई जमे
हुए ऊबड़-खाबड़ शब्दों का इस्तेमाल विश्वविद्दालय, न्यायालय, विधायिकाओं वगैरह में
होने लगेगा, तब यह चमकेंगे और इनके अर्थ जमेंगे | हो सकता है कि कुछ समय के लिए
गड़बड़ी और अव्यवस्था हो | लेकिन वह हर हालात में होगी, जब कभी अंग्रेजी से हिंदी का
पलटाव किया जाएगा, जाहे जितने असंख्य शब्दकोश निर्माण क्यूँ न कर लिए गए हों |
पहले प्रतिष्ठा फिर विकास, न कि पहले विकास फिर प्रतिष्ठा | मैं यहाँ एक उदाहरण
देना चाहता हूँ, शब्दों की काई धुलने का | आज हिंदी में 'प्रयत्न' और 'कोशिश' दोनों
शब्द चालू हैं | कुछ अनजान, चाहे संस्कृत चाहे अरबी, मूढ़ मोह के कारन इन दोनों में
से एक शब्द को मार डालना चाहते हैं | सामूहिक सम्पति का नाश करना बुरा है | मुझे
लगता है कि कालांतर में इन दोनों शब्दों के अर्थ अलग-अलग जमेंगे | छोटे प्रयत्न को
कोशिश कहेंगे और बड़ी कोशिश को प्रयत्न | हो सकता है कि हमारे बहुत शब्द मरने लायक
हैं, और समय उन्हें मार देगा, किन्तु अपने धन को बेमतलब नहीं फेंक देना चाहिए |
मैं 'कोशिश' को गैर-संस्कृत उपज
मान बैठा | लेकिन कौन जाने ? कुछ ही दिनों पहले मुझे 'इश्क' और 'आशिक' में तथा
'आसक्ति' में एकरूपता लगी | आखिर फारसी तो संस्कृत की बहन है | इस उद्गम को जो न
जाने उसके लिए भी 'इश्क' शब्द हिंदी के समरूप और समध्वनी होना चाहिए | ऐसे हजारों
शब्द हैं | रही 'इश्क' की बात | सो, प्रीति, प्रेम, इश्क, कामना, जैसे न जाने
कितने शब्द है, जिनके कालांतर में अर्थ जमेंगे और चमकेंगे | जो थोड़ा उद्गम जानते
हैं, उन्हें थोड़ा और रस मिलेगा | साल-डेढ़ साल पहले तक 'कांत' का उद्गम नहीं जानता
था, जब से 'कम्' धातु की शुरुआत जान गया तब रस बढ़ गया | 'रम्' का कहना ही क्या, जो ख़ुशी या सुखी करता है और
जो 'राम' में है और शायद 'प्रेम' में भी | जब से मुझे 'ईश्वर' की 'ईश्' धातु का
भान हुआ, जिसका अर्थ है हुकूमत करना, तब से ईश्वर के उद्गम को समझने में भी और मजा
आने लगा |
भाषा के
प्रश्नों की व्याख्या का अंत कहां ? इसलिए मुझे झटका मारकर अपनी बात खत्म करनी
होगी | हालांकि मैं चाहता हूँ कि हर प्रश्न और पहलू पर बहस हो, हिंदी को सरल करने
पर भी | लेकिन इस बहस का दूसरी बहस से तनिक भी संबंध नहीं होना चाहिए कि अंग्रेजी
फ़ौरन हटे | अंग्रेजी को न हटने देने के लिए कई तरह के षड्यंत्र देश में चालु है |
एक षड्यंत्र है कि हिंदी कठिन और अविकसित है और इसे पहले सरल और विकसित बनाओ | इसी
की तरह दूसरा षड्यंत्र है कि तटदेशीय लोगों का मन अंग्रेजी से हटाओ और सभी जगह के
विधार्थियों और अभिभावकों का मन | इन लोगों का मन कैसे हटेगा जब तक अंग्रेजी के
साथ इज्जत और पैसा जुड़ा हुआ है ? सब प्रचार और रचनात्मक काम मिथ्या है, अगर
अंग्रेजी हटाओ का क्रन्तिकारी काम साथ-साथ नहीं चलता | जब तक अंग्रेजी नहीं हटती,
तब तक लोगों की इच्छाएं बदल नहीं सकती | जहाँ अंग्रेजी हटाने की क्रांतिकारी इच्छा
प्रबल हुई और बाद में सफल वहां बाकी सवाल अपने-आप हल होने लगेंगे | मिसाल के लिए,
अखबारों का सवाल | हिन्दुस्तान ही एक ऐसा स्वतंत्र और सभ्य कहलाने वाला देश है
जिसके तार और दूर-मुद्रक ऐसी भाषा में चलते हों जो लोगों के नहीं है और साथ-साथ विदेशी
है | एक तरफ गलतियों का और दूसरी तरफ जासूसी का स्त्रोत खुला हुआ है | यह सही है
कि अंग्रेजी के अख़बार हिंदी के अखबारों से अच्छे हैं | यह भी सही है कि हिंदी
वालों को अभी जबरदस्त स्वाध्याय करना है | वे बहुत पीछे-देखू हैं और उन्हें अपनी
पीछे-देखूं वृति और साथ-साथ अंग्रेजी वालों की बगल-देखूं वृति से संघर्ष करते हुए
आगे-देखूं बनना है | लेकिन यह सब मिथ्या है जब तक तार और दूर-मुद्रक हिंदी में नहीं
होते | जिस दिन तार और दूर-मुद्रक अंग्रेजी में चलना बंद हो जायेंगे उसके एक हफ्ते
के अन्दर अंग्रेजी के सभी दैनिक अख़बार हिन्दुस्तान में बंद हो जायेंगे | कौन
तरजुमा करेगा | जरा भी तरजुमा करके देखें, जैसे आज हिंदी और मराठी वाले करते हैं |
देश का काम किस
भाषा में चले, यह विद्वानों, लेखकों और साहित्यकारों का प्रश्न नहीं, बल्कि राजकीय
प्रश्न है, विशुद्ध लोक-इच्छा का प्रश्न | मैंने जब सुना कि वर्धा में इकट्ठे करीब
एक हजार राष्ट्रभाषा प्रचारकों के सामने घरमंत्री ने अंग्रेजी को अनंत काल तक रखने
की बात कही तो किसी एक ने भी प्रतिवाद नहीं किया, तब मुझे मिचली जैसी आई | हिंदी
के प्रचारक लेखक वगैरह प्रायः सभी बिक चुके है | जब वे तटीय लोगों कि आड़ लेते है
और कहते हैं कि बंगाली अथवा तमिल लोगों के लिए अंग्रेजी रखना जरुरी है तब उनसे बड़ा
झूठा कोई नहीं | हिंदी के माध्यम देशों से अंग्रेजी को हटाने का झंडा यह लोग क्यों
नहीं उठाते | थोड़ी देर के लिए तटदेशीय लोगों कि बात छोड़ दें, तो भी, मध्यदेशीय
लोगों का किसी क्षेत्र में, चाहे सेना, रेल, तार, न्यायालय, सरकारी दफ्तर वगैरह
में एक क्षण के लिए अंग्रेजी कायम रखना देशद्रोह है | तटदेश में षड्यंत्र का बोल
है, हिंदी की साम्राज्यशाही रोको और अंग्रेजी रखो | मध्यदेश में षड्यंत्र का बोल
है, देश का विघटन रोको और अंग्रेजी रखो | यह षड्यंत्रकारी कौन है और इनका क्या हित
है, इसका विवेचन मई दुसरे प्रसंगों में किया करता हूँ, यहाँ नहीं | देशभक्तों का
बोल है, भारतमाता आजाद जरुर हुई, लेकिन इसकी जीभ कटी हुई है और इसकी जीभ जोड़ो | एक
बार जब भारत माता की जीभ जुड़ जायेगी तब उस जीभ से सरल शब्द निकलेंगे या क्लिष्ट,
सरस या भोंडे, काल निर्णय करेगी | मेरी समझ में काल हिन्दुस्तान के साथ हैं | शर्त
सिर्फ एक है, देश के लोग भी काल के साथ चलें | काल के साथ चलने का मतलब है, पिछले १४
वर्ष की गलतियों के खिलाफ लोक-इक्षा की बगावत | अंग्रेजी हटाओ इस बगावत का
मूलमंत्र है | गंवार, कुली और विधार्थी इसके प्राण है | अच्छा हो विद्वान् और
साहित्यकार भी प्रयत्न करें, इसके सांस अथवा हाथ-पैर बनने का |
-१९६२, जुलाई
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