Thursday 24 May 2018

उभरती शूद्र चेतना की सीमाएं


उभरती शूद्र चेतना की सीमाएं
किशन पटनायक

        
    लालू यादव के मुंह में दूध शक्कर | एक दिन अचानक उन्होंने कहा कि हरिजनों को देवालयों में मुख्य पूजक के रूप में नियुक्त किया जाएगा | क्या लालू जी की राजनीति में इतना दम है ? अभी तक तो उन्होंने अपने को एक सामंती मुख्यमंत्री के रूप में स्थापित करने के लिए ही शुद्र चेतना का इस्तेमाल किया है | लालू यदाव वोट के अलावा अन्य किसी काम के लिए पिछड़ों या दलितों को लगा सकेंगे, इसमें संदेह है | फिर भी लालू यादव के मुहं से जो बात निकली है वह समय की पुकार है |

            उत्तर भारत और खासकर हिंदी भाषी क्षेत्र हिन्दू साम्प्रदायिकता का गढ़ बनता जा रहा है | इसके बारे में  कुछ सोचना और करना होगा | करने को दो स्तर दिखायी देते हैं | हिंदी भाषी इलाकों में ऐसा शुद्र नेतृत्व विकसित हो जो न सिर्फ यादवों का नेतृत्व करे, न सिर्फ पिछड़ो के लिए नौकरी मांगे बल्कि पुरे हिन्दू समाज और हिन्दू धर्म को सुधारने की हिम्मत करे | दूसरा हिंदी साहित्य का एक समाजशास्त्रिय समीक्षा करनी होगी, क्या हिंदी भाषी मनुष्य की सामाजिक दृष्टि और धार्मिक भावनाओं को उदात्त बनाने में हिंदी साहित्य का पर्याप्त योगदान रहा |

            हिंदी भाषी इलाके की अलग एक वास्तविकता जरुर है - मुसलमानों की अधिक जनसंख्या यहाँ है, और यहाँ के हिन्दू अधिक समय तक मुसलमान राजाओं द्वारा शासित रहे | लेकिन यह तो इतिहास है | इतिहास और अतीत को आत्मसात करते हुए साहित्य किसी समाज के जीवन बोध और सामाजिक बोध को पुष्ट करता है | क्या बंगला साहित्य का योगदान बेहतर है ? अगर हाँ, तो भी ज्यादा नहीं है | 7 दिसम्बर के कुछ प्रमुख बंगला अखबारों की सुर्ख़ियों में यह समाचार था कि कुछ जाने माने साम्यवादी बुद्धिजीवी इस वक्त शंकराचार्य से लेकर स्वामी विवेकानंद तक के अध्ययन में जुटे हुए हैं, क्योंकि बंगाल के धर्मनिरपेक्ष राजनैतिक दलों को धार्मिक प्रचार का एक रणकौशल बनाना पड़ रहा है |

            ज्योति बसु पिछले कुछ सालों से सुभाष बोस को अपनाने की कोशिश कर रहे थे | अब शंकराचार्य नहीं तो विवेकानंद को अवश्य अपनाएंगे | अगर चुनाव कौशल के स्तर पर यह समीक्षा अध्ययन आदि हो रहे हैं तो इसका कोई दूरगामी प्रभाव नहीं होने वाला है | अगर राष्ट्र के संकट और भारतीय बौद्धिक संकट को ईमानदारी से समझने की कोशिश हो रही है तो आधुनिकतावादियों के द्वारा धर्म और इतिहास का यह नया अध्ययन सृजनात्मक साबित हो सकता है | अभी भी इसके लिए समय है | बल्कि अभी एक विशेष समय आया है कि आधुनिकतावादी धर्मनिरपेक्ष लोग अपने इतिहास की सकारात्मक और नकारात्मक तत्वों की नए सिरे से समीक्षा करें और आधुनिकता की एक भारतीय दृष्टि विकसित करें | यह काम अगर गंभीरता पूर्वक होगा तो न सिर्फ सांप्रदायिकता का मुकाबला होगा, बल्कि तीसरी दुनिया के लिए एक विश्व दृष्टि का सृजन होगा | जिस बौद्धिक और सांस्कृतिक नवजागरण के अभाव के चलते हिन्दुस्तान का मन और दिमाग सिकुड़ रहा है उसका उदय होगा |

            जातिवाद की जड़ पर प्रहार करने की लालू की दिखावटी घोषणा हो या बंगाल के बुद्धिजीवियों द्वारा विवेकानंद के अध्ययन की जरुरत महसूस करना, इन सबके पीछे संघ परिवार के उस बर्बर करतूत का ही हाथ है | उस घटना ने भारतीय मानस को झकझोरा है ; क्योंकि भारतीय मानस मूलतः ऐसा नहीं है |

            हिटलर के नाजीवाद की शब्दावली से 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' लेकर लाल कृष्ण आडवाणी और उनकी मण्डली जो कुछ हासिल करना चाहती है वह धार्मिक अल्पसंख्यकों के प्रति दुर्भावना जगाकर बहुसंख्यक हिन्दुओं को एकजुट करना मात्र ही नहीं है | यह एकता भी असल में ब्राह्मणवादी व्यवस्था को बरकरार रखने के उद्देश्य के लिए ही चाहिए | हिन्दू समाज कभी उतना अनुदार और जड़ नहीं था जितना भाजपा उसे बनाना चाहती है | पर झूठे प्रचार, दिखावा और नाटकबाजी में भाजपा सबसे आगे बढ़ गई है |

            हाल के वर्षो में उभरी शुद्र चेतना ने जब संघ परिवार की तेज वृद्धि पर अंकुश लगा दिया तो हरिजनों, पिछड़ों और आम्बेडकरवादियों को बहलाने- फुसलाने में संघ परिवार ने अपनी सारी ताकत झोंक दी | बाबा साहेब की बरसी, जो संयोग से छह दिसम्बर को पड़ती है, को ही संघ परिवार ने ज्यादा प्रमुखता दी |बाबरी मस्जिद गिराने की बरसी पर विजय दिवस मनाने का कार्यक्रम थोड़ा पीछे कर दिया गया | जो नई रथयात्राएं निकाली गई वे भी शूद्रों को पटाने के लिए ही थीं |

            शुद्र नेतृत्व ने काफी बड़ा काम किया है | राजनैतिक और सामाजिक जीवन में शूद्रों के उभार को एक निर्णायक दौर बनाना महत्वपूर्ण काम है | पर वे नहीं  समझ पाते कि ब्राह्मण-बनिया नेतृत्व कितना चालाक है | उसके पास सबकुछ है | हर तरह की ताकत है | फिर भी वे सावधान हैं, धर्म, संस्कृति और राष्ट्रीयता का सहारा ले रहा हैं | चौतरफा रणनीति अपना रहे हैं | उसके विपरीत पिछड़ों के पास जनसंख्या के अलावा और कोई ताकत नहीं है | फिर भी वे सोचते हैं कि सिर्फ जातिवाद को बढ़ाकर, गद्दी और नौकरियों में हिस्सा मांगकर सामाजिक न्याय स्थापित कर देंगे | उनको यह बात सूझती नहीं है कि शूद्रों को भी धर्म, संस्कृति और राष्ट्रीयता की रणनीति बनानी पड़ेगी |

            शूद्रों ने अभी तक इस पर ध्यान नहीं दिया है | या फिर सारे प्रचलित धर्म और संस्कृति को यहाँ तक कि राष्ट्रवाद को भी ब्राह्मणवादी कहकर उससे छुट्टी लेने की कोशिश की है | इससे काम नहीं चलने वाला है | सम्यक और गहरी दृष्टि के अभाव में जनसंख्या का बल किसी काम में नहीं आएगा | विद्रोह अपेक्षाकृत सरल होता है | युद्ध और निर्माण जटिल होता है | धर्मनिरपेक्षता और शुद्र चेतना के लोग इस वक्त जिसके आमने सामने खड़े हैं, वह युद्ध है | आजादी के 45 साल बाद हिन्दुस्तान फिर से आर्थिक गुलामी, धार्मिक भेदभाव और सामाजिक एकाधिकार की ओर लौट रहा है | उससे देश को बचाने के लिए एक युद्धनीति यानी समग्र नीति चाहिए |

            डंकेल प्रस्ताव पर हस्ताक्षर हो जाने के बाद देश की राजनीति के प्रमुख समूहों के अन्दर विदेशी स्वार्थों की घुसपैठ हो जाएगी | अगर भाजपा में नहीं हुई है तो हो जाएगी ; शुद्र राजनीति में भी उसका अनुप्रवेश हो जाएगा | विदेशी स्वार्थ भारत को किन विघटनकारी प्रवृतियों को कब तीव्र करना चाहेगा, इसका पता नहीं लगाया जा सकता है; कुल मिलाकर वह अलगाववादी, सम्प्रदायिकवादी, जातिवादी तोड़-फोड़वादी प्रवृतियों को प्रोत्साहित करने में लगा रहेगा | कभी वह क्षेत्रीय अलगाववाद को ज्यादा तीव्र करना चाहेगा; कभी वह सांप्रदायिकता को बढ़ाना चाहेगा; कहीं-कहीं वह जातिवादी नेतृत्व को सांप्रदायिकता का मददगार होने के लिए प्रेरित करेगा | यानी शुद्र राजनीति को गुमराह करने का काम वह भी कर सकता है | विदेशी स्वार्थ अपने चहेतों के लिए मार्ग प्रशस्त करते रहते हैं |

            शुद्र राजनीति के बारे में सिर्फ यह कहा गया है कि उसके उत्थान के प्रारंभिक काल में यह सांप्रदायिकता का काट होगा | इसका मतलब यह नहीं है कि हमेशा और हर स्थिति में साम्प्रदायिकता का काट करेगा | जहां और जब किसी प्रभावी शुद्र जाती की स्थिति दृढ हो जाती हैं, वहांराजनैतिक फायदे के लिए वह सांप्रदायिकता का समर्थक हो सकता है या खुद दंगा करवा सकता है |

            शुद्र राजनीति को कमजोर करने के लिए एक अच्छा हथियार यह है कि जनतंत्र और वोट की राजनीति को नष्ट किया जाय | भारत में तानाशाही की उपकारिता के बारे में अंतर्राष्ट्रीय दादागिरी करने वाले गंभीरता से सोच रहे हैं (मत सर्वेक्षण भी हो रहे हैं) | भाजपा को इसी सोच में शामिल होना पडेगा | तानाशाही से उसका वैचारिक विरोध नहीं है | शुद्र राजनीति की चुनौती को रोकने के लिए अगर यह मददगार होगी तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हो रही इस योजना में भाजपा शामिल हो सकती है | जिस अनुपात में शुद्र राजनीति के अन्दर विदेशी स्वार्थ की घुसपैठ रहेगी, उसी अनुपात में शुद्र राजनीति के द्वारा भी ऐसे काम कराए जा सकते हैं जिससे तानाशाही का पथ प्रशस्त होगा | शुद्र राजनीति कभी भी नहीं चाहेगी कि वोट की राजनीति ख़तम हो, लेकिन कार्यतः वह तानाशाही के अनुकूल स्थितियां बना सकती है | शुद्र नेतृत्व को इन सब खतरों के प्रति चौकन्ना रहना होगा |

            शुद्र चेतना की एक अन्य अभिव्यक्ति उग्र दलित राजनीति में है | बहुजन समाज पार्टी के नेता कांशीराम ने नागपुर में अपनी पार्टी की एक विशाल रैली को सम्बोद्धित करते हुए कि अयोध्या में मंदिर नहीं, सर्वसाधारण का शौचालय बनना चाहिए | अनुसूचित जातियों के प्रतिनिधि होने के नाते कांशीराम को ऐसा कहने का पूरा नैतिक अधिकार है | यह अधिकार ब्राह्मणों या यादवों के प्रतिनिधि को नहीं मिल सकता, क्योंकि ब्राह्मण-यादव के लिए शौचालय एक कर्मक्षेत्र नहीं है |

            धर्म का एक महत्वपूर्ण उपादान पवित्रता है, पवित्रता का मतलब सफाई है | जो प्राथमिक सफाई भी नहीं जानता है, सार्वजनिक स्थलों की सफाई का जिसको न व्यक्तिगत, न श्रेणीगत अनुभव है, वह आत्मा और मन की सफाई तक कैसे पहुँच सकता हैं ? यह धर्मचर्चा का अवश्य एक विषय होना चाहिए | अगर पवित्रता को मन या आत्मा से शुरू करते हैं तब भी यह सवाल उठता है कि आत्मा की यह सफाई अपने तार्किक बिन्दुओं तक पहुंचती है या नहीं? सार्वजनिक स्थलों की सफाई या अपने द्वारा पैदा की गयी गंदगी को साफ़ करने के लिए हाथ नहीं उठता हैं, मन कुंठित हो जाता है, तो क्या आत्मा की पवित्रता प्रामाणिक मानी जायेगी ? सफाई कार्य के प्रति जिसके मन में घृणा का संस्कार है उसकी पवित्रता ढोंगी है या नहीं | यह मनोवैज्ञानिक तथा आध्यात्मिक चर्चा का विषय है |

            कांशीराम कह सकते थे कि एक महान धर्म के योग्य होने के लिए भारत के ब्राह्मणों और कायस्थों को शौचालय से अपना प्रशिक्षण शुरू करना चाहिए | इस अर्थ में रामकृष्ण परमहंस और मोहनदास करमचंद गांधी का रास्ता शुद्धिकरण का रास्ता था | हिन्दू समाज के इस शुद्धिकरण में दलितों को गुरु बनाना पड़ेगा | हिन्दू धर्म की असली एकता उसी दिन शुरू होगी जब ब्राह्मण और राजपूत और बनिया भंगी को अपना गुरु मान कर उससे शुद्धिकरण की विद्या प्राप्त करेगा |

            विडम्बना यह है जब कांशीराम लालू प्रसाद उपरोक्त प्रकार के नाटकीय उदगार प्रकट करते हैं, उनमें यह भाव नहीं रहता है कि भारतीय समाज का पुनर्निर्माण करना है | इसका संकल्प नहीं रहता है कि एक परंपरा को रोकना है, दूसरी परंपरा शुरू करनी है | वे तो उसी पुरानी परंपरा की गंदगी में प्रतिशोध और प्रतिहिंसा की उछल-कूद करना चाहते हैं | आज यहाँ ब्राह्मण हैं कल वहां यादव को या परसों दलित को स्थापित करना चाहते हैं | प्रतिशोध के सिद्धांत को अपना कर शुद्र और दलित उच्च जातियों के विरुद्ध उसी तरह का गुस्सा और द्वेष जाहिर करते हैं जैसा कि साध्वी ऋतंभरा या सैकड़ों भाजपा समर्थक मुसलामानों के खिलाफ अपने भाषण में करते हैं | भाजपा प्रचारित प्रतिरोध के सिद्धांत को वे अनजाने मजबूत करते हैं | अगर शुद्र और दलित नेता भाजपा लहर का मुकाबला करना चाहते हैं तो प्रतिशोध के सिद्धांत को नकारना पड़ेगा | प्रतिशोध के सिद्धांत का माहौल बना रहेगा तो मस्जिद टूटेगी ही, क्योंकि वह ज्यादा आसान है और ज्यादा नाटकीय है | प्रतिशोध के सिद्धांत के तहत शुद्र-दलित-अल्संख्यक गठबंधन कारगर नहीं हो सकता | यहाँ तक कि शुद्र -दलित गठबंधन भी नहीं हो पायेगा |

            आरक्षण की राजनीति करने वाले समझ नहीं पा रहे हैं कि उनको कितना बड़ा हथियार मिला हुआ हैं | उसका इस्तेमाल वे कर नहीं पा रहे हैं | इसका कारण बुद्धिहीनता नहीं है | शुद्र आन्दोलन भारत में बहुत पुराना है | आधुनिक भारत में भी 60-70 साल पुराना है | इन आंदोलनों को बीच बीच में सफलताएँ मिली हैं | इतने अनुभव से गुजरने के बाद बुद्धिहीनता ब्राह्मणों का एक कुप्रचार है और दायित्व से भागनेवाले शूद्रों का एक कवच है | जहाँ भी शिक्षा और शिक्षण का अवसर मिला है, वहां शूद्रों की बुद्धि प्रमाणित हुई है | उनके नेतृत्व में बुद्धि की कमी नहीं है |

            इस वक्त अगर वे अपनी संभावित उंचाई तक नहीं पहुँच रहे हैं तो उसके दो कारण है (1) वे पुरे राष्ट्र और सारी दुनिया के बारे में सोचने का या करने का दायित्व नहीं लेना चाहते | यह काम अभी भी वे ब्राह्मणों-कायस्थों को सौंपना चाहते हैं; (2) तात्कालिक सत्ता का मोह उनमें ब्राह्मण-बनिया से भी ज्यादा है |

            पहला दोष ज्यादा बुनियादी है | भारत की सामाजिक वस्तुस्थिति इतनी बदल चुकी है कि द्विज जातियों के नेतृत्व में कोई सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन का कारगर आन्दोलन आगे होने वाला नहीं है | वह जमाना बीत चूका है जब नेहरु और नम्बुदरीपाद, जयप्रकाश और पी.सी. जोशी, सुभाष बोस और लोकमान्य तिलक न सिर्फ खुद द्विज जाती के थे, बल्कि अपनी-अपनी कमिटियों में सौ फीसदी द्विजों को रखकर प्रगतिशील आन्दोलनों का नेतृत्व कर सकते थे | उनकी विश्वसनीयता बनी रहती थी |

            आगे के लिए सत्य यह है कि या तो शूद्रों, पिछड़ों, दलितों के नेता अपनी-अपनी जाती और उपजाति का नेतृत्व करना छोड़ कर पुरे राष्ट्र का नेतृत्व करने का दायित्व लें, या फिर सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन के आन्दोलनों का सिलसिला ही टूट जायेगा | उसके पीछे घटनाएं जो भी हो रही हो लेकिन 1967 के बाद से यह स्थिति अधिक स्पष्ट हो रही है | विशुद्ध द्विज नेतृत्व का तो सवाल ही नहीं उठता है |  मिश्रित टोलियों में भी द्विजों  की संख्या कम होनी चाहिए | बेहतर है कि सर्वोच्च पदों पर पिछड़ा या दलित ही रहे | केवल आरक्षण से यह होने वाला नहीं | पिछड़ों को अयोग्यता के कवच को तोड़ कर बाहर निकलना होगा |

            क्रन्तिकारी और समाज सुधारक आन्दोलन के लिए द्विजों की क्षमता समाप्त हो चुकी है | अपना नेतृत्व बनाए रखने के लिए उनको या तो कायस्थ बाल ठाकरे की तरह संकीर्ण भावनाओं का सहारा लेना पड़ेगा, या जनतंत्र को सीमित करना पड़ेगा | खास कर समाज सुधारक आन्दोलन तो अब द्विजों के वश में बिलकुल नहीं रह गया है | हिन्दू धर्म और हिन्दू समाज का कोई प्रभावी सुधार करना है तो उसके लिए शुद्र की अगुआई जरुरी है |

            लालू प्रसाद का पहला इलहाम ठीक था; जब उन्होंने हरिजन पुजारियों के बारे में एलान किया | उसमें बड़ी बात यह थी कि पिछड़ो के इस नेता को आरक्षण के आगे का एक कदम दिखाई दिया | बेचारे पुजारी को पूछता कौन है? फिर भी वह जाती और बिचौलियावाद का प्रतीक है | अगर पिछड़े और हरिजन पुजारी हो जायेंगे तो मंदिर में जाती और बिचौलियावाद कमजोर पड़ जाएगा |

            लेकिन मुख्यमंत्री द्वारा नियुक्ति से पुजारी नहीं बनते हैं -लोगों के द्वारा अपनाए जाने से ही बनते हैं | जनसाधारण को, पिछड़ो को तैयार करना होगा कि वे हरिजनवाले मंदिरों में अपना धार्मिक कार्य सम्पन्न करें | यह काम मंत्री का नहीं, नेता का होता है; वोट वाले नेता का नहीं सामाजिक और राष्ट्रिय नेता का | इसकी कठिनाई समझ में आई तो लालू प्रसाद की इच्छा सकती ढीली पड़ गयी; उन्होंने शंकराचार्यों को नामजद करना शुरू कर दिया |

            पुजारी और शंकराचार्य में गुणात्मक फर्क है |  पुजारी धर्म का चपरासी है; शंकराचार्य तो धर्माध्यक्ष जैसा पद है | हिन्दू धर्म में कहीं न कहीं एक जबरदस्त चीज है, एक बुनियादी तत्व ऐसा है कि अभी तक धर्म में मुखियागिरी को जमने नहीं दिया गया है | आदि शंकर के द्वरा डाली गयी शंकराचार्य परंपरा को देश के किसी हिस्से में भी स्वीकृति नहीं मिली | शंकराचार्य का मतलब एक महान मठाधीश हो सकता है जो शास्त्रों का ज्ञाता हो | जनसाधारण के लिए इससे अधिक कुछ नहीं है उस पद में | हिन्दुओं के धार्मिक जीवन में उसका अभी तक कोई स्थान नहीं है | उसके दर्शन के लिए भीड़ नहीं लगती है |

            संघ-परिवार के बढ़ते प्रभाव के साथ-साथ आज शंकराचार्य का महत्व जरुर बढ़ रहा है | राजनीति के माध्यम से भाजपा शंकराचार्य और संगठित संतो का प्रभाव बढाने में लगी हुई है |  अगर इस रफ़्तार से माहौल बदलता (बिगड़ता) जाएगा तो वह दिन निकट है जब शंकराचार्य का स्थान संविधान से ऊँचा हो जाएगा | भ्रष्टाचार या संविधान विरोधी अपराध के लिए किसी शंकराचार्य को गिरफ्तार करना प्रशासन के लिए मुश्किल हो जायेगा | संसद में उस पर टिपण्णी करना मना हो जाएगा | जिस शंकराचार्य को मठों के बाहर कोई पूछता नहीं था, जिसको गीता या भागवत या उपनिषद का अधिकृत व्याख्याकार भी नहीं माना गया है; उसको संसद या संविधान के ऊपर स्थापित करना हिन्दू धर्म की सबसे बुरी घटना होगी |
            हिन्दू धर्म स्वाभाव से मठी नहीं है | न संतों का कोई संगठित समूह होता है | हिन्दू धार्मिक दर्शन के साथ जंगली, घुमक्कड़, निर्वस्त्र (अपरिग्रही) ऋषि मुनियों का ज्यादा मेल बैठता है | हिंदू धर्म की यह मौलिकता और सुन्दरता रही है | इसलिए धर्म के तौर पर हिन्दू धर्म की कोई केन्द्रीय सत्ता नहीं है | कोई भी हिन्दू अपने धर्म की व्याख्या खुद कर सकता है |  हिन्दू धर्म में जितने प्रकार की व्याख्या और संस्करण प्रचलित है, अन्य किसी धर्म में वैसा नहीं है, लेकिन शुरू से ही एक केन्द्रीय सत्ता बनाने का प्रयास ब्राह्मणवाद का रहा है | शंकराचार्य परंपरा केन्द्रीयकरण का ही एक प्रयास है | संघ परिवार का वश चलेगा तो शंकराचार्य को धर्माध्यक्ष बना दिया जाएगा | ऐसे समय में लालू प्रसाद का शंकराचार्य के प्रति आकर्षण बुद्धिभ्रम का लक्षण है | लालू का शंकराचार्य कार्यक्रम सिर्फ तमाशा बनकर नहीं रह गया | पर यह तमाशा शंकराचार्य के पद को महिमामंडित करने के लिए सहायक हो जाएगा |

            कृष्ण का प्रचारक शंकराचार्य का प्रचारक कैसे हो गया ? इस असंतुलन के पीछे भाजपा लहर से घबराहट है | कभी लालू प्रसाद अपने बेटे को कृष्ण बना कर उसको एक राजनैतिक मोहरे के तौर पर इस्तेमाल करते हैं, कभी वो खुद कृष्ण कहलाने की कोशिश करते हैं | कृष्ण और शंकराचार्य मिल जाएंगे तो मथुरा की मस्जिद खतरे में पड़ जायेगी | दरअसल कृष्ण और शंकराचार्य की परंपरा परस्पर विरोधी हैं | लालू की राजनीति में गंभीरता होती तो कोई विद्वान आदमी उन्हें सर्वपल्ली राधाकृष्णन की किताब से यह पढ़कर सुनाता, "कृष्ण वैदिक धर्म के याजकवाद का विरोधी थे और उन सिद्धांतों का प्रचार करते थे, जो उन्होंने (अपने गुरु) घोर आंगिरस से सीखे थे | वैदिक पूजा-पद्धति से उनका विरोध उन स्थानों में प्रत्यक्ष दिखाई पड़ता है, जहां इंद्र पराजित होने के बाद कृष्ण के सम्मुख झुक जाते हैं |" गोवर्धन के किस्से के पीछे यह बात छुपी हुई है कि बालक कृष्ण ने माता यशोदा की इंद्र-पूजा रोकनी चाही और इंद्र का बैर मोल लिया |

            लालू की राजनीति का विश्लेषण इसलिए जरुरी है कि आरक्षण की राजनीति का विश्लेषण करना है | लालू प्रसाद की कमी कहाँ है ? विद्या, बुद्धि की कमी नहीं है | एक प्रभावी और कारगर नेता बनने के लिए जितनी विद्या बुद्धि या सामाजिक पृष्ठभूमि चाहिए, वह सब लालू में है | चन्द्रगुप्त भी नाक-नक़्शे में, सामाजिक पृष्ठभूमि में, उम्र में लालू प्रसाद जैसा रहा होगा | जो फर्क है वह राजनैतिक चरित्र के अभाव में कभी-कभी लालू प्रसाद के दिमाग में अच्छी बातें आती भी हैं तो फिसल जाती है | अन्यथा शुद्र चेतना को साम्प्रदायिकता के विरुद्ध खड़ा करने का सोच सबसे पहले लालू के दिमाग में आया था | राजनैतिक चरित्र के अभाव में अपने दिमाग की बातों को कार्यरूप देने में वह असमर्थ हैं |

            आरक्षण राजनीति का नकारात्मक पहलू यह है कि यह एक सांप्रदायिक आन्दोलन का रूप ले रहा है जबकि इसको एक देशव्यापी सामाजिक आन्दोलन के रूप में उभरना चाहिए था | इस राजनीति में एक समूह की मांगें और अधिकार ही दिखायी पड़ता है | पुरे समाज को इससे क्या फायदा होने वाला, राष्ट्र का भविष्य किस तरह मजबूत होने वाला, समाज कैसे गतिशील होने वाला है, यह बिल्कुल नहीं दिखाई देता है | अगर आरक्षण की राजनीति सिर्फ एक समूह को अधिकार दिलानेवाली है, तो जिनको यह अधिकार नहीं मिलने वाला है वे क्यों इसमें दिलचस्पी लेंगे? अगर ट्रेड यूनियन के साथ समाजवादी आन्दोलन नहीं है तो जो कारखाना मजदूर नहीं है वह क्यों उसका समर्थक होगा ? बोडो आन्दोलन में अगर सम्पूर्ण राष्ट्र या उतर पूर्व भारत की भलाई नहीं है तो बंगाल-असम के लोग क्यों उससे सहयोग करेंगे ? खंडों के अधिकारों के साथ समग्र के विकास का सूत्र प्रकट रूप से दिखाई पड़ना चाहिए, मुखरित होना चाहिए | अन्यथा खंडों के अधिकार-आन्दोलन से समग्र को नुकसान दिखायी दे सकता है | नुकसान हो भी सकता है | शायद इसी कारण वर्गों को सिर्फ अधिकारों के लिए संगठित करने के पक्ष में गांधी नहीं थे | अधिकारों की राजनीति के साथ निर्माण की राजनीति का संयोग न होने पर आन्दोलन की दिशा राष्ट्र के लिए नकारात्मक साबित हो सकती है |

            आरक्षण भारतीय समाज के लिए एक बहुत बड़ी घटना है | आरक्षण आन्दोलन का तार्किक परिणाम एक व्यापक, पूर्णाग राजनीति होनी चाहिए, जिसमें हिन्दू समाज और भारतीय राष्ट्र के पुनर्निर्माण के कार्यक्रम दिखाई देने चाहिए | उदाहरणस्वरुप नयी आर्थिक नीति आरक्षण के सिद्धांत की सबसे बड़ी शत्रु है | सुप्रीम कोर्ट ने प्रतिरक्षा, उच्चतर तकनीक आदि के क्षेत्र को आरक्षण के कानून से अलग रखा है | यह गलत फैसला है | लेकिन नई आर्थिक नीति सम्पूर्ण आर्थिक क्षेत्र को 'मेरिट' (वह भी अंतर्राष्ट्रीय मेरिट) के आधार पर चलाना चाहती है | न सिर्फ उद्योग और व्यापार, कृषि को भी 'मेरिट' के आधार पर संचालित करने की चर्चाएँ शुरू हो गयी हैं | कृषि भूमि का उपयोग उसी के हाथ में रहेगा जो सबसे अधिक पूंजी लगाकर अधिकतम फसल उगा सकेगा | अगर कांशीराम या लालू प्रसाद इसके खिलाफ जेहाद नहीं छेड़ रहे हैं तो शायद वे सोच रहे हैं कि यह राष्ट्र की गुलामी का प्रश्न है तो राष्ट्र का सवाल है | राष्ट्र के सवाल से उनको क्या लेना देना है ? खंडों को अधिकार चाहिए |

            उनको यह समझना होगा कि नई आर्थिक नीति के खिलाफ एक जेहाद छेड़े बगैर और जाति प्रथा के विरूद्ध एक सामाजिक-सांस्कृतिक आन्दोलन खड़ा किये बिना आरक्षण की राजनीति खोखली हो जायेगी | अगर जाति प्रथा विरोधी सामाजिक-सांस्कृतिक आन्दोलन नहीं रहेगा तो शंकराचार्यवाद और मन्दिरवाद मजबूत होकर रहेगा | अगर मुद्राकोष और डंकेल विरोधी अभियान नहीं चलेगा तो उच्च जातियों में भी बेरोजगारी बढ़ेगी, लेकिन जो भी आर्थिक लाभ निकलेगा वह सारा का सारा उच्च जातियों के हाथ में जायेगा | आरक्षण की राजनीति से अभी तक जो फायदा पिछड़ों और दलितों को मिला है भाजपा की सामाजिक नीति और उसके द्वारा समर्थित नयी आर्थिक नीति के फलस्वरूप निस्सार हो जायेगा |

            भाजपा की धर्मनीति असल में एक सामाजिक-सांस्कृतिक नीति है | (आडवाणी ने समझ बूझ कर 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' शब्द चुना है | आडवाणी को यह मालुम है कि इतिहास की किताबों में हिटलर की विचारधारा को 'आर्य राष्ट्रवाद' को समझने के लिए इसी शब्द का प्रयोग हुआ है |) संघ-परिवार के नेतृत्व में इस वक्त सारे देश में सामाजिक-सांस्कृतिक आन्दोलन चल रहा है | लेकिन यह बात संघ-परिवार के लिए सही नहीं है | रा. स्व. संघ के लिए बिलकुल सही नहीं है | संघ राज सत्ता का जरुर इस्तेमाल करना चाहता है, लेकिन उसका उद्देश्य सत्ता और चुनाव के परे है | एक खास प्रकार का समाज, एक खास तरह  की भारतीय संस्कृति, घरातल पर एक ब्राह्मणवादी हिन्दू व्यवस्था, उसका ध्येय है | आर्थिक राजनैतिक धरातल पर ब्राह्मण-बनिया गठबंधन उसका निहित स्वार्थ है |

            इसलिए भाजपा को आरक्षण के खिलाफ एक अलग मोर्चा खोलने की कोई जरुरत नहीं है | अगर राजनीति पर संघ परिवार का नियंत्रण रहेगा, अगर समाज में ब्राह्मण-बनिया काबिज हो जायेंगे, तो मंडल से लड़ने की जरुरत नहीं रह जायेगी | मंदिर पर्याप्त है मंडल को काटने के लिए |

            मंदिर का कार्यक्रम अकेले नहीं चल सकता था | उसकी पूरी विचारधारा है- हर महत्वपूर्ण क्षेत्र में उसके पूरक कार्यक्रम चल रहे हैं | संघ परिवार के नेतृत्व में एक धार्मिक-सामाजिक आन्दोलन देश में चल रहा है | सिनेमा, संचार माध्यम, इतिहास लेखन से लेकर शिक्षा और संगीत के क्षेत्र तक यह आन्दोलन व्याप्त है | अर्थनीति का प्रबल निजीकरण इसको गति दे रहा है | इसके विपरीत आरक्षण के आन्दोलन का कोई समग्र विचार नहीं है | इसका कोई सांस्कृतिक आन्दोलन नहीं है | इसका कोई आर्थिक आन्दोलन नहीं है | इसका कोई शैक्षणिक आन्दोलन नहीं है; कोई इतिहास लेखन नहीं है | यह सिर्फ एक खंड का अधिकार आन्दोलन है | ऐसे में यह मंदिर की काट नहीं हो सकता है |

भारत शूद्रों का होगा
किशन पटनायक
समता प्रकाशन
प्रकाशन वर्ष-1995
पृष्ठ संख्या- 76-86

           


                                                                                                                     

              


Monday 14 May 2018

गौतम कुमार प्रीतम को अविलम्ब रिहा करो




प्रेस विज्ञप्ति

गौतम कुमार प्रीतम को अविलम्ब रिहा करो



 गौतम कुमार प्रीतम सोशलिस्ट युवजन सभा के महासचिव हैं । सोशलिस्ट युवजन सभा सोशलिस्ट पार्टी की युवा इकाई हैं | सोशलिस्ट पार्टी आचार्य नरेंद्रदेवजेपीडॉ लोहियाअच्‍युत पटवर्धनयूसुफ मेहर अली जैसे चिंतकों द्वारा पोषित भारत के समाजवादी आंदोलन और विचारधारा की वाहक सोशलिस्‍ट पार्टी भारतीय चुनाव आयोग में पंजीकृत राजनीतिक पार्टी है। पार्टी का संविधान एवं नीतिपत्र चुनाव आयोग में जमा हैं और उसके सभी प्रस्‍तावप्रेस विज्ञप्तियां एवं कार्यक्रमों संबंधी ब्‍योरे मीडिया और पार्टी के रिकार्ड में उपलब्‍ध हैं।

          गौतम कुमार प्रीतम खुद लंबे अरसे से समाज के वंचित तबकों के हकों के लिए लोकतांत्रिक ढंग से संघर्ष करते आ रहे हैं। वे देश में गांधीवादी, लोहियावादी कार्यकर्ता के रूप में जाने जाते हैं । राजनीतिक-सामाजिक समझ रखने वाले सभी नागरिकों को इन तथ्‍यों की जानकारी है । इसके बावजूद SC/ST (Prevention of Atrocities) Act को प्रभावहीन बनाने के खिलाफ आयोजित 2 अप्रैल भारत बंद में गौतम कुमार प्रीतम को भागलपुर जिला में नेतृत्वकारी भूमिका के साथ सफल बंद कराने के वजह से पुलिस द्वारा दर्ज झूठे मुकदमे के तहत युवा नेता व सोशलिस्ट युवजन सभा के महासचिव गौतम कुमार प्रीतम और अजय रविदास 21 अप्रैल को झंडापुर ओपी बिहपुर पुलिस ने गिरफ्तार किया । उन्हें  गिरफ्तारी के बाद नवगछिया ले जाया गया । उन पर IPC की धारा 147, 149, 342, 188, 353, 504, 05 Assistance Services Act 1960 लगाया गया है | जबकिभागलपुर डीएम ने एक प्रतिनिधि मंडल से वार्ता में दर्ज मुकदमों की वापसी का आश्वासन दिया था । भागलपुर जिला न्यायालय से बेल खारिज हो गया हैअब सोशलिस्ट पार्टी उच्च न्यायालय पटना (बिहार) से बेल लेने की कोशिश कर रही है  

          भाई गौतम भागलपुर जिला में सामाजिक न्याय के सवाल पर हमेशा मुखर आवाज हैं और सक्रिय राजनीतिक कार्यकर्ता तथा नेता के साथ साथ जनगायक भी है। वो कबड्डी संघ भागलपुर के सचिव हैं | भाई गौतम बिहपुर विधानसभा (भागलपुर, बिहार) से  2015 का विधानसभा चुनाव सोशलिस्ट पार्टी से लड़ चुके हैं | अजय रविदास जय प्रकाश नारायण महाविद्यालय छात्रसंघ चुनाव में सोशलिस्ट युवजन सभा के उम्मीदवार थे
सोशलिस्‍ट युवजन सभा मांग करती हैं कि गौतम कुमार प्रीतम को अविलम्ब रिहा किया जाए
नीरज कुमार
अध्यक्ष
सोशलिस्ट युवजन सभा


Saturday 12 May 2018

मेरठ से दिल्ली तक राष्ट्रीय धरोहर बचाओ मार्च

12 मई 2018

प्रेस रिलीज़  
मेरठ से दिल्ली तक राष्ट्रीय धरोहर बचाओ मार्च


      सोशलिस्ट पार्टी (भारत) और खुदाई खिदमतगार ने 1857 के बलिदानियों की याद में 10 मई 2018 को शहीद स्मारक मेरठ से लालकिला दिल्ली तक 'राष्ट्रीय धरोहर बचाओ मार्च' निकाला. मार्च में मेरठ और दिल्ली के नागरिकों ने उत्साह से हिस्सा लिया. 10 मई को सुबह चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय परिसर में स्थापित भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की प्रतिमाओं पर माल्यार्पण कर श्रद्धांजलि दी गई. शहर में स्थापित 1857 की क्रांति के स्थानीय नायक धनसिंह कोतवाल की प्रतिमा को नमन करके लोग शहीद स्मारक पहुंचे और 1857 के शहीदों को सलामी और श्रद्धांजलि दी.

मेरठ शहर के मशहूर 'स्वतंत्रता सेनानी मोहम्मद मियाँ हाउस' में '1857 की क्रांति को किसलिए याद करें' विषय पर गोष्ठी का आयोजन किया गया. गोष्ठी में मुख्य वक्ता के रूप में वरिष्ठ पत्रकार अरुण त्रिपाठी ने कहा कि हिंदू-मुस्लिम एकता और साम्राज्यवाद विरोध के लिए 1857 की क्रांति को याद किया जाना ज़रूरी है. शेखुल हिन्द अकेडमी में भी चर्चा का आयोजन हुआ जिसमें कई वक्ताओं ने 1857 के क्रांतिकारियों और राष्ट्रीय धरोहरों को बचाने के महत्त्व पर प्रकाश डाला.

उसके के बाद लोग रास्ते में परचा बाँटते हुए और सभाएं करते हुए दिल्ली पहुंचे. दिल्ली में 11 मई को खूनी दरवाजे से लालकिला तक मार्च किया गया जिसमें विभिन्न क्षेत्रों में काम करने वाले नागरिकों ने हिस्सा लिया. लोग नारे लगते हुए और परचा बाँटते हुए लालकिला पहुंचे. लाल किला के मुख्य गेट पर 'राष्ट्रीय धरोहर बचाओ मार्च' का समापन हुआ. इस मौके पर सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष डॉ. प्रेम सिंह ने बताया कि सोशलिस्ट पार्टी ने राष्ट्रपति को ज्ञापन देकर अपनी मांग दोहराई है कि बहादुरशाह ज़फर के अवशेष रंगून से दिल्ली लाये जाएँ और 1857 के बलिदानियों की याद में एक विशाल स्मारक बनाया जाए. उन्होंने कहा कि सोशलिस्ट पार्टी राष्ट्रीय धरोहरों को कार्पोरेट घरानों को बेचने के सरकार के निर्णय के खिलाफ राष्ट्रव्यापी अभियान चलाएगी. भारत छोड़ो आंदोलन दिवस के अवसर पर आगामी 9 अगस्त को दिल्ली में 'राष्ट्रीय धरोहर बेचने वाली सरकार सत्ता छोड़ो' रैली का आयोजन करेगी.
     
     
सैयद तहसीन अहमद
कार्यकारी अध्यक्ष
दिल्ली प्रदेश
(मोबाइल : 9654079528)

'Save National Heritage March' held from Meerut to Delhi

May 12, 2018

Press Release

'Save National Heritage March' held from Meerut to Delhi


          Socialist Party (India) and Khudai Khidmatgar took out the 'Save National Heritage March' from martyrs' memorial Meerut to Lal Qila Delhi on May 10, 2018, in memory of the martyrs of 1857. Citizens of Meerut and Delhi participated enthusiastically in the March. In the morning on 10 May tributes were paid to Bhagat Singh, Rajguru and Sukhdev by garlanding their statues established in the campus of Chaudhary Charan Singh University. Tributes were paid to Dhan Singh Kotwal, a prominent local leader of the 1857 revolt, whose statue is establish in the city. After that people reached the martyrs' memorial and offered salute and tributes to the martyrs of 1857.

        
  A seminar was organized on the topic 'Why the Revolution of 1857 should be remembered ' in the famous 'Freedom Fighter Mohammed Miyan House' of Meerut city. Speaking in the seminar as the key speaker senior journalist Arun Tripathi said that he Revolution of 1857 should be remembered to two basic goals - Hindu-Muslim unity and anti-imperialism. A discussion was also held at the Sheikh-ul-Hindu Academy, in which many speakers highlighted the importance of the revolutionaries 1857 and national heritage.

          In the evening people traveled to Delhi while distributing pamphlets and addressing meetings on the way. Prominent citizens from all walks of life joined the March in Delhi. They marched from the Khooni Darwaza to Lal Qila raising slogans and distributing pamphlets. The 'Save National Heritage March'  concluded at Lal Qila's main gate in the evening.

         
 General public gathered in a large number at the venue. Dr. Prem Singh, president, Socialist Party, stated to the public that the Socialist Party, through a memorandum to the president of India, has repeatedly demanded that the mortal remains of Bahadur Shah Zafar be brought to Delhi from Rangoon and a huge memorial in memory of the martyrs of 1857 be built. He further said that the Socialist Party will launch a nationwide campaign against the government's decision of selling the national heritage to corporate houses. He also informed that the Socialist Party will hold a rally on the occasion of the Quit India Movement Day, 9th August, against the government.


Syed Tahseen Ahmad
Executive President
Delhi State
(Mobile: 9654079528)

Tuesday 8 May 2018

Bring back the mortal remains of Bhadur Shah Zafar from Rangoon

8 May 2017
Press Release

Bring back the mortal remains of Bhadur Shah Zafar from Rangoon



                On coming 10 May is the 161th anniversary of 1857 - the country's First War of Independence. 10th May 1857 is the day when the brave Indian soldiers first raised the war-cry for independence against the British regime. To secure freedom for the country by breaking the chains of slavery, on 10th May the soldiers started from Meerut, reaching Delhi on 11th May. In Delhi they requested emperor Bahadur Shah Zafar to lead the First War of Independence. The emperor, at the age of 82, accepted to head the struggle as the suggested by the soldiers and the citizens who had come along with them.  It was an important day for India's struggle for freedom and for the combined Hindu-Muslim heritage of the country. The soldiers could not win the battle due to several reasons, which included the betrayal by some fellow Indians. In this First War of Independence which continued for about 6 months in Delhi and for about a year in the other parts of the country, lakhs of soldiers and common citizens achieved martyrdom. The British subjected the emperor to charges in the military court and in October 1858 sent him in imprisonment to Rangoon.  At the age of 87, on 7 November 1862, he passed away in Rangoon and was buried there in the darkness of anonymity.
                The Socialist Party has appealed to the president of India earlier in 2013 to bring back the mortal remains of Bahadur Shah Zafar, the  emperor who was an excellent poet and secular ruler of his times.  The party had presented a memorandum to the president in this regard. Senior member of the Socialist Party Justice Rajindar Sachar met the president personally in this regard.
            Last year, on the 160th anniversary of the First War of Independence, Dr. Prem Singh, president, Socialist Party, again appealed to the president to bring back the mortal remains of Bhadur Shah Zafar before the end of his illustrious tenure.
            The Socialist Party, in continuation of its efforts, once again submits the memorandum to the present president Shri Ram Nath Kovind requesting him to fulfill the long-pending demand. The Socialist Party believes that this will strengthen and honour the combined heritage of the country's First War of Independence.   
                A copy of the memorandum, sent to the president, is attached.

                Dr. Abhijit Vaidya
                National Spokesperson    



Date: 8 May 2018   
Memorandum

His Excellency
Shri Ram Nath Kovind
President of India

Sub. : Request to bring back the mortal remains of Bahadur Shah Zafar.

Most Respected Sir

The Socialist Party would like to request you to direct the Indian government to bring back the mortal remains of Bahadur Shah Zafar from Rangoon (presently Yangon), Myanmar, to Delhi. The Socialist Party takes inspiration from the thoughts of Dr. Rammanohar Lohia. Dr. Lohia had suggested that in case a leader passes away in a foreign country, her/his last rites should be performed there itself. The Socialist Party accepts this view of Dr. Lohia that would lead to strengthen the bonds of world brotherhood. But the case of Zafar was all together different. He was arrested by the imperialist rulers, tried and brought to Rangoon in captivity in 1857. He passed away there on 7 November 1862, at the age of 87, longing for two yards of mother land for his burial. Zafar, a poet of his own style, expressed his pains of exile in his famous couplet: ‘kitnaa hai badnaseeb Zafar dafn ke liye, do gaz zamin bhi na mili kuu-e-yaar mein’.
As you know, it is a long pending demand made by several citizens of India time to time. The first such request was made by the Bahadur Shah Zafar Memorial Society in 1949. However, the government has not conceded the demand though it knows very well that Zafar had expressed the desire to be buried in India after his death.
One can understand that the colonial rulers kept Zafar, the symbol of revolt and Hindu-Muslim unity, in captivity and then buried him in exile as a non-entity. But it remains  unexplained why the rulers of free India are not ready, even symbolically, to undo the insult and injustice meted out to Zafar by at least bringing back his remains to India and put him to rest at the place of his choice – Dargah Qutbuddin Bakhtiyar Kaki at Mehrauli, where an empty grave awaits his remains.        
Sir, the demand to bring back the remains of Bahadur Shah Zafar to India is not merely an emotional issue for the Socialist Party. Zafar was the leader of our First War of Independence against the colonial powers and a symbol of Hindu-Muslim unity. Therefore, it should be the duty of the Indian government to bring back his remains. Further, a grand memorial should be constructed in the memory of the martyrs of 1857 for the benefit of present and future generations.. 
We would like to draw your kind attention towards the tribute paid to Zafar by Netaji Subhash Chandra Bose, addressing a ceremonial parade of INA at his tomb at Yangon. Netaji ended his speech quoting famous couplet of Zafar: ‘Ghazion mein bu rahegi jab talak iman ki/ Takht-e-London tak chalegi tegh Hindostan ki!’ (As long as there is faith in the heart of the freedom fighters/ The sword of India will pierce through the throne of London). Netaji declared on that occasion, ‘‘This parade is the first occasion when India’s new revolutionary army is paying homage to the spirit of the supreme commander of India’s first revolutionary army.’’
Sir, we make a sincere appeal to you to kindly take personal interest in this matter of great importance and convince the government to concede to the long-pending demand at the earliest.

With best regards

Sincerely yours

Dr. Prem Singh
President
Socialist Party (India)             



बहादुरशाह ज़फर के अवशेष रंगून से वापस लाये जाएं

8 मई 2017
प्रैस रिलीज
बहादुरशाह ज़फर के अवशेष रंगून से वापस लाये जाएं



       इस 10 मई को 1857 की क्रांति यानी भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की 161वीं सालगिरह है. 10 मई 1857 को भारत के जांबाज़ सैनिकों ने ब्रिटिशहुकूमत के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंका था. देश को गुलामी की जंजीरों से आजाद कराने के मकसद से वे मेरठ से 10 मई को चलकर 11 मई को दिल्ली पहुंचे और बादशाह बहादुरशाह जफर से आजादी की जंग का नेतृत्व करने का निवेदन किया. बादशाह ने सैनिकों और उनके साथ जुटे नागरिकों की पेशकश का मान रखा और 82 साल की उम्र में आजादी की पहली जंग का नेतृत्व स्वीकार किया. भारत की आजादी के संघर्ष और सम्मिलित हिंदू-मुस्लिम विरासत का वह महान दिन था.  कई कारणों से सैनिक वह जंग जीत नहीं पाए, जिनमें कुछ भारतीयों द्वारा की गई गद्दारी भी शामिल है. दिल्ली में करीब 6 महीने और बाकी देश में साल भर से ऊपर चले पहले स्वतंत्रता संग्राम में लाखों की संख्या में सैनिक और असैनिक भारतीय वीरगति को प्राप्त हुए.  अंग्रेजों ने बादशाह पर फौजी आदालत में मुकदमा चलाया और अक्तूबर 1858 में उन्हें कैद में दिल्ली से रंगून भेज दिया। वहां 7 नवंबर 1862 को 87 साल की उम्र में उनकी मृत्यु हुई और ‘बदनसीब जफर को वहीं गुमनामी के अंधेरे में दफना दिया गया.
       सोशलिस्ट पार्टी पहली जंगे आजादी के महान नेता, उस जमाने के धर्मनिरपेक्ष शासक और अपनी तरह के बेहतरीन शायर बहादुरशाह जफर के अवशेष वापस लाने की मांग भारत के राष्ट्रपति से 2013 में कर चुकी है. पार्टी ने इस बाबत राष्ट्रपति महोदय को ज्ञापन दिया था. सोशलिस्ट पार्टी के वरिष्‍ठ सदस्‍य जस्टिस राजेंद्र सच्‍चर ने राष्ट्रपति से मुलाकात करके प्रार्थना की थी कि वे बादशाह के अवशेष वापस भारत लाने के लिए सरकार से कहें. पिछले साल, पहली जंगे आज़ादी की 160वीं सालगिरह पर सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष डॉक्टर प्रेम सिंह ने एक बार फिर राष्ट्रपति को वह ज्ञापन भेज कर अपील की कि वे अपने कार्यकाल के आखिरी दिनों में ज़फ़र के अवशेष वापस लाने का जरूरी काम करें.
       अपने प्रयास की निरंतरता में सोशलिस्ट पार्टी ने देश के वर्तमान राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविंद को ज्ञापन देकर यह मांग पूरी करने का निवेदन किया है. सोशलिस्ट पार्टी का मानना है कि इससे देश के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की सम्मिलित विरासत का सम्मान होगा और वह मज़बूत होगी.         

       राष्ट्रपति महोदय को भेजे गए ज्ञापन की प्रति संलग्‍न हैं.  

डॉअभिजीत वैद्य
राष्ट्रीय प्रवक्‍ता




Date: 8 May 2018   
Memorandum

His Excellency
Shri Ram Nath Kovind
President of India

Sub. : Request to bring back the mortal remains of Bahadur Shah Zafar.

Most Respected Sir

The Socialist Party would like to request you to direct the Indian government to bring back the mortal remains of Bahadur Shah Zafar from Rangoon (presently Yangon), Myanmar, to Delhi. The Socialist Party takes inspiration from the thoughts of Dr. Rammanohar Lohia. Dr. Lohia had suggested that in case a leader passes away in a foreign country, her/his last rites should be performed there itself. The Socialist Party accepts this view of Dr. Lohia that would lead to strengthen the bonds of world brotherhood. But the case of Zafar was all together different. He was arrested by the imperialist rulers, tried and brought to Rangoon in captivity in 1857. He passed away there on 7 November 1862, at the age of 87, longing for two yards of mother land for his burial. Zafar, a poet of his own style, expressed his pains of exile in his famous couplet: ‘kitnaa hai badnaseeb Zafar dafn ke liye, do gaz zamin bhi na mili kuu-e-yaar mein’.
As you know, it is a long pending demand made by several citizens of India time to time. The first such request was made by the Bahadur Shah Zafar Memorial Society in 1949. However, the government has not conceded the demand though it knows very well that Zafar had expressed the desire to be buried in India after his death.
One can understand that the colonial rulers kept Zafar, the symbol of revolt and Hindu-Muslim unity, in captivity and then buried him in exile as a non-entity. But it remains  unexplained why the rulers of free India are not ready, even symbolically, to undo the insult and injustice meted out to Zafar by at least bringing back his remains to India and put him to rest at the place of his choice – Dargah Qutbuddin Bakhtiyar Kaki at Mehrauli, where an empty grave awaits his remains.        
Sir, the demand to bring back the remains of Bahadur Shah Zafar to India is not merely an emotional issue for the Socialist Party. Zafar was the leader of our First War of Independence against the colonial powers and a symbol of Hindu-Muslim unity. Therefore, it should be the duty of the Indian government to bring back his remains. Further, a grand memorial should be constructed in the memory of the martyrs of 1857 for the benefit of present and future generations.. 
We would like to draw your kind attention towards the tribute paid to Zafar by Netaji Subhash Chandra Bose, addressing a ceremonial parade of INA at his tomb at Yangon. Netaji ended his speech quoting famous couplet of Zafar: ‘Ghazion mein bu rahegi jab talak iman ki/ Takht-e-London tak chalegi tegh Hindostan ki!’ (As long as there is faith in the heart of the freedom fighters/ The sword of India will pierce through the throne of London). Netaji declared on that occasion, ‘‘This parade is the first occasion when India’s new revolutionary army is paying homage to the spirit of the supreme commander of India’s first revolutionary army.’’
Sir, we make a sincere appeal to you to kindly take personal interest in this matter of great importance and convince the government to concede to the long-pending demand at the earliest.

With best regards

Sincerely yours

Dr. Prem Singh
President
Socialist Party (India)

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