Thursday 2 April 2020

हिन्दू बनाम हिन्दू


हिन्दू बनाम हिन्दू
डॉ. राममनोहर लोहिया


भारतीय इतिहास की सबसे बड़ी लड़ाई, हिंदू धर्म में उदारवाद और कट्टरता की लड़ाई पिछले पाँच हजार सालों से भी अधिक समय से चल रही है और उसका अंत अभी भी दिखाई नहीं पड़ता। इस बात की कोई कोशिश नहीं की गई, जो होनी चाहिए थी कि इस लड़ाई को नजर में रख कर हिंदुस्‍तान के इतिहास को देखा जाए। लेकिन देश में जो कुछ होता है, उसका बहुत बड़ा हिस्‍सा इसी के कारण होता है।
सभी धर्मों में किसी न किसी समय उदारवादियों और कट्टरपंथियों की लड़ाई हुई है। लेकिन हिंदू धर्म के अलावा वे बँट गए, अक्‍सर उनमें रक्‍तपात हुआ और थोड़े या बहुत दिनों की लड़ाई के बाद वे झगड़े पर काबू पाने में कामयाब हो गए। हिंदू धर्म में लगातार उदारवादियों और कट्टरपंथियों का झगड़ा चला आ रहा है जिसमें कभी एक की जीत होती है कभी दूसरे की और खुला रक्‍तपात तो कभी नहीं हुआ है, लेकिन झगड़ा आज तक हल नहीं हुआ और झगड़े के सवालों पर एक धुंध छा गया है।
ईसाई, इस्‍लाम और बौद्ध, सभी धर्मों में झगड़े हुए। कैथोलिक मत में एक समय इतने कट्टरपंथी तत्‍व इकट्ठा हो गए कि प्रोटेस्‍टेंट मत ने, जो उस समय उदारवादी था, उसे चुनौती दी। लेकिन सभी लोग जानते हैं कि सुधार आंदोलन के बाद प्रोटेस्‍टेंट मत में खुद भी कट्टरता आ गई। कैथोलिक और प्रोटेस्‍टेंट मतों के सिद्धांतों में अब भी बहुत फर्क है लेकिन एक को कट्टरपंथी और दूसरे को उदारवादी कहना मुश्किल है। ईसाई धर्म में सिद्धांत और संगठन का भेद है तो इस्‍लाम धर्म में शिया-सुन्नी का बँटवारा इतिहास के घटनाक्रम से संबंधित है। इसी तरह बौद्ध धर्म हीनयान और महायान के दो मतों में बँट गया और उनमें कभी रक्‍तपात तो नहीं हुआ, लेकिन उसका मतभेद सिद्धांत के बारे में है, समाज की व्‍यवस्‍था से उसका कोई संबंध नहीं।
हिंदू धर्म में ऐसा कोई बँटवारा नहीं हुआ। अलबत्‍ता वह बराबर छोटे-छोटे मतों में टूटता रहा है। नया मत उतनी ही बार उसके ही एक नए हिस्‍से के रूप में वापस आ गया। इसीलिए सिद्धांत के सवाल कभी साथ-साथ नहीं उठे और सामाजिक संघर्षों का हल नहीं हुआ। हिंदू धर्म नए मतों को जन्‍म देने में उतना ही तेज है जितना प्रोटेस्‍टेंट मत, लेकिन उन सभी के ऊपर वह एकता का अजीब आवरण डाल देता है जैसी एकता कैथोलिक संगठन ने अंदरूनी भेदों पर रोक लगा कर कायम की है। इस तरह हिंदू धर्म में जहाँ एक और कट्टरता और अंधविश्‍वास का घर है, वहाँ वह नई-नई खोजों की व्‍यवस्‍था भी है।
हिंदू धर्म अब तक अपने अंदर उदारवाद और कट्टरता के झगड़े का हल क्‍यों नहीं कर सका, इसका पता लगाने की कोशिश करने के पहले, जो बुनियादी दृष्टि-भेद हमेशा रहा है, उस पर नजर डालना जरूरी है। चार बड़े और ठोस सवालों - वर्ण, स्‍त्री, संपत्ति और सहनशीलता - के बारे में हिंदू धर्म बराबर उदारवाद और कट्टरता का रुख बारी-बारी से लेता रहा है।
चार हजार साल या उससे भी अधिक समय पहले कुछ हिंदुओं के कान में दूसरे हिंदुओं के द्वारा सीसा गला कर डाल दिया जाता था और उनकी जबान खींच ली जाती थी क्‍योंकि वर्ण व्यवस्था का नियम था कि कोई शूद्र वेदों को पढ़े या सुने नहीं। तीन सौ साल पहले शिवाजी को यह मानना पड़ा था कि उनका वंश हमेशा ब्राह्मणों को ही मंत्री बनाएगा ताकि हिंदू रीतियों के अनुसार उनका राजतिलक हो सके। करीब दो सौ वर्ष पहले, पानीपत की आखिरी लड़ाई में, जिसके फलस्‍वरूप हिंदुस्‍तान पर अंग्रेजों का राज्‍य कायम हुआ, एक हिंदू सरदार दूसरे सरदार से इसलिए लड़ गया कि वह अपने वर्ण के अनुसार ऊँची जमीन पर तंबू लगाना चाहता था। करीब पंद्रह साल पहले एक हिंदू ने हिंदुत्व की रक्षा करने की इच्छा से महात्मा गांधी पर बम फेंका था, क्योंकि उस समय वे छुआछूत का नाश करने में लगे थे। कुछ दिनों पहले तक, और कुछ इलाकों में अब भी हिंदू नाई अछूत हिंदुओं की हजामत बनाने को तैयार नहीं होते, हालाँकि गैर-हिंदुओं का काम करने में उन्‍हें कोई एतराज नहीं होता।
इसके साथ ही प्राचीन काल में वर्ण व्यवस्था के खिलाफ दो बड़े विद्रोह हुए। एक, पूरे उपनिषद में वर्ण व्यवस्था को सभी रूपों में पूरी तरह खत्‍म करने की कोशिश की गई है। हिंदुस्‍तान के प्राचीन साहिय में वर्ण व्यवस्था का जो विरोध मिलता है, उसके रूप, भाषा और विस्‍तार से पता चलता है कि ये विरोध दो अलग-अलग कालों में हुए - एक, आलोचना का काल और दूसरा, निंदा का। इस सवाल को भविष्‍य की खोजों के लिए छोड़ा जा सकता है, लेकिन इतना साफ है कि मौर्य और गुप्‍त वंशों के स्‍वर्ण-काल वर्ण व्यवस्था के एक व्‍यापक विरोध के बाद हुए। लेकिन वर्ण कभी पूरी तरह खत्‍म नहीं होते। कुछ कालों में बहुत सख्‍त होते हैं और कुछ अन्‍य कालों में उनका बंधन ढीला पड़ जाता है। कट्टरपंथी और उदारवादी वर्ण व्यवस्था के अंदर ही एक-दूसरे से जुड़े रहते हैं और हिंदू इतिहास के दो कालों में एक या दूसरी धारा के प्रभुत्‍व का ही अंतर होता है। इस समय उदारवादी का जोर है और कट्टरपंथियों में इतनी हिम्‍मत नहीं है कि वे गौर कर सकें। लेकिन कट्टरता उदारवादी विचारों में घुस कर अपने को बचाने की कोशिश कर रही है। अगर जन्‍मना वर्णों की बात करने का समय नहीं तो कर्मणा जातियों की बात की जाती है। अगर लोग वर्ण व्यवस्था का समर्थन नहीं करते तो उसके खिलाफ काम भी शायद ही कभी करते हैं और एक वातावरण बन गया है जिसमें हिंदुओं की तर्कबुद्धि और उनकी दिमागी आदतों में टकराव है। व्‍यवस्‍था के रूप में वर्ण कहीं-कहीं ढीले हो गए हैं लेकिन दिमागी आदत के रूप में अभी भी मौजूद हैं। इस बात की आशंका है कि हिंदू धर्म में कट्टरता और उदारता का झगड़ा अभी भी हल न हो।
आधुनिक साहित्‍य ने हमें यह बताया है कि केवल स्‍त्री ही जानती है कि उसके बच्‍चे का पिता कौन है, लेकिन तीन हजार वर्ष या उसके भी पहले जबाल को स्‍वयं भी नहीं मालूम था कि उसके बच्‍चे का पिता कौन है और प्राचीन साहित्‍य में उसका नाम एक पवित्र स्‍त्री के रूप में आदर के साथ लिया गया है। हालाँकि वर्ण व्यवस्था ने उसके बेटे को ब्राह्मण बना कर उसे भी हजम कर लिया। उदार काल का साहित्‍य हमें चेतावनी देता है कि परिवारों के स्रोत की खोज नहीं करनी चाहिए क्‍योंकि नदी के स्रोत की तरह वहाँ भी गंदगी होती है। अगर स्‍त्री बलात्‍कार का सफलतापूर्वक विरोध न कर सके तो उसे कोई दोष नहीं होता क्‍योंकि इस साहित्‍य के अनुसार स्‍त्री का शरीर हर महीने नया हो जाता है। स्‍त्री को भी तलाक और संपत्ति का अधिकार है। हिंदू धर्म के स्‍वर्ण युगों में स्‍त्री के प्रति यह उदार दृष्टिकोण मिलता है जबकि कट्टरता के युगों में उसे केवल एक प्रकार की संपत्ति माना गया है जो पिता, पति या पुत्र के अधिकार में रहती है।
इस समय हिंदू स्‍त्री एक अजीब स्थिति में है, जिसमें उदारता भी है और कट्टरता भी। दुनिया के और भी हिस्‍से हैं जहाँ स्‍त्री के लिए सम्‍मानपूर्ण पद पाना आसान है लेकिन संपत्ति और विवाह के संबंध में पुरुष के समान ही स्‍त्री के भी अधिकार हों, इसका विरोध अब भी होता है। मुझे ऐसे पर्चे पढ़ने को मिले जिनमें स्‍त्री को संपत्ति का अधिकार न देने की वकालत इस तर्क पर की गई थी कि वह दूसरे धर्म के व्‍यक्ति से प्रेम करने लग कर अपना धर्म न बदल दे, जैसे यह दलील पुरुषों के लिए कहीं ज्‍यादा सच न हो। जमीन के छोटे-छोटे टुकड़े नहीं हों, यह अलग सवाल है, जो स्‍त्री व पुरुष दोनों वारिसों पर लागू होता है, और एक सीमा से छोटे टुकड़ों के और टुकड़े न होने पाएँ, इसका कोई तरीका निकालना चाहिए। ज‍ब तक कानून या रीति-रिवाज या दिमागी आदतों में स्‍त्री और पुरुष के बीच विवाह और संपत्ति के बारे में फर्क रहेगा, तब तक कट्टरता पूरी तरह खत्‍म नहीं होगी। हिंदुओं के अंदर स्‍त्री को देवी के रूप में देखने की इच्‍छा, जो अपने उच्‍च स्‍थान से कभी न उतरे, उदार से उदार लोगों के दिमाग में भी बेमतलब के और संदेहास्‍पद खयाल पैदा कर देती है। उदारता और कट्टरता एक-दूसरे से जुड़ी रहेंगी जब तक हिंदू अपनी स्‍त्री को अपने समान ही इंसान नहीं मानने लगता।
हिंदू धर्म में संपत्ति की भावना संचय न करने और लगाव न रखने के सिद्धांत के कारण उदार है। लेकिन कट्टरपंथी हिंदू कर्म-सिद्धांत की इस प्रकार व्‍याख्‍या करता है कि धन और जन्‍म या शक्ति का स्‍थान ऊँचा है और जो कुछ है वही ठीक भी है। संपत्ति का मौजूदा सवाल कि मिल्कियत निजी हो या सामाजिक, हाल ही का है। लेकिन संपत्ति की स्‍वीकृत व्‍यवस्‍था या संपत्ति से कोई लगाव न रखने के रूप में यह सवाल हिंदू दिमाग में बराबर रहा है। अन्‍य सवालों की तरह संपत्ति और शक्ति के सवालों पर भी हिंदू दिमाग अपने विचारों को उनकी तार्किक परिणति तक भी नहीं ले जा पाया। समय और व्‍यक्ति के साथ हिंदू धर्म में इतना ही फर्क पड़ता है कि एक या दूसरे को प्राथमिकता मिलती है।
आम तौर पर यह माना जाता है कि सहिष्‍णुता हिंदुओं का विशेष गुण है। यह गलत है, सिवाय इसके कि खुला रक्‍तपात अभी तक उसे पसंद नहीं रहा। हिंदू धर्म में कट्टरपंथी हमेशा प्रभुताशाली मत के अलावा अन्‍य मतों और विश्‍वासों का दमन कर के एकरूपता के द्वारा एकता कायम करने की कोशिश करते रहे हैं लेकिन उन्‍हें भी सफलता नहीं मिली। उन्‍हें अब तक आम तौर पर बचपना ही माना जाता था क्‍योंकि कुछ समय पहले तक विविधता में एकता का सिद्धांत हिंदू धर्म के अपने मतों पर ही लागू किया जाता था, इसलिए हिंदू धर्म में लगभग हमेशा ही सहिष्‍णुता का अंश बल प्रयोग से ज्‍यादा रहता था, लेकिन यूरोप की राष्‍ट्रीयता ने इससे मिलते-जुलते जिस सिद्धांत को जन्‍म दिया है, उससे इसका अर्थ समझ लेना चाहिए। वाल्‍टेयर जानता था कि उसका विरोधी गलती पर ही है, फिर भी वह सहिष्‍णुता के लिए, विरोधी के खुल कर बोलने के अधिकार के लिए लड़ने को तैयार था। इसके विपरीत हिंदू धर्म में सहिष्‍णुता की बुनियाद यह है कि अलग-अलग बातें अपनी जगह पर सही हो सकती हैं। वह मानता है कि अलग-अलग क्षेत्रों और वर्गों में अलग-अलग सिद्धांत और चलन हो सकते हैं, और उनके बीच वह कोई फैसला करने को तैयार नहीं। वह आदमी की जिंदगी में एकरूपता नहीं चाहता, स्‍वेच्‍छा से भी नहीं, और ऐसी विविधता में एकता चाहता है जिसकी परिभाषा नहीं की जा सकती, लेकिन जो अब तक उसके अलग-अलग मतों को एक लड़ी में पिरोती रही है। अत: उसमें सहिष्‍णुता का गुण इस विश्‍वास के कारण है कि किसी की जिंदगी में हस्‍तक्षेप नहीं करना चाहिए, इस विश्‍वास के कारण कि अलग-अलग बातें गलत ही हों यह जरूरी नहीं है, बल्कि वे सच्‍चाई को अलग-अलग ढंग से व्‍यक्त कर सकती हैं।
कट्टरपंथियों ने अक्‍सर हिंदू धर्म में एकरूपता की एकता कायम करने की कोशिश की है। उनके उद्देश्‍य कभी बुरे नहीं रहे। उनकी कोशिशों के पीछे अक्‍सर शायद स्‍थायित्‍व और शक्ति की इच्‍छा थी, लेकिन उनके कामों के नतीजे हमेशा बहुत बुरे हुए। मैं भारतीय इतिहास का एक भी ऐसा काल नहीं जानता जिसमें कट्टरपंथी हिंदू धर्म भारत में एकता या खुशहाली ला सका हो। जब भी भारत में एकता या खुशहाली आई, तो हमेशा वर्ण, स्‍त्री, संपत्ति, सहिष्‍णुता आदि के संबंध में हिंदू धर्म में उदारवादियों का प्रभाव अधिक था। हिंदू धर्म में कट्टरपंथी जोश बढ़ने पर हमेशा देश सामाजिक और राजनैतिक दृष्टियों से टूटा है और भारतीय राष्‍ट्र में, राज्‍य और समुदाय के रूप में बिखराव आया है। मैं नहीं कह सकता कि ऐसे सभी काल जिनमें देश टूट कर छोटे-छोटे राज्‍यों में बँट गया, कट्टरपंथी प्रभुता के काल थे, लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि देश में एकता तभी आई जब हिंदू दिमाग पर उदार विचारों का प्रभाव था।
आधुनिक इतिहास में देश में एकता लाने की कई बड़ी कोशिशें असफल हुईं। ज्ञानेश्‍वर का उदार मत शिवाजी ओर बाजीराव के काल में अपनी चोटी पर पहुँचा, लेकिन सफल होने के पहले ही पेशवाओं की कट्टरता में गिर गया। फिर गुरु नानक के उदार मत से शुरू होनेवाला आंदोलन रणजीत सिंह के समय अपनी चोटी पर पहुँचा, लेकिन जल्‍दी ही सिक्‍ख सरदारों के कट्टरपंथी झगड़ों में पतित हो गया। ये कोशिशें, जो एक बार असफल हो गईं, आजकल फिर से उठने की बड़ी तेज कोशिशें करती हैं, क्‍योंकि इस समय महाराष्‍ट्र और पंजाब से कट्टरता की जो धारा उठ रही है, उसका इन कोशिशों से गहरा और पापपूर्ण आत्मिक संबंध है। इन सब में भारतीय इतिहास के विद्यार्थी के लिए पढ़ने और समझने की बड़ी सामग्री है जैसे धार्मिक संतों और देश में एकता लाने की राजनैतिक कोशिशों के बीच कैसा निकट संबंध है या कि पतन के बीज कहाँ हैं, बिल्‍कुल शुरू में या बाद की किसी गड़बड़ी में या कि इन समूहों द्वारा अपनी कट्टरपंथी असफलताओं को दुहराने की कोशिशों के पीछे क्‍या कारण है? इसी तरह विजयनगर की कोशिश और उसके पीछे प्रेरणा निंबार्क की थी या शंकराचार्य की, और हम्‍पी की महानता के पीछे कौन-सा सड़ा हुआ बीज था, इन सब बातों की खोज से बड़ा लाभ हो सकता है। फिर, शेरशाह और अकबर की उदार कोशिशों के पीछे क्‍या था और औरंगजेब की कट्टरता के आगे उनकी हार क्‍यों हुई?
देश में एकता लाने की भारतीय लोगों और महात्‍मा गांधी की आखिरी कोशिश कामयाब हुई है, लेकिन आंशिक रूप में ही। इसमें कोई शक नहीं कि पाँच हजार वर्षों से अधिक की उदारवादी धाराओं ने इस कोशिश को आगे बढ़ाया, लेकिन इसके तत्‍कालीन स्रोत में, यूरोप के उदारवादी प्रभावों के अलावा क्‍या था - तुलसी या कबीर और चैतन्‍य और संतों की महान परंपरा या अधिक हाल के धार्मिक-राजनैतिक नेता जैसे राममोहन राय और फैजाबाद के विद्रोही मौलवी? फिर, पिछले पाँच हजार सालों की कंट्टरपंथी धाराएँ भी मिल कर इस कोशिश को असफल बनाने के लिए जोर लगा रही हैं और अगर इस बार कट्टरता की हार हुई, तो वह फिर नहीं उठेगी।
केवल उदारता ही देश में एकता ला सकती है। हिंदुस्‍तान बहुत बड़ा और पुराना देश है। मनुष्‍य की इच्‍छा के अलावा कोई शक्ति इसमें एकता नहीं ला सकती। कट्टरपंथी हिंदुत्‍व अपने स्‍वभाव के कारण ही ऐसी इच्‍छा नहीं पैदा कर सकता, लेकिन उदार हिंदुत्‍व कर सकता है, जैसा पहले कई बार चुका है। हिंदू धर्म, संकुचित दृष्टि से, राजनैतिक धर्म, सिद्धांतों और संगठन का धर्म नहीं है। लेकिन देश के राजनैतिक इतिहास में एकता लाने की बड़ी कोशिशों को इससे प्रेरणा मिली है और उनका यह प्रमुख माध्‍यम रहा है। हिंदू धर्म में उदारता और कट्टरता से महान युद्ध को देश की एकता और बिखराव की शक्तियों का संघर्ष भी कहा जा सकता है।
लेकिन उदार हिंदुत्‍व पूरी तरह समस्‍या का हल नहीं कर सका। विविधता में एकता के सिद्धांत के पीछे सड़न और बिखराव के बीज छिपे हैं। कट्टरपंथी तत्‍वों के अलावा, जो हमेशा ऊपर से उदार हिंदू विचारों में घुस आते हैं और हमेशा दिमागी सफाई हासिल करने में रुकावट डालते हैं, विविधता में एकता का सिद्धांत ऐसे दिमाग को जन्‍म देता है जो समृद्ध और निष्क्रिय दोनों ही है। हिंदू धर्म का बराबर छोटे-छोटे मतों में बँटते रहना बहुत बुरा है, जिनमें से हरेक अपना अलग शोर मचाए रखता है और उदार हिंदुत्‍व उनको एकता के आवरण में ढँकने की चाहे जितनी भी कोशिश करे, वे अनिवार्य ही राज्‍य के सामूहिक जीवन में कमजोरी पैदा करते हैं। एक आश्‍चर्यजनक उदासीनता फैल जाती है। कोई इन बराबर होनेवाले बँटवारों की चिंता नहीं करता जैसे सबको यकीन हो कि वे एक-दूसरे के ही अंग हैं। इसी से कट्टरपंथी हिंदुत्व को अवसर मिलता है और शक्त्‍िा की इच्‍छा के रूप में चालक शक्ति मिलती है, हालाँकि उसकी कोशिशों के फलस्‍वरूप और भी ज्‍यादा कमजोरी पैदा होती है।
उदार और कट्टरपंथी हिंदुत्‍व के महायुद्ध का बाहरी रूप आजकल यह हो गया है कि मुसलमानों के प्रति क्‍या रुख हो। लेकिन हम एक क्षण के लिए भी यह न भूलें कि यह बाहरी रूप है और बुनियादी झगड़े जो अभी तक हल नहीं हुए, कहीं अधिक निर्णायक हैं। महात्‍मा गांधी की हत्‍या, हिंदू-मुस्लिम झगड़े की घटना उतनी नहीं थी जितनी हिंदू धर्म की उदार व कट्टरपंथी धाराओं के युद्ध की। इसके पहले कभी किसी हिंदू ने वर्ण, स्‍त्री, संपत्ति और सहिष्‍णुता के बारे में कट्टरता पर इतनी गहरी चोटें नहीं की थीं। इसके खिलाफ सारा जहर इकट्ठा हो रहा था। एक बार पहले भी गांधी जी की हत्‍या करने की कोशिश की गई थी। उस समय उसका खुला ओर साफ उद्देश्‍य यही था कि वर्ण व्यवस्था को बचा कर हिंदू धर्म की रक्षा की जाए। आखिरी और कामयाब कोशिश का उद्देश्‍य ऊपर से यह दिखाई पड़ता था कि इस्‍लाम के हमले से हिंदू धर्म को बचाया जाए, लेकिन इतिहास के किसी भी विद्यार्थी को कोई संदेह नहीं होगा कि यह सब से बड़ा और सब से जघन्‍य जुआ था, जो हारती हुई कट्टरता ने उदारता से अपने युद्ध में खेला। गांधी जी का हत्‍यारा वह कट्टरपंथी तत्‍व था जो हमेशा हिंदू दिमाग के अंदर बैठा रहता है, कभी दबा हुआ और कभी प्रकट, कुछ हिंदुओं में निष्क्रिय और कुछ में तेज। जब इतिहास के पन्‍ने गांधी जी की हत्‍या को कट्टरपंथी-उदार हिंदुत्व के युद्ध की एक घटना के रूप में रखेंगे और उन सभी पर अभियोग लगाएँगे जिन्‍हें वर्णों के खिलाफ और स्त्रियों के हक में, संपत्ति के खिलाफ और सहिष्‍णुता के हक में, गांधी जी के कामों से गुस्‍सा आया था, तब शायद हिंदू धर्म की निष्क्रिता और उदासीनता नष्‍ट हो जाए।
अब तक हिंदू धर्म के अंदर कट्टर और उदार एक-दूसरे से जुड़े क्‍यों रहे और अभी तक उनके बीच कोई साफ और निर्णायक लड़ाई क्‍यों नहीं हुई, यह एक ऐसा विषय है जिस पर भारतीय इतिहास के विद्यार्थी खोज करें तो बड़ा लाभ हो सकता है। अब तक हिंदू दिमाग से कट्टरता कभी पूरी तरह दूर नहीं हुई, इसमें कोई शक नहीं। इस झगड़े का कोई हल न होने के विनाशपूर्ण नतीजे निकले, इसमें भी कोई शक नहीं। जब तक हिंदुओं के दिमाग से वर्ण-भेद बिल्‍कुल ही खत्‍म नहीं होते, या स्‍त्री को बिल्‍कुल पुरुष के बराबर ही नहीं माना जाता, या संपत्ति और व्‍यवस्‍था के संबंध से पूरी तरह तोड़ा नहीं जाता तब तक कट्टरता भारतीय इतिहास में अपना विनाशकारी काम करती रहेगी और उसकी निष्क्रियता को कायम रखेगी। अन्‍य धर्मों की तरह हिंदू धर्म सिद्धांतों और बँधे हुए नियमों का धर्म नहीं है बल्कि सामाजिक संगठन का एक ढंग है और यही कारण है कि उदारता और कट्टरता का युद्ध अभी समाप्ति तक नहीं लड़ा गया और ब्राह्मण-बनिया मिल कर सदियों से देश पर अच्‍छा या बुरा शासन करते आए हैं जिसमें कभी उदारवादी ऊपर रहते हैं कभी कट्टरपंथी।
उन चार सवालों पर केवल उदारता से काम न चलेगा। अंतिम रूप से उनका हल करने के लिए हिंदू दिमाग से इस झगड़े को पूरी तरह खत्‍म करना होगा।
इन सभी हल न होनेवाले झगड़ों के पीछे निर्गुण और सगुण सत्‍य के संबंध का दार्शनिक सवाल है। इस सवाल पर उदार और कट्टर हिंदुओं के रुख में बहुत कम अंतर है। मोटे तौर पर, हिंदू धर्म सगुण सत्‍य के आगे निर्गुण सत्य की खोज में जाना चाहता है, वह सृष्टि को झूठा तो नहीं मानता लेकिन घटिया किस्‍म का सत्‍य मानता है। दिमाग से उठ कर परम सत्‍य तक पहुँचने के लिए वह इस घटिया सत्‍य को छोड़ देता है। वस्‍तुत: सभी देशों का दर्शन इसी सवाल को उठाता है। अन्‍य धर्मों और दर्शनों से हिंदू धर्म का फर्क यही है कि दूसरे देशों में यह सवाल अधिकतर दर्शन में ही सीमित रहा है, जबकि हिंदुस्‍तान में यह जनसाधारण के विश्‍वास का एक अंग बन गया है। दर्शन को संगीत की धुनें दे कर विश्‍वास में बदल दिया गया है। लेकिन दूसरे देशों में दार्शनिकों ने परम सत्‍य की खोज में आम तौर पर सांसारिक सत्‍य से बिल्‍कुल ही इनकार किया है। इस कारण आधुनिक विश्‍व पर उसका प्रभाव बहुत कम पड़ा है। वैज्ञानिक और सांसारिक भावना ने बड़ी उत्‍सुकता से प्रकृति की सारी जानकारी को इकट्ठा किया, अलग-अलग कर के क्रमबद्ध किया और उन्‍हें एक में बाँधनेवाले नियम खोज निकाले। इससे आधुनिक मनुष्‍य को, जो मुख्‍यत: यूरोपीय है, जीवन पर विचार करने का एक खास दृष्टिकोण मिला है। वह सगुण सत्‍य को, जैसा है वैसा ही बड़ी खुशी से स्‍वीकार कर लेता है। इसके अलावा ईसाई मत की नैतिकता ने मनुष्‍य के अच्‍छे कामों को ईश्‍वरीय काम का पद प्रदान किया है। इन सब के फलस्‍वरूप जीवन की असलियतों का वैज्ञानिक और नैतिक उपयोग होता है। लेकिन हिंदू धर्म कभी अपने दार्शनिक आधार से छुटकारा नहीं पा सका। लोगों का साधारण विश्‍वास भी व्‍यक्‍त और प्रकट सगुण सत्‍य से आगे जा कर अव्‍यक्‍त और अप्रकट निर्गुण सत्‍य को देखना चाहता है। यूरोप में भी मध्‍य युग में ऐसा ही दृष्टिकोण था लेकिन मैं फिर कह दूँ कि यह दार्शनिकों तक ही सीमित था और सगुण सत्‍य से इनकार कर के उसे नकली मानता था जबकि आम लोग ईसाई मत को नैतिक विश्‍वास के रूप में मानते थे और उस हद तक सगुण सत्‍य को स्‍वीकार करते थे। हिंदू धर्म ने कभी जीवन की असलियतों से बिल्‍कुल इनकार नहीं किया बल्कि वह उन्‍हें एक घटिया किस्‍म का सत्‍य मानता है और आज तक हमेशा ऊँचे प्रकार के सत्‍य की खोज करने की कोशिश करता रहा है। यह लोगों के साधारण विश्‍वास का अंग है।
एक बड़ा अच्‍छा उदाहरण मुझे याद आता है। कोणार्क के विशाल लेकिन आधे नष्‍ट मंदिर में पत्‍थरों पर हजारों मूर्तियाँ खुदी हुई मिलती हैं। जिंदगी की असलियतों की तस्‍वीरें देने में कलाकार ने किसी तरह की कंजूसी या संकोच नहीं दिखाया है। जिंदगी की सारी विभिन्‍नताओं को उसने स्‍वीकार किया है। उसमें भी एक क्रमबद्ध व्‍यवस्‍था मालूम पड़ती है। सब से नीचे की मूर्तियों में शिकार, उसके ऊपर प्रेम, फिर संगीत और फिर शक्ति का चित्रण है। हर चीज में बड़ी शक्ति और क्रियाशीलता है। लेकिन मंदिर के अंदर कुछ नहीं है, और क्रियाशीलता से अंदर की खामोशी और स्थिरता, मंदिर में बुनियादी तौर पर यही अंकित है। परम सत्‍य की खोज कभी बंद नहीं हुई।
चित्रकला की अपेक्षा वास्‍तुकला और मूर्तिकला के अधिक विकास की भी अपनी अलग कहानी है। वस्‍तुत: जो प्राचीन चित्र अब भी मिलते हैं, वास्‍तुकला पर ही आधारित हैं। संभवत: परम सत्‍य के बारे में अपने विचारों को व्‍यक्‍त करना चित्रकला की अपेक्षा वास्‍तुकला और मूर्तिकला में ज्‍यादा सरल है।
अत: हिंदू व्‍यक्तित्‍व दो हिस्‍सों में बँट गया है। अच्‍छी हालत में हिंदू सगुण सत्‍य को स्‍वीकार कर के भी निर्गुण परम सत्‍य को नहीं भूलता और बराबर अपनी अंतर्दृष्टि को विकसित करने की कोशिश करता रहता है, और बुरी हालत में उसका पाखंड असीमित होता है। हिंदू शायद दुनिया का सबसे बड़ा पाखंडी होता है, क्‍योंकि वह न सिर्फ दुनिया के सभी पाखंडियों की तरह दूसरों को धोखा देता है बल्कि अपने को धोखा दे कर खुद अपना नुकसान भी करता है। सगुण और निर्गुण सत्‍य के बीच बँटा हुआ उसका दिमाग अक्‍सर इसमें उसे प्रोत्‍साहन देता है। पहले, और आज भी, हिंदू धर्म एक आश्‍चर्यजनक दृश्‍य प्रस्‍तुत करता है। हिंदू धर्म अपने माननेवालों को, छोटे-से-छोटे को भी, ऐसी दार्शनिक समानता, मनुष्‍य और मनुष्‍य और अन्‍य वस्‍तुओं की एकता प्रदान करता है जिसकी मिसाल कहीं और नहीं मिलती। दार्शनिक समानता के इस विश्‍वास के साथ ही गंदी से गंदी सामाजिक विषमता का व्‍यवहार चलता है। मुझे अक्‍सर लगता है कि दार्शनिक हिंदू खुशहाल होने पर गरीबों और शूद्रों से पशुओं जैसा, पशुओं से पत्‍थरों जैसा और अन्‍य वस्‍तुओं से दूसरी वस्‍तुओं की तरह व्‍यवहार करता है। शाकाहार और अहिंसा गिर कर छिपी हुई क्रूरता बन जाते हैं। अब तक की सभी मानवीय चेष्‍टाओं के बारे में यह कहा जा सकता है कि एक न एक स्थिति में हर जगह सत्‍य क्रूरता में बदल जाता है और सुंदरता अनैतिकता में, लेकिन हिंदू धर्म के बारे में यह औरों की अपेक्षा ज्‍यादा सच है। हिंदू धर्म ने सचाई और सुंदरता की ऐसी चोटियाँ हासिल कीं जो किसी और देश में नहीं मिलतीं, लेकिन वह ऐसे अँधेरे गढ़ों में भी गिरा है जहाँ तक किसी और देश का मनुष्‍य नहीं गिरा। जब तक हिंदू जीवन की असलियतों को, काम और मशीन, जीवन और पैदावार, परिवार और जनसंख्‍या वृद्धि, गरीबी और अत्‍याचार और ऐसी अन्‍य असलियतों को वैज्ञानिक और लौकिक दृष्टि से स्‍वीकार करना नहीं सीखता, तब तक वह अपने बँटे हुए दिमाग पर काबू नहीं पा सकता और न कट्टरता को ही खत्‍म कर सकता है, जिसने अक्‍सर उसका सत्‍यानाश किया है।
इसका यह अर्थ नहीं कि हिंदू धर्म अपनी भावधारा ही छोड़ दे और जीवन और सभी चीजों की एकता की कोशिश न करे। यह शायद उसका सबसे बड़ा गुण है। अचानक मन में भर जानेवाली ममता, भावना की चेतना और प्रसार, जिसमें गाँव का लड़का मोटर निकलने पर बकरी के बच्‍चे को इस तरह चिपटा लेता है जैसे उसी में उसकी जिंदगी हो, या कोई सूखी जड़ों और हरी शाखों के पेड़ को ऐसे देखता है जैसे वह उसी का एक अंश हो, एक ऐसा गुण है जो शायद सभी धर्मों में मिलता है लेकिन कहीं उसने ऐसी गहरी और स्‍थायी भावना का रूप नहीं लिया जैसा हिंदू धर्म में। बुद्धि का देवता, दया के देवता से बिल्‍कुल अलग है। मैं नहीं जानता कि ईश्‍वर है या नहीं है, लेकिन मैं इतना जानता हूँ कि सारे जीवन और सृष्टि को एक में बाँधनेवाली ममता की भावना है, हालाँकि अभी वह एक दुर्लभ भावना है। इस भावना को सारे कामों, यहाँ तक कि झगड़ों की भी पृष्‍ठभूमि बनाना शायद व्‍यवहार में मुमकिन न हो। लेकिन यूरोप केवल सगुण, लौकिक सत्‍य को स्‍वीकार करने के फलस्‍वरूप उत्‍पन्‍न हुए झगड़ों से मर रहा है, हिंदुस्‍तान केवल निर्गुण, परम सत्‍य को ही स्‍वीकार करने के फलस्‍वरूप निष्क्रियता से मर रहा है। मैं बेहिचक कह सकता हूँ कि मुझे सड़ने की अपेक्षा झगड़े से मरना ज्‍यादा पसंद है। लेकिन विचार और व्‍यवहार के क्‍या यही दो रास्‍ते मनुष्‍य के सामने हैं? क्‍या खोज की वैज्ञानिक भावना का एकता की रागात्‍मक भावना से मेल बैठाना मुमकिन नहीं है, जिसमें एक दूसरे के अधीन न हो और समान गुणोंवाले दो कर्मों के रूप में दोनों बराबरी की जगह पर हों। वैज्ञानिक भावना वर्ण के खिलाफ और स्त्रियों के हक में, संपत्ति के खिलाफ और सहिष्‍णुता के हक में काम करेगी और धन पैदा करने के ऐसे तरीके निकालेगी जिससे भूख और गरीबी दूर होगी। एकता की सृजनात्‍मक भावना वह रागात्‍मक शक्ति पैदा करेगी जिसके बिना मनुष्‍य की बड़ी-से-बड़ी कोशिशें लोभ, ईर्ष्‍या, शक्ति और घृणा में बदल जाती हैं।
यह कहना मुश्किल है कि हिंदू धर्म यह नया दिमाग पा सकता है और वैज्ञानिक और रागात्‍मक भावनाओं में मेल बैठ सकता है या नहीं। लेकिन हिंदू धर्म दरअसल है क्‍या? इसका कोई एक उत्‍तर नहीं, बल्कि कई उत्‍तर हैं। इतना निश्चित है कि हिंदू धर्म कोई खास सिद्धांत या संगठन नहीं है न विश्‍वास और व्‍यवहार का कोई नियम उसके लिए अनिवार्य ही है। स्‍मृतियों और कथाओं, दर्शन और रीतियों की एक पूरी दुनिया है जिसका कुछ हिस्‍सा बहुत ही बुरा है और कुछ ऐसा है जो मनुष्‍य के काम आ सकता है। इन सब से मिल कर हिंदू दिमाग बनता है जिसकी विशेषता कुछ विद्वानों ने सहिष्‍णुता और विविधता में एकता बताई है। हमने इस सिद्धांत की कमियाँ देखीं और यह देखा कि दिमागी निष्क्रियता दूर करने के लिए कहाँ उसमें सुधार करने की जरूरत है। इस सिद्धांत को समझने में आम तौर पर यह गलती की जाती है कि उदार हिंदू धर्म हमेशा अच्‍छे विचारों और प्रभावों को अपना लेता है चाहे वे जहाँ से भी आए हों, जबकि कट्टरता ऐसा नहीं करती। मेरे खयाल में यह विचार अज्ञानपूर्ण है। भारतीय इतिहास के पन्‍नों में मुझे ऐसा कोई काल नहीं मिला जिसमें आजाद हिंदू ने विदेशों में विचारों या वस्‍तुओं की खोज की हो। हिंदुस्‍तान और चीन के हजारों साल के संबंध में मैं सिर्फ पाँच वस्‍तुओं के नाम जान पाया हूँ जिनमें सिंदूर भी है, जो चीन से भारत लाई गई। विचारों के क्षेत्र में कुछ भी नहीं आया।
आजाद हिंदुस्‍तान का आम तौर पर बाहरी दुनिया से एकतरफा रिश्‍ता होता था जिसमें कोई विचार बाहर से नहीं आते थे और वस्‍तुएँ भी कम ही आती थीं, सिवाय चाँदी आदि के। जब कोई विदेशी समुदाय आ कर यहाँ बस जाता और समय बीतने पर हिंदू धर्म का ही एक अंग या वर्ण बनने की कोशिश करता तब जरूर कुछ विचार और कुछ चीजें अंदर आतीं। इसके विपरीत गुलाम हिंदुस्‍तान और उस समय का हिंदू धर्म विजेता की भाषा, उसकी आदतों और उसके रहन-सहन की बड़ी तेजी से नकल करता है। आजादी में दिमाग की आत्‍मनिर्भरता के साथ गुलामी में पूरा दिमागी दीवालियापन मिलता है। हिंदू धर्म की इस कमजोरी को कभी नहीं समझा गया और यह खेद की बात है कि उदारवादी हिंदू अज्ञानवश, प्रचार के लिए इसके विपरीत बातें फैला रहे हैं। आजादी की हालत में हिंदू दिमाग खुला जरूर रहता है, लेकिन केवल देश के अंदर होनेवाली घटनाओं के प्रति। बाहरी विचारों और प्रभावों के प्रति तब भी बंद रहता है। यह उसकी एक बड़ी कमजोरी है और भारत के विदेशी शासन का शिकार होने का एक कारण है। हिंदू दिमाग को अब न सिर्फ अपने देश के अंदर की बातों बल्कि बाहर की बातों के प्रति भी अपना दिमाग खुला रखना होगा और विविधता में एकता के अपने सिद्धांत को सारी दुनिया के विचार और व्‍यवहार पर लागू करना होगा।
आज हिंदू धर्म में उदारता और कट्टरता की लड़ाई ने हिंदू-मुस्लिम झगड़े का ऊपरी रूप ले लिया है लेकिन हर ऐसा हिंदू जो अपने धर्म और देश के इतिहास से परिचित है, उन झगड़ों की ओर भी उतना ही ध्‍यान देगा जो पाँच हजार साल से भी अधिक समय से चल रहे हैं और अभी तक हल नहीं हुए। कोई हिंदू मुसलमानों के प्रति सहिष्‍णु नहीं हो सकता जब तक कि वह उसके साथ ही वर्ण और संपत्ति के विरुद्ध और स्त्रियों के हक में काम न करे। उदार और कट्टर हिंदू धर्म की लड़ाई अपनी सबसे उलझी हुई स्थिति में पहुँच गई है और संभव है कि उसका अंत भी नजदीक ही हो। कट्टरपंथी हिंदू अगर सफल हुए तो चाहे उनका उद्देश्‍य कुछ भी हो, भारतीय राज्‍य के टुकड़े कर देंगे न सिर्फ हिंदू-मुस्लिम दृष्टि से बल्कि वर्णों और प्रांतों की दृष्टि से भी। केवल उदार हिंदू ही राज्‍य को कायम कर सकते हैं। अत: पाँच हजार वर्षों से अधिक की लड़ाई अब इस स्थिति में आ गई है कि एक राजनैतिक समुदाय और राज्‍य के रूप में हिंदुस्‍तान के लोगों की हस्‍ती ही इस बात पर निर्भर है कि हिंदू धर्म में उदारता की कट्टरता पर जीत हो।
धार्मिक और मानवीय सवाल आज मुख्‍यत: एक राजनैतिक सवाल है। हिंदू के सामने आज यही एक रास्‍ता है कि अपने दिमाग में क्रांति लाए या फिर गिर कर दब जाए। उसे मुसलमान और ईसाई बनना होगा और उन्‍हीं की तरह महसूस करना होगा। मैं हिंदू-मुस्लिम एकता की बात नहीं कर रहा क्‍योंकि वह एक राजनैतिक, संगठनात्‍मक या अधिक से अधिक सांस्‍कृतिक सवाल है। मैं मुसलमान और ईसाई के साथ हिंदू की रागात्‍मक एकता की बात कर रहा हूँ, धार्मिक विश्‍वास और व्‍यवहार में नहीं, बल्कि इस भावना में कि ''मैं वह हूँ''। ऐसी रागात्‍मक एकता हासिल करना कठिन मालूम पड़ सकता है, या अक्‍सर एक तरफ हो सकता है और उसे हत्‍या और रक्‍तपात की पीड़ा सहनी पड़ सकती है। मैं यहाँ अमरीकी गृह-युद्ध की याद दिलाना चाहूँगा जिसमें चार लाख भाइयों ने भाइयों को मारा और छह लाख व्‍यक्ति मरे लेकिन जीत की घड़ी में अब्राहम लिंकन और अमरीका के लोगों ने उत्‍तरी और दक्षिणी भाइयों के बीच ऐसी ही रागात्‍मक एकता दिखाई। हिंदुस्‍तान का भविष्‍य चाहे जैसा भी हो, हिंदू को अपने आप को पूरी तरह बदल कर मुसलमान के साथ ऐसी रागात्‍मक एकता हासिल करनी होगी। सारे जीवों और वस्‍तुओं की रागात्‍मक एकता में हिंदू का विश्‍वास भारतीय राज्‍य की राजनैतिक जरूरत भी है कि हिंदू मुलसमान के साथ एकता महसूस करे। इस रास्‍ते पर बड़ी रुकावटें और हारें हो सकती हैं, लेकिन हिंदू दिमाग को किस रास्‍ते पर चलना चाहिए, यह साफ है।
कहा जा सकता है कि हिंदू धर्म में उदारता और कट्टरता की इस लड़ाई को खत्‍म करने का सब से अच्‍छा तरीका यह है कि धर्म से ही लड़ा जाए। यह हो सकता है लेकिन रास्‍ता टेढ़ा है और कौन जाने कि चालाक हिंदू धर्म, विरोधियों को भी अपना एक अंग बना कर निगल न जाए। इसके अलावा कट्टरपंथियों को जो भी अच्‍छे समर्थक मिलते हैं, वह कम पढ़े-लिखे लोगों में और शहर में रहनेवालों में। गाँव के अनपढ़ लोगों में तत्‍काल चाहे जितना भी जोश आ जाए वे उसका स्‍थायी आधार नहीं बन सकते। सदियों की बुद्धि के कारण पढ़े-लिखे लोगों की तरह गाँववाले भी सहिष्‍णु होते हैं। कम्‍युनिज्‍म या फासिज्‍म जैसे लोकतंत्रविरोधी सिद्धांतों से ताकत पाने की खोज में, जो वर्ण और नेतृत्‍व के मिलते-जुलते विचारों पर आधारित हैं, हिंदू धर्म का कट्टरपंथी अंश भी धर्म-विरोधी का बाना पहन सकता है। अब समय है कि हिंदू सदियों से इकट्ठा हो रही गंदगी को अपने दिमाग से निकाल कर उसे साफ करे। जिंदगी की असलियतों और अपनी परम सत्‍य की चेतना, सगुण सत्‍य और निर्गुण सत्‍य के बीच उसे एक सच्‍चा और फलदायक रिश्‍ता कायम करना होगा। केवल इसी आधार पर वह वर्ण, स्‍त्री, संपत्ति और सहिष्‍णुता के सवालों पर हिंदू धर्म के कट्टरपंथी तत्‍वों को हमेशा के लिए जीत सकेगा जो इतने दिनों तक उसके विश्‍वासों को गंदा करते रहे हैं और उसके देश के इतिहास में बिखराव लाते रहे हैं। पीछे हटते समय हिंदू धर्म में कट्टरता अक्‍सर उदारता के अंदर छिप कर बैठ जाती है। ऐसा फिर न होने पाए। सवाल साफ हैं। समझौते से पुरानी गलतियाँ फिर दुहराई जाएँगी। इस भयानक युद्ध को अब खत्‍म करना ही होगा। भारत के दिमाग की एक नई कोशिश तब शुरू होगी जिसमें बौद्धिक का रागात्‍मक से मेल होगा, जो विविधता में एकता को निष्क्रिय नहीं बल्कि, सशक्‍त सिद्धांत बनाएगी और जो स्‍वच्‍छ लौकिक खुशियों को स्‍वीकार कर के भी सभी जीवों और वस्‍तुओं की एकता को नजर से ओझल न होने देगी।
(जुलाई, 1950)

Thursday 26 March 2020

राजनीति और धर्म



            मुख्य मुद्दा राजनीति और धर्म के रिश्ते का है | अकसर कहा जाता है कि धर्म को राजनीति से अलग रखना चाहिए । सबसे बड़े राजनेता महात्मा गांधी थे और समाजवादी आंदोलन के सबसे बड़े चिंतक डॉ॰ लोहिया । न महात्मा ने न लोहिया ने धर्म को राजनीति से अलग किया । जहां लोहिया ने “राजनीति को अल्पकालीन धर्म और धर्म को दीर्घकालीन राजनीति” कहा वहीं महात्मा गांधी प्रत्येक दिन प्रार्थना-सभा में जाते रहे और धर्म से अपने को अलग करने की कल्पना तक न करने की बात करते रहे । इन सबके बावजूद न गांधी ने न लोहिया ने देश और राष्ट्र को, भारतीयता को किसी धार्मिक समुदाय से जोड़ा ।
            गांधी थे जो कह सकते थे कि देश का राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री जिन्ना को बना दो, गांधी 1947 में कह सकते थे कि पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपया दे दो, लोहिया कह सकते थे कि जो मुसलमान से नफरत करता है वह पाकिस्तान का हितैषी है और अगर एक मुसलमान की जान बचाने के लिए दस हिंदुओं की जान देनी पड़े, तो दे देनी चाहिए ।
            धर्म तो अपना बनाना सिखलाता है, नफरत करना नहीं, धर्म तो मनुष्य के उन उद्वेगों, चिंताओं, जिज्ञासाओं तथा उलझनों को शांत करने का स्त्रोत है । जिन्हें हजार-हजार भौतिक साधन शांत करने में असफल रहते हैं । सारी संपन्नताओं के बावजूद मनुष्य कभी पूर्णतः तुष्ट नहीं हो पायेगा, उसकी कल्पनाएं छलांग लगाती रहेंगी और वह धर्म का सहारा लेगा ।
            जब तक धर्म संप्रदायवादी, अलगाववादी कट्टरपंथियों के हाथों में रहेगा, इसका गलत इस्तेमाल होता रहेगा । इसलिए धर्म को नकारने कि नहीं बल्कि उसे सहिष्णु रूप में रखने की जरूरत है । इसमें बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक का सवाल कहाँ उठता है ? क्या भारतीय मानस ने कभी विभिन्न पंथों को उस रूप में देखा ? आज जो लोग धर्म के नाम पर राजनीति कर रहे हैं वे न भारतीयता की सेवा कर रहे हैं, न राष्ट्रियता को मजबूत कर रहे हैं । भारतीयता का प्रतीक तो वह भावना थी कि स्वर्ण मंदिर का शिलान्यास एक मुसलमान ने किया था । क्या बिना वह दिन लाए भारत की राष्ट्रियता मजबूत होगी । जब राम मंदिर की नींव एक मुसलमान रखे और मस्जिद का शिलान्यास हिन्दू करे ?
नीरज कुमार

शहीद-ए-आजम भगत सिंह के स्मृति में विशेष



            23 मार्च 1931 को अमर शहीद भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को लाहौर जेल में, जेल के नियमों को ताक पर रखकर प्रातः काल की बजाय सांय 7.00 बजे फांसी दे दिया गया । भगत सिंह को फांसी तो दे दिया गया लेकिन उनके विचारों को नहीं कुचला जा सका । उनका नाम मौत को चुनौती देने वाले साहस, बलिदान, देशभक्ति और संकल्पशीलता का प्रतीक बन गया । ‘समाजवादी समाज की स्थापना’ का उनका सपना शिक्षित युवकों का सपना बन गया और ‘इंकलाब जिंदाबाद’ का उनका नारा समूचे राष्ट्र का युद्धनाद हो गया ।  
            भगत सिंह की यह निश्चित मान्यता थी कि “व्यक्तियों को नष्ट किया जा सकता है, पर क्रांतिकारी विचारों को नष्ट नहीं किया जा सकता । इतिहास इस बात का साक्षी है कि समाज में उठने वाले क्रांतिकारी विचारों को शासकों के दमन-चक्र से नहीं रोका जा सकता ।” विश्व-इतिहास से उदाहरण देते हुए भगत सिंह ने आगे कहा था कि “फ़्रांस के शासकों द्वारा बेस्टील जेल खाने में हजारों देशभक्त क्रांतिकारियों को ठूस देने के बाद भी फ्रांसीसी राज्यक्रांति को नहीं रोका जा सका । सभी देशभक्तों और क्रांतिकारियों को साइबेरिया की जेल में डालने के बाद भी रूसी राज्यक्रांति को नहीं रोका जा सका ।” उनका दृढ़ विश्वास था कि उनके फांसी पर चढ़ जाने के बाद, भारतीय क्रांति और आगे बढ़ेगी, नंगी-भूखी जनता अपनी मुक्ति के लिए अपनी रणभेरी अवश्य बजाएगी और अंततः पूंजीवादी समाज-व्यवस्था का विनाश करके राज्यसत्ता अपने हाथ में संभाल लेगी ।
            भगत सिंह गहन अध्ययन की आवश्यकता को समझते थे और इसलिए उन्होने अपनी पुस्तिका ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ’ में लिखा “अध्ययन यही एक शब्द था जो मेरे दिमाग में हमेशा गूँजता रहता था । अध्ययन, स्वयं को विपक्षियों द्वारा रखे गए तर्को का मुक़ाबला करने के काबिल बनाने के लिए; अध्ययन अपने विश्वास के समर्थन में तर्कों से स्वयं को सज्जित करने के लिए; मैंने अध्ययन शुरू कर दिया । मेरे पुराने विश्वास और धारणाओं में महत्वपूर्ण रूपांतर हुआ ।
            क्लासिकल, मार्क्सवादी साहित्य, राजनीति, अर्थशास्त्र, जीवनी, प्रगतिशील उपन्यास, कविता आदि उनका अध्ययन क्षेत्र और विषय था । भगत सिंह पूरी तरह इस बात के महत्व को समझते थे कि व्यक्तित्व के विकास के लिए ज्ञान की सिर्फ एक संकीर्ण शाखा का नहीं, बल्कि इसके विशाल क्षेत्र का गहन अध्ययन करना आवश्यक है । केवल इसी से एक सचमुच सुसंस्कृत व्यक्तित्व का सर्वतोमुखी विकास सुनिश्चित हो सकता हैं ।
नीरज कुमार

डॉ॰ राममनोहर लोहिया के जन्मदिवस पर विशेष



          
  डॉ॰ लोहिया का जीवन और चिंतन दोनों एक प्रयोग था । यदि महात्मा गांधी का जीवन सत्य के साथ प्रयोग था तो डॉ॰ लोहिया का जीवन और चिंतन समतामूलक समाज की स्थापना के लिए सामाजिक दर्शन और कार्यक्रमों के साथ एक प्रयोग था । वह प्रयोग आज भी अप्रासंगिक नहीं है, बल्कि शेक्सपियर की चतुष्ठपदी के फीनिक्स पक्षी के समान विस्मृतियों की राख से जाज्वल्यमान हो जाता है । वे भारतीय दर्शन के उदार दृष्टिकोण के साथ पाश्चात्य दर्शन की क्रियाशीलता के सम्मिश्रण के आकांक्षी थे । वे मार्क्स और गांधी के मिलन बिन्दु थे, जो सही अर्थ में भारतीय समाजवादी आंदोलन के जन्मदाता थे; जो मूल रूप से मार्क्सवादी दर्शन और पाश्चात्य देशों के समाजवादी आंदोलन से प्रभावित होने के बावजूद दोनों से भिन्न हैं । उनका समाजवादी आंदोलन पूर्णत: भारतीय संदर्भ में और राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन के गर्भ से उद्भूत था ।  जहां पूंजीवाद और साम्यवाद दोनों अप्रासंगिक हो जाते हैं क्योंकि इन दोनों की धारणाओं का नैहर यूरोप है, भारत नहीं ।
            पूंजीवाद के पास भारतीय आर्थिक एवम सामाजिक समस्याओं का निराकरण नहीं है तो उस संदर्भ में डॉ॰ लोहिया के विचार और दर्शन और भी अधिक प्रासंगिक हो जाते हैं । वैचारिक स्तर पर अब यह बात साफ हो जानी चाहिए कि यदि पूंजीवादी दर्शन हो या समाजवादी, पाश्चात्य विचारों में भारत की समस्याओं का निदान नहीं है | इसके लिए हमें डॉ॰ लोहिया की लौटना ही होगा । जब कभी भी और जो भी सरकार भारत में सही अर्थ में एक समता मूलक समाज की स्थापना का प्रयास करेगी, भारतीय समाज को जाति, धर्म और योनि के कटघरे से मुक्त करने का प्रयास करेगी, उनका आदर्श और प्रेरणा स्त्रोत डॉ॰ लोहिया की सप्तक्रांति ही होगी | भले ही कोई उसे महात्मा गांधी का राम राज्य कहे, कोई उसे जयप्रकाश की सम्पूर्ण क्रांति कहे, कोई उसे वर्गहीन और राजयहीन समाज की धारणा कहे, किंतु इन सभी आदर्शों के बीच डॉ॰ लोहिया की सप्तक्रांति की धारणा सर्वाधिक सशक्त और सगुण धारणा है | वक्ती तौर पर इसमें कुछ परिवर्तन और परिवर्द्धन न हो सकते हैं, किंतु आज भी चौखम्बा राज्य और सप्तक्रांति की धारणा मूल रूप से सिर्फ प्रासंगिक ही नहीं है बल्कि साम्यवाद की अप्रासंगिक और पूंजीवाद की असमर्थता सिद्ध हो जाने के बाद भारतीय संदर्भ में नए समाज के निर्माण का यही एक रास्ता है | जब तक जाती के आधार, धर्म के आधार पर, आर्थिक गैरबराबरी आधार पर भारत में शोषण की प्रक्रिया जारी है, इनके खिलाफ लड़ने वालों के प्रेरणा स्त्रोत डॉ॰ लोहिया के विचार और कार्य सदैव रहेंगे |
            डॉ॰ लोहिया एक वैकल्पिक व्यवस्था की खोज में थे | पंचमढ़ी में उन्होने कहा कि “पूंजीवाद उत्पादन तंत्र  तंत्र एशियाई देशों के लिए निरर्थक है क्योंकि यहाँ की जनसंख्या ज्यादा है और उत्पादन साधन कम और अविकसित हैं । यूरोप-अमेरिका की योग्यता के उत्पादन साधन यहाँ बनाने में और इसके लिए पूंजी का संचय करने में पूंजीवाद नाकामयाब साबित होगा ।” साम्यवाद भी दो कारणों से निकम्मा है । पहला, कम्युनिज्म का उत्पादन-तंत्र और जीवनशैली पूंजीवाद के ही समान है । वह भी केंद्रीकृत उत्पादन और उपभोगवादी जीवनशैली में विश्वास करता हैं । अविकसित देशों को विकेंद्रित उत्पादन व्यवस्था और सरल जीवनशैली चाहिए । और दूसरा, साम्यवाद सिर्फ पूंजीवादी उत्पादन के सम्बन्धों को बदलता है, उत्पादन की शक्तियों को बदलने की व्यवस्था नहीं है । तीसरी दुनिया के विकास के लिए न केवल उत्पादन के स्वामित्व में परिवर्तन लाना है बल्कि उत्पादन की शक्तियों को खास नीतियों के मार्फत योग्य भी बनाना है । लोहिया पूंजीवाद और साम्यवाद को एक ही सभ्यता के दो रूप मानते हैं ।
            आजाद भारत ने आर्थिक विकास की जो नीति अपनायी, डॉ॰ लोहिया उसके विरोधी थे । उन्होने यहाँ तक कहा था की हिंदुस्तान नया औद्योगिक नहीं प्राप्त कर रहा है, बल्कि यूरोप और अमेरिका की रद्दी मशीनों का अजायबघर बन रहा है । पश्चिम की नकल करके जिस उद्योगीकरण का इंतजाम हुआ है उससे न तो देश में सही औद्योगिक की नींव पड़ सकती है, न ही अर्थव्यवस्था में आंतरिक शक्ति और स्फूर्ति आ सकती है । सही उद्योगीकरण उसको कहते हैं जिसमें राष्ट्रीय उत्पादन के बढ़ने के साथ गरीबी का उन्मूलन होता जाता है । नकली उद्योगीकरण में असमानता और फिजूलखर्ची के कारण गरीबी भी बढ़ती जाती हैं । पूंजी निवेश की बढ़ती मात्रा, आर्थिक साधनों पर सरकारी स्वामित्व और विकास के लिए संभ्रांत वर्ग की अगुआयी, भारत के पुनरुत्थान के लिए पर्याप्त शर्त नहीं है । विकेंद्रित अर्थव्यवस्था,टेक्नालजी का नया स्वरूप और वैकल्पिक मानसिक रुझान से ही तीसरी दुनिया पूंजीवाद और साम्यवाद से बचते हुए आर्थिक विकास का रास्ता तय कर सकती है ।
            भारत यदि डॉ॰ लोहिया के बताये मॉडेल को अख़्तियार करता तो इसकी आर्थिक प्रगति तेज होती । देश आज मुद्रास्फीति की समस्या में नहीं उलझता यदि इसने ‘दाम बांधों’ की नीति का अनुसरण किया होता । यदि ‘छोटी मशीन’ द्वारा उद्योगीकरण होता तो आर्थिक असमानता, बेरोजगारी और विदेशी ऋण की समस्या खड़ी नहीं होती । यदि उपभोग की आधुनिकता पर छूट न दी गयी होती तो फिजूल खर्ची से देश को बचाया जा सकता था । सैद्धांतिक रूप से डॉ॰ लोहिया की नीति एक वैकल्पिक विकास पद्धति की रूपरेखा है । यदि भारत में डॉ॰ लोहिया की आर्थिक नीति का प्रयोग होता तो देश की आर्थिक व्यवस्था में आंतरिक स्फूर्ति आती जिससे यहाँ का विकास तेज होता, राष्ट्रियता गतिशील होती और यह प्रयोग दूसरे विकासशील देशों के लिए उदाहरण बनता ।
            लोहिया की आर्थिक विकास नीति एक वैकल्पिक आर्थिक व्यवस्था और सामाजिक सिद्धांत की खोज नीति है । इसका आधार छोटी मशीन, विकेंद्रित व्यवस्था और सरल जीवनशैली है । इसका लक्ष्य ऐसी व्यवस्था का निर्माण करना है जो लोगों में स्वतंत्रता और सृजनात्मकता को सुदृढ़ बना सके । यह सिर्फ गांधीवादी ही कर सकता है । लेकिन सरकारी गांधीवादी नहीं जो गांधी को सत्ता प्राप्ति के लिए बाजार में बेचता है । मठी गांधीवादी भी नहीं जो पूंजीवादी व्यवस्था के रहते भी चैन से सो सकता है । यह सिर्फ कुजात गांधीवादी ही कर सकता है जो पूंजीवाद से अनवरत लड़ने की इच्छा शक्ति रखता है और जो करुणा और क्रोध भरे दिलो-दिमाग से हिंसा का प्रतीकार मात्र अहिंसा के लिए नहीं बल्कि समता, संपन्नता और न्याय के लिए करता हैं ।     
नीरज कुमार

कोरोना क्रांति के बाद

अरुण कुमार त्रिपाठी

कोविड-19 अगले छह महीने में खत्म होगा या उससे भी जल्दी, कुछ ठीक ठीक कहा नहीं जा सकता। लेकिन एक बात जरूर है कि इसका प्रभाव खत्म होने के बाद दुनिया का आख्यान वह नहीं रहेगा जो आज है। बीसवीं सदी की महान उपलब्धियों पर गर्व करने वाले इजराइली इतिहासकार जुआल नोवा हरारी और उनसे प्रभावित बौद्धिकों को सोचना होगा कि हमारी अजेय वैज्ञानिक क्षमताएं वास्तव में कितनी अजेय हैं। कुदरत अभी भी हमसे ज्यादा ताकतवर है या हम उससे अधिक शक्तिशाली हो चुके हैं। लोकतंत्र ही सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था है या मनुष्य के लिए अधिनायकवाद की ओर लौटना लाजिमी होगा? आर्थिक वैश्वीकरण उचित है या इनसान को राष्ट्रवाद और क्षेत्रवाद के दायरे में सिमट जाना पड़ेगा? सोचना यह भी पड़ेगा कि हमारे इतिहासकार बीसवीं सदी में जिन समस्याओं का हल तय मान चुके हैं, वे नई सदी में किस रूप में प्रकट होंगी?
कोरोना ने हरारी के इस कथन को चुनौती दे दी है कि अब मानव सभ्यता युद्ध, अकाल और महामारी से तबाह नहीं होगी। उनका दावा था कि हमने इन लंबे समय से चली आ रही इन समस्याओं को जीत लिया है यानी होमो सेपियन्स अब होमो डियस बन चुका है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोरोना से निपटने के लिए जिस तरह 21 दिनों की अभूतपूर्व राष्ट्रीय तालाबंदी करते हुए लोगों के घर के बाहर लक्ष्मण रेखा खींचकर उन्हें अंधविश्वास से दूर रहने की सलाह दी है, लगता है इस समय में वही एक मात्र उपाय है। लेकिन यह उपाय हमारी स्वास्थ्य संबंधी तैयारी और सामान्य जन की आर्थिक जरूरतों की पूर्ति संबंधी सवाल भी खड़ा करते हैं। प्रधानमंत्री ने पहले सार्क देशों से वीडियो कांफ्रेंसिंग की थी और एक ऐसी पहल दिखाई थी जिसमें राष्ट्रवादी कटुता मिटती और मानवता का दायरा फैलता दिख रहा था। लेकिन इस बार उन्होंने स्पष्ट कर दिया है कि सबको अपना बचाव स्वयं ही करना होगा यानी वैश्वीकरण की भावना टिक नहीं पा रही है और उल्टे मीडिया के कुछ हिस्सों में पाकिस्तान द्वेष और अंधविश्वास की चर्चा चिंता पैदा करती है। संकुचित विचारों से संचालित होने वाली राजनीति और मीडिया यह समझ पाने में असमर्थ है कि यह समय सभ्यताओं के संघर्ष के सिद्धांत से बाहर निकलने का है। शायद कोरोना ने हमें यह सोचने का अवसर भी दिया है कि किसी एक समुदाय, देश या आतंकवाद से बड़ा खतरा एक अदृश्य संरचना है जो हमारी सारी प्रगति को नेस्तनाबूद कर सकती है।
लेकिन राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय भाईचारा कायम होने की फिलहाल जो आशा है वह बहुत दूर तक नहीं जाती। इसका सबसे बड़ा प्रमाण चीन और अमेरिका की उस बहस में दिखता है जिसमें अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप इसे चीनी वायरस बता रहे हैं तो चीन इसे अमेरिकी प्रयोग की चूक कह रहा है। चीन इस बात से नाराज है कि इस बायरस के साथ उसके देश का नाम जोड़ा जा रहा है। जबकि अमेरिकी अधिकारी कह रहे हैं कि 1918 में भी तो फ्लू को स्पैनिश फ्लू कहा गया था। इस तरह के आख्यान से राष्ट्रीय कट्टरता से नजदीकी और वैश्वीकरण की उदारता से भी दूरी बनती दिखाई दे रही है। इससे भी बड़ी बहस अमेरिका में जनता के स्वास्थ्य और अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य को लेकर छिड़ गई है। अमेरिकी राष्ट्रपति अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य के लिए चिंतित हैं तो विशेषज्ञ जनता के स्वास्थ्य के लिए।
भय और उम्मीद के इस विरोधाभास के बीच मशहूर दार्शनिक बर्ट्रेन्ड रसेल की `इन्फ्रा रेडियोस्कोप’ कहानी प्रासंगिक लगती है। उन्होंने इस कहानी में परमाणु युद्ध की आशंका के समक्ष मंगल ग्रह से आक्रमण का खतरा उपस्थित किया था। कहानी कहती है कि `इन्फ्रा रेडियोस्कोप’ नामक एक यंत्र से देखा गया है कि मंगल ग्रह के निवासी धरती पर कब्जा करने की योजना बनाते हुए वहां पहुंच गए हैं। वैज्ञानिकों के नाम पर फैलाई गई इस खबर से टकराव को आमादा महाशक्तियां एक हो जाती हैं। लेकिन सद्भाव के लिए तैयार किए गए इस षडयंत्र का भंडाफोड़ हो जाता है और फिर महाशक्तियां आपस में टकराकर नष्ट हो जाती हैं। यह कहानी मनुष्य जाति को एक सीख देने की कोशिश करती है और सचेत करती है कि उसके विनाश का खतरा सन्निकट है। अगर वह अपनी वफादारियों और प्राथमिकताओं को नए तरीके से परिभाषित नहीं करती तो उसे रोक पाना कठिन है। इसी तरह की चेतावनी राशेल कार्सन का उपन्यास `द साइलेंट स्प्रिंग’ भी देता है। वे कीटनाशकों के प्रभाव में हो रहे प्रकृति के विनाश की कल्पना करती हैं और कहती हैं कि एक दिन ऐसा बसंत आएगा जहां कोयल नहीं कूकेगी। नाभिकीय हथियारों से पैदा हो रहे ऐसे ही खतरे के प्रति जान हरसे अपनी रचना `हिरोशिमा’ में आगाह करते हैं। उनका मानना है कि नाभिकीय हथियार सिर्फ खतरा ही नहीं हैं बल्कि हमारे लिए नरक का द्वार खोलते हैं।
मानव निर्मित हथियारों, रसायनों या दूसरे ग्रह के आक्रमणों के इन खतरों की रोशनी में हम कोरोना के मौजूदा खतरे को देख सकते हैं। यूरोप जहां पर लोकतंत्र की मजबूत जड़े देखी जाती हैं और कहा जाता है कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद वह तानाशाही की आशंका से बहुत दूर चला गया है, वहां युवाओं और बूढ़ों के इलाज में भेदभाव मानवाधिकारों और राज्य के कल्याणकारी चरित्र की अलग ही कहानी कहता है। भारत में भी राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के अस्पताल के वार्ड से निकल कर भागने या कूद कर आत्महत्या करने की कहानी भी इलाज के नाम पर नागरिक अधिकारों के दमन और उससे विद्रोह की कहानी कहते हैं। कोरोना के खत्म होने के बाद यह बहस जरूर उठेगी कि राज्य को स्वास्थ्य के सवाल पर अपने नागरिकों को कितनी स्वतंत्रता देनी चाहिए और कहां तक उसे नियंत्रित करना चाहिए। यह भी बहस उठेगी कि इसे उन देशों ने ज्यादा अच्छी तरह नियंत्रित किया जहां तानाशाही व्यवस्था थी या उन देशों ने जहां लोकतंत्र था। निश्चित तौर पर इस दौरान इटली बनाम चीन और चीन बनाम ब्रिटेन बनाम रूस की बहस भी उठेगी। यह विवाद उस बहस को नया रूप देगा जो उदारीकरण की विफलता के साथ चल रही है और अर्थव्यवस्था के राज्य संरक्षण पर जोर दे रही है।
यही वजह है कि `हाउ डेमोक्रेसी इन्ड्स’ में डेविड रैन्सीमैन लोकतंत्र को खत्म करने के तीन कारणों में एक कारण विनाश को भी बताते हैं। बाकी दो कारण विद्रोह और तकनीकी अधिपत्य हैं। अभी यह कहना कठिन है कि कोराना प्रकृति प्रदत्त विनाश या महामारी है या मानव निर्मित। पर इस बारे में दोनों तरह के सिद्धांत चल रहे हैं। जाहिर है दुनिया की अर्थव्यवस्था को जितनी क्षति मंदी से हुई है उससे कहीं अधिक क्षति इस महामारी से होने जा रही है। इस बीमारी ने वैश्वीकरण के मानवविरोधी स्वरूप को उजागर करने के साथ वैधता प्रदान की है। अब वैश्वीकरण के क्रूर योजनाकारों के लिए यह कहना आसान हो जाएगा कि पूंजी और प्रौद्योगिकी का आदान प्रदान तो ठीक है लेकिन मनुष्यों का निर्बाध आवागमन निरापद नहीं है। यानी दुनिया का वैश्वीकरण फिर पूंजी और प्रौद्योगिकी का वैश्वीकरण होकर रह जाएगा और बीसा व पासपोर्ट के नियमों के कड़े बनाए जाने की ओर जाएगा।
इस बीच अगर अपने अपने देशों को बचाने में पूरी ताकत से जुटे और गुंजाइश मिलने पर दूसरे देशों की मदद करने की पहल से एक उम्मीद बनती है तो अपने को वायरस के वैक्सीन के परीक्षण के लिए प्रस्तुत करते वाशिंगटन राज्य के नील ब्राउनिंग के त्याग से और भी बड़ा संदेश जाता है। नील ब्राउनिंग पूरी दुनिया की चिंता करते हुए इस वायरस का जल्दी से जल्दी अंत चाहते हैं। यह दोनों उम्मीदें मानव सभ्यता की पिछली सदी के आविष्कारों से समृद्ध होती हैं। एक आविष्कार सूचना प्रौद्योगिकी का है और दूसरा आविष्कार है जैव प्रौद्योगिकी का। वे मानव प्रजाति के लिए कहर ला सकते हैं और उसके लिए अमरता की खोज भी कर सकते हैं।
इस दौरान मनुष्य अभय और सहकारिता के सिद्धांत में अटूट विश्वास भी विकसित कर सकता है और भय व संदेह का यकीन भी पुख्ता कर सकता है। कोरोना वायरस ने मानवता के समक्ष यह चुनौती प्रस्तुत की है कि वह साजिश की राजनीति से निकलकर सद्भाव और सहयोग का मजबूत आख्यान कैसे रचे। समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के मूल्य चुके नहीं हैं। दुनिया को उनकी जरूरत है और मानवता का कल्याण उसी रास्ते पर चलकर ही होगा। जरूरत उन्हें नए सिरे से परिभाषित करने की है। अगर हम वैसा कर पाएंगे तो बचे रहेंगे, वरना असमानता, गुलामी और शत्रुता के वायरस कोविड-19 से मिलकर हमला करने को तैयार बैठे हैं।


Published : Rashtriya sahara Newspaper

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