Tuesday 22 January 2019

दिल्ली विश्वविद्यालय में ठेका-शिक्षण का मुद्दा

दिल्ली विश्वविद्यालय में ठेका-शिक्षण का मुद्दा
प्रेम सिंह


दिल्ली विश्वविद्यालय में इस समय करीब 5 हज़ार शिक्षक तदर्थ हैं. ये तदर्थ शिक्षक हर साल प्रत्येक अकादमिक सत्र में कॉलेज प्रशासन द्वारा लगाए-हटाये जाते रहते हैं. इस प्रक्रिया में उन्हें तदर्थ शिक्षक से अतिथि शिक्षक भी बना दिया जाता है. इनमें से बहुतों को किसी सत्र में अतिथि शिक्षक के रूप में भी अवसर नहीं मिल पाता. दिल्ली विश्वविद्यालय में यह स्थिति पिछले करीब 10 सालों से बनी हुई है. बीच-बीच में ऐसा हुआ है कि कुछ समय के लिए स्थाई नियुक्ति की प्रक्रिया चलाई गई और कुछ तदर्थ शिक्षकों को स्थाई किया गया. लेकिन ऐसा सीमित स्तर पर ही हुआ है. अन्यथा विश्वविद्यालय में तदर्थ शिक्षकों की इतनी बड़ी तादाद नहीं होती. इतनी बड़ी तादाद में तदर्थ शिक्षक हैं, तो ज़ाहिर है उन पदों के लिए जरूरी वर्कलोड भी है, जिस पर ये शिक्षक कार्यरत हैं.
दिल्ली विश्वविद्यालय के तहत 90 कॉलेज हैं. इनमें स्थायी शिक्षकों की नियुक्ति के लिए अक्सर विज्ञापन निकलते रहते हैं. उम्मीदवार अब पहले की तरह बिना शुल्क के आवेदन नहीं कर सकते. हर कॉलेज एक विषय में आवेदन करने के लिए अप्रतिदेय (नॉन रिफंडेबल) 500 रुपये शुल्क लेता है. दिल्ली और पूरे देश से योग्य उम्मीदवार निर्धारित शुल्क के साथ फार्म जमा करते हैं. लेकिन इंटरव्यू नहीं कराये जाते. फिर से रिक्त स्थानों का विज्ञापन किया जाता है और उम्मीदवार फिर से शुल्क सहित आवेदन फार्म जमा करते हैं. यह चक्र चलता रहता है.
दिल्ली विश्वविद्यालय में भी अन्य विश्वविद्यालयों की तरह परीक्षा के लिए प्रश्नपत्र तैयार करने और उत्तर पुस्तिकाएं जांचने के निश्चित नियम हैं. स्नातक स्तर पर पास (अब प्रोग्राम) और आनर्स विषयों की उत्तर पुस्तिकाएं कौन शिक्षक जांचेंगे, इसका भी नियम है. लेकिन दिल्ली विश्वविद्यालय में स्थाई शिक्षकों की संख्या घट जाने के चलते तदर्थ शिक्षक बड़ी संख्या में सभी तरह की उत्तर पुस्तिकाएं जांचते हैं. ज़ाहिर है, ठेके पर आने वाले शिक्षक भी उत्तर पुस्तिकाएं जांचने का काम करेंगे. हालांकि विश्वविद्यालय प्रशासन ने उत्तर पुस्तिकाएं जांचने के लिए निर्धारित नियमों में संशोधन नहीं किया है.
दिल्ली विश्वविद्यालय की शिक्षक राजनीति में तदर्थ शिक्षकों का मुद्दा अपनी अलग जगह बना चुका है. अपनी समस्या को लेकर तदर्थ शिक्षकों ने कई बार डूटा और उसमें सक्रिय विभिन्न शिक्षक संगठनों से अलग, अपनी स्वतंत्र पहल भी की है. लेकिन न डूटा, न शिक्षक संगठन और न तदर्थ शिक्षकों की स्वतंत्र पहल तदर्थवाद खत्म करने की दिशा में कोई ज़मीन तोड़ पाई है. तदर्थ, अतिथि और पूरी तरह बेरोजगार शिक्षक आशा और आश्वासनों के सहारे जिंदगी की गाड़ी खींचे जा रहे हैं. शिक्षण में तदर्थवाद के चलते छात्र, विषय और शिक्षक के बीच बनने वाले तालमेल का पूरी तरह अभाव रहता है, जिसका सबसे ज्यादा नुकसान छात्रों को होता है. यह सब देश की राजधानी के उस मूर्धन्य विश्वविद्यालय में हो रहा है, जो प्राथमिक रूप से अच्छे शिक्षण के लिए जाना जाता था.
दिल्ली विश्वविद्यालय का शिक्षक समुदाय इस आशा में था कि जरूर एक दिन तदर्थवाद ख़त्म होगा और स्थायी नियुक्तियां होंगी. लेकिन आशा के विपरीत 16 जनवरी की विद्वत परिषद (अकेडमिक कौंसिल) की बैठक में दिल्ली विश्वविद्यालय में ठेका-शिक्षण (कंट्रेक्टचुअल शिक्षण) का नियम पारित कर दिया गया. जबकि दिल्ली विश्वविद्यालय के ऑर्डिनेंस XII के तहत केवल स्थायी, अस्थायी और तदर्थ शिक्षक रखने की व्यवस्था है. इस आर्डिनेंस में अनुच्छेद ई जोड़ कर कुल स्थाई रिक्त स्थानों के विरुद्ध 10 प्रतिशत शिक्षक ठेके पर रखने का नियम बना दिया गया है. विद्वत परिषद के सभी चुने हुए प्रतिनिधियों ने इस फैसले का जोरदार विरोध किया. अगले दिन इस फैसले पर आक्रोश में भरे हज़ारों शिक्षकों ने डूटा की अगुआई में रामलीला मैदान से संसद मार्ग तक रैली निकाली और गिरफ़्तारी दी. उसके अगले दिन दिल्ली विश्वविद्यालय के मुख्य द्वार पर धरना दिया गया. दोनों दिन सरकार की ओर से पुलिस और अर्ध-सैनिक बलों की भारी तादाद में तैनाती की गई. सुरक्षा बालों ने आंदोलनरत शिक्षकों पर लाठीचार्ज भी किया. सरकार का कड़ा रुख यह बताता है कि वह यह फैसला वापस नहीं लेना चाहती.
दिल्ली विश्वविद्यालय की सर्वोच्च संस्था विद्वत परिषद में शिक्षक समुदाय से चुने गए 26 प्रतिनिधियों के अलावा 150 से अधिक पदेन और मनोनीत सदस्य होते हैं, जिनमें विभागों के अध्यक्ष, प्रोफेसर और कालेजों के प्रिंसिपल शामिल हैं. 16 जनवरी की बैठक में उपस्थित किसी भी पदेन व मनोनीत सदस्य ने फैसले का विरोध तो छोड़िये, उस पर बहस भी जरूरी नहीं समझी. गौरतलब है कि दिल्ली विश्वविद्यालय की शिक्षण-व्यवस्था में ठेका-प्रथा लागू करने का नया नियम बनाने से पहले निश्चित प्रावधानों के तहत बहस तक नहीं कराई गई. कुलपति उसे सीधे विद्वत परिषद की बैठक में ले कर आ गए और पदेन व मनोनीत सदस्यों की संख्या के बल पर पारित घोषित कर दिया.
कुलपति समेत विश्वविद्यालय के किसी प्रोफेसर-प्रिंसिपल को नहीं लगा कि अगर कैरियर की शुरुआत में उन्हें दशकों तक तदर्थ या ठेके पर रखा जाता तो वे जिस मुकाम पर हैं, क्या वहां पहुंच पाते? जो पद, अनुदान, प्रोजेक्ट, विदेशी कार्यभार आदि वे हासिल किये हुए हैं, क्या उन्हें मिल पाते? अपने बच्चों को उन्होंने जिस तरह से सेटल किया है, क्या कर पाते? प्रोविडेंट फंड, पेंशन, मेडिकल फैसिलिटी, इंश्योरेंस आदि के साथ जिस तरह उन्होंने अपना अवकाश प्राप्ति के बाद का भविष्य सुरक्षित किया है, क्या कर पाते? यह बात दूसरी तरह से भी पूछी जा सकती है. अगर उन्हें पढ़ाने वाले शिक्षक तदर्थ, ठेके पर या अतिथि भर होते, तो वे अपने विषय को पूरी गहराई के साथ समझ पाते? जो अकादमिक उपलब्धियां उन्होंने हासिल की हैं, क्या कर पाते?
ऐसा लगता है निजीकरण की आंधी में देश के शिक्षकों का दायित्व-बोध भी उड़ गया है. उदारवाद के नाम पर 1991 में लागू की गईं नई आर्थिक नीतियों ने पिछले तीन दशकों में हमारे राष्ट्रीय जीवन के सभी क्षेत्रों में अपना प्रभाव कायम कर लिया है. इस बीच भारत की शिक्षा-व्यवस्था पर निजीकरण का तेज हमला जारी है. स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय के शिक्षण में ठेका-प्रथा लागू करना दरअसल उनके निजीकरण की दिशा में उठाया गया कदम है. यह प्रक्रिया यहीं रुकने वाली नहीं है. तदर्थवाद और ठेका-प्रथा के खिलाफ आंदोलनरत शिक्षकों को यह हकीकत समझनी होगी. तभी उनके आंदोलन का छात्रों, शिक्षकों, शिक्षा और शिक्षा व्यवस्था के हित में स्थाई परिणाम निकल पायेगा.

कट्टरता की जीत का फैसला!

(यह लेख अयोध्या में 60 साल पुराने भूमि-विवाद पर सितम्बर 2010 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला आने पर लिखा गया था. 'युवा संवाद' और 'दलित वार्षिकी' में छपा था. सुरेंद्र मोहन जी का आग्रह था कि लेख को अंग्रेजी साप्ताहिक 'जनता' के लिए अंग्रेजी में रूपांतरित करूं. वह नहीं हो पाया. 9 साल बाद लेख फिर से जारी किया है. इस आशा के साथ कि आगामी लोकसभा चुनाव में सांप्रदायिक फासीवादी ताकतों की हार के बाद जागरूक नागरिक उसी तरह गाफिल नहीं हो जाएंगे जैसे 2004 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेसनीत यूपीए की जीत के बाद हुए थे.)            

कट्टरता की जीत का फैसला!

प्रेम सिंह

उदारता और कट्टरता का संघर्ष

"भारतीय इतिहास की सबसे बड़ी लड़ाई हिंदू धर्म में उदारवाद और कट्टरता की लड़ाई पिछले पांच हजार सालों से भी अधिक समय से चल रही है और उसका अंत अभी भी दिखाई नहीं पड़ता। इस बात की कोई कोशिश नहीं की गईजो होनी चाहिए थी कि इस लड़ाई को नजर में रख कर हिंदुस्तान के इतिहास को देखा जाए। लेकिन देश में जो कुछ होता हैउसका बहुत बड़ा हिस्सा इसी के कारण होता है।" ('हिंदू बनाम हिंदू')

कुछ साल पहले हमारे लेखों की पुस्तक कट्टरता जीतेगी या उदारता’ के प्रकाशन पर साथी प्रेमपाल शर्मा ने कहा था'दोस्त चिंता न करोउदारता ही जीतेगी।' शर्मा जी की खासियत यह है कि वे भारत और दुनिया में कट्टरता के उत्तरोत्तर बढ़ते जाने पर चिंता करने के साथ आशा से भरे रहते हैं। उनके आशावाद से हमें प्रेरणा मिलती है। शीर्षक में विस्मयादिबोधक उसी आशावाद का चिन्ह है। उदारता और कट्टरता का संघर्ष पुराना है औरजैसे कि हालात हैंआगे भी चलने वाला है। हिंदू धर्म के दायरे में इस संघर्ष का विवेचन डॉ. राममनोहर लोहिया के निबंध हिंदू बनाम हिंदू’ (19 50 ) में देखा जा सकता है। लोहिया का यह महत्वपूर्ण निबंध गांधी की हत्या की घटना का विश्लेषण करने के दबाव में लिखा गया प्रतीत होता है।

लोहिया मानते हैं कि गांधी की हत्या करके "हारती हुई कट्टरता ने उदारता से अपने युद्ध में" अपने इतिहास का "सबसे जघन्य जुआ" खेला था। "महात्मा गांधी की हत्याहिंदू-मुस्लिम झगड़े की घटना उतनी नहीं थी जितनी हिंदू धर्म की उदार-कट्टरपंथी धाराओं के युद्ध की।"  वे लिखते हैं"गांधी जी का हत्यारा वह कट्टरपंथी तत्व था जो हमेशा हिंदू दिमाग के अंदर बैठा रहता हैकभी दबा हुआ और कभी प्रकटकुछ हिंदुओं में निष्क्रिय और कुछ में तेज। जब इतिहास के पन्ने गांधी जी की हत्या को कट्टरपंथी (और) उदार हिंदुत्व के युद्ध की एक घटना के रूप में रखेंगे और उन सभी पर अभियोग लगाएंगे जिन्हें वर्णों के खिलाफ और स्त्रियों के हक मेंसंपत्ति के खिलाफ और सहिष्णुता के हक मेंगांधी जी के कामों से गुस्सा आया थातब शायद हिंदू धर्म की निष्क्रियता और उदासीनता नष्ट हो।"

मार्क्सवादियों और आधुनिकतावादियों ने नेहरू और उनके बाद के कांग्रेसियों के मातहत लोहिया के चिंतन को मुख्य बौद्धिक विमर्श में नहीं आने दिया। इस मामले में उन्होंने पूरी कट्टरता से काम लिया। उनके चिंतन को शिक्षण और शोध में जगह मिलती तो शिक्षार्थी और शोधकर्ता उसे समझ और विकसित कर पाते। लिहाजागांधी की हत्या करने वाली हिंदू कट्टरता की शिनाख्त और काट का बड़ा काम आज तक नहीं हो पाया। इस दिशा में लोहिया को बाहर रख कर जो चिंतन किया गया हैवह कारगर नहीं रहा है। प्रमाण के रूप में अयोध्या का फैसला सामने है। जैसा कि हम आगे देखेंगेकट्टरता की यह जीत विभाजन और गांधी की हत्या के बाद जबरदस्त है। बाबरी मस्जिद के ध्वंस से भी ज्यादा इसका हमारे राष्ट्रीय जीवन पर प्रभाव पड़ेगा।

फैसले पर अखबारोंचैनलों और नेट पर काफी बहस चल रही है। जैसा कि इन माध्यमों में होता हैबहस सतही और गंभीर दोनों स्तर की है। उसके विस्तार में हम नहीं जाएंगे। लोगों की नजर में न्यायपालिका की मान्यता और फैसले की संतुलित प्रकृति ने शुरू में स्वागत और खुशी का माहौल पैदा किया। सामान्यतः माना गया कि फैसला अच्छा हैन किसी की जीत हैन किसी की हार। लेकिन जल्दी ही यह स्पष्ट हो गया कि फैसला न न्यायपालिका की मान्यता के अनुकूल हैन संतुलित। वह तथ्यजो न्यायपालिका के फैसलों का आधार होते हैंनहीं आस्था और विश्वास पर तथा संतुलन/समन्वय नहीं बहुसंख्यावाद पर आधरित है। यह भी जल्दी ही स्पष्ट हो गया कि फैसला देने वाले तीन न्यायधीशों में से एक धर्मवीर शर्मा ने फैसले की जगह आरएसएस का पेंफलेट जैसा लिखा है और बाकी के दो न्यायधीशों सुधीर अग्रवाल और यूएस खान ने बहुसंख्यक हिंदू समाज की आस्था के तर्क’ के सामने सिर झुकाया है।

मजेदारी देखिएन्यायधीश शर्मा कहते हैं कि तोड़ा गया ढांचा मस्जिद नहीं थी, क्योंकि उसका निर्माण इस्लाम के सिद्धांतों को दरकिनार करके किया गया था। जाहिर हैउन्हें रात के अंधेरे में कपट-पूर्वक मस्जिद में मूर्तियां रखनासंतो-साध्वियों का चोला पहने रामभक्तों’ द्वारा अश्लीलतम भाषा में मुसलमानों के खिलाफ खुलेआम घृणा फैलानाउन्मादी भीड़ को आगे करके अपनी मौजूदगी में मस्जिद तोड़ना और उसकी सजा से बचने के लिए हर तरह का झूठ-फरेब करना हिंदू धर्म के सिद्धातों के मुताबिक लगता है! संघ संप्रदाय जिसे आस्था मानता है उस पराजित मानसिकता के उन्माद का शिकार न्यायधीश स्तर के लोग भी होते हैं तो इससे ज्यादा गंभीर संकट की स्थिति नहीं हो सकती।

फैसले को बारूदी सुरंग हटाने जैसा जोखिम भरा काम मानने वाले न्यायधीश यूएस खान तो भयभीत नजर आते हैं। जिस देश में जज भयभीत हों, वहां सामान्य नागरिकों का हाल समझा जा सकता है। न्यायालय की तरफ से संदेश है कि अब सबको डर कर रहने की जरूरत है। 'विधर्मियों' को ही नहींहिंदू धर्म के संघी संस्करण को नहीं मानने वाले सभी आस्तिक-नास्तिक भारतीयों को। कैसी विडंबना हैमठों और मंदिरों पर कट्टरता की चोट पड़ने के बावजूद मध्यकाल में धर्म का लोकतंत्र बना रहता हैलेकिन आधुनिक न्यायपालिका कट्टरता के पक्ष में फैसला देती है। यह सही है कि न्यायालय के बाहर सामाजिक-राजनीतिक समूह और संस्थाओं द्वारा लंबे समय तक किसी सुलह पर नहीं पहुंचने के बाद न्यायलय ने यह पंचायती’ की है। लेकिन यह पंचायती वह उदार धारा के मद्देनजर और हक में भी कर सकता था। उससे दबा दी गई उदार धारा को उभरने और बढ़ने का मौका मिलता जो भारतीय राष्ट्र और समाज के लिए अनिवार्य है। अफसोस कि न्यायालय भी कट्टरतवादी बहाव में बह गया।   

स्पष्ट है कि फैसले ने लालकृष्ण अडवाणी और उनके नेतृत्व में संतों-साध्वियों द्वारा फैलाए गए सांप्रदायिक उन्माद और फिर  मस्जिद के ध्वंस को सही ठहरा दिया है। आरएसएस खुशी से पागल हैजो कहता था कि न्यायपालिका के फैसले को कभी स्वीकार नहीं करेगाक्योंकि वह जानता है कि फैसला अगर वाकई न्यायपालिका का होगा तो संपत्ति के स्वामित्व को लेकर होगाजन्म-स्थान को लेकर नहीं। संघ संप्रदाय की यह बड़ी सफलता है कि न्यायपालिका उसकी दबोच में आ गई है। वरना वह उसे ही अपने रास्ते का सबसे बड़ा रोड़ा मानता था। अब वह खुल कर और पूरे उत्साह से अन्य संस्थाओं को दबोचने का काम करेगा। न्यायलय ने हिंदू-राष्ट्र के लिए संजीवनी और पहले से ही लड़खड़ाते भारतीय राष्ट्र के लिए विखंडन का आदेश लिख दिया है।

कोई राष्ट्र भौगोलिक रूप से एक रहते हुए भी अंदरखाने टूटा हुआ हो सकता है। आज का भारत उसकी एक ज्वलंत मिसाल है। जाति और लिंग जैसे परंपरागत कटघरों एवं गरीब और अमीर भारत के विभाजन के अलावा उसमें और भी कई टूटें सिर उठाए देखी जा सकती हैं। इन टूटों को अक्सर पुरातनता और गरीबी के मत्थे मढ़ दिया जाता है। लेकिन आधुनिकता और अमीरी का अमृत छकने वाले मध्यवर्ग में भी राष्ट्रीय एकता के प्रति सरोकार दिखावे भर का है। वह खुद निम्नमध्य और उच्च के सोपानों में विभाजित प्रतिस्पर्धी गुटों का अखाड़ा बना हुआ है। कट्टरता की ऐसी करामात है कि भारत में बुद्धिजीवी और कलाकार तक गिरोहबंदी चलाते हैं। कहने का आशय यह है कि भारतीय राष्ट्र को विखंडित करने वाली कट्टरता का फैलाव केवल संघ संप्रदाय तक सीमित नहीं है।

1950 में लोहिया लिखते हैं"आज हिंदू धर्म में उदारता और कट्टरता की लड़ाई ने हिंदू-मुस्लिम झगड़े का ऊपरी रूप ले लिया है लेकिन हर ऐसा हिंदू जो अपने धर्म और देश के इतिहास से परिचित हैउन झगड़ों की ओर भी उतना ही ध्यान देगा जो पांच हजार साल से भी अधिक समय से चल रहे हैं और अभी तक हल नहीं हुए हैं। कोई हिंदू मुसलमान के प्रति सहिष्णु नहीं हो सकता जब तक कि वह उसके साथ ही वर्ण और संपत्ति के विरुद्ध और स्त्रियों के हक में काम न करे। उदार और कट्टर हिंदू धर्म की लड़ाई अपनी सबसे उलझी हुई स्थिति में पहुंच गई है और संभव है कि उसका अंत भी नजदीक ही हो। कट्टरपंथी हिंदू अगर सफल हुए तो चाहे उनका उद्देश्य कुछ भी हो भारतीय राज्य के टुकड़े कर देंगेन सिर्फ हिंदू-मुस्लिम दृष्टि से बल्कि वर्णों और प्रांतों की दृष्टि से भी। केवल उदार हिंदू ही राज्य को कायम कर सकते हैं।"  वे आगाह करते हैं"अतः पांच हजार वर्षों से अधिक की लड़ाई अब इस स्थिति में आ गई है कि एक राजनीतिक समुदाय और राज्य के रूप में हिंदुस्तान के लोगों की हस्ती इस बात पर निर्भर है कि हिंदू धर्म में उदारता की कट्टरता पर जीत हो।"

लोहिया ने इस निबंध में एक जगह यह भी कहा है कि देश में एकता लाने की भारत के लोगों और महात्मा गांधी की आखिरी कोशिश की आंशिक सफलता को पांच हजार सालों की कट्टरपंथी धाराएं मिल कर असफल बनाने का जोर लगा रही हैं। उनके विचार में ‘‘अगर इस बार कट्टरता की हार हुईतो वह फिर नहीं उठेगी।" लेकिन भारत के शासक वर्ग ने कट्टरता को मारने के बजाय भारत के लोगों और गांधी  को मारने का काम चुना, जो आज भी जारी है। उसने ऊपर से जो भी फू-फां की होजैसे कि समाजवाद या रोशनी बुझ गई आदिवह कट्टरता के साथ जुट कर खड़ा हुआ। शासक वर्ग का पिछलग्गूजो अब उसका हिस्सा ही हैआधुनिक बुद्धिजीवी - वह पूंजीवादी हो या साम्यवादी या तटस्थ- सादगी और शांति के विचार की भ्रूण-हत्या करने के लिए आमादा रहता है। उसी तरह जिस तरह भारत का पढ़ा-लिखा खाता-पीता मध्यवर्ग बालिकाओं की भ्रूण-हत्या करता है। गांधी को मारने की इस परिघटना की विस्तृत पड़ताल हमने अपनी आने वाली पुस्तक 'हम गांधी को क्यों मारते हैं?' में करने की कोशिश की हैं।    

कट्टरता-विरोध के कर्तव्य

कट्टरता की जीत के इस फैसले का विरोध जरूरी है और आशा करनी चाहिए कि उच्चतम न्यायालय इसे अस्वीकार करेगा। उसके लिए जनमत बनाया जाना चाहिए। लेकिन यह काम गंभीरतापूर्वक सोच-समझ कर करने का है। विरोध के जो ज्यादातर स्वर सुनाई पड़ रहे हैं, वे कट्टरता को हराने के बजाय अपने विमर्श या विचारधारा को जिताने की नीयत से ज्यादा परिचालित लगते हैं। कट्टरता को यह माफिक  पड़ता है। ऐसे में वह उदारता की ताकत को भी अपने भीतर खींच लेती है। ऐसे माहौल में उदारता के फलने-फूलने का आकाश नहीं बचता। क्या हम कट्टरता से पूरित भारतीय सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य में किसी रामकृष्ण परमहंस या गांधी की उत्पत्ति की कल्पना कर सकते हैं? कट्टरता तो फिर भी उन्हें एप्रोप्रिएट करती हैलेकिन उसके मुकाबले के दावेदार कहेंगे कि परमहंस और गांधी को न केवल पैदा नहीं होना चाहिएउनके पैदाइश से पैदा हुए प्रभावों को भी नष्ट करने का काम तेजी से होना चाहिए। भारत के सेकुलर और कट्टरपंथी दोनों खेमों का यह प्रण है। इस प्रण में दलितवादी और स्त्रीवादी शामिल हैं। मायावती का हाथीजैसा कि उनकी सरकार ने न्यायालय को बतायाहिंदू धर्म की कट्टरतावादी धारा का मजबूत वाहक और उसे पूंजीवादी कट्टरता से जोड़ने वाला है।

यह कोई रहस्य नहीं है। हम आपको बता चुके हैं कि ये सब आधुनिक औद्योगिक सभ्यता के नवीनतम चरण नवउदरवाद अथवा नवसाम्राज्यवाद के प्रकट अथवा प्रच्छन्न भक्त हैं। ओबामा की जीत पर उसके साथ जब ये सब चिल्लाए थे - 'यस वी कैन' - तो उनकी मुराद यही थी कि हम भी अमेरिका बन सकते हैं। हम भी मानते हैं कि 'वे ही' अमेरिका बन सकते हैं। बल्कि नकली-सकली ढंग के अमेरिकन वे बने भी हुए हैं और अपनी कूद-फांद उन्हें दिखाते भी रहते हैं। गांधी आधुनिक औद्योगिक सभ्यताजो साम्राज्यवादी होकर ही संभव होती हैके विकल्प हैं। इस गांधी को छोड़ कर 'उदार हिंदू गांधी' की बात कुछ नवउदारवादी यदा-कदा करते हैं। लेकिन वे भी जानते हैं कि उसका कोई अर्थ नहीं होता है। धार्मिक और नवउदारवादी कट्टरताएं एक-दूसरे के कीटाणुओं पर पलती हैं।

देश में फैसले के खिलाफ जनमत बनाते वक्त यह जरूरी है कि संवैधानिक मूल्यों - धर्मनिरपेक्षतासमाजवाद और लोकतंत्र - के आधर पर फैसले का विरोध करने वालों की खुद की निष्ठा उनमें अक्षुण्ण हो। विशेषकर पिछले दो दशकों से संविधान के साथ जो खिलवाड़ किया जा रहा हैउस पर सरसरी निगाह डालने से ही पता चल जाता है कि देश का शासक वर्गजिसमें अकेले संघ संप्रदायी नहीं हैंकी संविधान के प्रति निष्ठा दिखावे के लिए रह गई है। यहां तक कि बुद्धिजीवियों का सरोकार अपनी स्वार्थपूर्ति का रह गया है। किसी विधेयकअध्यादेशसंशोधनकानून आदि द्वारा संविधान की मूल भावना को नष्ट किए जाने पर भी बुद्धिजीवी सरकारों के साथ हो जाते हैं। हम शिक्षा के क्षेत्र की बात आपको पहले बता चुके हैं कि कैसे प्रोफेसर यशपाल और प्रोफेसर कृष्णकुमार जैसे विद्वान शिक्षा के बाजारीकरण का बीड़ा उठाने वाले सैम पित्रोदा और कपिल सिब्बल के पदाति बन गए हैं। बात वहीं आ जाती है - संविधन को चुनौती देने वाली कट्टरतावादी ताकतों और संविधान के पालन के नाम पर पलने वाला शासक-वर्ग देश की मेहनतकश जनता का साझा प्रतिपक्ष बना हुआ है। ऐसे में वह सांप्रदायिकजातीयक्षेत्रीयगोत्रीय आदि कट्टरताओं का शिकार होता है तो दोष पूरा उसका नहीं होता।

भारत का बुद्धिजीवी-वर्ग संक्रमण की अवधरणा को रणनीति की तरह इस्तेमाल करता है। वह कहता है कि यह चीजों के सही दिशा में बढ़ने का संक्रमण काल चल रहा है। इस रणनीति के तहत आधुनिक दुनिया के करोड़ों-करोड़ लोगों की मौत और पीड़ाओं का औचित्य प्रतिपादित किया जाता है, लेकिन अपनी कोई जिम्मेदारी स्वीकार नहीं की जाती। संक्रमण की रणनीति को हटा कर देखा जाए तो कुछ बातें स्पष्ट हैं। पूंजीवाद और उसकी गांठ में बंधा समाजवादवह एक पार्टी की तानाशाही वाला हो या एक से अधिक पार्टियों के लोकतंत्र वालाकट्टरता को बढ़ाते और बलवान बनाते हैं। कट्टरता की अपनी परंपरा और पैठ तो है ही। इन हकीकतों को अनदेखा करके कट्टरता के विरोध के कर्तव्य तय नहीं किए जा सकते। 

फैसले के बाद अशांति और हिंसा न फैलने की काफी तारीफ हुई है। कारण बताया गया कि भारत के लोग अब परिपक्व हो गए हैं। धर्म के नाम पर राजनैतिक रोटियां सेंकने वालों की असलियत वे पहचान चुके हैं। उन्हें सांप्रदायिक भारत नहीं चाहिए। लोगों में पैदा हुए इस 'गुण' को ज्यादातर ने नवउदारवाद की नियामत बताया है। यानी नवउदारवाद भारत के लोगों को सांप्रदायिकता से काट कर आर्थिक महाशक्ति से जोड़ता है। इसे उलट कर भी कह सकते हैं - भारत को आर्थिक महाशक्ति बनाने में जुटे लोगों के पास सांप्रदायिक ताकतों के लिए फुरसत नहीं है। शायद वे यह भी मानते होंगे कि नवउदारवाद के चलते लोगों को कुछ समय के लिए जो आर्थिक कष्ट झेलने पड़ रहे हैंसांप्रदायिकता के राक्षस से मुक्ति पाने की वह बहुत छोटी कीमत है। बल्कि कल के लिए उनके दिमाग में यह कहने के लिए भी हो सकता है कि सांप्रदायिक कट्टरता को परास्त करने के लिए वे नवउदारवादी कट्टरता को झेलते जाएं। वे तर्क देंगेसंप्रदायिक कट्टरता पिछड़ी और नवउदारवादी कट्टरता आगे ले जाने वाली है।

जो कहते हैं कि फैसले के बाद कोई दंगा नहीं हुआक्या वे कह सकते हैं कि फैसला हिंदुओं के हक में नहीं आता तब भी वैसा ही होताजो इस फैसले के बाद मुसलमानों से फैसले के तहत हिस्से में आई जमीन को छोड़ने और देश में लाखों जगहों पर लाखों मुकदमे दायर करने की ताल ठोंक रहे हैंफैसला सुन्नी वक्फ बोर्ड के हक में आने पर क्या करतेक्या वे गारंटी दे सकते हैं कि मुस्लिम कट्टरता घात लगा कर वार नहीं करेगी?

कुछ सुधीजनों ने फैसले के बाद शांति कायम रहने के पीछे लोकतंत्र की मजबूती का तर्क भी दिया है। उनके मुताबिक हम इसी तरह अपने लोकतंत्र को मजबूत करते जाएं तो सांप्रदायिकता से जल्दी ही मुक्ति पा लेंगे। सचमुच यह सोच आशा बंधाने वाली है। कमियों और खामियों के बावजूद लोकतंत्र आशा का सबसे बड़ा आधार है। इस बिगड़े लोकतंत्र में भी पिछड़ी और दलित राजनीति आपस में मिल जाए तो संप्रदायवादी और नवउदारवादी कट्टरताओं पर कुछ हद तक काबू पाया जा सकता है। लेकिन थोड़ा ठहर कर सोचेंक्या नवउदारवाद की सेवा में जुता लोकतंत्र सच्चे अर्थों में मजबूत कहा जाएगायह विस्तार से बताने की जरूरत नहीं होनी चाहिए कि देश में जो लोकतंत्र मजबूत हो रहा हैवह कांग्रेस और भाजपा के वर्तमान और भविष्य की मजबूती का लोकतंत्र है। भारत के लोकतंत्र को लेकर मनमोहन सिंह और लालकृष्ण अडवाणी की एक राय है - देश में दो - कांग्रेस ओर भाजपा - पार्टियां रहनी चाहिएबाकी क्षेत्रीय पार्टियों को इन दोनों में मिल जाना चाहिए।

उनकी यह मान्यता निराधर नहीं है। देश की अन्य पार्टियां बारी-बारी से कांग्रेस या भाजपा के साथ जुड़ती रहती हैं। दक्षिण से लेकर उत्तर भारत तक यही स्थिति है। नितीश कुमार भाजपा का साथ नहीं छोड़ते कि कहीं रामविलास पासवान न लपक लें। समाजवादी पार्टी मस्जिद ध्वंस के उपनायक कल्याण सिंह के साथ मिल चुकी है। इधर राष्ट्रीय जनता दल के वरिष्ठ नेता रघुवंश प्रसाद सिंह ने कहा है कि राजद ने कांग्रेस का साथ छोड़ कर गलती की। माकपा पोलित ब्यूरो ने कहा ही था कि कांग्रेस से संबंध-विच्छेद करना घाटे का सौदा रहा। नवीन पटनायक, ममता बनर्जी, एम. करुणानिधि, जयललिताचंद्रबाबू नायडू आदि नेता भाजपा-कांग्रेस से सुविधानुसार मिलते-बिछुड़ते रहते है।। मार्क्सवादी पार्टियों को भी कुछ सयाने लोग रास्ता दिखा रहे हैं कि राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस में वामपंथी धारा की प्रतिष्ठा हो चुकी है। लिहाजाउन्हें कम से कम कांग्रेस के साथ मिलने से ऐतराज नहीं होना चाहिए। संदेश यह है कि सांप्रदायिकता से बचने के लिए लोकतंत्र के मौजूदा स्वरूप को बदलने की जरूरत नहीं है।

जिस तरह से एक स्थानीय विवाद को कट्टरतावादी ताकतों ने पूरे देश के स्तर पर फैलाया, समाज में सांप्रदायिकता और वैमनस्य का जहर घोला, पहले मुलायम सिंह के शासन में कारसेवकों की और पीछे कल्याण सिंह के शासन में मस्जिद-ध्वंस के बाद हजारों निर्दोष नागरिकों की दंगों में मौत हुई, केंद्र में भाजपानीत सरकार बनी और स्वाभाविक रूप से कट्टरता का कारोबार बढ़ा, मुस्लिम कट्टरता आतंकवादी बनी, कृष्णा आयोग की रपट पर कोई कार्रवाई नहीं हुई, संघ संप्रदाय के कतिपय हिंदुओं ने आतंकवादी कृत्यों को अंजाम दिया, गुजरात हुआ, उसके बाद निर्दोष नागरिकों पर आतंकवाद का कहर टूटा, जम्मू-कश्मीर जंग का मैदान बना, 49 बार कार्यकाल बढ़ाए जाने के बाद लिब्राहन आयोग की रपट आई और संसद से लेकर सड़क तक पिटी, और अब यह फैसला आया - किस दिमाग से कहा जा रहा है कि लोग सांप्रदायिकता से हट गए हैं या हट रहे हैं? यह नवउदारवाद और उसकी सेवा में समर्पित लोकतंत्र को बचाने वालों का ही दिमाग हो सकता है।

भारत के सेकुलर खेमे में सांप्रदायिक कट्टरता का विरोध एक तदर्थ कर्तव्य जैसा माना जाता है। यह मानते हुए कि आधुनिकता के साथ धर्मनिरपेक्षता भी स्थापित हो जाएगी। इसलिए धर्म और दर्शन की उदार धारा को समझने और बचाने की कोई जरूरत नहीं है। उदारता के नाम पर सरकारी कार्यक्रमों में गंगा-जमुनी तहजीब की बात कर लेना काफी  है। अंततः आधुनिकता ही सब संकटों से बचाएगीइस विश्वास के चलते तात्कालिक और फुटकर किस्म के उपायों से काम निकाला जाता है। संकट गहराने पर किए जाने वाले कार्यक्रमों में सेकुलर दायरे के विभिन्न समूहों का थोड़ा-थोड़ा साझा कर लिया जाता है। कट्टरता का कहर जब बलि लेकर चला जाता हैसब अपनी-अपनी कंदराओं में लौट जाते हैं। राजग सरकार बनने और फिर गुजरात में मुसलमानों का राज्य-प्रायोजित नरसंहार होने पर मार्क्सवादी विद्वान कुछ दूसरे समूहों से भी बात करने लगे थे। उन दिनों एक-दो वामपंथी पत्रिकाओं ने लोहिया का 'हिंदू बनाम हिंदू' निबंध भी प्रकाशित किया। लेकिन जैसे ही कांग्रेस सत्ता में आ गईवे अपनी दुनिया में लौट गए।

अपने राम और उनके राम

भारत के शासक वर्ग पर सब कुछ भव्य होने का खब्त सवार है। अयोध्या में जो मंदिर बनेगाभव्य उसका विशेषण नहीं संज्ञा हो गया है। संघ संप्रदाय हमेशा भव्यमंदिर बनाने का एलान करता रहा है। न्यायपालिका का साथ मिल जाने के बाद भव्यता की उसकी कल्पना और ऊंचे जाएगी। जाहिर हैउसके भव्यमंदिर के आस-आस कोई और निर्माण नहीं रह या हो सकता। आमतौर पर कहा जाता है कि तुलसी ने राम को लोकमानस का प्रिय आराध्य बनाया। हम सभी जानते हैं तुलसी के राम की व्याप्ति केवल 'कास्ट हिंदुओं' तक सीमित नहीं रही है। लेकिन यह अकेले तुलसी की प्रतिभा का कमाल नहीं है। तुलसी के राम लोकमानस की अभिव्यक्ति ही हो सकते थे और वही हैं। यानी उनका सृजन लोकमानस और तुलसी की रचनात्मक प्रतिभा की परस्परता से हुआ है। इसीलिए 'रामचरित मानस' के राम अपने गुण-दोषों सहित धर्म की उदार धारा के राम हैं। शंबूक-वध और सीता-त्याग के प्रसंगों को नहीं रखने का निर्णय अकेले तुलसी का नहीं है। तुलसी का युग और समाज भी उसमें शामिल है। तभी अपने युग और समाज पर तुलसी ने ज्यादा प्रभाव बनाया, जो अभी तक चला आता है। 

'मानस' सबसे लोकप्रिय होने के साथ सबसे विवादास्पद ग्रंथ भी रहा है। वह लोकभाषानाटकीयतागेयता और दोहा-चौपाई जैसे लोकोपयुक्त छंदों के चलते सहज संप्रेषणीय रचना है। 'मानस' केवल रामकथा नहीं है। उसमें मानव-जीवन के विविध सामाजिकसांस्कृतिकधार्मिकदार्शनिक पक्षों की विवेचना की गई है और तुलसी ने उन पर अपना पक्ष रखा है। इन पक्षों पर आम आदमी तुलसी से सहमत-असहमत होते हुए चर्चा करता रहा है। 'मानस' नेवृहत्तर निचले समाज में विचार-विमर्श और व्याख्याओं का लोकतंत्र बनाया। हमें उसकी लोकप्रियता और विवादास्पदता का यही मुख्य कारण लगता है। माना जाता है कि तुलसी ने राम का परमब्रह्मत्व स्थापित किया। यह सही है। लेकिन उतना ही सही यह भी है कि तुलसी ने साथ ही राम का घोर लौकिकीकरण भी कर डाला। 'मानस' के बाद लोगों ने बहुत निकट से राम को प्यार कियाक्योंकि वे त्याग और बलिदान की मूर्ति थे। 'मानस' की मार्फत उन्होंने जानाजहां राम होते हैंवहीं अयोध्या होती है। 'मानस' के चलते हर बस्ती और हर घर अयोध्या बन गया। लोगों ने यह भी जाना कि भेद उसी के मन में हो सकता है, जिसके हृदय में राम न हों। जब हृदय के करोड़ों मंदिर मौजूद हों तो ईंट-गारे के मंदिरों को बनाने और तोड़ने की परवाह कौन करता है?

बाबरी मस्जिद के निर्माण का समय 'मानस' की रचना का भी समय है। तुलसी ने 'मानस' सहित अपनी किसी रचना में मंदिर तोड़ कर मस्जिद बनाने की घटना का जिक्र नहीं किया है। अगर किसी पहले से टूटे अथवा तोड़े गए मंदिर पर मस्जिद बनाई गई थी तो तुलसी को राम की रचना और आराधना में किसी प्रकार की बाधा नहीं हुई। मंदिर तोड़े जाने से भक्ति का क्षय नहीं होता - दक्षिण से बाकी भारत तक फैला भक्ति-साहित्य इसका प्रमाण है। जिस तरह मंदिर तोड़ने वाले भक्ति की नहीं, अपनी शक्ति का प्रदर्शन कर रहे थे, उसी तरह अब मस्जिद तोड़ कर मंदिर बनाने वाले पलट कर अपनी शक्ति दिखाना चाहते हैं। यह शक्ति-प्रदर्शन राम-भक्ति और राष्ट्र-भक्ति दोनों की कसौटी पर खोखला है। 500  घुड़सवार लेकर हिंदुस्तान फतह करने वाले बाबर के नाम की मस्जिद 500 साल बाद तोड़ कर भव्यमंदिर बनाने की कवायद पर गर्व करने वाले शायद जानते नहीं कितने दयनीय हैं! या उन्हें कोई लिहाज नहीं है। हैरानी होती है कि भारत के संत-महात्मा कैसे हो गए हैंजो अशोक सिंघलप्रवीण तोगड़िया जैसे बक्कुओं के आगे-पीछे घूमते हैं। आस्था का पाठ तो वे उनसे क्या पढ़ेंगे; पैसा क्या इतनी बड़ी चीज है?

चोरी से रखी गई मूर्तियों को 'रामलला' और जन्म-स्थान मान कर वहां राम का मंदिर बनाने का आदेश देने वाले न्यायधीश नहीं समझ पाए कि वह मंदिर किस कदर कट्टरता का प्रतिष्ठान होगा और आगे पीढ़ियों में कट्टरता पैदा करेगा? निस्संदेह भव्यमंदिर लोगों के आकर्षण का केंद्र रहेगा। बच्चोंयुवाओं और बड़ी उम्र के लोगों के रेले के रेले उसे देखने आएंगे। सबको कहानी सुनाई जाएगी - 'आजादी के बाद के सबसे बड़े राम-मंदिर जनांदोलन' की,अडवाणी की रथयात्रा की, बाबर और उसकी औलादों की और उन्हें मारने के लिए सन्नद्ध 'श्री राम' की! रामकथाओं और रामलीलाओं के अर्थ कट्टरता की दिशा में बदलेंगे। सब कुछ नवउदारवाद के 'महाख्यान' में समाहित हो जाएगा।

अक्तूबर 2010  

एक सिक्के के दो पहलू : मोदी-केजरीवाल

(यह टिप्पणी 2014 के लोकसभा चुनाव के समय की है और हस्तक्षेप.कॉम पर प्रकाशित हुई थीI)

एक सिक्के के दो पहलू : मोदी-केजरीवाल

प्रेम सिंह

यह दुर्भाग्‍यपूर्ण है कि नागरिक समाज के कुछ लोग और संगठन बनारस में ‘आप’ सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल का समर्थन धर्मनिरपेक्षता के नाम पर कर रहे हैंI इधर ‘मोदी-विरोधी’ राजनीतिक पार्टी जनता दल यूनाइटेड ने भी केजरीवाल के समर्थन की घोषणा की हैा यह बिल्‍कुल साफ है कि केजरीवाल को दिया जाने वाला समर्थन वास्‍तविकता में नरेंद्र मोदी का समर्थन हैा केजरीवाल के समर्थन से वाराणसी में मोदी को चुनाव में सीधा फायदा तो होगा ही, नवउदारवादी और सांप्रदायिक शक्तियों के गठजोड़ को भी नई ताकत मिलेगीI कारपोरेट पूंजीवाद ने कांग्रेस का भरपूर इस्‍तेमाल करने के बाद आगे देश के संसाधनों की लूट के लिए नरेंद्र मोदी को अपना मोहरा बनाया हैा मोदी के साथ और मोदी के बाद के लिए कारपोरेट घराने केजरीवाल को आगे बढ़ा रहे हैं, ताकि देश में कारपोरेट विरोध की राजनीति हमेशा के लिए खत्‍म की जा सकेा

जिस तरह कांग्रेस और भाजपा एक सिक्‍के के दो पहलू हैं, वही सच्‍चाई मोदी और केजरीवाल की भी हैा दोनों कारपोरेट पूंजीवाद के सच्‍चे सेवक हैंI आरएसएस की विचारधारा का पूंजीवाद से कभी विरोध नहीं रहा हैा एनजीओ सरगना अरविंद केजरीवाल सीधे कारपोरेट की कोख से पैदा हुए हैंI वे विदेशी धन लेकर एनजीओ की मार्फत लंबे समय से ‘समाज सेवा’ का काम कर रहे हैंI लेकिन उन्‍होंने 1984 के सिख विरोधी दंगों, 1992 में बाबरी मस्जिद ध्‍वंस, 2002 में गुजरात में होने वाले मुसलमानों के राज्‍य प्रायोजित नरसंहार, हाल में मुजफफर नगर में हुए दंगों जैसे सांप्रदायिक कृत्यों का विरोध तो छोडिए, उनकी निंदा तक नहीं की हैा गुजरात के ‘विकास की सच्‍चाई’, जिसे बता कर वे मोदी के विरोध का ढोंग करते हैं, कितने ही विद्वान और आंदोलनकारी काफी पहले वह बता चुके हैंI केजरीवाल के द्वारा 'इंडिया अगेंस्‍ट करप्‍शन' बना कर चलाए गए भ्रष्‍टाचार विरोधी आंदोलन में आरएसएस पूरी तरह शामिल थाI उनके 'गुरु' अण्‍णा हजारे ने सबसे पहले नरेंद्र मोदी की प्रशंसा की थीI रामदेव और रविशंकर जैसे ‘संत’ केजरीवाल के हमजोली थेा आज भी ‘आप’ पार्टी में आरएसएस समेत सांप्रदायिक तत्‍वों की भरमार हैा बनारस में धर्म और राजनीति का जैसा घालमेल नरेंद्र मोदी कर रहे हैं, वैसा ही केजरीवाल कर रहे हैंI

इस सबके बावजूद कुछ धर्मनिरपेक्षतावादी उन्‍हें अपना नेता मान रहे हैं तो इसलिए कि कांग्रेस के जाने पर उन्‍हें एक नया नेता चाहिए जो उनके वर्ग-स्‍वार्थ का कांग्रेस की तरह पोषण करेा राजनीति की तीसरी शक्ति कहे जाने वाली पार्टियों और नेताओं को यह बौद्धिक भद्रलोक पसंद नहीं करताI इनमें से कुछ कम्‍युनिस्‍ट पार्टी का शासन तो चाहते हैं, लेकिन उसकी संभावना उन्‍हें नजर नहीं आतीI साम्‍यवादी क्रांति के लिए संघर्ष भी ये नहीं करना चाहते, या पहले की तरह संस्‍थानों पर कब्‍जा करके क्रांति करना चाहते हैंI लिहाजा, मध्‍यवर्ग के स्‍वार्थ की राजनीति का नया नायक केजरीवाल हैा

Socialist Party (India) Political Resolution


Socialist Party (India)
National Executive Committee Meeting, Nasik (Maharashtra)
6 January 2019

Political Resolution

            The SPI would like to remind the citizens of India that the Indian Constitution is passing through the crisis of a serious threat from the ruling establishment of the country. The present government is not only destroying the basic values of socialism, secularism and democracy embedded in the Constitution, but its leaders are also openly declaring that they are working in the government to make changes in the Constitution. They are openly advocating for a pro-corporate, theocratic and dictatorial India which is against the very nature of the Constitution that ensures a socialist, secular and democratic India. It is not only the Muslim minority but the right to life and dignity of other minorities and vulnerable sections of the society such as dalits, adivasis and women too are under threat. Those who oppose this anti-constitutional design of the government are killed in broad day light and no action is taken against killers.

            Secondly, the Modi government is promoting the private sector at the cost of public sector and diluting the labour laws in favour of industrialists. The Government is determined to dismantle public sector, the basic anchor to a socialist society. The centralization of power in the Prime Minister's Office (PMO) is another example of crushing the constitutional spirit of democracy and decentralization. Now this government is promoting the 'one nation one election' campaign. This idea is against the federal and democratic spirit of the Constitution.

            In such a challenging situation every Indian citizen who believes in the propriety of the Constitution must give a serious thought to the dangerous developments taking place in the country.   The Socialist Party condemns this unconstitutional, inhuman and undemocratic attitude of the government in strongest terms.

The SPI in its National Executive Committee meeting held at Nasik on 6 January 2019 adopted the following resolution :

1. Stop killing citizens in Kashmir; engage them into meaningful political dialogue.

It was a shocking incident at Pulwama in J & K on 16the December 2018. At the site of encounter, security forces opened fire on the on looking crowd killing seven innocent citizens. Everybody knows that there is a great unrest in South Kashmir since the killing of Burhan Wani. Many teenagers give vent to their anger by pelting stones on the security forces. In the vengeful response, the forces showered pellets on the youths that have blinded more than 100 boys and girls. Such retaliatory actions on the part of the security forces against protesting citizens must not take place in a democratic system. The SPI believes in the peaceful mode of protest and advises the protesters in J & K to be adhered to the peaceful means of protest to impress upon their demands. At the same time the party makes a strong demand that the security forces and political leadership at the helms should behave in a democratic and civilized manner and should give up such autocratic actions against its own citizens. The party further suggests that the security forces should focus their attention on guarding the boarders of the country effectively so that the penetration of batches of terrorists into interior places becomes impossible. Instead of making unwarranted political statements, our army Chief should concentrate on sealing the boarders so that no terrorist reaches any place inside. 
           
            The newly appointed Governor, Shri Satya Pal Malik, by arbitrarily dissolving the State Assembly, has further aggravated the political crisis. The three political parties in the state had forged an agreement to form a government. But the Governor blocked that democratic political process. This is deplorable. The SPI demands that the ruling BJP should make sincere efforts to resolve the J & K problem. For this it should desist from making false narratives of nationalism. This government is not even ready to follow the Vajpayee formula of Kashmiriat, Jamuriat and Insaniyat. The Socialist Party suggests that a sizable dose of autonomy is the key to a final solution of the problem. The SPI also calls upon all the countrymen to extend brotherly treatment to the people of Kashmir valley and not nurture hatred and hegemonic tendencies.

2. BJP should give up despotic mentality and honour dignity and validity of the democratic institutions like Supreme Court, CBI, and RBI.

Bypassing the three member committee consisting of the Prime Minister, Chief Justice of India, and leader of Opposition, the PMO has made Nageshwar Rao the Additional Director of the CBI. Resignation of Urjit Patel, former Governor of the RBI has exposed the harmful tactics of Narendra Modi with a view to grab substantial surplus amount of the RBI for luring the voters on the eve of ensuing Lok Sabha elections. The whole world had appreciated the steadfast action of RBI in handling country's monetary system in the face of 2008 economic depression.

Modi government has put even the Supreme Court in an embarrassing situation in the sensitive Rafale case. In the affidavit submitted to the Supreme Court the government had mentioned that the pricing matter of Rafale aircrafts had been examined by the CAG and its report was placed on the table of the Parliament. When Mallikarjun Kharge, Chairman of the PAC, asked for the date on which that was done, the government said that there was some typographical mistake and further that CAG report was not placed on the table of the House. Actually, the Supreme Court had given ‘clean chit’ to the government by relying on that very affidavit. Now the government has requested to modify that order. All this is appalling. Even an average clerk in any government or corporate office takes extra precaution while drafting an affidavit. One wonders whether that was a genuine, unintended mistake or something more? In any case the government stands exposed and condemned on this account.

Overconcentration of power leads to total collapse of national constitutional system. In such a serious crisis posed by the BJP and its allies in the power, the countrymen should teach a lesson to the present power-hungry government in the coming general elections so that no party/government/leader in future should dare to assault the strong pillars of country's polity and economy. 

3. Adopt policies that would ameliorate agricultural distress and generate employment.

Farmers all over the country are agitating and demanding debt relief and proper arrangements in the mandis so that they get remunerative prices for their produce. Policy makers at both at the center and State levels should give up jobless growth development model that imitates rich countries. Instead, we should accord top priority to agriculture and forestry and enhance investment in those sectors which can generate employment in a big way. All political parties and voluntary organizations should prod the elected representatives to switch over to this new development model.

4. Stop pursuing anti-labour policies.

 The workers all over the country will observe strike on 8-9 January 2019  under the auspices of all major trade unions except BMS, the RSS/BJP outfit. The workers will express their strong opposition to the anti-labour policies of the BJP government namely amendment to the Trade Union Act nullifying workers' right to go on strike, Industrial Disputes Act allowing employees to engage labour on fixed period basis instead of permanent, and inserting stringent conditions in registration of trade unions, policy of disinvestment of public sector undertakings, allowing FDI in defence, railways, banking, insurance etc.

5. The SPI reiterates its demand of reservation for women in the Parliament and State Legislative Assemblies.

The Socialist Party calls upon the BJP-led NDA government at the center to give up its anti-labour policies and should talk to the representatives of the trade unions on the issues raised by them. Simultaneously the government should concentrate on controlling prices of diesel, petrol, gas etc. and prevent corporatization of education. 
           
            The SPI again appeals to the opposition parties of the country that they should emphasize the policies, and not the leaders in the 2019 elections. The nature of opposition unity should be such that there is no division of votes against the ruling NDA. The SPI is committed to play a constructive role in this direction.


Tuesday 15 January 2019

प्रतिक्रांति के हमसफर

(यह टिप्पणी 2014 की है. हस्तक्षेप पर प्रकाशित हुई थी. 5 साल बाद देश और दिल्ली में अब फिर चुनाव होंगे. टिप्पणी फिर से इसलिए दी जा रही है कि प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्षता के पराभव की चिंता करने वाले साथी इस बार समझदारी से काम लेंगे.)  


प्रतिक्रांति के हमसफर

प्रेम सिंह

‘‘इस वक्त समूची दुनिया में जो हो रहा हैवह शायद विश्व इतिहास की सबसे बड़ी प्रतिक्रांति है। यह संगठित हैविश्वव्यापी है और समाज तथा जीवन के हर पहलू को बदल देने वाली है। यहां तक कि प्रकृति और प्राणिजगत को प्रभावित करने वाली है। इक्कीसवीं सदी के बाद भी अगर मानव समाज और सभ्यता की चेतना बची रहेगीतो आज के समय के बारे में इसी तरह का जिक्र इतिहास की पुस्तकों में होगा। डंकेल संधि की तारीख इस प्रतिक्रांति की शुरुआत की तारीख मानी जा सकती है।’’

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‘‘प्रतिक्रांति का मतलब पतन या क्षय नहीं है। पतन या क्षय वहां होता हैजहां परिपक्वता आ चुकी है या चोटी तक पहुंचा जा चुका है। सोवियत रूस का पतन हो गयाया हम कह सकते हैं कि आधुनिक सभ्यता का क्षय एक अरसे से शुरू हो गया है। इससे भिन्न प्रतिक्रांति का रूप क्रांति जैसा ही होता हैसिर्फ उसका उद्देश्य उलटा होता है। यह भी संगठित होता है और एक विचारधारा से लैस रहता है और कई मूल्यों और आधारों को उखाड़ फेंकने का काम करता है। इसकी विचारधारा ही ऐसी होती है कि इसका आंदोलन अति संगठित छोटे समूहों के द्वारा चलाया गया अभियान होता है।’’ (विकल्पहीन नहीं है दुनिया’, किशन पटनायकराजकमल प्रकाशनपृ. 172)   

किशन जी का यह कथन फरवरी 1994 का है। तब से दुनिया और भारत में प्रतिक्रांति का पथ उत्तरोत्तर प्रशस्त होता गया है। राजनीति में पिछले तीन-चार सालों में बनी नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल की केंद्रीयता से प्रतिक्रांति की विचारधारा काफी मजबूत स्थिति में पहुंच गई है। गौरतलब है कि दोनों ने लगभग समान प्रचार शैली अपनाकर यह हैसियत हासिल की है, जिसमें मीडिया और धन की अकूत ताकत झोंकी गई है। बहुत-से मार्क्सवादियोंसमाजवादियोंसामाजिक न्यायवादियोंगांधीवादियों और बुद्धिजीवियों ने अरविंद केजरीवाल का साथ देकर या दिल्ली विधानसभा चुनाव में बिना मांगे समर्थन करके इस प्रतिक्रांति को राजनीतिक स्वीकार्यता प्रदान कर दी है। दिल्ली में आप’ की सरकार बनती है या भाजपा कीइससे इस सच्चाई पर फर्क पड़ने नहीं जा रहा है कि भारत की मुख्यधारा राजनीति में प्रतिक्रांति का सच्चा प्रतिपक्ष नहीं बचा है।
केजरीवाल की राजनीति के समर्थक खुद को यह तसल्ली और दूसरों को यह वास्ता देते रहे हैं कि जल्दी ही केजरीवाल को (अपने पक्ष में) ढब कर लिया जाएगा। हुआ उल्टा है। केजरीवाल ने सबको (अपने पक्ष में) ढब कर लिया है। सुना है किरण बेदी के छोटे गांधी’ कामरेडों के लेनिन हैं! प्रकाश करात ने कहा बताते हैं कि केजरीवाल का विरोध करने वाले मार्क्स को नहीं समझते हैं। प्रतिक्रांति इस कदर सिर चढ़ कर बोल रही है कि मार्क्स को भी उसके समर्थन में घसीट लिया गया है। यह परिघटना भारत की प्रगतिशील राजनीति की थकान और विभ्रम को दर्शाती है।

ऊपर दिए गए किशन जी के दो अनुच्छेदों के बीच का अनुच्छेद इस प्रकार है, ‘‘समूची बीसवीं सदी में क्रांति की चर्चा होती रही। क्रांति का एक विशिष्ट अर्थ आम जनता तक पहुंच गया थाक्रांति का मतलब संगठित आंदोलन द्वारा उग्र परिवर्तनजिससे समाज आगे बढ़ेगा और साधारण आदमी का जीवन बेहतर होगाआखिरी आदमी को नजरअंदाज नहीं किया जाएगा। साधारण आदमी का केंद्रीय महत्व और आखिरी आदमी का अधिकार बीसवीं सदी की राजनीति और अर्थनीति पर जितना हावी हुआवैसा कभी नहीं हुआ था।’’

यह लिखते वक्त किशन जी को अंदेशा भी नहीं रहा होगा कि एनजीओ सरगनाओं का गिरोह करोड़पतियों को भी आम आदमी बना देगाउनकी समृद्धी बढ़ाने के लिए गरीबों का वोट खींच लेगाऔर समाजवादी क्रांति का दावा करने वाले नेता व बुद्धिजीवी उसके समर्थन में सन्नद्ध हो जाएंगे! किशन जी ने अपने उसी लेख में यह कहा है कि ''1980 के दशक में हिंदुत्व के आवरण में एक प्रतिक्रांति का अध्याय शुरू हुआ है देश की राजनैतिक संस्कृति को बदलने के लिए। इस वक्त विश्व-स्तर पर जो प्रतिक्रांति की लहर प्रवाहित हैउससे इसका मेल है; ... ।"  हम जानते हैं पूंजीवादी प्रतिक्रांति के पेटे में चलने वाली सांप्रदायिक प्रतिक्रांति के तहत 1992 में बाबरी मस्जिद का ध्वंस कर दिया गया।

किशन जी ने डंकेल समझौते के साथ शुरू होने वाली प्रतिक्रांति के मुकाबले में वैकल्पिक राजनीति की विचारधारा और संघर्ष खड़ा किया था। साथ ही उन्होंने विस्तार से धर्मनिरपेक्षता का घोषणापत्र लिखा। उनके साथ शामिल रहे ज्यादातर लोग आज प्रतिक्रांति के साथ हैं। जाहिर हैवे किशन जी के जीवन काल में उन्हें धोखा देते रहे और उनके बाद उनके जीवन भर के राजनीतिक उद्यम को नष्ट करने में लगे हैं।
ऐसे में ज्यादा कुछ कहने-सुनने को नहीं बचा हैकुछ बिंदु अलबत्ता देखे जा सकते हैं :

(1) मोदी का तिलस्मजिसे तोड़ने के लिए केजरीवाल को अनालोचित समर्थन दिया गया हैवास्तव में कारपोरेट पूंजीवाद का तिलस्म है। मार्क्सवादियोंसमाजवादियोंसामाजिक न्यायवादियोंगांधीवादियों और बुद्धिजीवियों ने केजरीवाल का समर्थन करके उस तिलस्म को दीर्घजीवी बना दिया है।

(2) केजरीवाल की जीत में धर्मनिरपेक्षता की जीत नहीं हैजैसा कि अति वामपंथियों से लेकर तरह-तरह के राजनीतिक निरक्षर जता रहे हैं। मुसलमानों के भय की भित्ति पर जमाई गई धर्मनिरपेक्षता न जाने कितनी बार भहरा कर गिर चुकी है। भारत की धर्मनिरपेक्षता मोदी की जीत के पहले कई बार हार का मुंह देख चुकी है। भारत का विभाजनगांधी की हत्याआजादी के बाद अनेक दंगे, 1984 में सिख नागरिकों का कत्लेआम, 1992 में बाबरी मस्जिद का ध्वंस, 2002 का गुजरात कांड - धर्मनिरपेक्षता की हार के अमिट निशान हैं।

(3) धर्मनिरपेक्षता के दावेदार यह सब जानते हैं। लिहाजाकेजरीवाल के समर्थन के पीछे के मनोविज्ञान को समझने की जरूरत है। इनमें से बहुत-से लोग मोदी के हाथों मिली करारी शिकस्त को पचा नहीं पाए हैं। उनका दृढ़ विश्वास था कि मोदी जैसा शख्स भारत का प्रधानमंत्री नहीं बन सकता। उनका विश्वास टूटा है। खीज मिटाने के लिए वे किसी को भी मोदी को हराता देखना चाहते हैं। केजरीवाल को उनके समर्थन का दूसरा अंतर्निहित कारण घृणा की राजनीति से जुड़ा है। सर्वविदित है कि आरएसएस घृणा की राजनीति करता है। धर्मनिरपेक्षतावादियों में भी संघियों के प्रति तुच्छता से लेकर घृणा तक का भाव रहता है। केजरीवाल की जीत से उनके इस भाव की तुष्टी होती है। तीसरा कारण सरकारी पद-प्रतिष्ठा से जुड़ा है। धर्मनिरपेक्षतावादियों को कांग्रेसी राज में सत्ता की मलाई खाने का चस्का लगा हुआ है। उन्हें पता है कांग्रेस दिल्ली में सत्ता में नहीं आने जा रही है। सीधे भाजपा का न्यौता खाने में उन्हें लाज आती है। दिल्ली राज्य में केजरीवाल की सत्ता होने से विभिन्न निकायों/समितियों में शामिल होने में उन्हें लाज का अनुभव नहीं होगा। हालांकि वे एक भूल करते हैं कि एनजीओ वाले राजनीति में आए हैं तो उनके अपने साथी-सगोती निकायों/समितियों में आएंगे। लिहाजाधर्मनिरपेक्षतावादियों के लिए यहां कांग्रेस जैसी खुली दावत नहीं होने जा रही है। मोदी को हराने के नाम पर किए गए समर्थन को वे प्रतिक्रांति के समर्थन तक खींच कर लाएंगे। देखना होगा तब साथी क्या पैंतरा लेते हैं?  

(4) केजरीवाल को वोट देने वाले दिल्ली के गरीबों से कोई शिकायत नहीं की जा सकती। मीडिया और बुद्धिजीवियों ने आप’ के आर्थिक और गरीब विरोधी विचारधारात्मक स्रोतों की जानकारी उन तक पहुंचने ही नहीं दी। इस मेहनतकश वर्ग को जल्दी ही पता चलेगा कि उनका इस्तेमाल उन्हीं के खिलाफ किया गया है। हालांकि केजरीवाल के दीवाने आदर्शवादी’ नौजवानों को वैसा नादान नहीं कहा जा सकता। प्रतिभावान कहे जाने वाले इन नौजवानों ने प्रतिक्रांति के पदाति की भूमिका बखूबी निभाई है।

(5) दलित पूंजीवाद के पैरोकार देख लेंशूद्रों समेत ज्यादातर सवर्ण नेताप्रशासकविचारकएनआरआई पूंजीवादी प्रतिक्रांति के साथ जुट गए हैं। पूंजीवाद की दौड़ में बराबरी का मुकाम कभी नहीं आता। 

(6) उस अदृश्य एजेंसी का लोहा मानना पड़ेगा जिसने केजरीवाल का यह चुनाव अभियान तैयार किया और चलाया। जनता का सीएम’ कैसे बनता हैयह उस एजेंसी ने बखूबी करके दिखाया है। वह जनता का प्रधान सेवक’ बनाने वाली एजेंसी की टक्कर की ठहरती है।    
अंत में सबक। नई आर्थिक नीतियों के साथ शुरू होने वाली प्रतिक्रांति का लगातार प्रतिरोध हुआ है। अबजबकि सारे भ्रम हट गए हैंक्रांति का संघर्ष निर्णायक जीत की दिशा में तेज होना चाहिए।

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