Tuesday 31 July 2018

दिल्ली में भूखी बच्चियों की मौत : कौन जिम्मेदार?


  
                
प्रेम सिंह

डॉ. प्रेम सिंह, सोशलिस्ट पार्टी (इंडिया) के अध्यक्ष हैं |
देश की राजधानी दिल्ली के मंडावली इलाके में तीन बच्चियों (मानसी 8 साल, शिखा 4 साल, पारो 2 साल) की एक साथ मौत चर्चा, अफसोस, जांच और राजनैतिक पार्टियों/नेताओं के बीच आरोप-प्रत्यारोप का विषय बनी हुई है. तीनों बहनें थीं. उनकी मां बीना के बारे में पता चला कि वह मानसिक रोग से  पीड़ित है, जिसे बच्चियों की मौत के बाद अस्पताल में भरती कराया गया है. बच्चियों की मौत के एवज़ में उसे दिल्ली सरकार की ओर से कुछ नक़द धनराशि भी दी गई है. बच्चियों का पिता मंगल सिंह शराबी बताया गया है. संभ्रांत समाज मज़दूरों के इस दुर्गुण पर सहज ही विश्वास कर उनकी बुरी आर्थिक हालत के लिए जिम्मेदार मान लेता है. हालांकि मंगल सिंह के पुराने जानने वालों के मुताबिक वह मेहनती और निपुण कुक है. पहले एक कैटरिंग सर्विस में नौकरी और बाद में अपनी परांठा और चाय की दुकान में वह अच्छा खाता-कमाता था. उसके साझीदार ने धोखा किया और घाटे के कारण उसे अपनी दुकान बंद करनी पड़ी. नई जगह पर उसने फिर से दुकान ज़माने का प्रयास किया, लेकिन सफलता नहीं मिली. उसके जानकार बताते हैं कि दो-अढ़ाई साल से वह काफी शराब पीने लगा था. उसने रिक्शा चलाना शुरू किया, जिसे किन्हीं लोगो ने छीन या चुरा लिया. बेटियों की मौत के बावजूद वह अभी तक लापता है.

पोस्टमार्टम की रपट में आया है कि तीनों बच्चियां कुपोषण और भूख से मरी हैं. दोबारा अंत्यपरीक्षण करने पर भी वही परिणाम आया. डाक्टरों ने बताया है कि तीनों बच्चियों के पेट में आठ दिन से निवाला नहीं गया था और शरीर पर वसा (फैट) का नामोनिशां नहीं था. डाक्टरों के मुताबिक 'बच्चियों की मौत भयावह और दर्दनाक है'. बच्चियों के हिस्से का निवाला छीनने वाले कौन हैं? और उनके जीवन के लिए जरूरी चर्बी किन लोगों के शरीरों पर चढ़ी हुई है? - यह बताना डाक्टरों का काम नहीं है. उनकी मौत पर चर्चा, अफसोस, जांच और आरोप-प्रत्यारोप में लगे महानुभावों का यह काम है. उनसे कुछ छुपा नहीं है. लेकिन वे इधर-उधर की सारी बातें करेंगे - मसलन, तीनों एक साथ कैसे मर सकती हैं? चौबीस घंटे पहले खाना खाया था तो भूख से कैसे मर सकती हैं? उपराज्यपाल राशन नहीं रोकते तो क्या बच्चियां मरतीं? पिता ने जो दवा पानी में मिला कर दी थी, मौत उसका परिणाम तो नहीं है? यानी शराबी पिता बच्चियों को मार कर फरार तो नहीं हो गया है ...? - लेकिन सच्चाई नहीं बताएंगे.

यह इलाका दिल्ली के उपमुख्यमंत्री, जिनके पास महिला एवं बाल विकास मंत्रालय भी है, का क्षेत्र है. इस मायने में नहीं कि उन्होंने यहां लम्बे अरसे तक कोई राजनीतिक या सामाजिक काम किया था. वे यहां से पिछली बार विधायक का चुनाव जीते थे. अपने चुनाव क्षेत्र में हुई तीन बच्चियों की मौत को उन्होंने व्यवस्था की असफलता बताया है. उनके मुताबिक गरीबों के लिए योजनाओं की कमी नहीं है, उन बच्चियों तक योजनाओं का फायदा नहीं पहुंच पाया. क्यों नहीं पहुंच पाया, व्यवस्था की इस असफलता की जांच कराने का आदेश उन्होंने दिया है. उपमुख्यमंत्री, मुख्यमंत्री, उनकी सरकार या उनके समर्थक यह कदापि स्वीकार नहीं करेंगे कि बच्चियों की मौत व्यवस्था की असफलता का नतीज़ा नहीं, सीधे गलत व्यवस्था का नतीज़ा है; कि यह नवउदारवादी व्यवस्था ही गलत है, जिसे भारत का राजनीतिक और बुद्धिजीवी वर्ग पिछले तीन दशकों से चला रहा है. सभी को पता है बड़े कारपोरेट घरानों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हित में चलाई जा रही नवउदारवादी व्यवस्था संवैधानिक कसौटी पर अवैध ठहरती है. लेकिन कारपोरेट घरानों के हित-साधन में इस व्यवस्था को चलाने और चलाने वालों का समर्थन कर ने वालों का हित बखूबी सध जाता है.

यह अकारण नहीं है कि देश की 73 प्रतिशत दौलत एक प्रतिशत लोगों के पास इकठ्ठा हो गई है. इन एक प्रतिशत लोगों को सरकारों, उन्हें चलाने वाली राजनीतिक पार्टियों और बुद्धिजीवियों का तिहरा सुरक्षा घेरा प्राप्त है. वे चाहें तो देश में रह कर मेहनतकश जनता और उनके बच्चों का खून चूस सकते हैं, चाहें तो विदेश भाग जा सकते है. यह तिहरा घेरा देश-परदेश दोनों जगह उनकी सुरक्षा की गारंटी करता है. खुद प्रधानमंत्री उनके बचाव में कहते हैं कि वे 'चोर-लुटेरे नहीं हैं'. प्रधानमंत्री के कथन का निहितार्थ है कि नवउदारवाद के नाम पर देश के समस्त संसाधनों और श्रम, शिक्षा से लेकर रक्षा तक को कारपोरेट घरानों को बेचने वाला राजनीतिक और बुद्धिजीवी वर्ग भी कोई चोर-लुटेरा नहीं हैं! नवउदारवाद के पैरोकार ही वे लोग हैं, जिन्होंने मानसी, शिखा, पारो जैसी करोड़ों बच्चियों के पेट का निवाला और शरीर का वसा छीना हुआ है.   

नवउदारवाद में अर्थव्यवस्था (इकॉनमी) पूरी आबादी के लिए नहीं होती. वह मूलत: कारपोरेट घरानों और उस तिहरे घेरे में शामिल लोगों के लिए होती है. बाकी बची अधिकांश आबादी के लिए कई तरह की योजनाएं चलाई जाती हैं. ये योजनायें प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री एवं सत्तारूढ़ दलों के प्रतीक पुरुषों के नाम पर होती हैं. वर्तमान केंद्र सरकार की इस तरह की योजनाओं की एक लंबी सूची है. एक तरफ ये योजनाएं विज्ञापन के ज़रिये नेताओं और सरकार की छवि चमकने के काम आती हैं, दूसरी तरफ इन योजनाओं के लिए आबंटित धन-राशि का बड़ा हिस्सा सीधे अर्थव्यवस्था से लाभान्वित लोग हड़प जाते हैं. वैसी ही आंगनवाड़ी अथवा स्कूल में भोजन व वर्दी-किताबों के लिए कुछ पैसा देने जैसी योजनाओं का ज़िक्र उपमुख्यमंत्री कर रहे हैं. वे मान कर चल रहे हैं कि नवउदारवादी व्यवस्था के तहत ये योजनाएं बच्चियों के अभी और भविष्य के जीवन के लिए 'रामबाण' थीं. कुछ भ्रष्ट तत्वों, जिनमें उपराज्यपाल भी शामिल हो सकते हैं, ने उन रामबाण योजनाओं का लाभ बच्चियों तक नहीं पहुंचने दिया और एक परिपूर्ण व्यवस्था पर असफलता/नाकामी का दाग लगा दिया.

नवउदारवादी व्यवस्था लागू होने के बाद से देश में बड़े पैमाने पर आबादी का विस्थापन और बाह्यीकरण (एक्सक्लूशन) हुआ है. देहात और कस्बों से उखड़े लोग बड़े शहरों, महानगरों में दिन-रात काम करने, सिर छुपाने, बच्चों को पढ़ाने, दावा-दारू जुटाने की जद्दोजहद में भिड़े रहते हैं. (मंगल सिंह भी पश्चिम बंगाल से दिल्ली आकर करीब 15 साल से अपने परिवार के जीवन की जड़ें ज़माने की जद्दोजहद कर रहा था.) जो लोग गांव-कस्बों-छोटे शहरों में रह गए हैं, वे अपने को (विकास की दौड़ में) पीछे छूटा हुआ मान कर पराजित मानसिकता में जीते हैं. नवउदारवादी अर्थव्यवस्था ने भारत के सामाजिक और राजनीतिक पटल को अंदर-बाहर काफी बदल दिया है. गांव-कस्बों-छोटे शहरों में छूट गई और बड़े शहरों, महानगरों में पहुंची आबादी की अपनी एक अलग दुनिया और समस्याएं हैं. अपने को विकल्पहीन जताने वाली नवउदारवादी व्यवस्था इस बह्यीकृत दुनिया का समायोजन करने की कोशिश करती है. इसके दो मुख्य कारण हैं : एक, लोकतंत्र में इस दुनिया में रहने वालों के वोट का महत्व है. चुनाव इसी दुनिया के समर्थन से जीते जा सकते हैं. दूसरे, नवउदारवादियों की 'सोने की लंका' को इन 'भालू-वानरों' से बचा कर रखना है. नवउदारवाद के कर्ताओं ने इस विशाल आबादी की समस्याओं के समाधान के नाम पर सरकारी योजनाओं के समानांतर एक विशाल एनजीओ तंत्र विकसित किया है. यह दोहरा तंत्र समस्याओं के समाधान का झांसा बनाए रखने में कामयाब रहता है.
  
यह सच्चाई विद्वानों और राजनैतिक एक्टिविस्टों के अध्ययनों पर आधारित है कि पूरी दुनिया में फैला एनजीओ नेटवर्क नवउदारवादी व्यवस्था का अविभाज्य हिस्सा है. समाजवादी विचारधारा, यहां तक कि उदार लोकतंत्र (लिबरल डेमोक्रेसी) पर आधारित कल्याणकारी राज्य की अवधारणा की चुनौती ख़त्म करने में एनजीओ तंत्र ने बड़ी भूमिका निभाई है. एनजीओ तंत्र इस प्रचार का भी मज़बूत वाहक बना है कि नवउदारवादी व्यवस्था विकल्पहीन है. दिल्ली में सरकार चलाने वाली नवेली आम आदमी पार्टी और उसके मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री सीधे नवउदारवाद की कोख से पैदा हुए हैं. नेता बनने के पहले वे यूरोप अमेरिका की बड़ी-बड़ी दानदाता संस्थाओं से मोटा धन लेकर एनजीओ  चलाते थे और कभी मनमोहन सिंह, कभी लालकृष्ण अडवाणी, कभी सोनिया गांधी से 'स्वराज' मांगते थे. उनका 'ज़मीनी' संघर्ष केवल 'यूथ फॉर इक्वेलिटी' संगठन के साथ मिल कर दाखिले और नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था ख़त्म करने की मांग के रूप में देखने में आया था.

करीब दो दशक के नवउदारवादी दौर के बाद भारतीय राजनीति में ऐसा समय आया जब सरकारें नवउदारवादी व्यवस्था के वैश्विक प्रतिष्ठानों - विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व व्यापार संगठन, विश्व आर्थिक मंच आदि - के लिए एनजीओ सरीखा काम करने लगीं. ऐसे में लम्बे समय से राजनीति की परिधि पर चक्कर काटने वाले एनजीओ कर्मियों को राजनीति में आना ही था. भारत शायद पहला देश है, जहां एनजीओबाजों का राजनीति में प्रवेश सबसे पहले और धूमधाम से हुआ है. नवउदारवादी व्यवस्था को इससे दोहरी मज़बूती मिली है. ये लोग खुल कर कहते हैं, राजनीति में विचारधारा की ज़रुरत नहीं होती. मजेदारी यह है कि सबसे ज्यादा विचारधारा की बात करने वाले कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट इनके सबसे बड़े समर्थक हैं. शुरू में ही इन्होंने संविधान की ज़रुरत को भी नकारा था, तो प्रभात पटनायक और एसपी शुक्ला जैसे विद्वानों के कान खड़े हुए थे. मुख्यमंत्री बनने पर उद्योगपतियों से पहली मुलाकात में ही केजरीवाल ने कहा था कि वे पूंजीवाद के विरोधी नहीं हैं, क्रोनी पूंजीवाद के विरोधी हैं. यहां पहली बात यह कि राजनीति में विचारधारा के निषेध की वकालत करने वाले वास्तव में नवउदारवादी विचारधारा के स्वाभाविक सेवक होते हैं. दूसरी बात यह कि चाहे पहले का उपनिवेशवादी दौर रहा हो या यह नवसाम्राज्यवादी दौर - भारत में पूंजीवाद क्रोनी ही रहा है. यह नहीं माना जा सकता कि भारत के कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट यह नहीं जानते हों. दरअसल, सरकारी कम्युनिस्ट और सरकारी सोशलिस्ट विचारधारा की लड़ाई नहीं लड़ना चाहते. वे सत्ता की लड़ाई के सिपाही हैं. इसीलिए मंडावली से लेकर मुजफ्फरपुर तक नवउदारवादी व्यवस्था द्वारा बाहर फेंक दी गईं भारत माता की बच्चियों के लिए निकट भविष्य में न्याय की आशा नहीं दिखती.

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