प्रेम सिंह

सभी जानते हैं खुदाई खिदमतगार और सोशलिस्ट पार्टी गाँधी की अहिंसक कार्यप्रणाली में अटूट विश्वास करने वाले संगठन हैं. राजघाट, जहाँ गाँधी की समाधि है, और उपवास स्थल पर बजने वाले गाँधी के प्रिय भजन 'वैष्णव जन तो तैने कहिये जो पीर पराई जाने रे' के बरक्स हथियारबंद पुलिस का इस कदर भारी इंतज़ाम! यह हमें क्या हो गया है? क्या हम सचमुच गाँधी का देश हैं; होना चाहते है; या हम कभी थे ही नहीं?
मुझे ऐसा लगता है हम कभी नहीं थे. परसों एक 'गांधीवादी' मित्र को कल के उपवास की सूचना भेजी तो उनका तुरंत जवाब आया कि यह एक अप्रासंगिक विषय है. ज़ाहिर है उनकी नज़र में उस विषय पर कुछ करने की ज़रुरत नहीं है. सार्वजनिक जीवन में काम करते हुए बार-बार अहसास होता है कि हमारे नागरिक समाज में संवेदनहीनता का रेतीला विस्तार भयानक स्तर तक हो गया है! यह 'सुधारक' नागरिक समाज अपने सुधार के अलावा कुछ भी नहीं देख पाता है. आप देख सकते हैं सोनिया के सेकुलर सिपाही, जो पीछे उन्हें छोड़ कर केजरीवाल के कारिंदे बन गए थे, अपनी मांदों से फिर निकल कर बाहर आ रहे हैं. देखिएगा, 2019 का चुनाव आते-आते ये पहले की तरह इतनी जोर से दहाड़ेंगे कि 10 जनपथ तक उनकी आवाज़ पहुँच जाए.
इन्हें नवउदारवादी लूट में अपना हिस्सा बरकरार रखना है. अगर 2019 में मोदी फिर जीत जाते हैं तो ये खुलेआम आरएसएस को कहेंगे हम बाँट कर खाने को तैयार हैं. आरएसएस यही चाहता था और आगे भी चाहेगा. अन्दरखाने अभी भी दोनों के बीच लेन-देन चलता है.
देश के साधारण लोगों को सुधार के ठेकेदार नागरिक समाज से जितना जल्दी मुक्ति मिले, उतना ही जल्दी जनता के साथ जनता के बीच से नवसाम्राज्यवाद का विकल्प बनाने की सहूलियत होगी.
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